युवा कथाकार और लेखिका। अद्यतन कहानी संग्रह ‘मालूशाही मेरा छलिया बुरांश’ और उपन्यास ‘काँधों पर घर’। नाट्य आलोचना से संबंधित कई किताबें। संप्रति किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्याल में प्रोफेसर।
कथा, उसकी आलोचना और पाठक से वह त्रिकोण पूरा होता है जिसे हम समग्रता में हिंदी कथा संसार कह सकते हैं। कथा आलोचना का प्राथमिक दायित्व यह होना चाहिए कि वह एक तरफ कथा के अर्थ और विस्त्तार से पाठकों को अवगत कराए और दूसरी तरफ नई रचनाशीलता को व्यापक अर्थ और संदर्भ में प्रस्तुत करे। यह काम कथा आलोचना कुछ सीमा तक करती है, परंतु यह कहना कि हिंदी कथा आलोचना में सब कुछ शानदार और बेजोड़ है तो यह अतिशयोक्ति होगी।
साहित्य की अन्य विधाओं की तरह हिंदी कथा आलोचना अनेक समस्याओं, सीमाओं, संकीर्णताओं से ग्रस्त है। अकसर देखने में आता है कि कथा आलोचना में कुछ रचनाओं और प्रवृत्तियों को लेकर कहानियों की उत्कृष्टता और इसके मानदंडों की चर्चा हो जाती है। पर समग्र दृष्टि कई बार उपेक्षित होती है। समग्र दृष्टि इसलिए जरूरी है कि कहानी का समृद्ध अतीत, उसका समकाल और वर्तमान कथा आलोचना की जो समस्याएं हैं, वे सभी सामने आ सकें।
कहानी की उत्कृष्टता खोजने में एक और समस्या यह सामने आ रही है कि सभी कहानीकारों को समुचित रूप में पढ़ा नहीं जा रहा है। इसलिए उनका कायदे से मूल्यांकन भी नहीं हो पा रहा है। इसी से जुड़ी दूसरी समस्या यह है कि कुछ कहानीकार, आलोचक मिलकर एक पारस्परिक प्रशंसा क्लब जैसा बना लेते हैं जो उन्हीं में से किसी एक की कहानी को अभूतपूर्व बता देते हैं। इससे यह आभास होता है कि हिंदी कथा जगत में मात्र दस-पांच कथाकार हैं, बाकी कोई नहीं है। इसलिए एक बड़ी चुनौती यह है कि कथा के व्यापक परिदृश्य को कैसे देखा-समझा जाए, कैसे हिंदी कथा जगत और कथा आलोचना जगत अधिक व्यापक और विस्तृत हो सके।
हमने कथा आलोचना के व्यापक परिदृश्य को सामने लाने की जरूरत महसूस करते हुए अपने समय के 6 गंभीर लेखकों- जानकीप्रसाद शर्मा, रमाकांत श्रीवास्तव, अरुण कुमार, वैभव सिंह, तरसेम गुजराल और सूर्यनाथ सिंह को लेकर एक परिचर्चा आयोजित की है। हमारा मानना है कि इसके माध्यम से पाठकों को विविध स्वर वाला विमर्श दिखाई देगा और वे प्रश्न मिलेंगे जो हिंदी कहानी के पाठकों, आलोचकों, रचनाकारों के मन में उठते रहे हैं।
सवाल
(1)कहानियों की भीड़ में कोई कहानी किस प्रकार अलग, विशिष्ट या उत्कृष्ट ठहरती है- कहानी के विषय, उसकी अंतर्वस्तु के आधार पर या फिर कहानी की भाषा, शिल्प और ट्रीटमेंट के आधार पर? अंतर्निहित अनुभव की विरलता के आधार पर, समय-समाज से अपनी साझेदारी के आधार पर या संवेदना और विचार उन्मेषित कर पाने की क्षमता के आधार पर? अपने आकार के आधार पर या जिस पत्रिका में कहानी प्रकाशित हुई है उसकी प्रतिष्ठा के आधार पर? आप उत्कृष्ट कहानी का आकलन किस प्रकार करेंगे।
(2)क्या समीक्षकों-आलोचकों द्वारा चर्चा में लाई गईं कहानियां पाठकों द्वारा भी उत्कृष्ट मान ली जाती हैं या पाठक उनसे अलग राय भी रखते हैं?
(3)विगत पचास वर्षों में लिखी गईं कहानियों में आपको अब तक जो कहानियां उत्कृष्ट लगी हों, आप उनमें से चुनिंदा बीस या अधिक कहानियों के नाम बताएं? इन कहानियों के उत्कृष्ट लगने की वजह भी संक्षेप में अवश्य बताएं।
(4)कहानी के वर्तमान परिदृश्य की बात करें तो इसमें पिछले कुछ वर्षों में जो नए कथाकार उभरे हैं वे हैं और पिछली शताब्दी के अपनी पहचान बना चुके कथाकार भी हैं। आप इस पूरे परिदृश्य को किस प्रकार देखते हैं?
(5)जो उत्कृष्ट कहानियां आलोचकों की दृष्टि से बाहर रह गई हैं और नहीं पढ़ी जा सकी हैं, उनकी नियति क्या है?
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रमाकांत श्रीवास्तव वरिष्ठ कथाकार और आलोचक। कई किताबें प्रकाशित। |
कहानी की आलोचना में मित्रवाद की भूमिका अधिक है
(1) ‘कहानी’ पद अपने आप में ही कुछ कहने की इच्छा को व्यक्त करता है। जाहिर है, वहां एक अनिवार्य उपस्थिति जरूरी है श्रोता/पाठक के रूप में। कहानी का लक्ष्य केवल कथा रस द्वारा पाठक का मनोरंजन करना नहीं होता। आधुनिक कहानी मूलतः सामाजिक स्थितियों की विवेचना का माध्यम होती है। यथार्थ की कलात्मक अभिव्यक्ति कहानी को सार्थक रूप में प्रस्तुत करती है। निश्चय ही अंतर्वस्तु कहानी की आत्मा है, भाषा सिर्फ उसका आवरण है। आवरण की मोहकता बेशक महत्वपूर्ण है, क्योंकि आकर्षण का प्रथम सोपान वही है। किंतु यह भी सत्य है कि अति शिल्पचेतस रचनाकार यदि उसे ही अपना प्रेय समझ ले तो रचना अपनी सार्थकता खो देती है। विरल अनुभव एक आकर्षक रचना वितान प्रस्तुत करने में समर्थ होता है, क्योंकि वह एक नए स्वाद से परिचित कराता है।
हमारे समाज का बड़ा हिस्सा एकरस जिंदगी जीता है। अतः उसके जीवनानुभव भी लगभग एक जैसे होते हैं। सामाजिक परिस्थितियों में बंधी-बंधाई जिंदगी से बाहर आने के अनुभव आम आदमी के पास नहीं होते। न उसकी इतनी हैसियत है और न ही इतना साहस। जीने-खाने की जद्दोजहद में उसके पास उतना अवकाश नहीं है जो उसे विरल अनुभव से गुजरने का मौका दे। निश्चिंतता-भरी एक आनंददायी यात्रा का मौका मिल पाना भी उसके हिस्से में कठिन है।
अधिकतर हिंदी लेखक मध्यवर्गीय कठिनाइयों से जूझते हुए जीवन गुजारते हैं। प्रतिष्ठित पत्रिका में रचना प्रकाशित होने पर वह अधिक पाठकों तक पहुंचती है और आलोचकों का ध्यान भी अपनी ओर खींचती है, किंतु यह उत्कृष्टता का प्रमाण नहीं है। इसके प्रमाण बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हमें मिलते हैं।
एक नीति के अंतर्गत लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण घटना है। उस दौर की कितनी ही श्रेष्ठ रचनाएं उन पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। कितने ही लेखकों ने अपनी गंभीर कहानियां लघु पत्रिकाओं में दीं। इतना ही नहीं विचारधारा को केंद्र में रखने वाली धारदार आलोचना को उन पत्रिकाओं में स्थान मिला। साहित्य के नए सौंदर्यशास्त्र की बहस भी उन पत्रिकाओं ने प्रारंभ की और उसे विस्तार भी दिया।
जहां तक कहानी की लंबाई का प्रश्न है, उसका न कोई पैमाना है और न ही कोई आधार है। वस्तुतः कहानी की अंतर्वस्तु के अनुकूल उसका विस्तार ही आदर्श स्थिति है। वास्तव में लंबी कहानी मुझे एक दिलचस्प रचना रूप लगती है। पत्रिकाओं के संपादकों द्वारा इस पदवी का प्रचलन खासा महत्वपूर्ण हो गया है। मजेदार बात है कि पृष्ठ संख्या के आधार पर एकाध को ‘लंबी कहानी’ का नाम दे दिया गया। इससे यह भ्रम पैदा हुआ कि लंबी कहानी का टाइटल मिल जाने पर वह अधिक चर्चित हो जाएगी। कभी-कभार यह अतिरिक्त सुविधा भी मिल जाती है कि थोड़ा-सा फेर-बदलकर उसे उपन्यास के रूप में प्रकाशित किया जा सकता है। एक भिन्न स्थिति यह जरूर बनती है कि किसी कहानी की वस्तु में उपन्यास की गुंजाइश देखकर लेखक उस विषय को नए सिरे से लिखकर उपन्यास की रचना करे।
(2)आलोचक द्वारा किसी रचना को रेखांकित किए जाने पर उसका चर्चित हो जाना स्वाभाविक है। आलोचक का प्रसाद पाने की इच्छा लेखक की होती है, किंतु प्रसिद्धि और श्रेष्ठता के बीच एक पतला धागा होता है। रचना चर्चित होने पर भी ‘श्रेष्ठ’ की कोटि में स्थान पा सके, यह आवश्यक नहीं। पाठक उसे स्वीकार करे, यह जरूरी नहीं। यह ऐसा बिंदु है जिसका निर्णय इतिहास करता है। उत्कृष्ट रचना का प्रभाव देर तक रहता है। यह भी संभव है कि श्रेष्ठ रचना समय में देर तक प्रतीक्षा भी कर लेती है। जीवन मूल्यों का तिरस्कार कभी भी संभव नहीं होता।
आमतौर पर रचना मनुष्य जीवन के सत्य, आदर्श और अपने समय की प्रवक्ता होती है। अपने समय की पृष्ठभूमि पर वह कितनी सार्थक है, यह प्रश्न उसके मूल्यांकन को तय करता है। पाठक, आलोचक की राय से सहमत हो यह जरूरी नहीं। पाठक की अपनी सूची होती है। यूं हिंदी कहानी की आलोचना कमजोर है। अधिकांश लेखक उसकी विश्वसनीयता पर संदेह करते हैं। उसमें मित्रवाद की भूमिका जरूर कुछ अधिक है।
