वरिष्ठ लेखिका और आलोचक। चार कविता संग्रह, पांच आलोचना पुस्तकें और कहानी संग्रह ‘कोई तीसरा’, ‘कस्तूरीगंध तथा अन्य कहानियां’, ‘सुलगती ईंटों का धुआं’ और ‘खरपतवार’ प्रकाशित।
दिसंबर की गहराती शाम का अंधकार कमरे के भीतर रात की शक्ल में फैल चुका था। नीलिमा देवी घुटने के दर्द से बेहाल होकर भी बार-बार कमरे से निकल कर बाल्कनी पर खड़ी हो, सामने की सूनी सड़क को देखने लगती थीं। रात के आठ बज गए थे। सौम्या अभी तक बैंक से नहीं लौटी थी। उनका मन उद्विग्न हो रहा था। वे बार-बार फोन लगा रही थीं, लेकिन हर बार फोन ‘नॉट रिचेबुल’ की रट लगाए था। वे परेशान हो उठी थीं। जाड़े में अगल-बगल के सभी घरों की खिड़कियां और दरवाजे बंद थे। निर्जन सड़क पर लैंप पोस्ट की पीली रोशनी में एक अबूझ सन्नाटा पसरा था। इक्के-दुक्के मोटर साइकिल जब गुजरते तो उन्हें लगता कि अब शायद सौम्या की स्कूटी भी दिखेगी। लेकिन उनकी प्रतीक्षा अंतहीन होती जा रही थी। बाल्कनी में खड़ी-खड़ी वे अपने को कोसने लगीं। अपने मोबाइल में उन्होंने सौम्या के ऑफिस के किसी का नंबर क्यों नहीं सेव किया है? सौम्या की दोस्त वर्षा का नंबर तो उन्हें रखना चाहिए था। अगल-बगल के घरों से भी वे अनजान हैं। क्या करूं? कहां जाऊं? फोन क्यों नहीं लग रहा? निर्मला देवी बेचैन हो गई थीं। भीतर किसी अदृश्य हादसे की आशंका ने उन्हें अंधड़ की तरह झकझोर दिया था। क्या सौम्या अभी तक फील्ड में ही है…?
सौम्या ने एक बजे दिन में उन्हें फोन करके घुटने के दर्द का हाल पूछा था। शाम को लौटते हुए वह आयुर्वेदिक तेल लेकर आने की बात कही थी। गर्म पानी का थैला लेकर उन्हें रजाई में ही घुसे रहने की हिदायत भी दी थी। बेटी के लाड़ से निहाल होकर नीलिमा देवी का दर्द कुछ क्षण के लिए काफूर हो गया था। ममता की आतुरता में हर दिन की तरह उनके पास एक ही सवाल था- ‘तूने खाना खा लिया बेटा?’
‘माँ! मैं ऑफिस में नहीं हूँ। लोन रिकवरी के लिए ब्लॉक के कुछ गांवों में विजिट करना था। लंच ऑफिस में ही छूट गया है। काम खत्म करके लौटूंगी तो खा लूंगी।’
‘अरे! तो क्या सारा दिन भूखी रहकर काम करेगी?’ वे बेचैन हो उठी थीं।
‘मम्मा, तुम चिंता मत करो। तीन बजे तक ब्रांच में लौट जाऊंगी, फिर खा लूंगी।’ और उसने फोन रख दिया था।
बेटी से बात करने के बाद नीलिमा देवी वहीं सोफे पर बैठकर घुटने पर मूव की मालिश करने लगीं। मन कहीं उदभ्रांत पक्षी की तरह भटकने लगा था। फील्ड में लोन रिकवरी का काम लड़कियों को क्यों दे देते हैं ब्रांच मैनेजर! यह काम मर्दों के जिम्में होना चाहिए। गांव की ऊबड़-खाबड़, टूटी-फूटी सड़कों पर उनकी बेटी स्कूटी चलाकर जाती है। यह बात उन्हें बिलकुल नागवार लगती। उन्होंने अपनी चिंता एक बार बेटी से कही थी तो उसने हँसकर कहा था- ‘मां! दफ्तरों में कोई काम औरत-मर्द कहकर नहीं बांटा जाता। ब्रांच में तीन ही लोग हैं। मैनेजर रोहित शर्मा, मैं और वर्षा। रिकवरी के लिए ऑफिस आर्डर जिसके नाम का निकलेगा, उसे तो जाना ही पड़ेगा न। क्रेडिट ग्रोथ और रिकवरी पर ही प्रोमोशन होता है। मैं अच्छा काम करूंगी तभी तो शहर का ब्रांच मिलेगा मुझे।’
