विनोद शाही

वरिष्ठ आलोचक और नाटककार। आलोचना की लगभग तीस पुस्तकें। अद्यतन पुस्तक ‘संस्कृति और राजनीति’।

जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रवर्तक भी हैं और उसका शिखर भी। उनके छायावाद को समझना, एक तरह से हिंदी छायावाद की मूल प्रकृति को समझने जैसा है। प्रसाद ने छायावाद की जो जमीन तैयार की, उसे निराला ने अपनी प्रयोगशीलता के द्वारा विविधताधर्मी बनाया। पंत ने उसे कलात्मक रूप में और अधिक निखारा और उसे व्यापक सौंदर्य अनुभूति के सांचे में ढाल दिया। महादेवी के साथ वह अधिक आत्मीय होकर हमारे एकांत का भावमय सहचर हो गया। इसका अर्थ यह है कि प्रसाद के पास जो था, उसे उनके तीन मुख्य सहयात्रियों ने प्राणमय,  सौंदर्यमय तथा भावमय बनाने में अपनी भूमिका निभाई। ऐसे में अब हमारा यह पूछना एकदम से मूल मंतव्य पर आने जैसा है कि प्रसाद के छायावाद का स्वरूप क्या है और वह कैसे हिंदी छायावाद की मूलभूमि बनने लायक होता है?

प्रसाद का छायावाद 1914 में ‘इंदु’ में प्रकाशित उनकी कविता ‘खोलो द्वार’ के साथ अब तक बंद पड़े हिंदी काव्य के कपाट खोल कर अपनी वास्तविक भूमि पर पदार्पण करता है और 1936 में प्रकाशित महाकाव्य ‘कामायनी’ के साथ अपने कैलाश शिखर का आरोहण करता नजर आता है। आइए देखते हैं कि छायावाद की यह मूल भूमि क्या है ?

शिशिर कणों से लदी हुई, कमली के भीगे हैं सब तार
पश्चिम का चलता है मारुतलेकर शीतलता का भार
भीग रहा है रजनी का, वह सुंदर कोमल कबरी भाल
अरुण किरण सम कर से छू लो, खोलो प्रियतम, खोलो द्वार
खोलो द्वार (1914 )

 

वह चंद्र किरीट रजत नगउदित सा पुरुष पुरातन
देखता मानसी गौरी, लहरों का कोमल नर्तन
प्रतिफलित हुई सब आंखें, उस प्रेम ज्योति विमला से
सब पहचाने से लगते, अपनी ही एक कला से
समरस थे जड़ या चेतन, सुंदर साकार बना था
चेतनता एक विलसतीआनंद अखंड घना था
कामायनी, आनंद सर्ग, अंतिम पद ( 1936 )

इस पूरी काव्य यात्रा को ध्यान से देखें, तो निम्न बातें स्पष्ट रूप में दिखाई दे सकती हैं :

एक :  बंद द्वार खुलने पर उस ओर मौजूद प्रियतम को पाया जा सकता है । परंतु उस ओर जो है वह चंद्र किरीटरजत-नग कैलाश की तरह दुर्गम, बेहद ऊंचा, परंतु अति भव्य है।

दो : यह पूरी यात्रा ‘प्रेम की तलाश’ के लिए की गई यात्रा है। प्रेम स्वरूपतः ज्योतिर्मय है। बंद द्वार के इस ओर अंधा बनाने वाला अंधेरा है, जड़ बनाने वाला शीत है और शोकाकुल अश्रु-तरल भावभूमि है। उस ओर हृदय और आत्मा को छू लेने वाले अरुण कर हैं, सब को अपना बनाने वाली आत्मीय ऊष्मा है  और सब आंखों को सब दिखाने वाला प्रतिफल है।

तीन : बंद द्वार के इस ओर ‘पश्चिम’ की ओर से बह कर आता मारुत है और उस ओर ‘पूर्व’ में उदय होता अरुण देश है।

चार :  इधर कमली की वीणा के तार रुद्र हो रहे हैं और उधर समरस सहस्रार कमल के खिलने की संभावना है।

पांच : इधर का यथार्थ जड़ और चेतन में विभाजित है और उधर जड़ और चेतन को समरस बनाने वाली ‘आनंदमय चेतनता’ है।

उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर अब हम प्रसाद के छायावाद के स्वरूप को रेखांकित करने का प्रयास कर सकते हैं।

प्रसाद का छायावाद आधुनिक युगबोध के अंतर्विरोधों का प्रेममूलक रहस्यानुभूति में ऐसा समन्वय है, जिसे प्रकृति से समरस होकर साधा जा सकता है।

इसका मतलब यह है कि प्रसाद के छायावाद के मुख्यतः तीन पक्ष हैं :

एक : युग के अंतर्विरोध प्रसाद के छायावाद की पृष्ठभूमि हैं। इनका संबंध एक ओर हमारे पूर्व और पश्चिम में अंतर्विभाजित होने से है, तो दूसरी ओर आत्मावलोकन से, जो हमारे आत्मगौरव और पिछड़ेपन के बीच डोलता रहता है।

औपनिवेशिक दौर में हमारे ऊपर प्राच्यवादी धारणाओं का  आरोपण हुआ। उन्होंने हमें ‘स्व’ और ‘पर’ के वर्चस्व में से किसी एक को चुनने के लिए विवश किया। यह हमें अजनबी और पराई सभ्यता एवं संस्कृति के खिलाफ लड़ाई लड़ने की ओर ले गया। इससे हम आत्मबोध को नए रूप में उपलब्ध होने के लिए विवश होते हैं, आत्मावलोकन करके अपनी कमजोरियों से लड़ना आरंभ करते हैं। अपने उस इतिहासबोध को पाना चाहते हैं, जो आधुनिक पश्चिमी ज्ञान, विज्ञान, सभ्यता और संस्कृति के नए प्रतिमानों के मुकाबले इस अर्थ में बेहतर लगता है कि वह अधिक मानवीय संभावनाओं से युक्त दिखाई देता है। इस युगबोध का अंतर्विरोध यह है कि यह हमें अपने पतन के कारणों तक तो ले जाता है, लेकिन पश्चिमी विकल्प को स्वीकार करने के बजाय प्रतिरोध की भंगिमा अख्तियार करता है। नतीजतन विकल्प की तलाश वास्तविक यथार्थ की ज़मीन को छोड़ कर अमूर्त की ओर रुख करने लगती है।

दो : उपर्युक्त पृष्ठभूमि अपने अंतर्विरोधों के द्वारा हमें विभाजित और विखंडित करती है।  ऐसे में हम भग्न हृदय प्रेमियों की तरह अपने भावों का सुदूर और गहन अंतर्भूमियों तक विस्तार होता हुआ पाते हैं। यह एक तरह के अभाव पूर्ति का प्रयास है, जिसे हम बाहर की दुनिया में हासिल नहीं कर पाते, उसे अपने अंतर्जगत में मूर्तिमान करने की कोशिश करते हैं। इस तरह हम अपनी चेतना को युग स्थितियों का विकल्प बनाने की दिशा खोलते हैं। वजह यह है कि  हम युग स्थितियों का खिलौना होने से इनकार करते हैं और प्रेम करने की अपनी स्वच्छंद लीलामय सामर्थ्य का आवाहन करते हैं। लीला की बेपरवाही हमें जीवन और मृत्यु की बाजी तक लगा देने का खेल खेलने की हिम्मत देती है। यह एक  तरह से हमारे सदा स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति का पर्याय होती है। प्रेम का यह स्वातंत्र्य हमें एक ओर राष्ट्रप्रेम का पाठ पढ़ाता है, तो दूसरी ओर वह हमें हमारी आत्मा तक ले जाता है, उस आत्मा तक जो अहं के विगलन से हमारे  प्रेम में डूबने से हमें मिलती है। स्पष्ट है कि प्रेम का यह रहस्य युगस्थितियों के यथार्थ और इतिहासबोध की उपज है, न कि कोई अव्यावहारिक भावुक पलायन, जैसा कि बहुत से लोग यथार्थवाद के उथले आग्रह के कारण वहां देखते दिखाते हैं।

