वरिष्ठ लेखक और कवि। तीन कविता संग्रह प्रकाशित। अद्यतन संग्रह एक सदा आती तो है

जाति

ब्राह्मण ने मूर्ति को दिखा कर कहा
शीश झुकाओ, प्रणाम करो
आशीर्वाद मांगो
मैंने सब किया तो ब्राह्मण बोला
तुम्हारा कल्याण हुआ
दक्षिणा चढ़ाओ
मैंने पूछा- तुम्हें कैसे पता
वह बोला-हमें पता है जो तुम्हें पता नहीं है
वरना तुम्हारे पापों का फल देगा ईश्वर
मैंने याद किया और कहा कि
मैंने अभी तक कोई पाप नहीं किया है
ब्राह्मण देवता को
ग़ुस्सा आ गया
बोला-मूर्ख यह तेरे जीवन भर के
पापों की दक्षिणा है
देखते नहीं हो करोड़ों लोगों को
खाना नसीब नहीं होता
टप्पर में रहते हैं अशिक्षित रहते हैं
बीमार होकर मरते हैं सिर्फ इसीलिए

वहां से निकला
तो कुछ क्षत्रिय मिले जो अलग-अलग
धर्मों और राजाओं के प्रतिनिधि थे
और आपस में झगड़ते हुए
आगे बढ़ रहे थे
सबके सब परस्पर मां-बहनों से संबंध बनाते हुए
खून की नदियां बहा रहे थे, मैं डरा ही था
कि किसी ने मुझे पकड़ कर खींच लिया और
दरवाजा बंद कर दिया

वह बनिया था, बोला- तुम चुपचाप यहां बैठो
आज से तुम मेरे गल्ले का हिसाब रखना
आजकल सब बदल गया है, राजा भी बेईमान है
और हम तो हैं ही
अब इन दोनों में संतुलन बैठा कर हिसाब करना
हमारे जैसे अनपढ़ के लिए
संभव नहीं है
हां, बनिए ने मुझे पानी पिला कर चाय भी पिलाई

तब तक बाहर शोर खत्म हो चुका था
मैं चालाकी से बाहर निकला
तो एक शूद्र तैयार खड़ा था
उसने मेरी जाति पूछी
तो मैंने कहा-यह तो मालूम नहीं
उसने कहा-यह कैसे हो सकता है
मतलब तुम शूद्र ही हो
चलो मेरे साथ

तब तक सपना टूट चुका था
और मैं पसीने से लथपथ था
पत्नी ने बेटों, बहुओं को बुलाया
सबने मिल कर पूछा-क्या हुआ है आपको
मैंने पूछा-मेरी जाति क्या है
निर्णय की प्रतीक्षा है!