(3)विगत पचास वर्षों में कई नई पत्रिकाएं प्रकाशित हुई हैं और कई का प्रकाशन बंद हो गया है। कह सकते हैं कि कथा संसार के खजाने का ‘सिमसिम द्वार’ खोलना बहुत कठिन है। सैकड़ों कहानियां लिखी गई हैं और उन सभी को पढ़ना शायद किसी के लिए संभव नहीं है। इस प्रश्न का हर अक्षर अधूरा ही होगा। मेरी सूची भी काफी लंबी है। मैं अपनी सूची को पढ़ी हुई कहानियों में से कुछ के नाम दे रहा हूँ। जाहिर है, हिंदी कहानी के विस्तार का सिंहावलोकन कठिन है। ये नाम क्रमबद्ध नहीं हैं और हर रचना की पसंदगी के आधार को छोटी टिप्पणी में दर्ज कर पाना भी अपने आप में एक खासा बड़ा नोट होगा। अस्तु, कुछ नाम निम्नलिखित हैं : तिरिछ (उदय प्रकाश), सेल्यूट (शंकर), आमंत्रण (हरियश राय), बाजार में रामधन (कैलाश बनवासी), नालंदा पर गिद्ध (देवेंदर), आवर्त दशमलव (सुबोध कुमार श्रीवास्तव), दसवें बिंदु की तलाश (संतोष चौबे), सवर्ण देवता दलित देवता (एस आर हरनोट), फूलमती और हिजड़े (उर्मिला शुक्ल), मर्सिया (योगेंद्र आहूजा), जंगल (मनोज कुलकर्णी), आरोहण (संजीव), सुदिन (शशांक), मोहम्मद (हरि भटनागर), एक हते फलाने (आशुतोष), पता ठिकाना (नर्मदेश्वर), मजाक (कुमार अंबुज), जूते (मुकेश वर्मा), साज नासाज (मनोज रूपड़ा) लड्डू बाबू मरने वाले हैं (वंदना राग), काठ के पुतले (प्रज्ञा), फुगाटी का जूता (मनीष वैद्य) मुझे मंजूर नहीं (सबाहत आफरीन), जमीन (मनीषा कुलश्रेष्ठ), नोई अक्का (उषा देरोशा), पंडितों का कमरा (शुभम नेगी), अंतिम बूढ़े का लाफ्टर डे (दिनेश भट्ट), प्रबंधन (कुणाल सिंह), हेडफोन (वैशाली थापा), दुरंगी लेन (हंसा दीप), अलगोझे की धुन पर (दिव्या विजय)।
इन कहानियों में वस्तु और शिल्प की सम्यक मैत्री ने मुझे आकृष्ट किया। ये रचनाएं भिन्न दशकों में अपने समय और अभिप्राय के साथ प्रकाशित हुईं। ये रचनाएं पाठक तक भी पहुंच सकीं। इनकी पठनीयता मुझे महत्वपूर्ण लगी।
(4)समूचा परिदृश्य हिंदी कथा साहित्य की समृद्धि का प्रमाण है। वरिष्ठ रचनाकार बदलते हुए सामाजिक-राजनैतिक समय की गति को अधिक धैर्य से समझते हैं। युवा रचनाकारों के लिए आज पर्याप्त स्पेस है। टेकनीक के विकास से बदलते समाज की सत्य सूचनाएं उन्हें प्राप्त होती हैं जिनका उपयोग उनकी रचनाओं में दिखाई देता है। वे उनकी रचनाओं को ताजगी देती हैं। दिक्कत तब होती है जब लेखक (युवा हो या वरिष्ठ) सूचना से ही अपना कथ्य निर्मित करने का प्रयास करता है। दरअसल सामाजिक जीवन के गहन निरीक्षण और जीवनानुभव से कहानी की वस्तु समृद्ध होती है। दो-तीन पीढ़ियां जब साहित्य ही नहीं, किसी भी कला रूप में एक साथ काम करती हैं, तो यह सृजन की समृद्धि का प्रतीक है। पीढ़ियों के द्वंद्व का हल्ला नकली है।
(5)जो श्रेष्ठ कहानियां आलोचकों द्वारा चिह्नित नहीं की गईं, यदि पाठकों ने उन्हें पढ़ा और याद रखा, तो वे समय के गर्त में गुम हो जाएं यह जरूरी नहीं है। आलोचकों द्वारा जिन कहानियों का मूल्यांकन किया गया, हो सकता है कि वे भी समीक्षा की किताबों में या हिंदी में रिसर्च करने वालों के शोध ग्रंथों में कैद होकर इंतजार कर रही हों कि कम से कम शोधकर्ता उन्हें पढ़ लें, वरना वह सूचीबद्ध होकर चर्चाओं में शामिल होकर गौरवान्वित भर होती रहेंगी।
वैसे भी कहानी यदि पाठक की संवेदना से जुड़ती है तो यही उसकी सार्थकता है। कई बार यह होता है, कोई रचना तत्कालीन आलोचना में स्थान नहीं पाती, किंतु बाद में वह न केवल पढ़ी जाती है और साहित्येतिहास में दर्ज भी होती है। हम यदि आज के परिदृश्य को देखें तो हिंदी के पाठकों की कमी है। कहानी की आलोचना बेहद ढीली-ढाली है। कोई जीवंत आंदोलन नहीं है। विचारधारा-केंद्रित आंदोलन के सक्रिय होने पर लेखक, पाठक और आलोचक अधिक जिम्मेदारी से काम करते हैं, ऐसा मेरा मानना है।
एल.एफ.आई., कनक रिट्रीट/ई–218, त्रिलंगा, भोपाल–642039 मो.9977137809
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जानकी प्रसाद शर्मा वरिष्ठ लेखक। विगत पांच दशकों से हिंदी एवं उर्दू में लेखन। ‘उर्दू साहित्य की परंपरा’, ‘उर्दू अदब के सरोकार’, ‘रामविलास शर्मा और उर्दू’ तथा ‘कहते हैं जिसको नज़ीर’ सहित हिंदी में आलोचना की सात पुस्तकें प्रकाशित। ‘शानी रचनावली’ का संपादन (6 खंडों में) विशेष रूप से उल्लेखनीय। वर्तमान में सदस्य उर्दू परामर्श मंडल, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली। |
उम्मीद का एक मुकाम है पाठक
(1) ‘कहानियों की भीड़’ पद पर मुझे आपत्ति है। भीड़ कहने पर एक नकारात्मक भाव हमारे भीतर जागता है। गोया हम रचनात्मकता को प्रोत्साहित कर रहे हैं। भीड़ के बजाय कहानी विधा में विपुल लेखन कहना उपयुक्त होगा। पूछा यह जाना चाहिए कि कहानी विधा में विपुल लेखन के बीच कोई कहानी किस प्रकार अलग, विशिष्ट या उत्कृष्ट ठहरती है।
उत्कृष्टता के प्रथम चार आधारों का संबंध कहानी रचना के बुनियादी सरोकारों से है। ये सभी आधार सापेक्ष हैं। इनमें से किसी एक की मौजूदगी कहानी में ज्यादा मुखर और प्रभावशाली हो सकती है, लेकिन इसका बाकी आधारों से निरपेक्ष रहना मुमकिन नहीं है। निर्दिष्ट आधारों में ‘विचार उन्मेषित करने की क्षमता’ को मैं ज्यादा तरजीह देना चाहूंगा। कहानीकार के सामाजिक सरोकारों और रचना सामर्थ्य के कारण एक बेहतर कहानी हमारी सोच को गति देती है। यानी विचार उन्मेषित करती है।
हमें प्रेमचंद याद आते हैं। 1936 के अपने ऐतिहासिक वक्तव्य में उन्होंने साहित्य को कसौटी पर उसे खरा बताया है, ‘जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे…।’ विचारणीय है कि सहज पाठक के भीतर गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करने की क्षमता किसी रचना में तभी मुमकिन है जब उसकी अंतर्वस्तु समय-समाज सापेक्ष हो और विद्या के अनुशासन के तकाजों को सलीके से पूरी करती हो। साथ ही विषयवस्तु के साथ कथाकार का सुलूक (ट्रीटमेंट) संयमित होना भी लाजमी है। सारांश यह है कि किसी एक आधार विशेष के बजाय कहानी के समग्र प्रभाव की बात करना चाहिए। दरअसल समग्र प्रवाह लेखक की विचारधारा सहित रचना प्रक्रियागत विभिन्न कारकों का मिला-जुला परिणाम होता है। लिहाजा कोई रचना अगर अपने समग्र प्रभाव के रूप में हमारी सोच को मनुष्यता के पक्ष में गति देती है, तो यह उसकी सार्थकता की दलील है। इसके साथ विशिष्ट या उत्कृष्ट विशेषण लगाएं या न लगाएं।
अब जरा दूसरी बात, पाठक के रूप में मेरा यह व्यावहारिक अनुभव रहा है कि कभी किसी कहानी का विषय हमारे मन को ज्यादा छू लेता है, कभी पात्रों के साथ कथाकार का खास तरह का ट्रीटमेंट हमें प्रभावित करता है, कभी परिवेश के सूक्ष्म ब्यौरे हमें आकर्षित करते हैं और कभी नाटकीय तत्वों और रोचक संवाद। कहानी के कुछ अन्य पहलू भी अलग-अलग तरह से हमारी तवज्जोह खींच सकते हैं। यह पाठकीय मनोविज्ञान से जुड़ी बातें हैं।
कहानी का कलेवर (आकार) वह तो किसी सूरत में आधार नहीं माना जा सकता। रही पत्रिका की बात तो जो संपादक नाम देखकर कहानी नहीं छापते, बल्कि कहानी पढ़कर छापते हैं, ऐसी पत्रिका में कहानी अगर अलग नजर आती है तो इतना तय है कि पाठक उसकी ताकत पर भरोसा करके चलते हैं, पर यह उस कहानी के उत्कृष्ट होने की गारंटी नहीं है।
(2)कहानी के विषय को आलोचकों द्वारा कई तरह से चर्चा में लाया जा सकता है। किसी आलोचक के अपने बनाए मानदंडों पर कोई कहानी खरी उतरती है, जो वह उसे चर्चा के केंद्र में ले आता है। यहां रचना की गुणवत्ता हाशिए पर पहुंच जाती है, पर आलोचक के दिमाग में बन गया सांचा ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठता है। इसके अलावा आलोचक और रचनाकार के व्यक्तिगत संबंध भी कहानियों को चर्चा के बीच लाने के लिए जिम्मेदार देखे गए हैं। इन दोनों बातों से अलग, तीसरी बात का संबंध वस्तुनिष्ठ आलोचना से है। जहां कहानी के पाठ की व्याख्या का प्रयास किया जाता है, सिर्फ निर्णय नहीं दिया जाता।
पाठक और आलोचक के द्वैत को मैं स्वीकार नहीं करता, क्योंकि अगर कोई ऐसा मानता है तो वह आलोचक को पाठक की श्रेणी से बाहर रखना चाहता है। दरअसल आलोचक अपेक्षाकृत ज्यादा संस्कारवान और दृष्टि संपन्न पाठक ही है, जब तक उसमें पाठक की विनम्रता और गैर-जानिबदारी बची रहती है तब तक ही उसे एक जिम्मेदार आलोचक समझना चाहिए, अन्यथा उसकी पहचान फतवा जारी करने वाले व्यक्ति की-सी बनी रहती है।
विश्वविद्यालय में शोध का जो रवैया बना हुआ है, उसमें आलोचकों के मतों के आधार पर कहानी को उत्कृष्ट या निकृष्ट साबित किया जाता रहा है। कहानी को समझने, उसके संभावित अर्थों को आलोचकों की राय को बरतरफ़ करके समझने की कोशिश नहीं की जाती है। धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति आम हो गई है कि कहानी से संवाद के बजाय आलोचकों की राय के अंधानुकरण को लोग ज्यादा महत्व देने लगे हैं। जरूरत इस बात की है कि आलोचकों की राय के अंधानुकरण के बजाय कहानी से संवाद की कोशिश होनी चाहिए।
पाठक की सत्ता अमूर्त नहीं है। पाठकों की कई श्रेणियां हैं। पहले भी कहा गया है कि आलोचक भी एक श्रेणी विशेष का पाठक होता है। अब रही साधारण पाठक की बात, तो उसकी राय कहीं दर्ज ही नहीं होती। पाठक के साथ श्रोता को भी जोड़ना चाहिए। जब हम सहृदय कहते हैं तो इसका अभिप्राय पाठक और श्रोता दोनों से है। यह एक सचाई है कि पाठक और श्रोता की राय जानने का चलन अब धीरे-धीरे अतीत की चीज बनता जा रहा है। क्या हम कहानियों को आम श्रोताओं के बीच लेकर जाते हैं? जिन किसानों-मजदूरों पर कहानियां लिखी जाती हैं उनके बीच कहानी पाठ के कितने उदाहरण हमारे सामने हैं?
