कथा लेखन के क्षेत्र में सक्रिय।सोशलमेडिकल पेशेंट काउंस्लर।

 

‘दादा जी! प्लीज आइए… मेरे पास आकर थोड़ी देर बैठिए।आपका ऑफिस में तीसरी बार आना हुआ है।आप किसी गहरी सोच में लग रहे हैं?… कुछ कहना चाहते हैं क्या?’

दादा जी पिछले कुछ महीनों से कुछ ज्यादा ही भूलने लगे थे।वह कुछ देर ऑफिस में खड़े रहते फिर अहाते में लगे बरगद के पेड़ के नीचे जाकर बैठ जाते।दीया ने पिछली दो बार की तरह इस बार भी अपने प्रश्नों को दोहराया।इस बार दीया की बात सुनकर दादा जी ने पलट कर उसे देखा, फिर कुछ सोचते हुए बोले…

‘क्या मैं पहले भी यहां आया था? तुम विदेश से कब वापस आई थीं?’

अपनी बात को थोड़ा विराम देकर कुछ सोचते हुए वह बोले…

‘बेटा! जब तुम्हारे बाप को भारत वापस लौटकर आना उचित नहीं लगा; उसने तुम्हें यहां कैसे भेज दिया? और तुम्हारी मां! उसके बारे में मैं क्या कहूं?… जो बाप अपनी ही संतान की इच्छा के आगे हार गया हो, वह पराई संतान के लिए क्या कहे?’

दादा जी की बात सुनकर दीया की आंखें एकाएक नम हो उठी थीं।उनके टूटे मन की कसक बहुत गहरी थी।दादा जी भूल चुके थे कि उसे भारत आए हुए सालों साल हो गए हैं।

एकाएक दीया को वह दिन याद आ गया जब वह एयरपोर्ट से सीधी हवेली आई थी।जिस हवेली में उसका बचपन गुजरा था, उसे खोजना दीया के लिए मुश्किल नहीं था।पहले जिस जगह पर दादा जी और पापा का नेम प्लेट लगा था, अब वहां बरगद लिखा हुआ था।दादा जी के पापा को लिखे गए गिनती के पत्रों में एक पत्र इस बदलाव से भी संबंधित था…

‘बाप-दादा की विशाल हवेली में मैंने अपने बेटे और उसके बच्चों के बड़े होने के स्वप्न देखे थे, मगर यह जरूरी नहीं जो हम सोचे वह पूरा हो।मैंने निर्णय लिया है कि भविष्य में उस हवेली के तीन चौथाई हिस्से पर मेरा या किसी और का कोई मालिकाना हक नहीं होगा।बचे हुए एक चौथाई हिस्से पर मेरी मालकियत रहेगी।इसका अन्य कोई दावेदार नहीं होगा।मैं हवेली को अपने जैसे उपेक्षित पिताओं के सुख चैन से रहने का आवास बना रहा हूँ।सब सुचारु रूप से चलता रहे, ट्रस्ट बनाकर निश्चिंत हो गया हूँ।सारी औपचारिकताएं पूर्ण हो चुकी हैं।हवेली अब ‘बरगद’ के नाम से जानी जाएगी।’

मां ने पापा को दादा जी की चिट्ठी सुनाकर अंत में कहा था…

‘आपके पिता जी सठिया गए हैं।जो हवेली खुद खंडहर बन चुकी है, खंडहर बनते वृद्धों को कितना संभाल पाएगी? अमेरिका आते समय कितनी बार आपके पिता जी से कहा था, हमारे साथ चलिए।नहीं माने और अब यह नया चोंचला।उन्हें हवेली से कितना मोह है, मरने के बाद वहीं कुंडली मारकर सर्प बन बैठे रहेंगे।जब इंसान रिटायर होने की सोचता है, तब उन्हें मैराथन दौड़ना है।’

