सुप्रतिष्ठित कवि और लेखक।विविध विधाओं में लगभग ८० पुस्तकें प्रकाशित।साहित्य अकादेमी का बालसाहित्य पुरस्कार।

 

तानाशाह

वह मेरे हिस्से का तानाशाह है
हँसता है जो गुस्से की बात पर भी

दिखता है विनम्र
कभी-कभी दयनीय भी
बहा-बहा कर आंखें

मैं अकसर चौंकता हूँ
उसकी अदाकारी पर
डर मुझे भी लगता है
जो टपक रहा होता है
उसकी अदृश्य बगलों से

वह चतुर है
आपसे आपके आदमी होने का
विशेषण लूटने में

वह चतुर है
धीरे-धीरे, छीन कर आपकी
युगों से अर्जित स्थानीयता
आपको पराया कर देने में

वह चतुर है
अपनी लड़ाई को
आपकी लड़ाई में
तब्दील कर देने में

वह नहीं धमकाता आपको
बस आपको
आपसे ही काट देता है
आपके ईश्वर को भी
बांट देता है
जब तक आप समझें
वह आपकी समझ से
बाहर हो जाता है
वह चतुर है
आपकी मूर्खता को
आपकी समझदारी बता
पुरस्कार देने में

मेरी तो फिलहाल
इतनी भर चिंता है
कि कब तक नहीं ऊबते आप
पुरस्कार बटोरने से

कब तक नहीं ऊबते
मेरे हिस्से के तानाशाह की
जय-जय बोलने से।

मूढ़ मति पर बजर गिरे

आज अचानक मिली वह चंपा
चपर-चपर जो बतिआई थी तिरलोचन से
बचपन में अपने
नहीं चीह्नती थी जो अक्षर

वही कि जिसने
पढ़-लिखने से ताल्लुक रखते
त्रिलोचन के सब तर्कों के पर कुतरे थे
वही कि जिसने खासतौर पर
होने वाले अपने बालम को
सदा पास रखने की खातिर
अद्भुत साहस दिखलाया था
चिट्ठी-पतरी लिख-पढ़ने से
मिल जाए मुक्ति चाहा था उसने
आज अचानक मिली वह चंपा
जर्जर, फटी पुरानी रद्दी जैसी
बालम उसका
सचमुच-सचमुच पास नहीं था
मैंने पहचाना तो बोली
भैया क्या तुम पढ़े लिखे हो?
हाँ हूँ तो
कहा था मैंने
तभी न भैया… कहते-कहते
गीली आंखों को पोंछ लिया था
लगा कि मेरी
सगी बहन जैसे रोई थी
मैं बोला पर चंपा
क्या सचमुच
बाबा गांधी का मंत्र
कहा कवि त्रिलोचन का… पढ़ने-लिखने का…
नहीं था माना

टुकर-टुकर देखा चंपा ने
फिर बोली धीरज-से भरकर
भैया यूं तो
कब मिलते सबको तिरलोचन
वह भी भैया ठीक बखत पर
उस पर
कब आते बुद्धि पर सबकी
फूल-फल हैं सूझ-बूझ के…
खींच ली फिर सांस कहकर यह

समझा मैं
कहा कि चंपा
अब भी इतना क्या बिगड़ा है
अगर ठान लो अब भी मन में
तो जल्दी ही तुम देखोगी
साफ-सफेद सूनी आंखों में
ज्योतित होते अक्षर अक्षर
और तुम्हारी खाली- खाली उंगलियों से
देखोगी तुम झरती बातें फूलों जैसी
झर झर झर झर झर
सच भैया
चमक उठी चंपा की आंखें
बहुत दिनों से बंद पड़ी थीं
खुल गईं हों जैसे पांखें
हां चंपा
पढ़ना-लिखना
और नया नित खूब जानना
नहीं देखता मुंह उम्र का

हां भैया
तुम सच कहते हो
अब न मति को फिरने दूंगी
मूढ़ मति पर बजर गिरे।

(त्रिलोचन की प्रसिद्ध कविता ‘चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’ से प्रेरित होकर)

जीवित हूँ मैं

जीवित हूँ मैं
बच्चों की नम यादों में
अपनों के थमे हुए शब्दों में
दोस्तों के संभलते आघात में
दुश्मनों की बदलती
कुछ झुकी भावनाओं में
पुरखों के अदृश्य आशीर्वादों में
बस खोजना होगा
देखना होगा जाकर
तमाम तरोताजा पौधों को
उनके यौवन को
सींचता रहा हूँ जिन्हें मैं
करता रहा हूँ साझा
उनके हरे-भरे, कुछ-कुछ रंग भरे चित्र
आभासी दुनिया में

मैं तो जीवित उन राहों में भी हूँ
जिन्होंने छुवन दी है मेरे थके
लेकिन गतिशील पांवों को
वे तमाम शब्द
जिन्हें लिखा है मैंने, रचा है जिन्हें
और बोला भी है बोलियों की तरह
टटोल कर तो देखो उन्हें
साक्षी हैं वे मेरे
मेरे जीवित होने के
जरा उलट-पुलट कर देखो
थोड़ा धैर्य का प्रकाश फैलाए
मिलूंगा मैं जीवित
उन तमाम अपेक्षाओं में
जो रही हैं
किसी न किसी को मुझसे
मिलूंगा मैं छिपा हुआ
माथे की उन तमाम सिलवटों में
जिन्होंने भूले से भी किया है प्यार
किसी न किसी मोड़ पर

आओ
और नेस्तनाबूद कर दो
मेरी मृत्यु के तमाम भ्रम-जालों को
मैं जीवित हूँ
और जीवित है मुझमें वह सब
जिसे मैंने जिया है।

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