युवा कवि। शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय। शिक्षा की छमाही पत्रिका ‘शैक्षिक दखल’ के संपादक।
1-नहीं बदले
कुछ रसोइयों में
नहीं लानी पड़ती है अब
मटखान से मिट्टी
लिपाई नहीं अब वहां पोछाई होने लगी है
धुआं नहीं रह गया अब उनकी पहचान
लकड़ी की जगह गैस आ गई है
माचिस की जगह लाइटर की चलने लगी है
बैठकर नहीं, अब खड़े-खड़े खाना बनने लगा है
मिक्सी बन गई सिल-लोड़े का विकल्प
फ्रिज ने ले ली अब भकार की जगह
मौड्यूलर किचन ने बदल दी है उनकी शान
प्रकृति से जीवन तक
बदल गया है बहुत कुछ
लेकिन रसोइयों में
नहीं बदले हैं अब तक
सदियों से
रसोई को सजाने-संवारनेवाले वे दो हाथ।
2-स्वाद
इन दिनों रसोई के एक कोने में पड़े-पड़े
ऊंघता रहता है सिल
दीवार से पीठ टिकाए
कब्र में पांव लटकाए बूढ़े की तरह
और पैरों के पास उसके
लोढ़ा जाड़े से ठिठुरती बिल्ली सा
सुनता रहता है कि
भटिया, बडे, डूबके तो
सिल के पिसे ही स्वादिष्ट होते हैं
स्वाद तो सिल पर पिसे का ही होता है
मिक्सी की एक जोर की घरघराहट में
जल्दी बिला जाते हैं ये शब्द
उदास आंखों से
ताकता रहता है वह
उस आवाज की ओर
और कांप जाता है भीतर तक।
3-पहचानना
माफ करना
मैं किसी को उसके कपड़ों से
उसके भोजन से
उसकी भाषा से
उसकी जाति से
उसके धर्म से
नहीं पहचान पाता हूँ
क्योंकि मैं इंसान को
पहचानना चाहता हूँ।
संपर्क: शिव कॉलोनी, पियाना, पो.ओ.- डिग्री कॉलेज, पिथौरागढ़ उत्तराखंड, 262502 मो.9411707470
Aapki sabhi kavitayein achchhi hain sir. atit aur wartman ka dwandh hai aapki kavitaoon mein. Bahut khub sir.
(नहीं बदले, स्वाद) के संदर्भ में – मुझे लगता है कि
ऐसी कविता कोई पुरुष ही लिख सकता है महिला नही ।