युवा लेखिका। अद्यतन उपन्यास ‘प्रेम आखेट’। संप्रति : स्वतंत्र लेखन।
उन्होंने व्याकुल होकर अपनी दृष्टि दूर तक डाली। कोई परछाईं भी कहीं उनको न दिखाई दी, वे बेचैन हो उठे। घर के मुख्य द्वार की दाईं तरफ़ दो प्लास्टिक की कुर्सियों में से एक पर वे बैठे थे। जबकि दूसरी खाली थी। उस पर बैठा व्यक्ति अचानक उनको अकेला छोड़कर कहीं चला गया था। ये कहकर कि ‘बस थोड़ी देर का ही काम है’ वे अवाक से उसे जाते देखते रहे थे।
इसके बाद वे कुछ देर निर्विकार भाव से खाली हुई कुर्सी को देखते रहे, फिर कुछ सोचते हुए कुर्सी अपने पास सरका ली।
ग्यारह घरों की कतार में ठीक बीचोंबीच उनका घर था। उस कतार के ठीक सामने खड़ा, कभी लोगों से खचाखच भरा, किंतु अब पूरी तरह वीरान और उजाड़, बीएसएनल का टेलीफोन एक्स्चेंज ऑफिस था। इसका मुख्य गेट उन घरों के बिलकुल विपरीत था। घरों के सामने सात फुट ऊंची दीवार आती थी। इस दीवार से लगी 16 बाय 18 की खाली पट्टी पर सभी लोगों ने अच्छे-खासे बगीचे बना लिए थे। उनमें अमरूद, अनार, नींबू, कटहल, आम जैसे फलों वाले वृक्षों के साथ रंग-बिरंगे फूलों के पौधे थे। वे ऑफिसरों के घर थे, इसलिए वह लाइन पूरी तरह शांत थी और अटपटी हलचलों से मुक्त थी। सब एक दूसरे से हाय हैलो तो रखते थे, किन्हीं अवसरों पर हलके-फुलके हँसी-मज़ाक भी हो जाते थे। पर सामान्यतः किसी को किसी से मतलब न था। जैसा अक्सर मोहल्लों और कस्बों में होता है। यहां अक्सर वीराना-सा ही पसरा रहता था।
इन बड़े घरों में रहने को कई-कई लोग साथ रहते थे। रिश्तेदार भी आते-जाते रहते थे। पर क्या मज़ाल जो एक हँसी की कोई बड़ी गूंज सुनाई दे जाए या कि कोई स्वर ही तेज-सा। कई बार लगता गांव से भागकर आए ये लोग अपराधी हैं जो इन कोठरों में बिना आहट छुपकर बैठ गए हैं। वे अकेले थे जो कुर्सी निकालकर बाहर बैठ जाते थे। या बगीचे में अपने हाथ से पेड़-पौधों में पानी देते थे। बाकी तो सबने माली लगाए हुए थे।
आज भी सब ओर वीराना- सा ही पसरा था।
शाम के पांच बजे थे। पतझड़ का मौसम था। उनको बहुत दिनों से लग रहा था पतझड़ अब कहीं जाता नहीं है। वह उनके आस-पास ठहर गया है। इस मौसम से कई बार वे घबरा जाते थे। आज भी मन कुछ ऐसा ही हो रहा था। तीस पैंतीस मिनट में कोई पचास बार इधर से उधर, उधर से इधर, गली के दोनों छोर देख चुके थे। किंतु वह नहीं दिखा जिसकी उनकी आंखों को दरकार थी।
इस दौरान जहां-जहां बात करके दिल बहलाने की तनिक भी संभावना थी वहां-वहां फोन भी लगाया। उससे कुछेक क्षण बात भी हुई। किंतु, किसी के पास इस व्यस्ततम दौर में इतनी फुरसत नहीं थी कि पांच-सात मिनट से अधिक कोई उनसे बात कर पाता। वे पूरी सावधानी से खाली कुर्सी पर हाथ फिराते रहते। मानो, जो वहां है नहीं, उसकी अनुभूति उन्हें होती रहे।