नीलिमा देवी चुपचाप बेटी का मुंह देखने लगी थीं। लेकिन उनकी चिंता का निवारण इससे नहीं हुआ था। आज फिर सौम्या रिकवरी के लिए गई है और वे पूरी तरह अपसेट हो गई हैं। उनका मन हिरना-बिरना हो रहा था। जवान लड़की है। गांव-देहात का रास्ता। क्या पता कुछ अनहोनी हो जाए। मन उद्विग्न हो उठा था। नहीं-नहीं, कुछ नहीं होगा… कुछ नहीं हो सकता उसे। लोहार की भट्ठी में तपी हुई बच्ची है मेरी। ऐसी नकारात्मक चिंताएं क्यों घेर लेती हैं मुझे? वे पूजा घर के दरवाजे पर माथा टेककर खड़ी हो गई थीं। मन थोड़ा शांत हुआ तो डाइनिंग टेबुल की कुर्सी खींच कर बैठ गईं।
वहीं बैठे हुए उन्हें याद आया- दो दिन पहले बैंक से लौटकर सौम्या इसी डाइनिंग टेबुल पर जब उनके साथ शाम की चाय पी रही थी तो किसी ने फोन किया था, जिसका जबाब देते हुए वह कह रही थी- ‘रिन्यूवल नहीं हो सकता लोन का- सात वर्ष हो गए- एक पाई भी बैंक को नहीं दिया गया है। हेड ऑफिस से फरमान आया है। एक महीने में पूरा पैसा लौटाना है, सूद के साथ। पांच मार्च तक खाता खुला रहेगा। फिर एफ.आई.आर. का प्रोविजन है।’
‘इसमें मैं क्या कर सकती हूँ शर्मा जी- बताइए, मेरी तो बाध्यता है। नौकरी करती हूँ तो ऑफिस आर्डर पर फील्ड विजिट तो करना ही पड़ेगा।’
अचानक उसका स्वर तीव्र हो गया था– ‘मैं आपको कब से समझाने की कोशिश कर रही हूँ और आप मुझसे ऐसी उल्टी–सीधी बातें कर रहे हैं। आप ब्रांच मैनेजर से कहिए न। उनसे आपकी प्रगाढ़ता भी है। आप स्वयं बात कीजिए। पहले किसने क्या किया, इससे मुझे कुछ लेना–देना नहीं। पहले का मैं कुछ नहीं जानना चाहती। किसने दिया, किस आधार पर दिया, मुझे नहीं पड़ना है इसमें। आप ब्रांच मैनेजर से बात कीजिए। अगर वे ऑफिस आर्डर कैंसिल कर देंगे तो मुझे क्या पड़ी है आपको तलब करने की।’
‘उफ! प्लीज आप फोन रखिए।’ फिर सौम्या ने ही झटके से फोन काट दिया था।
नीलिमा ने बेटी की गंभीर मुद्रा देखकर पूछा था- ‘कौन था? क्या कह रहा था?’
‘मां, गांव की दबंगई कुछ अलग ढंग की होती है। ये महाशय सरैया प्रखंड के दबंग रंगदार और पुराने जमींदार पुत्र हैं। राजनेताओं से रिश्तेदारी बताकर सबपर धौंस जमाते हैं। हमारा ब्रांच इन्हीं के मकान में चलता है। मैनेजर से पुरानी दोस्ती है। मखाना की खेती, मछली पालन और कई महिला कुटीर उद्योगों के लिए इन्होंने कई-कई नामों से बैंक से लाखों का लोन ले रखा है, जिसकी उगाही अभी तक नहीं हुई है। पहले मैन्यूअल काम होता था तो बहुत कुछ आगे-पीछे का काम लोग करते थे। अब कंप्यूटराइज्ड सिस्टम से हर दिन का अपडेट मेन ब्रांच को भेजना पड़ता है। अभी हेडक्वार्टर से जब पीछे का ऑडिट हुआ है तो हमारे मैनेजर, पांव में फ्रैक्चर का मेडिकल लीव लेकर दो महीने की छुट्टी पर चले गए हैं- वर्षा को चार्ज देकर। हमें इसी बीच रिकवरी करके देना है। यह हम दोनों के लिए चैलेंजिंग टास्क है। लेकिन हम कर लेंगे।’
नीलिमा देवी का मन छनक गया था- ‘लेकिन ऐसे लोगों से मुंह लगाना ठीक नहीं बेटा। समय बहुत खूंखार है और इनके भीतर अच्छी सोच नहीं होती।’
‘ओ माँ, इसी सोच को तो बदलने की जरूरत है। हम इनकी धौंस से डरेंगे तो काम कैसे करेंगे।’
वर्षा इस व्यक्ति से बहुत पहले से खार खाई हुई है। वह जब दो साल पहले इस ब्रांच में आई थी, इस व्यक्ति से उसका सामना बड़े बेढंगे रूप में हुआ था। वह सेफ रूम के पेमेंट काउंटर पर थी, तभी यह आया था। लंबी लाइन तोड़ते हुए सीधे सामने सेफ रूम में प्रवेश कर गया। उसे भीतर देखकर वर्षा ने कठोर स्वर में पूछा- ‘आप कौन हैं? सीधे इस रूम में कैसे आ गए?’