यहां एक उदाहरण प्रासंगिक मालूम पड़ता है।  ‘ ले चल मुझे भुलावा देकर,  मेरे नाविक धीरे धीरे’ में पलायन वृत्ति नहीं है, अपितु ‘निर्जन’ की खोज के लिए आत्मानुभूति के पर्याय अपने ‘नाविक’ से यह कहना है कि वह ‘निश्छल प्रेम कथा’ कहने वाले सिंधु में ले जाए। प्रसाद के यहां सिंधु बार-बार आता है। वह हिंदू और हिदुस्तान का तत्सम रूप है। उसके निर्जन अरण्य कांड आज भी निश्छल प्रेम की कथा कहते हैं। परंतु सिंधु पर सवार होकर छलियों की वजह से यह सिंधु हमारे विनाश के प्रलयंकारी ज्वार से युक्त ‘कोलाहल’ से भर गया है। प्रसाद के प्रेम के आत्मलोक की जमीन किस प्रकार गहरे में हमारे राष्ट्र के भूगोल की तरह अपने नक्शे खोलती है, इसे देखे समझे बिना हमारी प्रसाद तक पहुंचने की कोशिश अपर्याप्त ही रहेगी।

तीन : प्रकृति से समरसता प्रसाद के छायावाद की मंजिल है। प्रेम के द्वारा आत्मा के जिस स्वातंत्र्य को पाया जाता है, वह हमें अंतः तथा बाह्य प्रकृति के साथ एकाकार या समरस होने की दशा तक ले जाता है। इसे प्रसाद ‘जड़ और चेतन के बीच भेद के मिट जाने’ की दशा कहते हैं। इसे अमूर्त किस्म के अध्यात्म की तरह देखना प्रसाद के साथ अन्याय करना है।

आलोचकों का ध्यान, छायावाद की एक प्रवृत्ति की तरह रेखांकित होने वाले ‘प्रकृति के मानवीकरण’ पर अटका रह गया है। हिंदी का छायावाद, बरास्ते प्रसाद,’प्रकृति के मानवीकरण’ को एक जीवन दर्शन की तरह विकसित करता है। इसकी जमीन तत्कालीन युगबोध में है। उस दौर के बरक्स प्रसाद भारत को ‘प्रकृति के पलने’ की तरह देखते हैं।

किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पलना यही
हमारी जन्मभूमि थी यही, कहीं से हम आए थे नहीं
बचा कर बीज रूप में सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत
अरुण चेतन लेकर निज वादवरुण पथ पर हम बढ़े अभीत
सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता विकास
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि युग का मेरा इतिहास

पश्चिम हम से हमारी इस प्रकृति को ही नहीं, हमारी जन्मभूमि के हमारे अपने इतिहास को भी हमसे छीन लेना चाहता है। हम इसका प्रतिरोध करते हैं, क्योंकि हमारे लिए अंतः और बाह्य प्रकृति में कोई अंतर नहीं है। और क्योंकि हमने प्रकृति के बीजों को बचाया है और अपने देश को पलना बना कर उसको सींचा है। इस प्रक्रिया में हमारा आत्म बलिदान होता है। वह हमारे इतिहास को अस्थियुग में बदल देता है। हम अस्थि कंकाल होकर भी अपनी अंतः बाह्य प्रकृति की समरसता को अपनी करुण कथा की तरह जीते हैं। इससे जीने का रहस्य हमारे सामने खुलता है, जो हमें आनंदलोक में ले जाता है।

मनु ने कुछ कुछ मुस्का कर, कैलाश ओर दिखलाया
बोले देखो कि यहां, कोई भी नहीं पराया
हम अन्य न और कुटुंबीहम केवल एक हमीं हैं
तुम सब मेरे अवयव हो, जिसमें कुछ नहीं कमी है

अद्वैत की यह आत्मानुभूति, अमूर्त और पारलौकिक आध्यात्मिक दशा नहीं है।यह समरसता दर्शन, यथार्थ एवं वास्तविक युग स्थितियों को ही रहस्यानुभूति के रूप में पुनरुपलब्ध करता है। वह जो अभिव्यक्ति में रहस्य है, अंतर्वस्तु के तल पर वह तत्कालीन यथार्थ का सांस्कृतिक चेतना मूलक विकल्प है।

प्रसाद के निबंध उनके अपने छायावाद संबंधी चिंतन विमर्श को हमारे सामने लाते हैं। अपने इन निबंधों में वे इस संदर्भ में अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि उस समय की काव्य चेतना यथार्थवाद और आदर्शवाद के दोनों तयशुदा रास्तों से अलग है। वह इन दोनों से अपनी अलग दिशा निर्धारित कर आगे बढ़ती है। तथापि प्रसाद की निगाह में ये ज्ञान विमर्श काव्य की व्याख्या के लायक तभी होते हैं, जब वे ‘मनुष्य’ की बाबत अपने दृष्टिकोण को प्रकट करते हैं।

