दलित युवा कवि। दो काव्य संग्रह ‘बीमार मानस का गेह’ और ‘विभीषण का दुःख’।

1-यक्षिणी

यक्षिणी को यदि जुबान होती
और उसे गढ़नेवाले मर्दों से
हिसाब लेने का अधिकार
तो सोचो
आज के रीति-मानस कवियो!
तेरा क्या हाल होता?

2-वर्णभेद

चुप्पी सवर्ण है गुस्सा दलित!
चुप्पी का गुस्से के ऊपर है
हमलावर होने का
एक इतिहास!
जीतती रही है सतत चुप्पी
चुप्पी जननी है जबकि गुस्से की
जननी का जीतना
और हारना संतान का
एक द्वंद्वात्मक संबंध सिरजता है
एक अचरज भरी पहेली है यह
कबीर की उलटबांसियों से भी
अधिक उलझनकारी
खुसरो की पहेलियों से भी
ज़्यादा अचरजकारी!

3-चांद से चंद वार्तालाप

चांद!
सूरज ने तुम्हें सोलह कलाएं दीं
धरती के लिए
जैसे भारत की धरती के मनुपुत्रों ने
छल-बल किए समस्त
दलितों के विरुद्ध अकड़ने के लिए
चांद!
तेरी चांदनी
कवियों का रचना-उपजीव्य है
उपमान है सुंदरता का
लेकिन गहरा गड्ढा बदन हो तुम
भीतर से बदरंग विषैले
जैसे मनुपुत्र होते हैं उजियारे
मगर ऊपर-ऊपर से ही
चांद!
न तेरा काला अपना
न तेरा उजला अपना
न तेरा चटख अपना
न मटमैला अपना
अपने साबुत रंग के सिवा
तुझपर जो रंग चढ़ा है
थोड़ा वह नीचे की धरती का है
और बकिये सब
ऊपर के सूरज का किया धरा है
चांद!
जग में वैसे न कुछ नीचे
न ही ऊपर होता है
धरा भी सापेक्ष वैसे ही
हमारा सब कुछ नीचे-ऊपर है
जात का सब ऊपर-नीचे
जैसे मनु विधान का किया धरा है
चांद!
तुमसे भरते हैं मुसलमान
अपने में धर्म-प्राण
जैसे सूरज से पा लेते हैं हिंदू
सगरे धर्मविकारी खर-पात
चांद!
तुम बच्चों के हो मामा
आश्वासन पाने का सामान
लेकिन तुझको लेकर क्यों
हो जाते बड़े इतने नादान?

संपर्क: प्रकाशन शाखा, बिहार विधान परिषद्, पटना/ मो.7903360047