जहां तक मुझे पता है यह परंपरा प्रगतिशील साहित्य में आंदोलन के बाद धीरे-धीरे खत्म होती गई। और तो और शहरों और कस्बों में कहानी पाठ के आयोजन भी विरल हैं। अभिप्राय यह है कि कहानीकार पाठकों या श्रोताओं की राय से वाकिफ़ होने से वंचित है। अगर वाकई उनकी राय जानना है तो कहानी पाठ के आयोजनों में तेजी लानी होगी और कहानीकार को गहराई और धैर्य का परिचय देना होगा, ताकि वे प्रतिकूल राय का सम्मान करें।
इधर पाठकवादी आलोचना पाठक की हैसियत को केंद्र में लेकर आगे बढ़ रही है। पश्चिम के लिए यह धारणा भले नई हो, पर भारतीय काव्यशास्त्र में सहृदय की धारणा बहुत पुरानी है। यह धारणा लेखक के वर्चस्व को खारिज करके पाठ के अर्थ ग्रहण में पाठक की सहभागिता को सुनिश्चित करती है। हर दौर के पाठक एक अलग पढ़त बनाते हैं। यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है और अर्थ के नए-नए पार्श्व (पहलू) खुलते रहते हैं। अतएव पाठकों की राय की अहमियत निर्विवाद है। यहां हम पाठक और आलोचक को अलग-अलग मानकर नहीं चल रहे हैं।
मैं साहित्यिक लघु पत्रिकाओं में पाठकों की राय वाले स्तंभ को बहुत गौर से पढ़ता हूँ। इनकी राय से कई बार कहानी विशेष के ऐसे पक्ष आलोकित हो उठते हैं जहां आलोचक की नजर नहीं जाती।
(3) पिछले 50 वर्षों के दौरान कहानी लेखन के बीच से बीज कहानियों को चिह्नित करना एक मुश्किल एवं जिम्मेदारी वाला काम है। हम बीज कहानियों को चिह्नित करेंगे, उनके बाहर भी बहुत-सी बेहतरीन कहानियां छूट जाएंगी। यहां बेहतरीन में से भी चंद की शिनाख्त करने की विवशता है। शिनाख्त ऐसी हो कि मोटे तौर पर 1970 के बाद यानी आठवें दशक से लेकर वर्तमान तक चार पीढ़ियों की रचनात्मकता का प्रतिनिधित्व संभव हो सके। कहानी लेखन के बदलते रवैयों, सामूहिक रचना आंदोलनों के साथ-साथ वैश्विक एवं राष्ट्रीय सामाजिक राजनैतिक तब्दीलियों की झलक भी इनमें नुमायां हो। ऐसी 20 कहानियों के नाम, सूत्र रूप में उनकी विशिष्टता के साथ आगे दर्ज हैं। यूं समझिए कि अगर मैं इन कहानियों पर स्वतंत्र रूप से लिखता तो निम्नलिखित शीर्षक ही देता :
- बहिर्गमन (ज्ञानरंजन) : मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षाओं का आत्मघाती विस्फोट
- माटीमिली (रमेश उपाध्याय) : अर्धसामंती व्यवस्था के भीतरी अंतर्विरोध और ग्रामीण सर्वहारा का प्रतिरोध
- सहारा (रामनारायण शुक्ल) : संबंधों की हरीतिमा को निगलता सहारा रेगिस्तान
- शाह आलम कैम्प की रूहें (असग़र वजाहत) : फैंटेसी के शिल्प में घृणा एवं विद्वेष के क्रूर दृश्यों की अक्कासी।
- बच्चे गवाह नहीं हो सकते (पंकज बिष्ट) : दृश्य माध्यमों द्वारा पोषित अपसंस्कृति के खतरे
- पार्टीशन (स्वयं प्रकाश) : रोज़-बेरोज़ होते विभाजन की त्रासदी
- कहानी सराय मोहन की (काशीनाथ सिंह) : एक रोचक दास्तां के जरिए वर्ण व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य
- तस्बीह (मंज़ूर एहतेशाम) : मज़हबी अकीदों और यथार्थ की कश्मकश
- जिनावर (चित्रा मुद्गल) : मानवीय करुणा के सूखते हुए स्रोतों की चिंता
- शृंखला (अखिलेश) : भ्रष्टाचार की कूट संरचना का सशक्त प्रतिरोध
- शाल का पेड़ (ओमप्रकाश वाल्मीकि) : आदिवासी तथा दलित के अनछुए पहलू
- रामलीला (संजीव) : साझा संस्कृतिक ताने-बाने के बिखराव की पीड़ा
- जगो देवता जगो (शंकर) : जन सामान्य की प्राथमिक परेशानियों और धार्मिक तत्ववाद की टकराहटें
- नौ बिंदुओं का खेल (संतोष चौबे) : कॉरर्पोरेट संस्कृति का प्रसार और एक नया बनता यथार्थ
- पाण्डेय का ब्यान (हृषिकेश सुलभ) : वर्णव्यवस्था के बद्धमूल संस्कार और इनके राजनीतिक निहितार्थ
- महफ़िल (हरियश राय) : लोक कलाओं की विलुप्ति का संकट और सांप्रदायिकता के नए चेहरे
- धुन (महेश दर्पण) : बदलती मूल्य व्यवस्था में बच्चों व बुजुर्गों के सच का बेबाक बयान।
- पिंटी का साबुन (संजय खाती) : उपभोक्तावाद के अमानवीय चेहरे का एक्सपोजर
- अयोध्या बाबू सनक गए हैं (उमा शंकर चौधरी) : यह व्यवस्था या तो पागल बना सकती है या अपराधी – इस सच की पड़ताल
- रज्जो मिस्त्री (प्रज्ञा) : जिजीविषा और प्रतिरोध से लैस एक नई स्त्री की शिनाख्त
(4)कहानी का वर्तमान परिदृश्य नए-पुराने चिरागों की मिली-जुली रोशनी है। सृजन के मुआमले में नए-पुराने चिराग हर दौर में एक साथ रोशन रहते हैं। तीन-चार पीढ़ियां एक साथ यात्रा करती हैं। विधा विशेष के अनुरूप अलग-अलग पीढियों के लेखन के रवैये भिन्नता लिए हुए रहते हैं। सभी पीढ़ियों को चेतना के स्तर पर जोड़ने वाली जो चीज है, वह है समय का यथार्थ। जब यह हर दौर की सचाई है तो आखिर आज के दौर में कहानी के परिदृश्य की विशेषता को किस प्रकार रेखांकित किया जाए, यह एक सवाल है।
मैं समझता हूँ, कई मायने में इस परिदृश्य की कुछ अलग खूबियां हैं। कहानी में नए रुझान पैदा होने के लिए एक दशक का समय काफी होता है। आज युवतर रचनाकारों की युवा पीढ़ी भी लिख रही है, जिसने धार्मिक राष्ट्रवाद के हिंसात्मक व्यवहार की दस्तक के साथ शुरुआत की है। मेरा स्पष्ट संकेत यहां पिछले दस सालों में बने राजनीतिक परिदृश्य की ओर है। इस युवतर पीढ़ी ने अपनी शुरुआत से ही लोकतांत्रिक संस्थाओं के पतन, कॉरपोरेट घरानों और सांप्रदायिक शक्तियों के घरानों की गठजोड़ और फासीवाद के क्रूरतम रूपों का सामना किया है। स्वाभाविक है कि इस पीढ़ी की चिंताओं में इन तमाम हालात को केंद्रीयता हासिल हो। हम यह नहीं कह रहे हैं कि पिछली पीढ़ियों की चिंता में ये सवाल नहीं थे, लेकिन इतना बिलकुल सच है कि युवतर पीढ़ी के यहां आज के नए सवालों की बहुत जीवंत और प्रखर मौजूदगी है। भले सीधे-सीधे विषय के रूप में इन हालात पर उन्होंने कम लिखा हो, लेकिन उनकी रचनात्मक क्षमता का सजीव असर देखा जा सकता है।
(5)आलोचकों की दृष्टि से कई कहानियों का बाहर रहना और कई कहानियों का नहीं पढ़ा जाना दो अलग-अलग बातें हैं। कई कहानियां आलोचकों की नजर में नहीं आई हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे नहीं पढ़ी गई हैं। सचाई यह है कि कहानी-आलोचना में व्यवस्थित रूप से योजनाबद्ध तरीके से कहानियों पर काम करने वाले आलोचकों का शुमार करने बैठेंगे तो निराशा हाथ लगेगी। हाँ, कुछ संजीदा लोग साहित्यिक लघु पत्रिकाओं में समकालीन कहानियों पर स्वतंत्र लेख और गाहे-बगाहे नए संग्रहों पर समीक्षाएं लिख रहे हैं। यह एक सकारात्मक बात है। लेकिन इसकी भी एक सीमा है कि प्रायः आलोचक उन्हीं कहानियों को संदर्भित करते हैं जो उनकी निजी पसंद होती हैं और समीक्षा लिखने के लिए उन्हीं संदर्भों को चुनते हैं जो उनकी अभिरुचि के आस-पास होते हैं या जिन कहानीकारों से उनकी रस्मों-राह होती है। ऐसी हालत में स्वाभाविक है कि बहुत सी रेखांकित करने योग्य कहानियां उनकी नजर से ओझल रह जाएं, पर वह कहानी पढ़ी नहीं गई, ऐसा मानना गलत है।
उम्मीद का एक मकाम और है, वह है पाठक। अतः आप लिख तो पाठकों के लिए ही रहे हैं, समीक्षकों-आलोचकों के लिए नहीं, फिर पाठकों पर भरोसा करके ही चलना चाहिए। सृजन का उद्देश्य क्या है? पाठ को व्यापक अर्थों में आवाम के ज़हनों को सकारात्मक दिशा में बदलना। ये असर धीरे-धीरे होता है, पर होता जरूर है। इसलिए मैं ऐसा मानता हूँ कि रचना की कोई नियति नहीं होती, रचना स्वयं में एक बड़ी संभावना है।
बी–330, अशोकनगर, शाहदरा दिल्ली– 110093 मो.9811517897
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अरुण कुमार वरिष्ठ आलोचक और सेवानिवृत्त प्राध्यापक। अद्यतन पुस्तक ‘साहित्य और समाज के बदलते आयाम’। |
क्या अब कहानियां असर नहीं डालती हैं?