‘माल चाहिए इसलिए आ गया।’
‘क्या…?’
वर्षा चीख पड़ी थी- ‘गेट आउट।’
‘अरे मैडम! आप अभी नई आई हैं, इसलिए मुझे नहीं जानतीं। जान जाइएगा तो अपने व्यवहार पर मुझसे क्षमा मांगिएगा। आपके बैंक में 50 प्रतिशत से अधिक मेरा फिक्स्ड डिपॉजिट है। अपना पैसा मांगने पर इतना गुस्सा क्यों?’
और वह कुटिलता से मुस्कुराने लगा था।
वर्षा आपे से बाहर हो गई थी- ‘पहले आप बाहर निकलिए, फिर अपना परिचय दीजिएगा।’
‘बाहर आप नहीं निकाल सकतीं मैडम। हमेशा भीतर बैठकर ही काम कराता हूँ।’ और वह ढिठाई से कुर्सी खींचकर बैठ गया था।
लेकिन वर्षा कहां मानने वाली थी। उसने इस व्यवहार पर हंगामा मचा दिया। मैनेजर साहब दौड़ते हुए आए और माफी मांगते हुए शर्मा जी को बाहर ले गए। कस्टमर सभी भौंचक होकर देख रहे थे। शर्मा जी के मकान में वर्षों से यह बैंक चल रहा है। वे मालिकाना हक के साथ ही यहां के स्टाफ से बात करते हैं। शाम को मैनेजर साहब के साथ खाने-पीने का दौर भी अक्सर यहीं चलता है। ये सारी बातें बीरभद्र चपरासी ने वर्षा को बाद में बताई थी और दबे स्वर में उसने यह भी बताया था कि वर्षा के पहले यहां नुसरत मैडम थीं। बहुत खूबसूरत थीं वे। उनके भी चैंबर में ये गाहे-बगाहे घुस जाते थे, जिसे नुसरत मैडम बिलकुल नापसंद करती थीं। एक बार उनके चैंबर में ही शर्मा जी ने कुछ उजूल-फिजूल की बातें कह दी थीं- ‘मैडम आपके घर में लड़कियां बुरके में रहती हैं और आप जिंस-टॉप पहनती हैं। गांव-देहात के लौंडों की नजर में आ जावेंगी तो पेनाल्टी लग जावेगी। वैसे मेरे रहते कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता आपका। आपके हुस्न की रखवाली के लिए मैं काफी हूँ।
‘उस दिन नुसरत मैडम भी वर्षा मैडम की तरह ही काफी गुस्सा हो गई थीं। मैनेजर साहब ने इसी तरह बीच-बचाव करके सबको शांत किया था। लेकिन मैनेजर साहब और शर्मा जी की दोस्ती गाढ़ी है। इसलिए मैनेजर साहब भी नुसरत मैडम को बहुत परेशान करते थे। कभी फील्ड विजिट करके आने पर शाम को वाउचर की एंट्री भी उन्हें करना होता था, तभी घर जाने देते थे। शाम होने पर दोनों दोस्त उन्हें खाने-पीने में शरीक करना चाहते थे, जिसे वे बिलकुल नापसंद करती थीं। उन्होंने सबकी लिखित शिकायत हेड ऑफिस में कर दी थी। उसके बाद ही उनका तबादला शहर के ब्रांच में कर दिया गया था।
‘बीरभद्र से ये बातें सुनकर इस आदमी के प्रति वर्षा के साथ मेरे मन में भी घोर घृणा हो गई है। यह शुरू से बहुत ढीठ और गंदा आदमी है, मां।’
‘बेटा! पानी में रहकर मगर से वैर ठीक नहीं। तुम ही बता रही हो कि तुम्हारे ब्रांच में सबसे अधिक फिक्स्ड डिपॉजिट उसी का है। वह बैंक का सबसे पुराना और साख बढ़ाने वाला कस्टमर है। फिर काहे को ऐसे आदमी से वैर मोल लेना। उसके विरुद्ध जाना ठीक नहीं है। इस कस्बाई शहर में हमारा अपना कोई नहीं।’
अचानक सौम्या सहज भाव से हँस पड़ी थी- ‘मां! तुम तो हमेशा कहती हो, जिसका कोई नहीं होता, उसका भगवान होता है। उस भगवान को तुम हर जगह मेरे साथ भेज ही देती हो- फिर डर क्यों?’