मां की बातें सुनकर पापा बिफर कर बोल पड़े थे…

‘हर बात की बखिया उधेड़कर न जाने तुम्हें कौन से सुख मिलते हैं सुमी? हर व्यक्ति को अपनी तरह जीने का अधिकार है।याद करो, यहां आने से पहले तुमने यही कहा था न? जब पिता जी तुम्हें समझाना चाहते थे।मगर तुम अपने मां-पिता जी की एकलौती वारिस होने के कारण उनके व्यापार को संभालने के लिए, यहां आने की जिद पर अड़ी थी।मैं ही मूर्ख था, मेरे सिर पर तुम्हारे प्रेम का भूत सवार था।मेरी सोच भी गलत ही थी कि थक-हार कर पिताजी हमारे पास आ जाएंगे।’

मां हर बहस को जीतना चाहती थी।वह बोली…

‘आपको जमा जमाया इतना बड़ा व्यापार बहुत सुगमता से मिल गया है, तभी इतनी बातें कर रहे हैं।’

पापा में मां से बहस करने का माद्दा नहीं था।उन्होंने पतिपत्नी के रिश्ते में शांति बनाए रखने के लिए कभी विद्रोह नहीं किया।वह दादा जी की इच्छा के विरुद्ध विदेश पढ़ने गए थे।उनकी मां से वहीं मुलाकात हुई थी।उनका प्रेम विवाह था।उसी प्रेम को निभाने के लिए उस क्षण भी वह बस बुदबुदा कर रह गए थे

‘मैं अपनी नजरों में ही गिर गया हूँ सुमी।यह बात तुम कभी नहीं समझ पाओगी।’

दीया को पापा की पीड़ा बहुत आहत करती थी।पापा बहुत पढ़ाकू मगर सीधे थे।वह दादा जी की तरह दबंग नहीं थे।पापा के कोमल मन को मां ने अपनी चतुराई से साधकर अपनी मनमानियां की थी।दीया को पापा के प्रति उनका व्यवहार सही नहीं लगता था।

बारह साल की उम्र तक दीया का अधिकांश समय दादा जी के साथ अहाते में लगे बरगद के पेड़ के नीचे गुजरा था।दादा जी और नन्ही दीया बरगद के नीचे बैठकर अपने-अपने काम किया करते थे।मम्मा और पापा के साथ विदेश आने से पहले वह इतनी बड़ी नहीं थी कि अपना मत रखती।उसका मन क्या चाहता है?… किसी ने जानना नहीं चाहा।

दादा जी अपनी हवेली छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहते थे।उनकी जिद के आगे पापा की भावनाओं की नहीं चली।गुजरते समय के साथ उन्होंने अपने मन से ही पापा को दूर कर दिया।दादा जी की लिखी हुई चिट्ठी सुनने के बाद दीया की हिंदुस्तान लौटने की इच्छा और अधिक प्रबल हो गई थी।अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वह किसी एन.जी.ओ. से जुड़कर काम करना चाहती थी।दादा जी की चिट्ठी ने उसकी दिशा तय कर दी थी।

जब भी वह अपने बचपन की गलियों से गुजरती, इसी खानदानी हवेली के अहाते में खड़े बरगद के नीचे घंटों खड़ी रहती।विदेश से लौटने पर उसे दादा जी की सुनाई हुई कहानियां हवेली की दीवारों के साथ जमी मिलीं।उसे हमेशा दादा जी इस घने दरख्त के नीचे जीवन के उतार-चढ़ाव से जुड़े किस्से सुनाते हुए महसूस हुए।कभी-कभी तो उसे बरगद और दादा जी एक से नजर आते थे।दोनों में से किसी ने अपनी जमीन को नही छोड़ना चाहा।

दादा जी ने अपने जीवन में कठिन परिश्रम और मेहनत से बहुत कुछ हासिल किया था।जब उनकी रिटायर होने की उम्र थी, पापा ने अपनी अच्छी भली नौकरी छोड़कर विदेश जाने का फैसला लेकर उनके मन को तोड़ा था।

जैसे ही दीया एकाएक वर्तमान में लौटी, उसे दादा जी ऑफिस में अपने सामने बैठे हुए नजर आए।चौरानवें साल के दादा जी अल्जाइमर के मरीज थे।उन्हें पिछली बातें तो याद रहती मगर वर्तमान का काफी कुछ भूल जाते थे।दीया उन्हें डॉक्टर के पास भी लेकर गई थी मगर उनकी तबीयत में कोई सुधार नहीं था।

दीया ने उन्हें बहुत प्यार से समझाते हुए कहा…

‘दादा जी! आप मेरे पास नहीं आएंगे तो किसके पास जाएंगे? पापा ने आपका ध्यान रखने के लिए ही मुझे यहां भेजा है।आप कहें तो किसी रोज वीडियो कॉल पर आपकी बात करवाऊं?’