किसी कहानी को अंतर्वस्तु और शिल्प के अलग-अलग आधार पर जांचने का तरीका अंततः रूपवादी है। असली सवाल है, कहानी समग्रता में क्या प्रभाव छोड़ती है? अनुभव की विरलता अनुभव का वैशिष्ट्य न बन जाए, यह खतरा बना रहता है। अनुभव की विरलता की जगह रचनात्मक अनुभव कहना ज्यादा तार्किक है। ‘रचनात्मक’ से अभिप्राय है अनुभव में कल्पना का योग जिससे कहानी को दृष्टि मिलती है। यह केवल कृति के भीतर से संभव नहीं है। कृति के बाहर जो घटित हो रहा है, कहानी इससे बाहर नहीं है। अब रामाकांत श्रीवास्तव की कहानी में आया लैंपशेड (बहुमारा थाने के नगाड़े) केवल बाजार में बिकने वाला यंत्र नहीं है। वह एक प्रेमकथा है और थाने के दारोगा या कह लें पूरे पुलिस तंत्र की निर्ममता पर प्रहार है।
उत्कृष्ट कहानी का आकलन समग्रता के आधार पर होना चाहिए। हम इसके शिकार न बनें कि शिल्प के मास्टर अज्ञेय हैं और अंतर्वस्तु के प्रेमचंद। अनुभव की विरलता का एक खतरा अनुभव की श्रेष्ठता के रूप में है। रचनाकार अपने अनुभव को विरल और विशिष्ट बताने के चक्कर में अपने समय की सामाजिक पृष्ठभूमि को भूल जाता है या उसे सायास भुला देता है। नई कहानी का दर्शन यही था। इस बिंदु पर वह खुद की पहचान के संकट से जूझ रहा होता है। ऐसे में शब्दों की कुहेलिका से काम लिया जाता है। निर्मल वर्मा की कहानियों में खिड़की के शीशे पर बारिश की छलकती बूंदों में कौन-सा सामाजिक यथार्थ प्रकट होता है। यथार्थ यह है कि लंबी कहानी लिखने वालों की कहानियों का अभी के दौर में असर ज्यादा नहीं रहा है। इसे मैं नब्बे के बाद की कहानियों की उपलब्धि मानूंगा।
आपका दूसरा प्रश्न शायद कहानी की समीक्षा या कहानी के लिए स्वतंत्र आलोचना से संबद्ध है। कई बार ऐसा हुआ है कि समीक्षक की चिंता किए बगैर कहानी पाठक के मन में बैठ जाती है। हिंदी कहानी पर पहली किताब लोकप्रिय जनार्दन प्रसाद झा द्विज की आई थी (प्रेमचंद की कहानी कला)। उसके पहले प्रेमचंद की कहानियां लोकप्रिय हो चुकी थीं। हालत यह थी कि उस दौर के एक बड़े जमींदार और लेखक श्रीनाथ सिंह उनके पीछे पड़ गए थे। शंकर की कहानी ‘जगो देवता जगो’ 1999 की कहानी है। यह पाठकों में बहुत लोकप्रिय हुई। दिवाकर की कहानी ‘माटी पानी’ 1988 की थी। बहुत लोकप्रिय हुई थी। कई बार कहानी आगे आ जाती है, आलोचना पीछे।
मोहन राकेश की ‘मिस पाल’ बहुत अच्छी कहानी थी। उस दौर की आलोचना में इसे पर्याप्त जगह नहीं मिली। राजेंद्र यादव को कहानी पर किताब (हिंदी कहानी : स्वरूप और संवेदना) क्यों लिखनी पड़ी? आलोचना पाठकों में रुचि पैदा करने का काम करती है। साठ के दशक में कथा साहित्य के विद्वान डॉ गोपाल राय ने इसपर काम भी किया था। कसीदा गढ़ना आलोचना का काम नहीं है जैसा कि आज हो रहा है। इसलिए मेरे मन में एक सवाल है, आलोचना न हो तो रचना का क्या हो जाएगा? संस्कृत साहित्य का क्या बिगड़ गया?
‘सारिका’ कहानी की पत्रिका थी। कमलेश्वर, ‘मेरा पन्ना’ लिखते थे और उसके अनुरूप कहानियों का चयन करते थे। यह पूरी प्रक्रिया और संपादन-कौशल पाठकों में कहानी को लेकर रस पैदा करता था। ‘सारिका’ इतनी लोकप्रिय हुई कि पत्रिका को नए रचनाकारों के लिए एक स्तंभ निकालना पड़ा, ‘नई पौद’ नाम से। अब तक कथाकारों के संपादन-कौशल पर बहुत अधिक नहीं लिखा गया है। अमृत राय (नई कहानी), श्रीपत राय (कहानी), रमेश उपाध्याय (कथन), कमलेश्वर -ये कुशल कथाकार के साथ कुशल संपादक थे। इनके संपादन कौशल की खास बात यह थी कि वे सीमा से अधिक समावेशी नहीं थे।
आलोचक द्वारा किसी रचना को श्रेष्ठ बताए जाने के बाद, पाठकों के बीच उसकी लोकप्रियता के ग्राफ बढ़ने के भी उदाहरण हैं। नलिन विलोचन शर्मा ने रेणु के उपन्यास ‘मैला आँचल’ की समीक्षा लिखी थी। राजकमल के मालिक ओम प्रकाश ने समीक्षा पढ़ी। उपन्यास दुबारा छपा और वह लोकप्रिय हुआ। नलिन जी ‘साहित्य’ (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1951) के संपादक थे। वे खुद बहुत अच्छे कहानीकार थे। यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ की समीक्षा में आलोचक भगवत शरण उपाध्याय ने ‘अखबारों की कतरन’ बगैरह कह दिया था। तब भी उपन्यास लोकप्रिय हुआ था। एक जमाने में राजकमल से छपे उपन्यास और कहानी संकलन के फ्लैप पर छपे परिचय के कारण भी रचना लोकप्रिय होती थी। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह इसकी जिम्मेवारी निभाते थे।
कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक सबके लिए आलोचनात्मक अनुशासन की मांग कहानी केंद्रित पत्रिका के संपादकों की ओर से कभी नहीं हुई। आलोचक आलोचना के मूल्य तय करता है जो निश्चित रूप से रचनाओं के आधार पर होता है। रामचंद्र शुक्ल से लेकर रामविलास शर्मा तक के सामाजिक मूल्यों के केंद्र में तुलसीदास थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर सिंह के नायक कबीरदास थे। नामवर जी ने प्रेमचंद के कथा साहित्य के आधार पर अपने समय के कथा साहित्य को देखा। सुरेंद्र चौधरी भी लगभग उसी दिशा में चले। देवी शंकर अवस्थी कुछ अलग थे। रमेश उपाध्याय के यहां केंद्र में जनवाद था। आलोचना के मूल्य रचना के भीतर और बाहर से निर्मित होते हैं। इसके निर्माण में पूरे साहित्य की भूमिका होती है।
21वीं सदी में पहली बार खुद कथाकार ने कहानी लिखने से परहेज किया है। 2008 में कथाकार असगर वज़ाहत ने लिखा कि कहानी लिखना बेकार की बात (तद्भव) है। अभिप्राय यह कि अब कहानियां असर नहीं डालती हैं। जब तकनीक बहुत विकसित नहीं थी, तब भी प्रेमचंद से लेकर यशपाल तक को प्रतिकूलता का सामना करना पड़ा था। आज पाठक तकनीक का गुलाम हो चुका है, तब पाठक पर कहानी के प्रभाव को देख पाना नई सोच की मांग करता है। यह प्रभाव दूरगामी है। कई बार रचनाकारों को सत्ता के खौफ से बच-निकलने के लिए प्रतीकों में अपनी बात कहनी पड़ती है। पाकिस्तान के पचास और साठ के दशक में कुछ ऐसा ही था।
आज के दौर में जहां विरासत में मिली रचना भी विकृत होकर सामने आ रही है, साहित्य की रचना के रास्ते दुर्गम हुए हैं। प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ की मूल भावना थी पंच की कुर्सी की पवित्रता। पचास साल पहले सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने अपने न्यायाधीश पिता के फैसले को ही पलट दिया। यह है 1916 की लिखी कहानी का दूरगामी प्रभाव। असगर वजाहत किसी अतिवाद से जरूर घिरे हैं। उनके यहां एक और शब्द आया, वाकयानिगार, छोटी-छोटी घटनाओं को एक सिलसिला देते हुए किसी निष्कर्ष पर तुरंत आ जाना।
तेलुगु भाषा की एक चर्चित कथाकार हैं गीतांजलि। वे पेशे से मनोचिकित्सक हैं। तेलंगाना में रहती हैं। उन्होंने मुस्लिम स्त्रियों के संघर्ष की कहानियां लिखी हैं। उनकी कहानियों पर रिपोर्ताज का शिल्प हावी रहा है। परंतु इससे कहानीपन की हत्या हो जाने की धारणा नहीं बनती है। कहानियों में आगे क्या होगा, यह संभावना हमेशा बनी रहती है। गीतांजलि मुस्लिम समाज के भीतर का अंतर्विरोध और बहुसंख्यक के बढ़ते प्रभाव से विस्थापन की अपनी पीड़ा को, अपनी जमीन से बड़ी कुशलता से उभारती हैं। रिपोर्ताज की शैली ही सही, यहां समाज में बढ़ रहे अविश्वास की अभिव्यक्ति हुई है। इसका मतलब कहानी से उसके रूप का उपेक्षित हो जाना कतई नहीं है। फिर वही बात है, अंतर्वस्तु और रूप का समग्र प्रभाव। कई बार अंतर्वस्तु में यथार्थ की कड़वाहट इतनी होती है कि उसका आतंक कहानी को रिपोर्ताज की दुनिया में ले जाता है। इससे कहानी का रूप-तंत्र बाधित होता है।
कहानियों का चयन तपस्या जैसा मामला है। बहुत अनुसंधान के बाद भी शिकायत रह जाती है। आज के दौर में, कथाकार की मंशा आलोचक को सहयात्री बनाने की होती है। फिर भी, मैं यह जोखिम उठा रहा हूँ। पचहत्तर और उसके बाद के कथाकारों की क्रमवार सूची हैः विद्यासागर नौटियाल, रामाकांत श्रीवास्तव, रमेश उपाध्याय, शंकर, उदय प्रकाश, नर्मदेश्वर, रामधारी सिंह दिवाकर, ओम प्रकाश वाल्मीकि, संजीव, महेश कटारे, हरियश राय, राम बाबू नीरव, गौरीनाथ, सूर्यनाथ सिंह, शहंशाह आलम, प्रज्ञा, राजेंद्र राजन, शिव किशोर, कमलेश, नाजिश अंसारी, पार्वती तिर्की।
