वरिष्ठ कवयित्री। कविता, कहानी और आलोचना की कई पुस्तकें। अद्यतन कविता संग्रह ‘ उजाड़ लोकतंत्र में’। कई सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
खारा पानी
ऐसा क्यों होता है कि
आधी अधूरी छूटी
एक कातर सांस
कविता के कंठ में ही
पनाह लेती है
ऐसा क्यों होता है जब
मनुष्यता के मलबे में
दबी होती है पृथ्वी
और बच्चों के आंसूओं से भरे समंदर में
उतारे जाते हैं तानाशाहों के जहाज
कविता
नमक की सुरंग में
मां की लोरी सुनाती
उन्हें सुलाती है
ऐसा क्यों होता है जब
सत्ता का उन्माद
बेबसों के गले में
मौत का फंदा डालकर
प्रलयंकारी हँसी हँसता है
कविता
मनुष्यता के नाम
मुहब्बत का पैगाम लिखती है
ऐसा क्यों होता है जब
दरिंदा समय दुनिया में
युद्ध का सायरन बजाता
तांडव मचाता है
कविता
नवजात शिशुओं को
मरियम की बांहों में झुलाती
मनुष्यता के बियावान में
इल्म का एक दीया जलाती है
क्यों होता है ऐसा कि
राम रहीम
पैगंबर और ईसा के
लहू का रंग
केवल कविता में ही
लाल दिखता है
बाहर खारा पानी।
पांवों के निशान
ढाई आखर वाले बीज के लिए
अगर हम थोड़ी धरती उसे दें
शेष इच्छाओं के लिए
वह कभी मुंह नहीं खोलेगी
एक कोना घर का
बस एक निरापद कोना
अगर उसके नाम का हो
जीवन का सबसे बड़ा थान
हार जाने का दुख
उसे नहीं सालेगा
सदियों से
घर की सुराही में कैद
नदी के खोए पते
ढूढ़ रही है वह
सागर के घर तक गई थी
उत्ताल लहरों ने द्वार खोलकर कहा
‘गुमशुदा वह चेहरा कैसा है
बताओ?
यहां आकर तो सारी नदियां
मेरे मैं में एकाकार हो जाती हैं
आओ, तुम भी
समाहित हो जाओ मुझमें
तुम्हारा अंतिम ठिकाना
‘मैं’ ही हूँ’
उत्ताल लहरों के बीच
जन्मी नियति का खाली घट लिए
वह निश्चल खड़ी थी
उसकी रेत आंखों में
चक्रवाती तूफान घुमड़ रहा था
भीतर धुआंधार गरज के साथ
बिजली कड़क रही थी
अचानक गंगोत्री से निकली गंगा
गतिपथ बदलकर
पत्थर समय के सीने पर
अपने पांवों के निशान उकेरती
रेत खेत में उतर गई थी।
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