दीया की बात सुनकर वह मुस्कुराकर बोले…

‘अच्छा! वीनू ने तुम्हें भेजा है? आज नहीं, फिर कभी बात करूंगा।’

दीया की बात को उन्होंने बहुत सलीके से टाल दिया था।उन्होंने कभी पापा को फोन करके बात की हो दीया को याद नहीं था।उनके लिए खुशियों के मायने अलग थे।चमक-दमक से दूर उनकी सादगी भरी जिंदगी समाज की भलाई करने से जुड़ी थी।जब भी मौका मिलता वह कहते…

‘बेटा! अपने दादा-परदादा की इस हवेली को तुम्हें ही संभालना है।यहां तुम्हारी बहुत जरूरत है।यहां मेरे जैसे बहुत सारे दरख्त हैं।जिनकी संतानें उन्हीं की छांव में पली-बढ़ी मगर उन्हें ही अकेला छोड़ कर चली गई।बेटा! सिर्फ शरीर से छोड़कर जाना ही जाना नहीं होता।’

फिर एक गहरी सांस लेते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की थी…

‘बच्चे जब अपने मन से मां-बाप को हटा देते हैं, तब रिश्ता बहुत सतही रह जाता है।बुढ़ापे में मान-सम्मान और प्यार के अलावा बहुत ज्यादा नहीं चाहिए।इन सबके बगैर तो बच्चों द्वारा मुहैया करवाया हुआ खाना-पीना भी चोट पहुंचाता है।खैर मेरी पोती के जैसे कौन अपने दादा के पास लौटकर आता है? बेटा! तुम हमेशा यहीं रहना; मेरे साथ भी मेरे बाद भी।’

दादा जी की बात सुनकर दीया ने सहमति से ज्योंही सिर हिलाया वह अपनी आंखों को पोंछते हुए कुर्सी से उठे और वापस बरगद की छांव में जाकर बैठ गए थे।जिसके नीचे उनके जैसे कई वृद्ध दरख्तों का लौटता बचपन गुजर रहा था।

 

दीया के कमरे और ऑफिस की खिड़की से बरगद दिखता था।आज उसने अपने दादा से झूठ बोला था कि वह पापा के कहने से लौटी हैं।पापा तो उसका निर्णय सुनकर भावुक और खामोश हो गए थे, जबकि वह अपनी मम्मा से लड़कर हिंदुस्तान लौटी थी।मां नहीं चाहती थी कि हार्वर्ड से एम.बी.. करने वाली उनकी बेटी इस खंडहर बनती हवेली में अपना भविष्य खराब करे।

जिस रोज दीया विदेश गई थी दादा जी क्रोध में इसी बरगद के नीचे जाकर बैठ गए थे।जिस रोज भारत लौटी, वह उसी बरगद के नीचे बैठे मिले मगर अपनी ही उम्र के लोगों के साथ खिलखिलाकर हँसते बातें करते हुए।असमंजस में पड़ी दीया जब काफी देर बाहर खड़ी रही, खुद दादा जी उठकर गेट पर आए और बोले…

‘मेरी दीपू बिटिया है क्या?’

जैसे ही दीया ने हां में सिर हिलाया, दादा के आंसू उमड़ पड़े थे।झट अपने आंसुओं को पोंछकर उन्होंने सड़क के दाईं और बाईं ओर झांक कर देखा था।शायद उन्हें पापा के साथ होने की उम्मीद थी।एक गहरी सांस लेकर दादा जी ने खुद गेट खोलकर उसका हाथ पकड़ा और पेड़ के नीचे बैठे अपने मित्रों के पास ले जाकर उनसे बोले थे…

‘मेरी हवेली की रौनक आई है।मेरी दीपू… मेरी धड़कन।’

दीया दादा जी की बात सुनकर रुआंसी हो आई थी।दादा जी से जब खुशियां नहीं संभली, उससे पूछ बैठे थे..