जब उनकी बेचैनी अधिक बढ़ गई तो वे कुर्सी से उठ खड़े हुए और सामने बगीचे में अमरूद के पेड़ के निकट जाकर खड़े हो गए। विगत पंद्रह वर्षों से दिन ब दिन सुन्न होती जाती उनकी एड़ियां, पाँच वर्ष पूर्व पूरी तरह सुन्न हो चुकी थीं, मगर पंजों के बल वे बिना किसी दिक्कत के चल लेते थे।
उन्होंने एक बार पुनः गली के दोनों तरफ बारी बारी देखा, आंखों में उदासी के भाव उतर आए। उन्होंने अमरूद के पेड़ को दोनों हाथों से मजबूती से पकड़ लिया और पेड़ की एक-एक टहनी को देखते हुए उन्होंने दोबारा वही क्रिया दोहराई। अब भी वह कहीं नहीं था, जिसकी चाहत उन्हें थी।
उन्होंने एक उदास लंबी सांस ली और छोड़ी। एक दृष्टि पड़ोस के घर पर डाली और अचानक उन्होंने पेड़ को पूरी शक्ति के साथ हिलाना शुरू कर दिया। परिणामतः देखते ही देखते पेड़ के सैंकड़ों पीले पत्ते हारे हुए योद्धा से जमीन पर गिर पड़े। वे पीले पत्ते, जिनका एक निश्चित समय पर गिरना तय था, वे अपने अभिभावक से बिछड़ने से पहले जो एक-एक पल में सदियां जीना चाह रहे थे, जिनमें थोड़ा जीवन शेष था, किसी उद्वेलित मानसिक अवस्था के कारण एक झटके में बिछड़ गए थे।
उन्होंने एक क्षण, निराश बेचैन होकर उस व्यक्ति को ठहरकर देखा, जिसने उनका असमय शिकार किया था। हवा का एक हल्का झोंका, पत्तों को यहां से वहां करता उन्हें, उनके बचे न रहने को साबित कर गया। फिर उस व्यक्ति ने वहां रखा झाड़ू वह धीरे से उठाया और बिना झुके वह उन पत्तों को सकेरने लगा। इतने आराम से कि पत्ते सकेरते वे गली के दोनों ओर आराम से देख सकें। दो मिनट का काम उन्होंने बीस मिनट में किया। और टेक लगाकर दीवार की, वे खड़े हो गए। उसकी दाईं ओर उठी दृष्टि में चमक थी और देह में जोर का कंपन्न। झाड़ू को यथास्थान रख, वह अपने पंजों के बल तेजी से कुर्सियों की ओर लपका। होंठों पर खिली मुस्कान, कुर्सी पर बैठते ही बच्चों की-सी किलकारियों में बदल गई। लौटकर आया व्यक्ति उनकी पत्नी विमला देवी थीं।
सच है! बुढ़ापे में सब बच्चे हो जाते हैं।
ये उनका हर बार काम था। जैसे ही विमला जी किसी काम के लिए बाहर निकलतीं, वे उसी पल से उनका इंतजार शुरू कर देते। बिना सोचे कि उस जगह जाने पर उनको कितना समय लगेगा और लौटने में कितना। उनकी समझ इस मामले में काम नहीं करती थी। यदि विमला जी दस मिनट से अधिक का समय बाथरूम में लगा लेती तो उनके निकलने तक, बाथरूम से कमरे तक के, वे दो–चार चक्कर तो लगा ही देते थे।
इस दौरान उनका पूरा ध्यान अंदर की क्रियाकलापों से उत्पन्न ध्वनियों पर रहता। थोड़ी भी ख़ामोशी उधर दिखती, वे घबराकर शोर मचा देते थे, ‘बिमल! बिमल!’