इनके चयन का आधार लगभग कहानी कहने का परंपरागत ढांचा है। वह परिवेश जहां कथावाचक चौपाल सजाए कहानी कहता है। कुछ कहानियां ऐसी जरूर हैं, जहां परंपरागत क्रम टूटता है। फिर भी, वे कहानियां अच्छी हैं। इसका कारण अंतर्वस्तु की गहराई हो सकता है। सांकेतिक रूप में ही सही कहानी अंततः वस्तु और शिल्प के समन्वित प्रभाव से ही पाठकों तक पहुंचती है।
2के/81, हाउसिंग कॉलोनी, बरियातू, रांची–834009 झारखंड मो.8595770079
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तरसेम गुजराल हिंदी और पंजाबी के वरिष्ठ कथाकार। अब तक 75 किताबें प्रकाशित। पंजाब के शिरोमणि सम्मान से सम्मानित। |
कथा आलोचना अब एक नियमित कर्म नहीं है
(1)कहानी की प्रतिष्ठा के बहुत से मानदंड हैं। लेकिन हम कभी नहीं भूल सकते कि कहानी जीवन की होती है। जीवन के संघर्ष, जय-पराजय, आशा-निराशा यदि कहानी में शिद्दत से स्पंदित नहीं होती तो कहानी की आधारहीनता उजागर होने में वक्त नहीं लगता। जीवनानुभव महत्वपूर्ण है, उसे ठीक से पूरा समय दे कर पचाना होता है। इस तरह कि वह रचनाशीलता में ढल जाए। रचनाशीलता का अलाव उसे पूरा करने में, परिपक्वता प्रदान करने में मदद करता है।
विचारधारात्मक आधार सहायता करता है, पर भाषा या शैली पर अलग से मेहनत नहीं करनी पड़ती। वह कथा की अमूर्तता के मूर्त होने की प्रक्रिया में साथ ही ढलती जाती है और कलम की नोक से उतरती चली जाती है। कहानी पत्रिकाओं की अपनी प्रतिष्ठा है। पाठक बड़ी उम्मीद से उनकी तरफ़ देखते हैं। भीष्म साहनी, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, ज्ञानरंजन, शंकर के संपादन में छपी कहानियों पर पाठकों ने अधिक ध्यान दिया है। लेकिन जानी मानी कथा पत्रिकाओं में प्रकाशित सभी कहानियां उल्लेखनीय नहीं होतीं। बहुत सी कहानियां छोटी पत्रिकाओं में छप कर भी अपनी जगह बना लेती हैं। काशीनाथ सिंह, रमेश उपाध्याय, सुरेंद्र मनन, रमेश बतरा, शंकर जैसे कथाकारों की कई कहानियां महत्वपूर्ण हैं।
कहानीकार सामाजिक उथल-पुथल, तनाव से बचकर नहीं निकल सकता। 1990 के आस-पास समाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर बदलाव देखे गए। जिनके दूरगामी परिणाम थे। सोवियत संघ के विघटन के साथ चीजों का बुरी तरह बदला हुआ रूप सामने आया। इसे कभी भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद समझा या समझाया गया। एडोर्नो ने इस सांस्कृतिक चेतना के विभाजित रूप को समझा और प्रपंचपूर्ण सर्वसमावेशी विमूढ़ता पर कहा- ‘आज का मनुष्य एक खुले कैदखाने में रह रहा है। यह पूरी दुनिया एक खुला कैदखाना है। लोगों को लगता है कि वे मुक्त हो रहे हैं और वे अपनी ग़ुलामी की स्थितियों को खुद आगे बढ़कर खुशी-खुशी स्वीकार कर रहे हैं।’ इसी भाव को कहानी के साथ जोड़कर वाल्टर बेंजामिन ने ‘स्टोरी टेलर’ निबंध में कहा, ‘कथा वही है जो अपनी सामग्री को स्मृति में संजोय रखती है। कथा एक श्रोता से दूसरे श्रोता तक यात्रा करती है। स्मृति का यह रूप ही परावर्तित होता है जो गतिशील है और यही कथा का उत्तर जीवन है। श्रोता बाद में स्वयं कथा कहने वाला बन जाता है।
भारत में जिस विकास का बहुत शोर सुनते हैं, वह वैश्विक परिस्थितियों से अलहदा है क्या? दिवोस में विश्व आर्थिक मंच पर भारत को लेकर ऑक्सफैम ने जो रिपोर्ट की थी, उसके कुछ अंश इस तरह हैं, ‘देश के महज एक फीसदी लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का चालीस फीसदी हिस्सा है। देश के पचास फीसदी आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का महज तीन फीसदी हिस्सा है। 90 के बाद के दौर की कहानी इस तनाव से जन्म लेती नजर आती है। यह पीड़ादायक भेदभाव चमक-दमक से भरपूर और अनेकायामी होकर सामने आया है और अनेक उत्तम कहानियां हमारी झोली में डाल गया है।
‘कहानी नई कहानी’ में नामवर सिंह कहते हैं कि यदि कोई साफ-साफ बता दे कि मुझे अमुक कहानी अच्छी लगती है तो यह बताने में कठिनाई नहीं होगी कि कहानी के बारे में उसकी मान्यता क्या है अथवा कोई मान्यता है भी या नहीं। फिर वे आत्मपूर्ण ग्रहणशीलता का सवाल ले आए -‘किसी अच्छी कहानी की यह आत्मपूर्णता एक पाठक से भी इसी प्रकार की आत्मपूर्ण ग्रहणशीलता की अपेक्षा रखती है।’ पाठक के कहानी पढ़ते समय अपने आग्रह-दुराग्रह भी होते हैं।
कहानी में विचारधारा एक लौ की तरह होती है। कहानी जीवन के जिस संघर्ष को अपना तनाव बिंदु बनाकर अपनी रचनात्मक प्रक्रिया पूरी करती है, वह सहजता से संप्रेषित हो। पाठक आसानी से उसकी अंतर्दृष्टि से जुड़ा हुआ महसूस करे। कहानीकार को अपनी कहानी पर अलग से कुछ कहना न पड़े। कहानी की सामाजिकता और इतिहासबद्धता और यथार्थवादी दृष्टि कहानी की ग्रहणशीलता में इजाफा करती है। सभी कहानीकार अपने समय को अपने ढंग से देखने को स्वतंत्र हैं। समय का अन्वेषण समय की पहचान से अलग नहीं है। शेखर जोशी की कहानियों का यथार्थ उनके चारों तरफ बिखरा यथार्थ ही था, जैसा कि उन्होंने कहा है।
(2)सभी पाठक एक जैसी मानसिकता लेकर नहीं आते। पिछली दो शताब्दियां विचारधारात्मक संघर्ष की शताब्दियां मानी गई हैं। आज हम वह धरातल लगातार खो रहे हैं। सामाजिक अवधारणाएं व्यक्तिगत अवधारणाओं में बदल रही हैं। सामाजिक प्राथमिकताएं छिन्न-भिन्न हो रही हैं। सामान्य पाठक पत्रिका या किताब हाथ में लेते ही पहले कहानी पढ़ता है। अगर कहानी अपने विषय और नैरेशन से उसका मन मोह लेती है, वह लेखक की अन्य कहानियां खोज कर पढ़ता है। शुरू में हमारी स्थिति सामान्य पाठक जैसी ही थी, जब भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ पढ़ लिया। फिर सभी उपन्यास खोज कर पढ़े। ऐसा पाठक जो साहित्य से गहरे जुड़ा है, वह आलोचक पर भरोसा कर सकता है और उन कहानियों को पढ़ना चाहेगा, जिनको आलोचक ने अपना प्यार दिया है। सूझवान पाठक की अलग राय हो सकती है।
यहां कोई निश्चित सूत्र नहीं निकाला जा सकता। यहां यह कहना असंगत न होगा कि कथा आलोचना से उम्मीद ज्यादा है, लेकिन उस अनुपात से काम नहीं हो पा रहा। आमतौर पर कथा आलोचना नियमित कर्म के रूप में काफी कम नजर आती है, छिटपुट लेखों या थोड़े में किताब चर्चा से काम चलने वाला नहीं है। फिर जिस किस्म का पकड़-छोड़ हो रहा है, वह और भी घातक है। इससे यह खतरा बराबर बना रहता है कि कुछ कम बेहतर कहानी चर्चा पा जाए और समय-सजग, उल्लेखनीय कहानी अचर्चित ही छूट जाए। ऐसे कथा आलोचक की जरूरत बनी हुई है, जो कहानी के पूरे परिदृश्य पर संयमित नजर रखे और बेबाकी से अपनी राय व्यक्त करे।
(3)उत्कृष्ट कहानियों का चयन काफी कठिन है। फिर भी कोशिश करनी होगी। केक (असगर वजाहत), अपराध (संजीव), कामरेड का कोट (सृंजय), पाल गोमरा का स्कूटर (उदय प्रकाश) नीलकांत का सफर (स्वंय प्रकाश), शेष इतिहास (रमेश उपाध्याय), जंगली जुगराफिया (रमेश बतरा), आधा शव आधा फूल (अब्दुल बिस्मिल्लाह) उठो लछमी नारायणनन (सुरेंद्र मनन), मुलाकात (राजी सेठ), चिट्ठी (अखिलेश), भैया एक्सप्रेस (अरुण प्रकाश), सैल्यूट (शंकर), मरीधार (विजयकांत), आमची मुम्बई (हरियश राय), अंतिम प्रणाम (रमाकांत श्रीवास्तव) , सीता हसीना के साथ एक संवाद (सुभाष पंत), मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा (कुमार अंबुज), कोंपलें भी फूट आईं (सूर्यनाथ सिंह), अगली हत्या (अशोक शाह), रज्जो मिस्त्री (प्रज्ञा), विज्ञापन (आनंद हर्षुल) वैसे हम भी मुंह में जबान रखते हैं और इस रास्ते पर चलने की कोशिश रही है। यह जरूरी नहीं कि मेरी चुनी उपर्युक्त कहानियों से सभी की सहमति हो।
उपर्युक्त कहानियों में बृहत्तर यथार्थ है। यथार्थ के जरिए सामाजिक विडंबना को संवेदनात्मक ढंग से पेश किया गया है। बदले हुए दौर की घातक परिस्थितियों से टकराव जाहिर होता है। कहानियां कहानीकार की पक्षधरता का अनायास बयान करने वाली हैं। ये बाजार और उसकी चमक-दमक का प्रतिरोध प्रस्तुत करने वाली हैं। जोड़-तोड़, तिकड़म, गला-काट प्रतियोगिता, आत्मकेंद्रण पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। इनका संवेदनात्मक जुड़ाव बताता है कि रचनात्मकता को आप किस तरह लेते हैं, क्या वह जड़ता तोड़ने का काम कर रही है? कहीं न कहीं ये एक ऐसे वर्ग की आवाज बनती कहानियां हैं, जिसे सताया जा रहा है, जिसकी तकलीफ अलिखित रह गई है। उपर्युक्त कहानियों के प्रतिरोध का स्वर और भाषिक संरचना में संतुलन है।