‘बेटा! वापस जाने के लिए तो नहीं आई है?’

‘नहीं दादा जी! मैं कभी नहीं जाऊंगी।क्या मुझे आपके साथ काम करने को मिलेगा?’

दीया की बात सुनते ही दादा जी सुबक उठे थे…

‘यह काम तुम्हारा ही है बेटा।तुम्हारे आने के बाद लग रहा है कि मैं यह काम संभाल रहा था।भगवान मेरी उम्र भी तुम्हें दे दें।’

दादा जी अपनी अंतिम बात धीमे से बोल कर कमरे में चले गए थे।दीया को उनकी बातों ने रुआंसा कर दिया था।दीया चाहती तो दादा जी से पहले भी संपर्क कर सकती थी मगर उसे भविष्य में क्या करना है, यह तय करना बाकी था।

उस रात दादा जी ने गहरी नींद निकाली।सवेरे पांच बजे तक उठने वाले दादा जी जब आठ बजे तक नहीं उठे, दीया उनके कमरे में पहुंच गई।उसके कदमों की आहट सुन वे जागकर बोले…

‘बेटा! एक अरसे बाद अच्छे से सोया हूँ।यहां रहने वाले हर दरख्त की पीड़ा ने मेरी पीड़ा को हरा रखा है।’

उनकी पीड़ा भांपते हुए दीया ने कहा…

‘दादा जी! मैं आ गई हूँ न।अब आपको हर रोज इतने घंटे सोना है।’

दीया की बात सुनकर वह मुस्कराते हुए बोले…

‘मेरी दीपू शादी कब करेगी?’

‘वह भी करूंगी… मगर किसी हिंदुस्तानी लड़के से।जो हमारे साथ काम कर सके और… हमारे काम को बढ़ाने में सहायक हो।’

दादा जी को शायद इस उत्तर की उम्मीद नहीं थी।वह भावुक होकर बोले थे…

‘खुश रहो बेटा! अपना जाया तो साथ छोड़ गया मगर हीरे जैसी बच्ची मुझे सौंप गया।’

दीया ने उनका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा…

‘दादा जी! जो बातें मन को दुखी करें उन्हें भूल जाइए न।अब मैं आपके इस प्रोजेक्ट पर खूब मेहनत करूंगी।’

उस दिन की बातचीत के बाद उन्होंने हवेली की व्यवस्था रखने से संबंधित बहुत सारे टिप्स दीया को दिए।दस साल एक साथ गुजारने के बाद जब उन्हें लगा वह कहीं नहीं जाएगी, उन्होंने अपनी पूरी विरासत अपने भरोसे के साथ दीया को सौंप दी।एक बार दादा जी ने कहा था…

‘बेटा! मेरे दादा जी ने इतनी बड़ी हवेली बनाई तो अपने बच्चों और उनके बच्चों के लिए थी, मगर सबके एक-एक कर जाने के बाद, यह हवेली मेरे जैसे कई दरख्तों की आरामगाह बन गई है।इस हवेली में रहने वाले बड़े-बुजुर्गों के भी अपने घर थे, मगर उनके मन वहां शांत नहीं थे।तभी यहां आकर बस गए।

‘तेरे पापा ने बहुत कोशिश की, मैं साथ चला चलूं, मगर जब मेरे पास अपना घर था तो अपनी बहू के पिता के यहां जाकर क्यों रहता? मेरे बेटे ने मेरा स्वाभिमान तोड़ा था।मेरी तो पीड़ा बस यही है कि उसे अपने पिता की इज्जत का ख्याल क्यों नही आया?’