उस क्षण बेटी की निर्झर हँसी में उनके भीतर का भय बह गया था। लेकिन आज भय फिर किसी अलक्षित कोने से बाहर निकल आया था…।
तीन बजे के बाद नीलिमा देवी ने फिर फोन लगाया था, यह सोचकर कि सौम्या फील्ड विजिट से ब्रांच में लौट आई होगी, लेकिन ‘स्विच ऑफ’ सुनकर वे निराश हो गईं। फिर थके मन से सोफे पर ही आंखें बंदकर लेट गईं।
पूरी दोपहर उनके भीतर अतीतजीवी स्मृतियों की कई खिड़कियां खुलती और बंद होती रही थीं।
जोरी हाट कस्बा के इस छोटे-से किराए के मकान में बेटी के साथ रहते हुए उन्हें एक वर्ष हो गया। सौम्या के नौकरी ज्वाइन करने पर जब वे इस घर में पहली बार आई थीं तो उनका मन बहुत तरह की आशंकाओं और दुश्चिंताओं से घिर गया था
-ठेठ ग्रामीण इलाका है। इस जर्जर इलाके में कैसे रह पाएगी सौम्या!’
सौम्या मां के मन की उधेड़बुन ताड़ गई थी। उसने मां को बांहों में भरकर कहा था- ‘ग्रामीण बैंक की पहली पोस्टिंग है मां – गांव में आना ही था। अच्छा काम करूंगी तो शहर का ब्रांच जल्द ही मिल जाएगा। गवर्मेंट जॉब की रट थी तुम्हारी, इसीलिए तो ज्वाइन कर लिया। तुम चिंता मत करो। मैं यहां बहुत मजे में रहूंगी। तुम हो न मेरे साथ।’
नीलिमा देवी ने बेटी के माथे पर स्नेहपूरित हाथ रख दिया था। उनकी आंखें छलछला आई थीं। उनकी तरह ही उनकी बेटी भी दुख गोड़ना सीख गई है। पितृहीन सौम्या ने मां के जीवन के दुख और संघर्ष को बचपन से देखा था। इस दुख ने उसे मांजा था। जीवन के मझधार में रिश्तों की कोई पतवार जब उनके हाथ नहीं थी, उन्होंने अपनी नन्ही–सी बेटी को कलेजे से लगाकर कहा था – ‘तू ही मेरी पतवार है। दुर्धर्ष लहरों के बीच मैं तुझे लेकर खड़ी हूँ। मेरा हौसला टूटने मत देना मेरी बच्ची।’ और सौम्या ने मां के इस हौसले को कभी कातर नहीं होने दिया– हमेशा एक संबल की तरह थाम कर रखा।
उन्हें याद आ रहा था- सौम्या बैंक की परीक्षा उत्तीर्ण कर जब पहले दिन नौकरी ज्वाइन करने जा रही थी तो उन्होंने दही का टीका लगाते हुए कहा था- ‘नौकरी का पहला दिन है बेटा, भगवान के आगे सर झुका कर जा।’
वह मां के चरणों में झुक गई थी- ‘मेरा भगवान तुम हो मां, दूसरे किसी भगवान को मैंने आज तक नहीं देखा।’ और उन्हें चूम कर हाथ हिलाती सीढ़ियां उतर गई थी। नीलिमा देवी बालकनी में खड़ी हो देर तक उस सड़क की ओर देखती रही थीं जहां से पहली बार अपनी आत्मनिर्भरता का बोध लिए उनके हाथों पली बढ़ी बेटी अपना स्वत्व हासिल करने निकली थी।
नीलिमा देवी की आंखों में वे सारे दृश्य जैसे लहरों की तरह आवाजाही करने लगे थे। आंखों में बीते समय का एक लंबा कालखंड अचानक साकार हो उठा था।
भरी जवानी का वैधव्य- गोद में तीन महीने की नन्ही-सी जान- पति को खा जाने और बेटी जनने के अक्षम्य अपराध के कारण बात-बात पर सासू मां और जेठानी की निर्मम झिड़कियां, शान चढ़ी त्योरियां- आग उगलते शब्द और उस दुर्दांत समय के बीच कोल्हू के बैल की तरह सुबह से रात तक चौके-चूल्हे में अकेली खटती मरती उनकी अनथकी देह – बेआवाज रुलाई…। आज भी उनके भीतर संगवार की तरह वह दर्द सांसों में रिसता रहता है।