‘क्या है! क्या मुसीबत आई है? ढंग से नहाने भी नहीं देते’, उधर से मिली झिड़की पर वे खुश ही होते और कहते, ‘ऐसे ही पूछ रहा था, नहा ले! नहा ले!’ वे सावधानी से उधर की सभी आहटों, ध्वनियों पर कान लगाए रहते।
अगर विमला जी कहीं चली जाएं तो… उनकी स्थिति ऐसी ही हो जाती है जैसे आज।
नब्बे की आयु के दिलावर सिंह पहले ऐसे नहीं थे। जवानी के दिनों में उनके जैसा पहलवान दूर-दूर तक न था। दिल, दिमाग और देह से मजबूत दिलावर सिंह फ़ौज में भर्ती होकर जब गांव में पहुंचे थे तो कोई ऐसा न था जिसने उनकी फ़ौजी वर्दी से रश्क न किया हो। उन्होंने भाभी की छोटी बहन विमला से प्रेम विवाह किया। यह उनसे पंद्रह वर्ष छोटी थी। मनचाहा पाकर उनका संसार खुशियों से भर गया। कुछ दिन दोनों साथ रहे, मगर बच्चों के होने की बारी आई तो वे पत्नी को गांव में माता-पिता के पास छोड़ गए। बच्चे हुए तो, बच्चे एक स्थान पर रहकर ढंग से पढ़ाई करें और पत्नी किसी नई पोस्टिंग पर परेशान न हो, इसके लिए उन्होंने दिल्ली में अपने भाई-भाभी के घर के पास ही बीवी-बच्चों के लिए घर बनवा दिया। मगर उनके जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा बिना परिवार के अकेले बीता।
जब बच्चे छोटे थे और वे छुट्टियों में घर आया करते, तो पूरा परिवार खुशी से झूम उठता था। और उनके ड्यूटी पर वापस लौटने पर तीनों बच्चे रो पड़ते थे। पत्नी भी रोती थी। फिर धीरे-धीरे समय ने करवट बदली, उनके आने से सब प्रसन्न तो होते। पर उनके लौटने का दुख कम होता। बच्चे जैसे-जैसे बड़े हुए, उनका आना बच्चों को कुछ-कुछ अखरने लगा। बीवी को भी। उनके लौटने की खुशी होने लगी। वे घर में रहते तो टोका-टाकी करते, जबकि अब सबको उनके बिना अपनी मर्ज़ी से रहने की आदत पड़ चुकी थी। बीवी उतना पता नहीं चलने देती थी, पर बच्चों की हरकतों से उनको यह एहसास हुआ कि ‘अपने परिवार को अपने साथ रखना चाहिए था।’
अब बहुत देर हो चुकी थी। रिटायरमेंट से पहले उन्होंने अपने लिए सिविल में एक नौकरी का बंदोबस्त कर लिया था। अजीब बात थी। उनकी उम्र जैसे-जैसे बढ़ रही थी अपने बच्चों और बीवी से उतना ही उनका प्रेम बढ़ रहा था। बच्चे बड़े हुए और कैरियर की दिशा में कब के पंख लगाकर उड़ गए। वे भी नौकरी करते-करते सत्तर के हो गए। उनकी कंपनी के मालिक ने भी ‘बाऊ जी, अब आपकी उम्र नौकरी की नहीं रही। रिटायरमेंट का आनंद लीजिए’, कहते हुए उनका हिसाब कर दिया था। अब वे सारा दिन घर पर रहते। वे बीवी को भी अखरने लगे थे।
