वरिष्ठ कवयित्री।पूर्व अध्यक्ष, हिंदी विभाग, एम. डी. डी. एम. कॉलेज, मुजफ्फरपुर। अद्यतन कविता संग्रह ‘पुश्तैनी गंध’।
गंगू काका
ओ गंगू काका
कितने बूढ़े हो गए हो तुम
जीवछ पोखर के किनारे खड़े
उस बरगद की तरह
जिसे अरसे बाद
आज देखा है
गांव आते हुए
कितना कुछ बदल गया है
गांव का – ओ गंगू काका
हर ओर फैली है
बारूदी गंध – शहर वाली
भोर में उजास भी
वैसा ही गमगीन है
खेतों में उग आए हैं
धतूरे के जंगल
ताल में दिखता नहीं अब
विहँसता कोई कंवल
यह क्या हो गया है
मेरे गांव को – ओ गंगू काका
नहीं दिखती खलिहानों में
चिरई ना चुनमुन
नहीं कहीं – फूलों पर
भौरों का गुनगुन
पनघट पर कहीं नहीं
पायल की रूनझुन
कजली न, विरहा न
चैती की वह धुन
संवेदनाओं की यह भूमि
ऐसी बंजर वीरान
कैसे हो गई – गंगू काका!
जहरीली नस्लों के पौधे
कब से बोने लगे इस गांव के लोग
जिसे खाते ही
मर गई है मन की हरीतिमा
और पथरा गए हैं सब भावबीज
और इन निर्मम भाव हत्याओं को देखकर
तुम ऐसे सुन्न हो गए हो
जैसे वीतरागी यह बरगद
लेकिन सुनो गंगू काका
इतना होने पर भी
इस बूढ़े बरगद को तो देखो
जिसके भीतर से होकर
बसंत आज भी गुजर रहा है
क्या हमारे भीतर फिर
हरीतिमा की कोपलें नहीं फूट सकतीं?
उठो गंगू काका
चलो लाठी टेकते
पोखर के उस किनारे तक
जहां पुरईन के पत्तों तले
ढंका पड़ा है
बाल अंशुमान का दुधमुंहा उजास
तुम्हारी अनुभवी लाठी उसे
गर्भगृह के द्वार से
बाहर उकेल देगी
रश्मि बीजों को गोड़ने के लिए
मैं हूँ न तुम्हारे साथ।
संपर्क :चतुर्भुज ठाकुर मार्ग, गन्नीपुर, रमना, मुजफ्फरपुर, बिहार मो. ९४३१२८१९४९