पति के काल कलवित होते ही वह प्यारा-सा घर उनके लिए कारावास हो गया था। उसका कोई कोना उनका अपना नहीं रह गया था। वहां हर दिन नई यातनाएं थीं। अभाव और दर्द का यह नया तजुर्बा था। उनकी छोटी-सी बच्ची जब भूख से रोती तो न छाती में दूध होता, न भगोने में। जेठानी नापजोख कर हर चीज मंगवाती और अपने पति-बच्चों के साथ तृप्त होकर पीठ पीछे फेर लेतीं। सबकुछ देखकर भी सासु मां अनजान बनी रहतीं। वे चौके में सबके लिए खाना बनातीं और सबके खाने के बाद पतीला पोंछकर खुद खातीं। उपेक्षा, तिरस्कार और दिनभर की वंचना को अपनी सांसों में जब्त किए जब वे रात को अपनी बेटी को कलेजे से लगातीं, आंखें जैसे समंदर की तरह उफनने लगती थीं। उस निःशब्द आर्तनाद से कमरे की हर चीज भूकंप सी हिलने लगती थी। मां के आंसुओं से तरबतर चेहरे को देखकर उनकी छोटी-सी बच्ची भी सुबक उठती। नीलिमा देवी के भीतर भोगे हुए दुख का एक-एक पल जैसे तहाया हुआ नासूर का फोड़ा है, वह कभी भी टभकने लगता है।
घुटने के दर्द से बेहाल नीलिमा देवी की आंखों में आज अतीत और वर्तमान एक साथ गड्डमड्ड हो रहे थे। एक ओर उनका ध्यान बेटी की ओर लगा था जो फील्ड में भूखी-प्यासी लोन उगाही कर रही थी तो दूसरी ओर अतीत की स्मृतियां उन्हें गमगीन कर रही थीं। विवाह के दो वर्ष बाद ही पति उन्हें बेसहारा छोड़ गए थे। उनके चारों ओर गहन अंधकार था। उनके लिए मायके का द्वार बंद था, क्योंकि वहां सौतेली मां का अकेला राज था – पिता उस घर में एक निर्वासित, आत्महीन व्यक्ति की तरह थे। सौम्या को लेकर कहां जातीं वे?
पतिविहीन घर में वे बिना सांस लिए हिलती-डोलती एक ऐसी काया थीं, जिसके पास प्रताड़ना के विरुद्ध प्रतिरोध का कोई शब्द नहीं था। जेठ के कारोबार में उनके छोटे भाई का भी हिस्सा है – यह वे कभी नहीं कह सकती थीं क्योंकि इलाज न किए जाने से तिल-तिल कर अपने पति का मरना उन्होंने देखा था। सबके मुंह से यह भी सुना था कि उनकी बीमारी के कारण ही पैसा पानी की तरह बहा और कारोबार में इतना नुकसान हुआ। जबकि हकीकत यह थी कि विनोद की मृत्यु के दो महीने बाद ही कंपनी बाग में जेठजी की होजियरी होलसेल की नई दुकान बहुत तामझाम से खुली थी। पहले वाली दोनों दुकानों का भी रिमॉडलिंग कराया गया था। क्या यह मृत भाई के इंश्योरेंस का पैसा था…? नीलिमा देवी कभी नहीं पूछ पाईं। एक विह्वल आह लहर की तरह उनके भीतर ही उठती और भीतर ही समा जाती थी। वैसे में दुख उन्हें थामता और वे दुख को थामतीं। दुख बहता, थमता और जम जाता।