(4)आज का यह पूरा परिदृश्य बड़ा महत्वपूर्ण है। सभी नए और जो नए लोगों के रहते कुछ पुराने मान लिए गए हैं, वे कहानी की रचनाशीलता में गंभीरता से लगे नजर आते हैं। अधिकांश लेखक कहानी के प्रयोजन और उद्देश्य के प्रति सजग हैं। ये बाजारवादी साजिशों के बावजूद किसी झांसे में आने वाले नहीं लगते। लेखन उन्हें सामाजिक कार्य लगता है और महज कहानी तथा सृजनात्मकता साहित्य का फर्क मालूम है उन्हें। सुभाष पंत, प्रियदर्शन, महेश दर्पण, विनोद शाही, नवीन जोशी, संजय कुंदन, पंकज मित्र, सत्य नारायण पटेल, अरुण कुमार असफल, पंकज सुबीर, कैलाश बनवासी, नर्मेदेश्वर, गौरी नाथ, राकेश बिहारी के साथ-साथ मधु कांकरिया, कविता, वंदना राग, अल्पना मिश्र, मीरा कांत, नीलाक्षी सिंह, इंदिरा दांगी, पूनम सिंह, विभा रानी, लक्ष्मी शर्मा, ज्योति कुमारी, अमिता नीरव को पढ़ना खासकर महत्वपूर्ण होगा। इस तरह कहानी का जो परिदृश्य बनता है, वह यह साबित कर रहा है कि लोकप्रियता की जगह सामाजिक सरोकार, कैरियर की जगह सामाजिक चिंता महत्वपूर्ण है।
(5)यह विडंबना ही है कि कुछ कहानियों को धूल खाती रही हैं और अनेक कारणों से वे चर्चा से बाहर रह गई हैं। कुछ पहले की बात करूं तो सतीश मदान की कहानी ‘एफिल टावर और कीड़े-मकौड़े’ कहीं किसी चर्चा में नहीं आई। पृथ्वी राज मोंगा की कहानी ‘गुलाम’ और राम अरोड़ा की कहानियां विस्मृत हो गईं। ऐसी और कहानियों की सूची अन्य मित्रों के पास होगी। यदि आलोचनात्मक पहरेदारी सजग-सचेत नहीं रहेगी तो बहुत नुकसान उठाना पड़ सकता है। ऐसे नुकसान की कभी भरपाई नहीं हो सकती।
444 ए, राजा गार्डन, पोस्ट–बस्ती बावा खेल, जालंधर–144021, मो.9463632855
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वैभव सिंह चर्चित रचनाकार और आलोचक। पुस्तकें :‘कहानी : विचारधारा और यथार्थ’, ‘रवींद्रनाथ टैगोर : उपन्यास, स्त्री और नवजागरण’, ‘जवाकुसुम’ (कहानी संग्रह)। |
उत्कृष्ट कहानियों की खोज एक चुनौतीपूर्ण कार्य है
(1)कहानी की विधा लंबे समय से केंद्र में रही है और वर्तमान में भी शायद इसी पर सर्वाधिक विचार हो रहा है। परिचर्चा, शोध, पत्रिकाओं में प्रकाशन तथा आलोचकों के मध्य विचारविमर्श आदि के स्तर पर इसकी अधिक लोकप्रियता व मान्यता अक्षुण्ण बनी रहती है। संभवतः इसका एक समाजशास्त्रीय कारण यह है कि भारतीय समाज में नए वर्गो-समूहों में अपनी बात कहने की जो बेचैनी है, वह कहानी के माध्यम से अधिक सफलतापूर्वक प्रकट व शांत होती है। उपन्यास की विशालता और आधुनिक कविता की जटिल लघुता के बीच कहानी ही संवेगों, अनुभवों व विचारों को व्यक्त करने का सबसे पठनीय तथा प्रासंगिक माध्यम प्रतीत होती है।
कहानी में कोई लेखक किसी जीवनानुभव को अधिक लचीले शिल्प में व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र होता है। पर इस स्वागतयोग्य स्थिति के मध्य यह भी सत्य है कि कहानियां लिखना हलवा बनाने जैसा आसान काम समझ लिया गया है और नतीजतन कमजोर कथाएं लिखी जा रही हैं। चालू ढर्रे की, असंगत विषयवस्तु वाली व व्याकरणहीन अतिकथनों से भरी कहानियों से पत्रिकाएं भरी पड़ी हैं। पत्रिकाओं के अच्छे संपादक भी शिकायत करते नहीं थकते कि उन्हें अच्छी कहानियां नहीं मिल रही हैं। उत्कृष्ट कहानियों की खोज चुनौतीपूर्ण कार्य बन चुका है। पर वे जितनी भी हैं, कभी उपेक्षित नहीं रह सकती हैं। मेरे विचार से उत्कृष्ट कहानी लिखने के लिए दो चीजें बहुत आवश्यक हैं। पहला एक सुसंगत सभ्यताबोध और दूसरा सभ्यता के अंतर्विरोध तथा उसके आंतरिक उत्पीड़न तंत्र की पहचान।
कहानी को सामाजिकता से पहले से ही जोड़ा जाता रहा है, क्योंकि तब नए बनते शहरी समाज में सामाजिकता के नए रूपों का उदय हो रहा था। पर वर्तमान में कहानी में नए सिरे से सभ्यताबोध व उच्च दर्जे की सामाजिकता की खोज करनी चाहिए। सभ्यता का बहुत सारा हिस्सा समय की नदी में बह चुका है, पर अभी भी बड़े पैमाने पर बचा हुआ है। हमारे गली-मोहल्ले, मेले-तमाशे, त्यौहार, परिवार, रीति-रिवाज और यहां तक कि वेश्याओं, जेबकतरों तथा चोर-उचक्कों की जिंदगी सब इस बोध में शामिल हैं। इसका यह भी अर्थ है कि हमारा समाज, उसकी परंपराएं, मूल्य, मानवीय संबंध आदि जिन महीन तंतुओं से आपस में जुड़े हैं, उनका अनुभवजन्य बोध।
कहानी खंड चित्र, निजी जीवनचित्र या जीवन का टुकड़ा हो सकती है पर किसी समग्र सभ्यताबोध से संबंध उसके लिए जीवनदायी शक्ति है। उत्कृष्ट कहानी कई बार संक्षिप्त व सीमित हो सकती है पर उसकी संक्षिप्तता में भी हमारी सभ्यता की जीवंत धड़कनें सुनी जा सकती हैं। पर सभ्यताबोध ही पर्याप्त नहीं है, यह भी आवश्यक है कि कहानीकार के पास सभ्यता की भीतरी दरारों, अंतर्निहित तनावों व बेचैनियों को सुनने की क्षमता हो। वह केवल फैशन के लिए या बिकाऊ माल पैदा करने के लोभ में ही उत्पीड़न या अन्याय पर न लिख रहा हो, बल्कि उसकी कहानी में किसी समाज की अंतर्निहित इकाइयों में जो बड़े सुलगते प्रश्न खदबदा रहे हैं, उनका सामना करने की पीड़ा झलकनी चाहिए।
ताल्सताय ने कहा था कि मुक्ति न तो संप्रदाय में है, न ही धर्म के कर्मकांडों में है, बल्कि यह तो जीवन के अर्थ की स्पष्ट समझ में होती है। कहानी भी यथार्थ को कई कोणों से प्रकट कर जीवन के अर्थों की स्पष्ट समझ पैदा करती है। कहानी को हमने अंतर्वस्तु या शिल्प-ट्रीटमेंट के जिन चीजों में अध्यापकीय सुविधा के लिए विभाजित किया है, कहानी उससे बड़ी व अधिक महत्वपूर्ण वस्तु है।
नामवर सिंह ने एक समय कहा भी था शिल्प और कथानक के सवाल भी अब रूढ़ि और नुस्खे की तरह हैं। संसार की कई महान कहानियों को आप अंतर्वस्तु और शिल्प के प्रश्नों को सामने रखकर समझने का प्रयास करेंगे तो कहानी की गहनता को पकड़ने से वंचित रह जाएंगे। इसका कारण शायद यही है कि ऐसी कहानी जिस सभ्यताबोध व उसके अंतःसूत्रों को व्यंजित करती हैं, वे पाठक की चेतना का सफलता से स्पर्श कर पाते हैं।
(2)समीक्षक-आलोचक का काम एक स्तर पर सरल है, दूसरे स्तर पर बेहद कठिन भी। सरल इस कारण है, क्योंकि वे अपनी दृष्टि के अनुरूप कुछ भी चयन व खारिज करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। वे खराब को अच्छा और अच्छे को खराब बताने का सुख उठाना चाहें, तो उनके पास भरपूर मौका होता है। पर कठिन इस अर्थ में है कि उन्हें कहानियों की विविधताभरी, विशाल दुनिया में निरंतर भटकना होता है और उन्हें कहानी के बारे में निर्णय सुनाते समय यह पता होता है कि उनका निर्णय कितना विवादास्पद तथा अनावश्यक है।
मुझे हमेशा से लगता रहा है कि आलोचना की जितनी आवश्यकता आम पाठक को है, लेखक को उतनी नहीं है। लेखक कई बार आलोचना के बारे में दुर्भावना पालते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि आलोचना केवल रचना का विरोध करती है, जो कि पूर्णतया गलत है। कई बार तो रचनाकार अकारण ही आलोचना की विधा पर आक्रमण को अपने लिए ध्यानाकर्षण का माध्यम बनाते हैं। तब यही ‘मासूम लेखक’ इस बात को भूल जाते हैं कि वे स्वयं अन्य लेखकों से कैसी ईर्ष्या-द्वेष पाले बैठे हैं।
कई लोगों को लगता है कि आलोचना नामक बला न होती तो वे कभी का नोबल प्राइज प्राप्त कर चुके होते। लेकिन आम पाठक का आलोचना के प्रति नजरिया भिन्न होता है। वह जब किसी रचना के बारे में कोई राय कायम करता है, तो उसकी यह आकांक्षा होती है कि उसकी राय को आलोचना भी सही संदर्भों व सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करे। या आलोचना किसी कहानी का विस्तृत मूल्यांकन कर उसकी समझ का विस्तार करे। जिस प्रकार वह यह चाहता है कि कहानीकार उसके चेतन-अवचेतन के अनुभवों को रचनात्मक अभिव्यक्त प्रदान करे, उसी प्रकार वह यह चाहता है कि औसत व खराब रचनाओं को सीमाएं बताने का काम आलोचना करे। यानी समीक्षक-आलोचक व पाठकों के बीच कोई द्वैत या विभाजन नहीं होता, बल्कि दोनों साझे सरोकार व संवेदना से भी आपस में जुड़े होते हैं।