वे स्वभाव से अब नरम होते जा रहे थे, पर सब उनसे दूर होते जा रहे थे। ज़िंदगी की शाम उनके साथ के लोग, उनके सभी भाई-बहन, रिश्तेदार, लगभग सभी साथ छोड़ गए। कई वर्षों से दिन में एक बार वे अपनी उम्र का हिसाब लगा लेते थे। इसके विपरीत विमला जी को अब खुलकर जीने का आनंद आने लगा था। हल्की देह और छोटी कद काठी की स्वस्थ विमला जी को अब तक एक भी बड़ी बीमारी छूकर नहीं गुजरी थी। उनकी उम्र मानो थम सी गई थी। उन्हें अपनी जैसी सखी-सहेलियों के साथ नाचना-गाना खूब भाता था। दस-बारह सहेलियों का ग्रुप कभी वृंदावन की यात्रा पर उड़ जाता, कभी हरिद्वार तो कभी वैष्णो देवी। हर पंद्रह बीस दिन में उनका कोई न कोई प्रोग्राम तैयार रहता।
जो आधा घंटा नहीं रह सकता उनके बिना वह सप्ताह भर कैसे रहेगा, एक बार भी नहीं विचारती थीं विमला जी। कभी तीनों बच्चों के पास रह आतीं। सारे रिश्तेदारों में चक्कर काट आतीं। घर पर रहतीं भी तो शांति से न बैठतीं। उनके मना करते भी, उनको चौकीदारी पर बैठा निकल जातीं यहां-वहां।
वे बच्चों के पास रहने जाना चाहते तो रोक देतीं, ‘तुम किसी न किसी बात में टोक दोगे तो वे फिर मुझसे लड़ेंगे कि इनको तुम साथ क्यों लाईं’ वे यह सुनकर अचरज में पड़ जाते कि मेरे रहने से उनको तकलीफ क्यों है? उनको बुरा भी लगता कि तू उनको समझाती क्यों नहीं!
कई बार उन्होंने बच्चों से पूछा था अलग रहने का कारण। बच्चों ने आज की जबान में कहा था, ‘जब आप अपनी नौकरी में मस्त थे, तब हमारी पढ़ाई-लिखाई से लेकर हर छोटी-बड़ी समस्या में हमारी मां ने हमारा साथ दिया था, आपने नहीं। इसलिए आपसे हमारी वह बॉन्डिंग नहीं बनी जो मम्मी के साथ है।’
‘मैं तुम लोगों के पालन-पोषण के लिए नौकरी कर रहा था, मस्ती के लिए नहीं!’ कहा था उन्होंने।
तो बच्चों ने साफ़ कह दिया था, ‘जब बच्चे आपके थे तो पालता क्या कोई और? सब पालते हैं अपने बच्चे!’
छुरी सी चली थी कलेजे पर।
‘जान हथेली पर रखकर देश की सीमा पर खड़ा रहा अट्ठाईस साल, अपने बच्चों को अच्छी परवरिश देने के लिए, उन बच्चों को क्या करना चाहिए उस पालनहार के साथ?’ उन्होंने पूछना चाहा था किंतु चुप रह गए थे। समझ गए थे, अब समझने-समझाने को कुछ नहीं रह गया। जिनको पिता से प्रेम होता है, होता ही है, नहीं होता तो नहीं होता। कैसे बच्चे विदेशों में रहते हुए भी अपने पिता से रोज बात कर लेते हैं! उन्होंने अपनी विमला की तरफ देखा था खोई हुई आंखों से, जिनमें साफ था कि इसमें कुछ कमी तुम्हारी अवश्य रही होगी। इस पर भी उन्हें पत्नी से मोह कम नहीं हुआ था।
आज भी प्रेम से सराबोर हो, पत्नी को देखकर वे खिल उठे। किंतु उनकी खुली हँसी पर विमला जी ने उनको जोर से डपटा – ‘क्या बेहूदों की तरह हँस रहे हो… कोई देखेगा तो क्या कहेगा?’
‘क्या कहेगा मतलब, मैं कोई गलत काम कर रहा हूँ?’