धीरे-धीरे उनके दुख से उनकी बेटी का भी एका होता गया। उनकी नन्ही-सी बेटी सौम्या, मां को पड़ने वाली गालियां सुनती। मां के बहते आंसुओं को देखती वह बड़ी होने लगी। लेकिन उसके भीतर एक अदृश्य ज्वालामुखी धुआंने लगा था, जिसे नीलिमा देवी नहीं देख पाई थीं। वह ज्वालामुखी उस दिन फूटा जिस दिन जेठ की नशेमंद आंखों में नीलिमा देवी के लिए कामनाओं का एक हिंसक ज्वार उठा था। वे उस रात उनके कमरे में प्रवेश कर गए थे, जब सासू मां और जेठानी ननद के घर शादी में गई हुई थीं। उनके कानों में गर्म शीशे की तरह पिघलते वे शब्द आज भी झुरझुरी पैदा कर देते हैं- बलिष्ठ बांहों का वह बंधन और नशे के ज्वार में लड़खड़ाते वे अंगार भरे शब्द- ‘नीलू, तुम्हारा यह दहकता रूप मुझे चैन नहीं लेने देता। बहुत दिनों से उपवास कर रहा हूँ, पर तुम आंख उठाकर भी नहीं देखती। बगल से गुजरती हो तो लहक उठती है मेरी रूह। मेरी आत्मा में समा जाओ तुम – रानी बनाकर रखूंगा। विनोद का भाई हूँ, कोई गैर नहीं।’ नागपाश की तरह जकड़ी उनकी बांहों में वे छटपटा रही थीं। लेकिन झकझोरी जाती देह को जैसे किसी अंधड़ ने जकड़ रखा था। उसके थपेड़ों को झेलती वे बेदम हो गई थीं। तभी एक लंबी चीख के साथ अचानक वह कठोर भुजबंध ढीला पड़ गया। पांच साल की बच्ची सौम्या ने पिशाच के कंधे को अपने दूधिया दांतों से चबा डाला था। उसी पल नरपशु के झन्नाटेदार तमाचा से चकरघिन्नी की तरह नाचकर वह पलंग से नीचे जमीन पर छितरा गई थी।
आह! नीलिमा देवी के कलेजे में जैसे कोई पुराना नासूर टीस गया।
लाल रक्त से आरक्त सौम्या का वह लहूलुहान चेहरा उनके जीवन का सबसे बड़ा हादसा था। हां, याद है उन्हें, अच्छी तरह याद है। उस रात उनके पांव के नीचे एक नई जमीन पैदा हुई थी। साहस और संकल्प ने उन्हें कंधा देकर उठाया था। वे एक नन्ही सी उंगली को पतवार की तरह थामकर तेज लहरों के बीच जिंदगी को चुनौती देती उतर गई थीं…। कैसी खौफनाक थी वह रात और आगे का सफर…!
उन्हें वे दिन याद आ रहे थे, जब बेटी को कलेजे से लगाए एक अनजान शहर की सड़कों और गलियों में पेट के बल घसीटती हुई वे जिंदगी को और जिंदगी उन्हें आजमाने में लगी थी। उन दिनों गुरुद्वारे के लंगर में महीनों तक खाकर जिंदगी का पता ढूंढती वे कहां-कहां नहीं भटकीं। घर से बाहर की दुनिया बहुत बड़ी थी, लेकिन इतनी बड़ी दुनिया में उनका कोई ठौर नहीं था। ठौर दिया परमिंदर बीजी ने, जिनका दिल इस दुनिया से बहुत बड़ा था। वहां समूची पृथ्वी के लिए जगह थी।
उन्होंने सौम्या को कलेजे से लगाकर कहा था- ‘आज वाहे गुरु का सच्चा सौदा मिला है मुझे। मैं निहाल हो गई। मेरे लिए यह गुरुग्रंथ साहब का सजीव आखर है, नीलू। देख! अपने स्लेट पर इसने जो आड़ी तिरछी रेखाएं खींची हैं- यही जीवन है। सरल रेखा में कभी परिभाषित नहीं होता यह जीवन। दुनिया में बहुत दुख है बेटा, लेकिन दिल छोटा नहीं करते। गुरु नानक ने कहा है- इस जीवन का सौदा हमेशा सच्चा करना चाहिए। उन्होंने पेट की भूख को दुनिया का सबसे बड़ा सच कहा और ईश्वर को इसी भूख में पाया। आदमी की भूख का वीभत्स और विकराल रूप देखकर उन्होंने ‘बंड छको’ का मूल मंत्र दिया और कहा- जीवन के कारोबार में जो मुनाफा कमाओ, उसे मिल-बांट कर खाओ। लेकिन दुनिया की भूख सर्वग्रासी है। वहां दूसरे की कमाई भी हड़प ली जाती है। गुरु वाणी को कितने लोग मानते हैं!’
‘बीजी, मेरे पास कोई कमाई नहीं- मैं कौन सी कमाई मिल-बांटकर खाऊंगी?’