(3)विगत पचास साल हिंदी कहानियों के लिए स्वर्णकाल से कम नहीं रहे हैं। इस दौर में भारतीय समाज-सभ्यता की सबसे प्रामाणिक तस्वीर हिंदी कहानियों में उभरती है। भारत के लोकतंत्र ने मनुष्य की प्राइवेट जिंदगी को जिस प्रकार बदला है या जिस प्रकार नए-नए पाखंडों का प्रसार हुआ है, उसकी साफ झलक कहानियों में है। गत पचास सालों में लिखी अच्छी व यादगार कहानियों की सूची बनाना कठिन काम है, फिर भी यदि कोशिश की जाए तो जो कहानियां याद आती हैं वे हैं – चिट्ठी (अखिलेश), वारेन हेंसटिंग्स का सांड़ और तिरिछ (उदय प्रकाश), विकलांग श्रद्धा का दौर (हरिशंकर परसाई), बच्चे गवाह नहीं हो सकते (पंकज बिष्ट), इक्कीसवीं सदी का पेड़ (मृदुला गर्ग), भूखे रीछ और रामलीला (संजीव), तिरिया चरित्तर एवं कुच्ची का कानून (शिवमूर्ति), नमो अंधकारम (दूधनाथ सिंह), कामरेड का कोट (सृंजय), शवयात्रा (ओमप्रकाश वाल्मीकि), कम बोलने वाले भाई (सारा राय), दूसरा ताजमहल (नासिरा शर्मा), पार्टिशन एवं क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा? (स्वयंप्रकाश), खरगोश (प्रियंवद), कुआं (महेश कटारे), बाजार में रामधन (कैलाश वनवासी) पानी (मनोज पांडे), दंगा भेज्यो मौला (अनिल यादव), लफ्फाज (योगेंद्र आहूजा)। यह कोई अंतिम चयन नहीं है, और इसमें कई बहुत अच्छे कथाकार व उनकी कहानियां छूट गई हैं। ऐसी गलती सूची बनाने वाला हर व्यक्ति करता है।
पर एक अच्छी कहानी वही होती है जो या तो मानवीय चेतन व अवचेतन के विभिन्न पक्षों को कथारस पैदा करने के लिए पहले तो रहस्यात्मक रूप प्रदान करे और फिर उसे बगैर अतिनाटकीयता के चमत्कृत ढंग से उजागर कर दे। या फिर ऐसी कहानी भी पसंद की जाती है जो हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था द्वारा पैदा क्राइसिस, तनाव व निर्ममता का केवल अखबारी, ब्यौरेवार या आलंकरिक चित्रण न करे, बल्कि सही मायने में कलात्मक प्रस्तुति करने में समर्थ हो।
(4)कहानी ही नहीं, बल्कि लगभग सभी महत्वपूर्ण विधाओं में कई पीढ़ियां एक साथ सक्रिय रह सकती हैं। साहित्य में न तो सेवानिवृत्ति की योजना लागू होती है और न साहित्य में भर्ती के नाम पर कोई ‘क्वालीफाइंग एज’ होती है। नई पीढ़ी, मध्यवय की पीढ़ी और वरिष्ठ पीढ़ी की उपस्थिति बहुत साधारण बात है। पर कई बार विभिन्न पीढ़ियों में मूल्यों व साहित्य-दृष्टि के स्तर पर जो टकराव होता है वह अवश्य साहित्य को रचनात्मक ऊर्जा प्रदान करता है।
नई पीढ़ी अपने ढंग से साहित्यिक चिंतन व मूल्यों को लेकर आती थी और पुरानी पीढ़ी से उसका संघर्ष होता था। लेकिन ऐसा लगता है कि समाज और साहित्य अब आगे बढ़कर उस समय-सोपान पर आ पहुंचे हैं जहां नए व पुराने के बीच संघर्ष व टकराव नहीं बचा है। नई पीढ़ी के कई रचनाकार अब पहले से अपनी स्वीकृति, मान-सम्मान तथा प्रकाशन आदि को लेकर मिथ्या आश्वस्ति के भाव से ग्रसित हैं। उन्हें लगता है कि अंधाधुंध आत्मप्रचार से तथा सोशल मीडिया पर अपनी और अपनी किताबों के चित्र लगाने से उन्हें मनोवांछित अमरत्व का वरदान मिल ही जाएगा। यथार्थ यह भी है कि अब असहमति के लिए जगह कम हुई है और व्यवस्था, परंपरा व मूल्यों से टकराव की संस्कृति क्षीण पड़ गई है। यहां तक कि वे यह भी मानते हैं कि पुराने से टकराने या उससे जिरह के लिए पुराने साहित्य को पढ़ना पड़ेगा और पढ़ाई में मेहनत करने में इस जमाने में खास लाभ नहीं।
इसीलिए अधिकांश नए लेखक अब यशपाल या अज्ञेय को तो छोड़िए, ठीक से प्रेमचंद को भी पढ़े बगैर लेखक का तमगा लगाए घूम रहे हैं। कुल मिलाकर, सर्वाधिक वरिष्ठ पीढ़ी का संकट यह है कि पाठक का मिजाज व संवेदना बदल रही है और साहित्य में जो नए लटके-झटके, बेवकूफाना ग्लैमर व दिखावे की संस्कृति आई है, उससे अपने को अजनबी पाती है। मध्यवय की पीढ़ी का संकट है कि वह अब भी पुराने तथा नए के बीच में हमेशा की तरह खड़ी है। इस स्मृतिहीन समय में अस्सी-नब्बे के दशक की साहित्यिक स्मृतियां उसके साथ रहती हैं। इसी प्रकार सबसे युवा पीढ़ी का संकट है कि वह परंपराबोध से रहित है और उसके लिए आंधी-तूफान जैसे परिवर्तनों के बीच ठहरना तथा स्थायी महत्व का ठोस रचनाकर्म करना मुश्किल हो रहा है।
(5)साहित्य और ज्ञान के संसार में कोई सर्वोच्च अदालत नहीं होती है, जिसका निर्णय अंतिम मानकर स्वीकार कर लिया जाए। एक समय था कि कबीर, मीरां, रैदास को भी शिक्षित समाज लगभग भूल चुका था पर वे तेजी से हमारे पठन-पाठन, परिचर्चा व संघर्षों का हिस्सा बने। बौद्ध दार्शनिक अश्वघोष की वज्रसूची जैसी क्रांतिकारी कृति को चीनी भाषा से वापस लाकर, खोजकर पढ़ा गया। चार्वाक की कोई स्वतंत्र रचना नहीं मिली, लेकिन जब भौतिकवादी दर्शन का प्रभाव समाज में बढ़ा तो माध्वाचार्य के ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ तक को खोजकर लोगों ने उसमें से चार्वाक के बारे में जानकारियां एकत्र कीं। इसी प्रकार एक समय था कि संसार की महान कृतियों में से एक कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो को जर्मनी और ब्रिटेन तक में छोड़ दिया गया और उसके प्रकाशन के कई साल बाद ही फिर से लोगों की रुचि उसमें जागी। कालिदास और भवभूति की कृतियां भी एक समय नहीं उपलब्ध थीं।
हिंदी साहित्य में ही बहुत सारी स्त्री रचनाकारों के यात्रा-वृत्तांत, आत्मकथा, कथाओं आदि पर नए सिरे से अनुसंधान हुए हैं और कई चीजें सामने आई हैं। यानी, हम आलोचकों व पाठकों को कई चीजों को भूलने या उपेक्षित करने के लिए कठघरे में खड़ा कर सकते हैं। पर यही वे लोग हैं जो पुरानी साहित्यिक स्मृतियों, कथाओं, रचनाओं आदि को अपने अनुसंधान, खोज व पठन से फिर से प्रासंगिक भी बनाते हैं। ये लोग नहीं होंगे तो पुरानी धरोहर व उपेक्षित सामग्री का उद्धार करने के लिए कोई ईश्वर अवतार नहीं लेगा।
हमें इस बात को लेकर आशावान रहना चाहिए कि युग-समाज के जटिल प्रश्नों का सामना कर रहे लेखक-आलोचक किसी उपेक्षित किस्से-कहानी को भी अपने समय में फिर से पुनर्पाठ के लिए सामने लाने का काम करेंगे। हाल ही में अंग्रेजी में कुछ टिप्पणीकारों को मैंने आरके नारायण की ‘मालगुडी डेज’ की निश्चिंत बचपन वाली कहानियों को फिर से महत्वपूर्ण मानते देखा, क्योंकि लोगों को लगने लगा है कि स्कूली बस्ते, अत्यधिक तनाव, बोझ हो चुकी शिक्षा व्यवस्था ने बच्चों से बचपन को छीन लिया है। इसी प्रकार जब से हिंदी पट्टी में सांप्रदायिकता बढ़ी है, सांप्रदायिकता पर लिखी नई, पुरानी तथा चर्चित-अचर्चित हिंदी कहानियों के पुनर्पाठ के भी प्रयास हुए हैं।
403, सुमित टॉवर, ओेमेक्स हाइट्स, सेक्टर–86,फरीदाबाद, हरियाणा–121002 मो.9711312374
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सूर्यनाथ सिंह चर्चित कथाकार और पत्रकार। प्रकाशित कृतियां – कुछ रंग बेनूर (कहानी संग्रह), धधक धुआं धुआं (कहानी संग्रह), चलती चाकी (उपन्यास), नींद क्यों रात भर नहीं आती (उपन्यास) और कोई बात नहीं (कहानी संग्रह)। संप्रति जनसत्ता में एसोसिएट एडिटर। |
बहुत–सी कहानियों के नेपथ्य में रह जाने के अपने कारण हैं
(1) भाषा, शिल्प, ट्रीटमेंट आदि से रचना का शरीर बनता है। शरीर सुंदर हो तो मोहता है। शरीर स्वस्थ और सुंदर होना ही चाहिए, उसकी सुंदरता का ध्यान रखा जाना चाहिए, क्योंकि पहला प्रभाव उसका ही पड़ता है। मगर किसी भी विधा की रचना का असल और स्थायी प्रभाव इससे पड़ता है कि वह कह क्या रही है। विचार के स्तर पर वह हमें समृद्ध कितना कर पा रही है। हमारी संवेदना को कितना परिपुष्ट कर पा रही है। कहानी के संदर्भ में भी यही बात है। वह पाठक के भीतर किस तरह उतर पाती है, किस तरह पाठक से खुद को एकाकार कर पाती है, इसी से उसकी उत्कृष्टता तय होती है।
जो कहानी जितने बड़े पाठक वर्ग को अपने से एकाकार कर लेती है, जितने लंबे समय तक अपनी गूंज पाठक के भीतर बनाए रखती है, वह उतनी ही उत्कृष्ट मानी जाती है। …कहानी दरअसल, अपने समय और समाज की हलचलों को अनूदित करती है। इसमें उसकी सफलता इस बात से तय होती है कि कथाकार का अनुभव कितना गहरा है, उसका अनुभव संसार कितना बड़ा है। अनुभव का विस्तार, उसकी गहराई, उसका अनूठापन रचनाकार की संवेदना से तय होता है। इसलिए कोई भी कहानी अपने अनुभव के अनूठेपन और संवेदना की सघनता से उत्कृष्टता अर्जित करती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कहानी की स्वीकार्यता बनाने-बढ़ाने में पत्र-पत्रिकाओं की भी भूमिका होती है। अगर कोई कहानी सुविज्ञ संपादक द्वारा स्वीकृत होकर, बड़े प्रसार वाली, प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित होती है, तो उसकी पहुंच एक बड़े प्रबुद्ध पाठक वर्ग तक हो जाती है। मगर, कहानी प्रतिष्ठा पाती है आखिरकार अपने समय और समाज को रच कर ही।