घर की खिड़की के शीशे से सटी उनकी दो आंखें गहन उदासी में घिर गईं। इन दिनों जब विमला जी कई–कई दिनों के लिए बाहर चली जाती रहीं तो वे आकुल होकर कभी इस – कभी उस माली को बहाने से थोड़ी देर अपने पास रोके रखने को उद्यम करते। कैसे बीस बार अमरूद के उस पेड़ के इर्द–गिर्द घूमते और अचानक उसको तेजी से हिलाने लगते। नीचे गिरी पत्तियों को हाथों से गिन–गिन कर उठाते। कैसे जमादारनी से उसके घर–परिवार का निरुद्देश्य हालचाल लेते। बेजरूरत अपनी कुक से बतियाते।
वे अतिरिक्त भोजन बनवाते ताकि कुछ देर इस बहाने वह रुकी रहे। जोर-जोर से हल्ला मचाकर बंदरों पर चिल्लाते, जबकि बंदर उनसे बहुत दूर अपनी ही रौ में चलते जाते। गेट पर कुर्सी डालकर डंडा फटकारते, कभी इस ओर कभी उस ओर निहारते रहते थे। उधर से गुजरने वाले बच्चों को यूं ही हाय-हैलो करते। टेलीफोन एक्सचेंज के गार्ड को कुछ देर अपने पास बैठने को बुलाते। पता नहीं, उनका समय इतना लंबा कैसे हो जाता कि देखने वाली आंखें थक जाती थीं, पर उस व्यक्ति का दिन कटता न था।
रात को, विमला जी का आवारा भतीजा, जिसे वे कहने को उनकी देखभाल के लिए छोड़ जाती थीं, नशे में धुत्त आता था, और गेट बंद करके सो जाता था। सुबह नौ बजे उठकर चलता बनता था।
वे आंखें सिकुड़ जातीं इस सोच में कि जीवनसाथी का मतलब क्या होता है? उसने तो इतना ही जाना कि जीवनसाथी जीवन भर का साथी होता है। किंतु कैसा साथ है? क्या कुछ ही व्यक्ति इस साथ का अर्थ समझते हैं? उन आंखों में यह सोच भी उभरी कि अगर विमला जी ऐसी स्थिति में होतीं और दिलावर जी विमला जी की स्थिति में तो क्या वे समझ पाते अपनी पत्नी की मानसिक दशा? उफ! बेमतलब किसी दूसरे के लिए अपना दिमाग सड़ाना। वे आंखें कुछ देर उनसे हटना चाहतीं थीं। हट गईं।
‘मुन्नी का फोन आया था, बात कर लो।’ विमला जी ने उनको जलेबी का पैकेट पकड़ाते हुए कहा, ‘जलेबी हैं गरमा गरम, खा लो!’
‘मुन्नी का फ़ोन’ उनके बदन में फुरेरी सी दौड़ गई। मीठा खाने की इच्छा थी आज, विमला जी को खीर बनाने को कहा था उन्होंने। किंतु मुन्नी का फ़ोन आया है सुनकर उनकी मीठा खाने की इच्छा मर गई। वे जानते थे, फोन क्यों आया होगा। मुन्नी उनकी इकलौती बेटी थी, जो बिलकुल अपनी मां पर गई थी। घूमने-फिरने नाचने-गाने और जिंदगी को भरपूर जीने की इच्छा रखने वाली। उसको जब भी कहीं घूमने जाना होता था, मां को घर की जिम्मेदारी सौंप देती थी। ताकि बच्चों को संभालने में सास की हेल्प हो जाए। साथ ही सास पर नजर भी रखी जा सके।
‘खा लो जलेबी, गरम हैं!’ विमला जी ने उनको किसी सोच में डूबे देखा तो दोहराया। किंतु उन्होंने उनकी बात पर ध्यान न दिया।
‘मुनिया का फोन क्यों आया था?’ उनका स्वर मद्धिम रहा।
‘वो…, तीन दिन के लिए वह जोधपुर घूमने जा रही है, उसकी सहेलियों का पूरा ग्रुप जा रहा है, शिब्बू के पेपर हैं बोर्ड के, तो…’
उनकी बात पूरी होने से पहले वे अन्यमनस्क से उठे और बाथरूम में चले गए।
रात का खाना नहीं रुचा उन्हें और न नींद ढंग से आई। मुन्नी के तीन दिन का अर्थ था विमला जी का एक सप्ताह उनसे दूर होना। वे कई बार बेटी को समझा चुके थे, ‘बेटा, अब मैं जिस उम्र में हूं, तेरी मां का मेरे पास रहना जरूरी है।’ मगर न बेटी मानती थी न मां ही। ज्यादा कहते तो दोनों प्यार से कहतीं- ‘आप घर देख लेते हो तो वे इधर-उधर घूम भी लेती हैं, नहीं तो एक ही घर में घुटकर न रह जाएंगी वे! तब वे कहना चाहते, ‘और मैं नहीं घुटता इस घर में अकेले’, मगर नहीं कह पाते। उनकी ‘बॉन्डिंग’ जो अच्छी नहीं बनी किसी से!