नीलिमा देवी की आंखें पनीली हो गई थीं।
बीजी ने हँस कर कहा था- ‘अरे! दो हाथ हैं तो कमाई क्यों नहीं?’ उन्होंने भंडारा की ओर दिखाते हुए कहा- ‘इधर देख, इस लंगर की सेवा में कितने हाथ लगे हैं। ये अपना दिन-रात एक किए रहते हैं- औरों की भूख मिटाने के लिए। देश में अन्नदाता अन्न उपजाते हैं- औरों का पेट भरने के लिए। गुरु की राह पर मनुष्य जीवन की इससे बड़ी कमाई और क्या होगी बेटा? जाति-धर्म का अखंड घेरा बनाने वाली यह गुरुवाणी जीवन की सच्ची कमाई है। आज से इस कमाई में लग जा। गुरुद्वारे के स्कूल का संचालन मैं तेरे हाथ में दूंगी। सेवादारों के बच्चों के लिए मैंने खोला है। तू इसकी व्यवस्था देखेगी और मैं गुरुग्रंथ साहब के इन सजीव आखरों से जीवन का एक नया पाठ निर्मित करूंगी।’
उन्होंने नन्ही सौम्या को अपनी बांहों में बांधकर कलेजे में भींच लिया था। दूसरे ही क्षण अनायास वे हहराते सोते की तरह फूट पड़ी थीं- ‘यह मेरी खो गई स्वरा है। 84 के दंगों में दरिंदों ने मेरी गोद सूनी कर दी थी। उस समय से दूसरों के बच्चों की किलकारियों की बगिया सजा रही हूँ, बेटा। सल्फर की टिकिया खाकर सो गए कई अन्नदाताओं के अनाथ बाल बच्चे इस बगिया में हैं। आज बीस साल बाद हू-ब-हू वही चेहरा लिए मेरी ‘स्वरा’ मिली है मुझे, इसी बगिये में।’ वे हिचक-हिचक कर रो पड़ी थीं।
नीलिमा देवी की आंखें अतीत को बिसूरती नेपथ्य में कहीं खो गई थीं। परदुखकातर बीजी का पारदर्शी चेहरा उनकी डबडब आंखों में तैरने लगा था। सौम्या की नौकरी लगने की खबर से बीजी कितनी आह्लादित हुई थीं।
भोग का हलवा उसके मुंह में डालते हुए कहा था– ‘कर्मभूमि में उतर रही है पहली बार तो बेबे की सीख लिए जा बेटा! जीवन की बगिया में हर पल बसंत की अगुवानी करना। उसकी अगुवानी के होते हैं कई मायने। अपनी शाखों पर बनने देना मधुमक्खियों के छत्ते। चिड़िया–चुनमुन के घोंसले। पसरने देना लताओं को फुनगियों तक। हां, पेड़ के खोखल में कभी विषधर को पनाह मत देना– समझ गई न! जा बेटा तेरी राह ऊर्ध्वमुखी हो – गुरुमुखी हो।’
और उसके कुछ महीने बाद अपने गोड़े बीज को पेड़ बनाकर बीजी दुनिया से कूच कर गई थीं।
आह! बीजी की याद ने नीलिमा देवी को भीतर तक दहला दिया था। एक कातर निःश्वास गूंगी चीख की तरह बाहर निकल गई थी- ‘जाने की इतनी जल्दी क्यों थी बीजी! आपने पाली बांटी थी – छह महीने सौम्या के साथ बारी-बारी से रहने की। कितना एकाकी हो गया आपके बिना यह जीवन…।’
बीते दिनों की स्मृतियां पूरी दोपहर एकालाप की तरह नीलिमा देवी के भीतर बजती रहीं लेकिन शाम ढलने के बाद उनकी चिंता सौम्या को लेकर दूसरी दिशा की ओर मुड़ गई।
क्या सौम्या अभी तक ब्रांच नहीं लौटी है? सलोनी रात की रोटी बनाकर जब अपने घर जा रही थी, उन्होंने उसके सामने अपने मन की उधेड़बुन रखते हुए कहा- ‘सलोनी बेटा! सौम्या अभी तक नहीं आई है। रात के आठ बजने वाले हैं। उसका फोन भी नहीं लग रहा है। मेरा मन घबरा रहा है। कहां जाऊं? किससे पता करूं?’
सलोनी ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा – ‘आंटी आप इतना घबरा क्यों रही हैं? सुबह दीदी का लंच जब मैं पैक कर रही थी, उन्होंने कहा था मुझसे कि आज उन्हें गांव के सेंटर पर जाना है, देर होगी। आप पूजा पर बैठी थीं, इसलिए आपको बताए बिना वे चली गईं। मुझे भी ध्यान नहीं रहा कहने का।’
‘यह तो ठीक है बेटा! लेकिन दोपहर को उसने गांव के सेंटर से मुझे फोन किया था। वह अपना टिफिन ऑफिस में ही भूल गई थी और कहा था कि तीन बजे तक वह ब्रांच लौट जाएगी। उसके बाद से उसका फोन नहीं आया। इधर से भी नहीं लग रहा है, मैं क्या करूं? मन अधीर हो रहा है।’
‘घबराओ नहीं आंटी, मैं घर जाकर भाई को भेजकर पता करवाती हूँ। वैसे दीदी अब आती ही होंगी। आप चिंता न करो।’ कहती हुई सलोनी चली गई। उसकी बात से उन्हें थोड़ी देर के लिए राहत जरूर मिली, लेकिन सामने की दीवार पर टिकटिक करती घड़ी की सूई को देखकर उनकी धड़कन फिर तेज होने लगी थी।
एक उदभ्रांत मनःस्थिति में वे बार-बार कमरे से निकल कर बाल्कनी पर खड़ी हो, सूनी सड़क को देखतीं फिर कमरे में लौट आतीं। 8 से जब 9ः30 पर घड़ी की सूई चली गई, वे एक आवेग में घर का दरवाजा खोलकर बाहर निकल गईं। दिसंबर की ठंडी रात और घुटने का दर्द सब कुछ उनके आवेग के आगे हल्का हो गया था। उनकी चेतना शून्य में समाती जा रही थी। रगों में खून जैसे जमता जा रहा था। एक निःशब्द हाहाकार उनके भीतर फूट पड़ा था- ‘सौम्या… मेरी बच्ची… कहां हो तुम…?’