दीया दादा जी की कसक को महसूस कर चुकी थी।उसका लौटना, मांबाप की गलतियों का प्रायश्चित भी था।ऐसा करके ही वह अपने मन के बोझ को भी कम कर सकती थी।दीया मानती थी कि किसी और के लिए काम करने से अच्छा तो अपनों के साथ काम करना है।वह दादा जी के परेशान होने पर कहती

‘दादा जी! भूल जाइए न उनकी गलतियों को।आप सोच-सोच कर अपनी तबीयत खराब कर लेंगे।’

दीया की बात सुनकर वह कहते…

‘उसे कैसे भूल जाऊं बेटा? जो व्यक्ति कभी किसी के सामने नहीं झुका उसे तेरे बाप ने तोड़ कर रख दिया।मैं तेरी मां को भी दोष नहीं देता।तेरे बाप के मन में भी कहीं न कहीं विदेश जाने की इच्छा होगी, तभी तो तेरी मां के विकल्प सुझाते ही उसने जाने का निर्णय ले लिया।वीनू तेरी दादी का गुरूर था मगर सब कुछ छोड़ गया न।समय उसके मन के साथ था और मेरे मन के विपरीत था, तभी तो मैं आहत हुआ।यह तो मनुष्य की प्रवृत्ति है।’

दीया के पास पापा की गलतियों को सही ठहराने का कोई तरीका नही था।उसने सिर्फ अपने साथ होने का भरोसा दिलाया ताकि वह उनके आहत मन को सहला सके।वह भावुक होकर कहते थे…

‘हर पिता अपने परिवार के लिए छांव बनता है, मगर उसकी पीड़ा समझने वाले लोग कम होते हैं बेटा।यहां सबसे पहले मेरे कुछ मित्र शिफ्ट हुए, बाद में अन्य लोग भी होते गए।हम सब मिलजुल कर ‘बरगद’ को चला रहे हैं।वरना वृद्ध होते किसके शरीर में इतनी ताकत बची है कि इतना कुछ संभाल सके।यूं तो हजारों मां-पिता मन से दुखी हैं, मगर मैं चाहकर भी बहुतों का सहारा नहीं बन सकता।’

दीया को दादा जी की बातें सही लगती थीं।उसके मां-बाप के पास भाई का विकल्प था मगर दादा जी के पास अपने एकलौते बेटे के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था।दीया के भारत आने के निर्णय पर उसके पापा बहुत भावुक हो उठे थे।मां वहां की दुनिया में रमी हुई थी।उन्हें लगता था कि दीया को अमेरिका की चमक-दमक वापस लौटा लाएगी।

दादा जी की बात सुनकर एकाएक दीया बोल पड़ी थी…

‘दादा जी! जितना आपने सोचा इतना भी कोई सोच ले तो समाज बदल जाए।आपकी ही तरह मुझे भी इस बरगद से बहुत प्यार था।तभी स्वप्न में भी मुझे यही हवेली, बरगद और आप दिखते थे।आप ही तो कहते थे, ‘हम वह सब करते हैं जो हमारे निमित्त होता है और इस निमित्त को ईश्वर लिखता है।उसने ही मुझे राह दिखाई होगी।’

दीया की बात सुनकर दादा जी ने भरी आंखों से कहा…

‘तुझे सब याद है बेटा? मेरे लिए तो यही बहुत बड़ी बात है।मेरे पास हवेली का जो एक चौथाई हिस्सा था वह मैंने तेरे नाम लिख दिया है।तू ही इस ट्रस्ट की मुख्य ट्रस्टी रहेगी।मैंने सब कागजात बनवा दिए हैं।तेरे आने से मेरी पीड़ा बहुत कम हो गई है।बेटा! यहां रहने वाले दरख्त बारी-बारी विदा लेंगे, नए आएंगे।तू सबका ख्याल रखना।’

दादा जी का विश्वास दीया को स्पर्श कर गया।उसने दादा के हाथों को अपने हाथों में लेकर ज्योंही अपने माथे से लगाया, दादा जी ने कहा…