(2) आलोचक की भूमिका निस्संदेह महत्वपूर्ण है। वह कहानी को खोलने के कुछ औजार उपलब्ध कराता है। वह पाठक को कोई न कोई चाभी पकड़ाता है। इसलिए अगर कोई बड़ा आलोचक किसी कहानी पर कुछ कहता है, तो उसका प्रभाव पड़ता है। एक बड़ा पाठक वर्ग हमेशा ऐसा होता है, जो आलोचक की थमाई चाभी से ही कहानी को खोलने का प्रयास करता है। उसमें खासकर विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी और अध्यापक अधिक होते हैं। इसलिए कई बार कहानी की उत्कृष्टता आलोचक ही तय करते हैं। प्रबुद्ध पाठक आलोचक की चाभी इस्तेमाल करने के साथ-साथ अपना पैमाना भी इस्तेमाल करता है। वह औजार उसकी अपनी संवेदना का है।
हर पाठक की अपनी रुचियां हैं, उसकी अपनी वैचारिक-मानसिक बनावट है। इसलिए जरूरी नहीं कि किसी कहानी पर हर पाठक की एक जैसी राय हो। एक बड़ा वर्ग ऐसे सामान्य पाठक का भी होता है, जो आलोचना का सहारा कभी नहीं लेता। वह कहानी को किसी आलोचक के औजार से नहीं खोलता। वह सिर्फ कहानियों का पाठक होता है। वह आनंद के लिए, मनोरंजन और अपनी संवेदना को परिपुष्ट करने के लिए कहानियां पढ़ता है। हालांकि उसकी राय दर्ज करने का कोई माध्यम नहीं है, पर उसकी राय किसी आलोचक से कम नहीं होती।
कई बार कहानियां ऐसे पाठकों की रुचियों से ज्यादा उत्कृष्ट साबित होती हैं। जहां तक कथा आलोचना की बात है, यह उस तरह आज स्वतंत्र रूप में विकसित नहीं हो पाई है, जैसे कविता की आलोचना विकसित हुई है। कथा आलोचना की जिम्मेदारी ज्यादातर खुद कथाकारों को उठानी पड़ती है। इसलिए अगर कोई बड़ा कथाकार बिना किसी आग्रह-पूर्वग्रह के, किसी कहानी को उत्कृष्ट कहता है, तो उसका असर होता ही है।
(3) अक्सर कहानियों का शीर्षक मैं भूल जाता हूँ। मगर उनकी कथा-वस्तु जेहन में बनी रहती है। इसलिए कई ऐसी कहानियां हैं, जिनकी वस्तु जेहन में है, पर उनके नाम नहीं बता पा रहा हूँ। हां, कुछ रचनाकारों का उल्लेख अवश्य कर सकता हूँ। उनमें उदय प्रकाश की कहानी मोहनदास और अरेबा-परेबा, शिवमूर्ति की कहानी कुच्ची का कानून, संजीव की कुछ कहानियां, शंकर की कुछ कहानियां, अब्दुल बिस्मिल्ला, असगर वजाहत, अवधेश प्रीत की कजरी कहानी, सृंजय की कामरेड का कोट, मनोज कुलकर्णी, सिनीवाली आदि की कुछ कहानियों का जिक्र फिलहाल किया जा सकता है। ये नाम गिनाने का अर्थ यह नहीं है कि मैं कई कहानियों को जान-बूझ कर छोड़ रहा हूँ। दरअसल, पचास वर्षों में पचास से अधिक ऐसी कहानियों के नाम गिनाए जा सकते हैं, जो किसी न किसी रूप में उत्कृष्ट कही जा सकती हैं। उनमें अपने समय को समझने के सूत्र हैं।
(4) कहानी के विकास को देखें तो साठ के दशक के बाद हर दस साल में एक नई पीढ़ी सक्रिय देखी जाती है। इस समय कहानी लेखन में कम से कम पांच पीढ़ियां सक्रिय हैं। इनके अलावा एक नई पीढ़ी भी दस्तक दे रही है। 70 के दशक में जिन्होंने लिखना शुरू किया था और अपनी मजबूत उपस्थिति बनाई थी, वे भी सक्रिय हैं। जिन्होंने 21वीं सदी शुरू होने के बाद लिखना शुरू किया वे भी हैं। इसमें काशीनाथ सिंह, ममता कालिया, अब्दुल बिस्मिल्लाह, असगर वजाहत, उदय प्रकाश, संजीव, विभूति नारायण राय, शंकर, शिवमूर्ति, अखिलेश, महेश कटारे, उषा किरण खान, हृषिकेश सुलभ, महेश दर्पण, गंभीर सिंह पालनी, सृंजय, राकेश कुमार सिंह, हरियश राय, नीलाक्षी सिंह, संजय कुंदन, राकेश तिवारी, अवधेश प्रीत, मनोज कुलकर्णी आदि हैं। इस सूची में कई और नाम जोड़े जा सकते हैं। ये सभी अपने-अपने ढंग से अपने समय को खोल रहे हैं। इन सभी पीढ़ियों के बीच स्वस्थ आवाजाही है। हर नई पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से पाथेय लेकर ही सफर शुरू करती है, मगर जिसे हम पुरानी पीढ़ी कह सकते हैं, आज वह भी नई पीढ़ी से काफी कुछ ले रही है। विषय के स्तर पर भी, भाषा और शिल्प के स्तर पर भी।
दरअसल, जिन पचास वर्षों के काल की बात की जा रही है, उसमें अनेक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव हुए हैं। इनका हमारे ताने-बाने पर सीधा असर पड़ा है। इनमें आपातकाल के बाद की स्थितियां भी हैं, गठबंधन सरकारों के दौर में पैदा हुई राजनीतिक विसंगतियां भी हैं। वैश्वीकरण और उदारीकरण ने तो पूरी दुनिया में काफी कुछ तोड़-फोड़ किया। बाजार ने लगभग जीवन की परिभाषा ही बदल दी। जो जीवन मूल्य और सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य हमारी सभ्यतागत पहचान के रूप में चिह्नित किए जाते थे, वे सब लगभग ध्वस्त कर दिए गए। उन्हें बाजार ने ध्वस्त कर दिया। उसने हमारी भाषा को भी काफी कुछ बदल दिया। इसका हमारे रचनाकार समाज की संवेदना पर गहरा असर हुआ।
जिस पूंजी का विरोध करते आए थे, उसने न सिर्फ पांव जमा लिए, बल्कि वही नियंता हो गई। राजनीतिक मूल्य तक उसने तय करने शुरू कर दिए। यह हाल केवल एक देश की सीमा तक सीमित नहीं रहा, पूरी दुनिया इसकी गिरफ्त में आती गई। विश्व व्यापार संगठन ने तय करना शुरू कर दिया कि व्यापार-वाणिज्य की सुविधा के लिहाज से किस तरह नीतियां बननी चाहिए। तकनीक ने हमारे जीवन पर एक तरह से आक्रमण कर दिया। सूचनाओं से हमारा मिजाज बदला जाने लगा, बल्कि काफी कुछ बदल दिया गया। अब सूचनाएं वे नहीं हैं, जो हम पाना चाहते हैं, बल्कि वे हैं, जो वे देना चाहते हैं। हिंसा, हर तरह का अपराध, बलात्कार आदि अब सबसे बिकाऊ सूचनाएं हैं। सांप्रदायिक उन्माद अब राष्ट्रीय गर्व का विषय है। इन सबका हमारे जीवन, हमारे समाज, बल्कि मुकम्मल मनुष्य पर क्या असर पड़ा है, पड़ रहा है, उसे इस दौर के कथाकार विषय बना रहे हैं। सब अपने-अपने ढंग से एक बेहतर मनुष्य रचने का प्रयास कर रहे हैं। इस तरह इस दौर के कथाकार प्रतिरोध के स्वर को जिंदा रखे हुए हैं। वे मनुष्यता के पक्ष में एक अलख जगाने में जुटे हुए हैं।
(5) कहानियों की नियति नदी किनारे पड़े उन पत्थरों जैसी कह सकते हैं, जो इस इंतजार में पड़े हुए हैं कि कोई गुणग्राही आए और उठा कर उन्हें महादेव बना दे। इस समय कथा साहित्य में विपुल लेखन हो रहा है, बहुत सारी उत्कृष्ट कहानियां लिखी जा रही हैं। निस्संदेह पत्र-पत्रिकाएं भी ढेर निकल रही हैं। उनमें बहुत सारी अच्छी और उल्लेखनीय कहानियां छप रही हैं। मगर सच्चाई यह है कि उनमें से बहुत सारी चर्चा से बाहर रह जाती हैं। इसकी एक वजह यही है कि कहानी विधा को लेकर उस तरह व्यवस्थित आलोचना नहीं हो पा रही, जैसी प्रायः कविता को लेकर हो रही है। जो आलोचना हो भी रही है, उसका स्वरूप निष्पक्ष नजर नहीं आता। वह पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखी जा रही पुस्तक समीक्षाओं के रूप में आ रही है या फिर विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को आधार बना कर लिखी गई। ऐसे आलोचक नजर नहीं आते, जो पूरी तरह कथा साहित्य को समर्पित हों और उनकी नजर हर पत्रिका, हर कथा संग्रह पर पड़ पाती हो। वे बड़े सेलेक्टिव ढंग से लिखते हैं।
सुरेंद्र चौधरी के बाद उस तरह व्यवस्थित ढंग से काम करने की कोशिश शायद किसी ने नहीं की है। शंभु गुप्त, संजीव कुमार, ज्योतिष जोशी, दिनेश कुमार आदि जैसे कई ऐसे लोग हैं, जिनमें कहानी की बहुत अच्छी समझ है। उनसे कथा-आलोचना को लेकर बहुत उम्मीदें हैं, मगर वे भी किन्हीं कारणों से व्यवस्थित आलोचना नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए बहुत सारी उत्कृष्ट कहानियों का नेपथ्य में रह जाना अस्वाभाविक नहीं है। कभी शायद कोई आलोचक कथा-आलोचना को लेकर समर्पित हो, तो उनकी सुध ले पाए।
181, नेवल टेक्निकल ऑफीसर्स सोसाइटी, प्लॉट नं.-3 ए, सेक्टर-22, द्वारका, नई दिल्ली-110077 मो.9958044433
संपर्क प्रस्तुतिकर्ता : एच 103, सेकेंड फ्लोर, साउथ सिटी 2, सेक्टर 50, गुरुग्राम, हरियाणा–122018 मो.9811585399