मां ऽ ऽ – मां ऽ ऽ – आखें खोलो। दूर से कोई आवाज उनके कानों से टकराई थी। सांसों की महक से जैसे जीवन लौटा हो उनमें। निर्निमेष दो आंखें उनके चेहरे पर झुकी हुई थीं।
मां ऽ ऽ ऽ ऽ!
‘कहां रह गई थी मेरी बच्ची…?’ सूखे कंठ में शब्द जैसे हिचकी ले रहे थे।
सौम्या ने विह्वल होकर मां को कलेजे में भींच लिया। एक निःशब्द आलाप उसके भीतर फूट पड़ा था- ‘इतनी ठंड में निर्जन सड़क पर मां मुझे ढूढ़ने निकल गई! अगर कुछ हो जाता तो…?’
वह तड़प कर पागलों की तरह मां को चूमने लगी थी।
नीलिमा देवी अबूझ-सी स्थिति में डूबती-उतराती आंखों से बेटी को देख रही थीं।
सौम्या उनके पैताने बैठकर धीरे-धीरे उनके सर्द पैरों को सहलाती हुई बेआवाज सांसों की आवाजाही में वह सब कह रही थी, जो आज घटित हुआ था…।
बिना आवाज के अनगिन शब्द दृश्य की तरह एक निःशब्द खामोशी में तैरने लगे…।
‘मां! याद है न तुम्हें, बीजी ने नौकरी पर आते हुए मुझे एक सीख दी थी- छतनार पेड़ बनना, लेकिन खोखल में कभी विषधर को पनाह मत देना!’
‘मुझे नहीं मालूम मां, बीजी की वह सुंदर सीख गांव की जीविका दीदी तक कैसे प्रसारित हो गई? आज ‘जीविका दीदी समूह’ ने शर्मा जैसे विषधर का फन कुचलकर जिस तरह बीच सड़क पर घसीटते हुए उसे अधमरा कर दिया, उसे देखकर पूरा गांव स्तब्ध था।’
‘पता है तुम्हें, डर को मात देकर यह साहसिक कार्य किसने किया मां! वह एक नाबालिक लड़की चंपा है, जिसके साहस ने खोखल से विषधर को निकालकर घुटनों के बल झुका कर सबके सामने थूक चटवाई है। लोन का दोहन और स्त्री देह का शोषण करने वाला रंगदार भुवन शर्मा आज अपनी औकात जान गया। अब वह कभी किसी औरत की ओर आंख उठाकर देखने का साहस नहीं करेगा। किसी गरीब के नाम पर लोन लेकर- उसे खून के आंसू नहीं रुलाएगा। मैं तुम्हें फोन पर यह सब नहीं कह सकती थी मां! फिर सारा दिन थाना, पुलिस, मेडिकल- उफ! क्या-क्या नहीं झेला… और जब घरमुंहा होकर लौटी तो तुम्हें इस रूप में…!’
मां को कलेजे में भींचकर सौम्या बच्चों की तरह सुबक पड़ी थी।
नीलिमा देवी की मुंदी पलकों में थरथराती-सी एक सिहरन हो रही थी, जैसे आंखें उदित होकर सबकुछ देख रही हों। उनके भीतर का क्लांत अंधेरा धीरे-धीरे बादलों-सा फटने लगा था।
अगले ही पल उन्होंने बेटी के माथे पर अपना स्नेहिल हाथ रखकर धीरे से कहा- ‘विषधर समय का फन यूं ही हमेशा कुचलती रहना बेटा- हमें गर्व से भर देना!’
संपर्क : चतुर्भुज ठाकुर मार्ग, गन्नीपुर, पोस्टः रमना, मुजफ्फरपुर, बिहार-842002 मो. 9431281949
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