‘जो लड़की छब्बीस साल की उम्र में विदेश की चमक-दमक को छोड़कर अपने दादा के पास वापस लौटने की हिम्मत रखती है, वो मेरा भरोसा है।मैंने वीनू से फोन पर होने वाली तेरी बातें सुनी हैं बेटा।तभी वह पिछले साल तुझसे मिलने आने के बहाने, मुझसे मिलकर गया है।तेरा दादा सब समझता है बेटा।तेरी मां भी आई थी मगर उसके व्यवहार में मुझे कहीं कोई अफसोस नजर नहीं आया।वह वीनू को कभी लौटने नहीं देगी।वैसे भी सब रिश्ते बारी-बारी छूटने ही हैं, मैं अपने मन को तैयार कर चुका हूँ।कई दोस्तों को मैंने खुद बरगद से अंतिम विदाई दी है… किसी दिन मैं भी…’

अपनी बात अधूरी छोड़ कर दादा जी ने जैसे ही दीया को देखा उसके भी आंसू उमड़ पड़े।दीया ने दादा जी के पैर छूकर कहा था…

‘आपकी इच्छा मेरे लिए बहुत मायने रखती है दादा जी।कोशिश करूंगी आप के विश्वास पर खरी उतरूं।’

दादा जी ने बगैर किसी संकोच के अपनी तिजोरी की चाबी दीया को सौंपते हुए कहा था…

‘पता नहीं अब कितना जीवन शेष है? मगर तेरे आने से मन बहुत शांत है।’

दीया जिस उद्देश्य से दादा जी के पास लौटी थी, उसे सफलता मिल गई थी।वह काफी हद तक उनकी पीड़ा को कम कर चुकी थी।वह दादा जी के उसूलों को जीना चाहती थी, तभी उसके मन में कभी तिजोरी खोलकर देखने की इच्छा प्रबल नहीं हुई।दादा जी ने बिछुड़ने से पहले दीया को भरपूर निहारा थामानो दीया का वापस आना उन्हें असीम शांति दे गया हो।

दीया की सवेरे से एक बार जो दिनचर्या शुरू होती रात को ही खत्म होती।दीया के लिए हवेली में रहने वाला हर वृद्ध दादा जी का प्रतिरूप था।जब कोई दरख्त भरभरा कर गिरता दीया को एक लंबी कहानी का अंत होता हुआ महसूस होता।वह उसकी पीड़ाओं को डायरी में समेट लेती।

दीया जब उस दरख्त की शाखाओं यानी उसके बच्चों को सूचना देकर बुलवाती तो नए-नए अनुभव होते।कोई आने से इनकार कर देता तो कोई क्रिया-कर्म के लिए भी दीया से रुपए मांग लेता या भिजवा देता।दीया ऐसे अनुभवों को पुस्तक के रूप में लाने का भी निश्चय कर चुकी थी।इस यात्रा में एक दरख्त कम होता तो दो के आने की तैयारी हो जाती।

आज के तेजी से बदलते समय में छायादार दरख्तों को घरों से हटाया जाना लगातार बढ़ रहा था।एकल परिवार की परिभाषाओं में बड़े-बूढ़ों की जगह नहीं थी।ऐसे दरख्त एकांत पाते ही बहुत रोते थे।अल्जाइमर होने से पिछली बातें उनके दिमाग से निकलती ही नहीं थी।दीया उनकी दिनचर्या ऐसे बनाती है कि वे सब व्यस्त रहें।अहाते में लगा बरगद उन सभी का प्रिय स्थान था।हर पहर घंटी की आवाज के साथ उनका एक साथ उठना-बैठना और चलना-फिरना यंत्रवत मगर मुस्कराहटें देने वाला था।

एक परिवार के लोगों की कहानियों से जुड़ी यह हवेली, अब कई परिवारों की कहानियों का हिस्सा बन चुकी थी।उन सबकी कहानियों का गवाह एक अकेला बूढ़ा बरगद था, जिसके नीचे बैठकर उसने और दादा जी ने न जाने कितने निर्णय लिए थे।

दीया ने अपने पति के अलावा पंद्रह और समर्पित लोगों को जोड़ लिया था।वह भी अब साठ वर्ष से अधिक की हो चुकी थी।उसने योग्य पात्र की खोज प्रारंभ कर दी थी ताकि समय रहते उसे सब संभलवा सके।ऐसा करके ही वह दादा जी के स्वप्न को जिंदा रख सकती थी।

संपर्क : ५८, सरदार क्लब स्कीम, जोधपुर३४२००१ मो.७४२५८३४८७८