कई लोग ऐसे ही आते हैं, और चले जाते हैं, दूसरों को प्यार करते हुए। दूसरों के लिए पूरा जीवन होम करते हुए। कोई उनके लिए नहीं होता पूरी दुनिया में।
दूसरे दिन विमला जी सवेरे ही निकल गईं। बेटी ने कैब बुक कर दी थी। यूं भी पैसों की कोई कमी नहीं थी विमला जी के पास। दिलावर जी की हर माह आती पचास हजार से अधिक की पेंशन उनके बटुए में ही रहती थी।
पड़ोस में होती हलचलों ने उस खिड़की के पार रहने वाली दो आंखों के कान खड़े कर दिए। आंखों ने उन्हें सवेरे ही अमरूद के पेड़ को जोर से हिलाते देखा तो वे गहरी उदासी से भर गईं।
लोग कहते हैं, ‘एक स्त्री जीवनसाथी खोने पर फिर भी उतनी अकेली नहीं होती, जितना एक पुरुष हो जाता है। हर स्त्री दूसरी स्त्रियों से बतियाते अपना अकेलापन बांट लेती है, काट लेती है, या बहला ही लेती है स्वयं को। किंतु पुरुष… हर किसी से अपने मन की बात नहीं कह सकता। न ही बहला पाता है खुद को।’
यह सारा दिन उनका वैसा ही बीता, जैसे विमला जी के जाने के बाद बीतता था। शायद हर बार से अधिक उलझन और बेचैनी भरा। विमला जी पर जितना उन आंखों को अफसोस होता, उतना ही कभी-कभी दिलावर जी पर उनको क्रोध आता। अच्छे खासे हैं। गाने सुनते, योगा करते, टीवी देखते, अखबार पढ़ते, लाठी लेकर थोड़ी दूर तक घूम आने में भी हर्ज नहीं था। दिन कट जाता चुटकियों में। मगर नहीं, इनको केवल विमला चाहिए! शाम की उदास बेला तक उन आंखों का धीरज चुक गया। तब उन आंखों ने निर्णय लिया, ‘इस बार विमला जी से बात करनी ही होगी।’
दूसरे दिन, पता नहीं रात में नींद आई भी या नहीं, उनकी आंखें भोर से ही खिड़की से सट गईं। सुबह के ग्यारह बज गए थे, वे अभी तक बाहर नहीं निकले थे। उन आंखों में गहरी बेचैनी उतर आई थी। विमला जी का भतीजा कभी का जा चुका था। सफाई वाली मेड किसी से बिना बात किए, झटपट अपना काम निबटाकर भाग जाती थी। आज भी आकर चली गई थी। कुक सुबह दस और ग्यारह के बीच आती थी, मगर वह अभी तक नहीं आई थी। वे आंखें अधीरता से कुक की प्रतीक्षा कर रही थीं। उसके आने के बाद ही पता चल सकता था कि वे अभी तक बाहर क्यों नहीं निकले, जबकि सुबह सात बजे तक वे अपने बगीचे में पहुंच जाते थे। उनके लिए एक एक मिनट भारी था। तभी उनको उनकी कुक आती दिखाई दी, आंखों की बेचैनी घनी हो गई।
कुक गेट का लॉक खोलकर भीतर प्रवेश कर गई, यह उसके लिए सामान्य बात थी। किंतु तुरंत वह कुक दौड़ती हुई बदहवास-सी बाहर निकली। फंसे-फंसे से शब्द उसके गले से निकल रहे थे ‘अंकल जी… अंकल जी… शायद…’
