कुछ अखबारों के साहित्य–पृष्ठ और पत्रिकाओं के अंकों का संपादन। कविता संग्रह ‘फिर कभी’ और ‘उम्मीद’। उपन्यास ‘अंतरिक्षनगर’ तथा बाल उपन्यास ‘मुट्ठी में किस्मत’ प्रकाशित। संप्रति वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत।
सावधान की मुद्रा में
सुनो मैं इतना नृशंस नहीं
जो तुमको गोली मार दूं
मुल्ला मौलवी भी नहीं
जो जारी कर दूं फतवा
सत्ता की चमक भी नहीं है मेरे पास
जिसकी चमक से मनुष्यता को अंधा करके
सावन-भादो की बातें करूं
आतंकी या आतातायी भी नहीं मैं कि
संवेदनाओं की लाश पर खड़े हो कर
फहराऊं धर्म ध्वजा
जिस जगह पर मैं खड़ा हूँ
उसको दलदल में बदलने के आदेश
जारी हो चुके हैं
एक तानाशाह धमकाता है नागरिकों को
और दर्द से कराहती हुई मनुष्यता
सावधान की मुद्रा में खड़ी हो जाती है
पार्श्व में राष्ट्रगान बज रहा है
निरंतर बज रहा है
बजता ही जा रहा है और
सब सावधान की मुद्रा में खड़े हैं
मैं भी खड़ा हूँ।
डायरी की तरह कविताएं
अखबारों में पढ़ता हूँ
स्त्रियों पर जोर-जबरदस्ती की खबरें
सुरक्षित कर देता हूँ उनकी अस्मिता
अपनी कविताओं में
मजदूरी का भुगतान नहीं होता
कभी भी न्यायोचित
यह शोषण की पराकाष्ठा है
मेरी कविताओं में
मजदूर क्रांति कर देते हैं
दलित बस्तियों का जीवन देखकर
रो देता है मन
विवशता के इस दास्तान पर
लिख देता हूँ
दारुण दुख से भरा आख्यान
देश-दुनिया को दूरदर्शन पर देखते हुए
अंदर के समुद्र में बेचैन लहरें उठने लगती हैं
बदल देना चाहता हूँ
दुनिया की शक्ल
बरदाश्त बाहर है
अपने समाज को ध्वस्त होते हुए देखना
महाकवि की तरह अंकित करता हूँ
इन पंक्तियों को अपनी कविता में
समय के पन्नों पर
डायरी की तरह लिखता रहता हूँ कविताएं
जिनमें मेरी नींद और स्वप्न की वर्तनी
नए व्याकरण की तलाश में
भटकती रहती है
अंतरिक्ष के अरण्य में।
मां पर कुछ कविताएं
एक
बिखरे हुए थे बारूद के ध्वंस
सब तरफ फटेहाल दृश्य
बम विस्फोट के तुरंत बाद गुजर रहे थे हम
भय और आतंक के इन क्षणों में
मित्रों ने हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू कर दिया
और मैं मां को आवाज दे रहा था
बचपन से ही
संकट-मोचक रही है मां।
दो
मां मेरी जुबान का पहला शब्द
जिसने रची
मेरे लिए भाषा की सुंदर और सार्थक दुनिया
इस दुनिया में डूबते-उतराते
आज जिस जमीन पर खड़ा हूँ
वहां मां मेरी आवाज है
और मैं उसकी भाषा।
तीन
लड़खड़ा कर गिरने ही वाला था
कि एक कांपते हुए हाथ ने मुझे थाम लिया
वह मां थी
अस्सी की उमर पार कर चुकी मां
जिसको चलने के लिए सहारा चाहिए
फिर भी थाम लिया सौ किलो का शरीर
विस्मय को ध्वस्त करते हुए बोली
तू अभी भी तीन किलो का है
इतना ही वजन था तेरा
जब पहली बार आया था मेरी गोद में।
चार
जब भी दूध पीता हूँ
मां का ही दूध पीता हूँ
दूध सिर्फ मां ही पिला सकती है।
पांच
ननिहाल में मौसियां
मां से कमतर नहीं होतीं
बड़ी अम्मा और चाची की हथेलियों का ताप
ठीक वैसा ही होता जैसा मां का
यात्राओं में मिलतीं बहुत सारी मांएं
जिनकी आंखों से टपकता आशीर्वाद
दुनिया भर की मांओं का आशीर्वाद एक जैसा
एक जैसा दिल
एक जैसी ममता
एक जैसा आंचल
जिधर देखता हूँ
उधर मां दिखाई देती है
मुझे जन्म देने के बाद
मां कण-कण में बिखर गई
मेरे चारो तरफ
हर क्षण
हर शय
मां..मां..मां!
छह
बच्चे को बचाने में गिर पड़ी गाय
टूट गया उसका पांव
बचपन से पढ़ते रहे
गाय हमारी माता है
क्या मजाल जो कोई हाथ लगा दे बच्चों को
स्वीटी के रहते
कुतिया में भी मां का दिल
बच्चा नागिन से खेलता रहा
नहीं काटा उसने
नागिन भी अंततः एक मां
धरती मां की गोद में खेलते रहते हम
जीवन भर
मां के न जाने कितने रूप
हमारे दारुण से दारुण दुख को
अपनी ममता में सोखती
और हर हाल में हमें बचाती-संवारती
जितनी कहानियां ईश्वर के बारे में
वे सब सिर्फ मां पर सत्य।
सात
इतना कुछ लिखा मां के बारे में
लेकिन मां सबसे बाहर
मां की दी हुई भाषा
मां की दी हुई आवाज
मां का दिया हुआ जीवन
फिर मां कैसे अमाएगी खुद में
देवताले जी की पंक्तियां गूंज रही हैं
अंतस में
मां पर नहीं लिख सकता कविता
सब तरफ दिखाई दे रही है मां और
उसकी गोद में बैठी कविता मुस्करा रही है।
मुस्कान की तरफ
अपने संशयों और निराशा से घिरा
अपनी आत्मा की सुरंग में गिर गया था
जहां खुद के जलने से रोशनी हो रही थी
और ध्वनि भय बनकर चीख रही थी
इतना उदास था कि जैसे
अमावस्या की रात में चकोर
पिघल रहा था अंदर ही अंदर
अपनी असफलताओं की आग से
सुरंग में ऑक्सीजन खत्म होने ही वाला था
कि तुमने हटा दिया वह पहाड़-सा पत्थर
दूसरे सिरे पर खड़ी तुम
मुस्करा रही थी
मैं दौड़ रहा था
तुम्हारी मुस्कान की तरफ
अब मेरी दौड़ खत्म हो चुकी है
हांफ रहा हूँ
तुम्हारी गोद में पड़ा।
दिव्यांश, 72ए सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, पो.-सुदामा नगर, इंदौर–452009 (म.प्र.) मो. 9425314126
प्रदीप मिश्र जी कविता के कुशल चितेरे हैं ।
सभी कविताएं मर्म स्पर्शी हैं जिन्हें पढ़ना अच्छा लगता है।