नवगीत संग्रह – कबतक सूरजमुखी बनें  हम’।  संप्रति-अध्यापन व स्वतंत्र लेखन।

सभ्य कठपुतली

यह चिल्लाने का नहीं
चुपचाप डिजिटल होने का समय है
कहती है जामुन के पेड़ पर
कुछ कुतरते हुए गिलहरी

गलत उच्चारण पर टोकती है
दसवीं पास पत्नी
अपने प्रोफ़ेसर पति को रसोईघर से

काम वाली बाइयां सीख रही हैं
ऑनलाइन कंप्यूटर
भरेंगी वे भी आवेदन पत्र

बच्चे पढ़ते-पढ़ते
सीख रहे हैं हिडेन मैसेज भेजने की कला
अपने मित्रों से

घायल वक्त जुटा रहा है कलपुरजे
करने को असेंबल रोबोट
जल्द ही आएंगे जमीनी तौर पर
एक नहीं, छोटे-बड़े कई-कई किस्म के रोबोट
सभी के लिए

बीवियां बिना रूठे सीख रही हैं
अपनी बात ढंग से कहना
उन्हें डर है
अगर वे चली गईं रूठकर मायके
तो घर में आ जाएगी प्यारी-सी रोबोटिक बीवी

जिसमें भरा होगा कूट-कूटकर सेवाभाव
रोबोटिक बीवी जानती होंगी
आम को आम ही नहीं
आम को इमली भी कहना पति के अनुसार

मोबाइल में सिमटते जाएंगे
डॉक्टर, टीचर औऱ परचूनी वाले
कहता है खिड़की से झांकता हुआ
टुकड़ा भर आकाश

आदमी बनता जाएगा
इलेक्ट्रोनिक जिन्न के हाथों की
सभ्य कठपुतली
वक्त भूलता जाएगा खुलकर हँसना और रोना
आने वाले तकनीकी समय में।

रेत होना

नहीं दिखाई पड़ती है
हँसिया, कटारी या तलवार
दरिया के हाथ में

फिर भी
वह काटता आ रहा है
लगातार पत्थरों को
महीन-महीन सदियों से

और दर्द के आग़ोश में
रहकर भी
नहीं निकलती है चीख़
पत्थरों के होंठों से भूलकर भी
क्या रेत होना
इतना आसान होता है।

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