सिक्किम विश्वविद्यालय सहायक प्रोफेसर। ‘कंचनजंघा पत्रिका’ (सिक्किम) का संपादन।
युद्ध
युद्ध महज युद्ध नहीं होते
युद्ध में सूख जाती हैं
नदियों की आत्मा
पहाड़ों का जिस्म सूख जाता है
रत्ती भर
सपनों का समुद्र भी
युद्ध में सिर्फ वे ही नहीं मरते
मरती है भाषा की देह
इस तरह
मर जाती है
पूरी की पूरी सभ्यता।
जन्मदिन मुबारक
सोचता हूँ
जन्मदिन पर
रख दूं तुम्हारा नाम ‘कविता’
ताकि तुम्हें और अधिक लिख सकूँ
पढ़ सकूं ताउम्र।
ठक बहादुर माझी
पुरखों ने बतियाना बंद कर दिया है
वे बोलते हैं अब देह की भाषा में
ठक बहादुर माझी
अपनी भाषा को बोलने वाले
अंतिम व्यक्ति थे
ठक बहादुर के साथ
दुनिया की एक भाषा भी चुपचाप चली गई
चला गया थोड़ा सा पहाड़
थोड़ी सी नदी
थोड़े से नमक के साथ
चला गया जीवन का एक शोरगुल भी
देखते-देखते
चली गई दुनिया के भूगोल से
एक भाषा की आत्मा
चले गए पुरखे-पुरनिया
देह की भाषा भी चली गई उनके साथ
मैं भाषा की अदालत में खड़ा होकर
माफी मांगता हूँ
किसी भाषा के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करना
हमारे समय का सबसे बड़ा अपराध है।
संपर्क : सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, सिक्किम विश्ववद्यालय, गंगटोक, सिक्किम–७३७१०१ मो.६२९४९१३९००