वे कुक को साथ लेकर झटके से दिलावर जी के पास दौड़ गईं। वे दोनों हाथ सीने पर रखे ऐसे लेटे थे जैसे सो रहे हों। उन्होंने उनको छूकर देखा, जिस्म बर्फ की तरह ठंडा था। पता नहीं कब वे इस संसार को छोड़ निकल गए थे उस दुनिया की ओर जहां उनको किसी की जरूरत न हो। उनके चेहरे पर असीम शांति थी। प्रेम से उस मुखड़े को छूकर वे फफक कर रो पड़ीं।
दिलावर जी से हुई उनकी पहली मुलाकात अचानक जीवंत हो उठी।
‘आपके पेड़ के अमरूद मीठे होने चाहिए।’
एक अनजाना-सा मधुर स्वर दिलावर जी के कानों में पड़ा तो वे चकित होकर उनको देखते रह गए थे। उनके मुंह से कुछ नहीं निकला था।
‘यहां आने से पहले सोच रही थी कि वहां कैसे समय कटेगा मेरा, किंतु आप दोनों को देखकर मेरी समस्या दूर हो गई। मैं शारदा!’ अपना परिचय देते हुए उन दोनों का परिचय लिया था उन्होंने।
अब यह लगभग रोज का काम हो गया था उनका। एक विशेषज्ञ की तरह शारदा जी हर पौधे हर फूल की जानकारी दिलावर जी को देतीं। और दिलावर जी उनके इस ज्ञान की प्रशंसा दिल खोलकर करते। उन्होंने विमला जी से भी घुलना-मिलना चाहा। मगर विमला जी को उनकी साहित्यिक चर्चा, उनका गार्डेनिंग में शामिल होना बिलकुल नहीं भाया। बॉन्डिंग में उम्र दीवार नहीं बनती। शारदा पैंसठ की थीं। दिलावर जी से उनकी अच्छी बनने लगी थी। उनको देखते ही दिलावर जी के चेहरे पर जो मुस्कान आ जाती थी, वह विमला जी से देखी नहीं गई।
वे उस दिन को कभी नहीं भूल सकी थीं, जब विमला जी ने उनको अपने पति से दूर रहने की हिदायत इस तरह दी थी मानो वे कोई सोलह बरस की बिगड़ी हुई लड़की थीं, जो उनसे उनका पति छीनना चाहती थी।
पति के गुजरने के बाद शारदा का बेटा उनको अपने पास ले आया था। यह कहकर कि ‘अकेली कैसे रहोगी मां।’ वह नहीं जानता था अकेले रहने और अकेलेपन में अंतर है। कोई अकेला रहकर अकेला नहीं होता। कोई भीड़ में भी अकेला होता है।
दिलावर जी को उनका अचानक उनसे दूरी बना लेना कुछ समझ में नहीं आया था। पता नहीं इसके लिए विमला जी ने उनको क्या बताया था।
पर पिछले कई वर्षों से वे घर के भीतर खिड़की के पास बैठकर किताबें पढ़ते हुए दिलावर जी और उनके अकेले होने को देखती रही थीं। दिलावर जी भी दिन में दो चार बार उस घर को इस आशा से देख ही लेते थे कि शारदा जी हैं कहां?
आज जब शारदा जी उनके इतने करीब थीं, वे आंखें बंद किए लेटे थे।
‘अकेलापन, जिससे आज एक छूटा था, पर पता नहीं कितने उसके चंगुल में अभी फंसे हुए होंगे!’ सोचते हुए शारदा जी की आंखों में वही उदास सी छाया उभर आई जो हमेशा उन्होंने दिलावर जी की आंखों में देखी थी।
उन्होंने कुक के द्वारा विमला जी को फोन से सूचना भिजवा दी।
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