प्रसाद के अनुसार यथार्थवाद ‘मनुष्य की लघुता’ का दर्शन है,जबकि आदर्शवाद ‘मनुष्य की महत्ता’ वाले पहलू पर जोर देता है। इसका मतलब यह है कि वे यथार्थवाद और आदर्शवाद की ज्ञान मीमांसा और तत्वमीमांसा को काव्यालोचन का हेतु नहीं बना रहे हैं। इसके उलट उनका काव्यशास्त्रीय चिंतन ‘मनुष्य केंद्रित’है।

मनुष्य की लघुता के दर्शन की तरह यथार्थवाद को देखने का मतलब यह है कि प्रसाद वहां यह देख रहे थे कि इतिहास और सामाजिकता मनुष्य को जिस तरह नियंत्रित करती है, उसके कारण मनुष्य अपनी स्वतंत्रता खो देता है। उसकी स्वतंत्र चेतना का इस सामूहिकता के सामने कुछ खास महत्व नहीं बचता। प्रसाद इस वजह से यथार्थवाद को स्वीकार नहीं कर पाते।

प्रसाद के समय में प्रेमचंद यथार्थवादी दर्शन से प्रभावित होकर ऐसे मनुष्य का चित्रण कर रहे थे, जिसकी चेतना वर्गीय या सामाजिक स्थितियों के द्वारा नियंत्रित होती है। इससे उनके साहित्य में मनुष्य अपनी मार्मिक और त्रासद परिणतियों की ओर उन्मुख होता हुआ पाठक में गहरे अवसाद और करुणा का संचार करता है। उस वक्त भारत के समाजैतिहासिक हालात हमारे समय से बहुत अलग नहीं थे। साहित्य के केंद्र में मौजूद मनुष्य, स्थितियों को बदलने की दृष्टि से आज की तरह ही काफी लाचार और विवश नजर आता है। प्रेमचंद के सामने एक विकल्प गांधीवादी रूपांतर का था। इस लिहाज से प्रेमचंद के पात्र  सामाजिक रूपांतर की चेतना से युक्त होने पर सुधारवादी होने लगते हैं। क्रांतिकारी प्रतिरोध के अलावा यथार्थवाद में ऐसी गुंजायश पैदा नहीं होती कि वह मनुष्य को उसकी आत्मा तक ले जा सके। भारत के तत्कालीन हालात में क्रंतिकारी प्रतिरोध की चेतना से लैस पात्रों के चित्रण का मतलब, अविश्वसनीय यथार्थ का चित्रण करना भर होता। प्रसाद यथार्थवाद की इस सीमा को देख पा रहे थे। इसलिए वे प्रेमचंद की राह पर नहीं चले। वे कठिन से कठिन हालात में भी मनुष्य के लिए भी थोड़ी गुंजायश बची हुई देखना चाहते थे। इसके बावजूद कि  उस रास्ते पर चलता उनका मनुष्य आत्मघाती परिणतियों की ओर ही अग्रसर क्यों न हो रहा हो। ‘कंकाल’ में यही होता है। प्रसाद के इस उपन्यास की प्रेमचंद ने तारीफ की थी। यहां प्रेमचंद का अपनी तरह का यथार्थवाद, प्रसाद के अपनी तरह के मनुष्यवाद के बहुत करीब आ जाता है। लेकिन दोनों के बीच हालात और परिणतियों की समानता के बावजूद, एक बात बुनियादी किस्म के भेद की तरह वहां मौजूद देखी जा सकती है। वह बात है, दोनों की मनुष्य की परिकल्पना में अंतर की। प्रेमचंद के पात्रों की त्रासद परिणतियों के लिए समाजैतिहासिक स्थितियां जिम्मेवार हैं, जबकि प्रसाद के पात्र अपनी परिणतियों के लिए खुद जिम्मेवार होते हैं। अगर वे अपने लिए अजनबीयत या मृत्यु का चुनाव करते हैं, तो उनका वह चुनाव उनकी अपनी चेतना के भीतर से प्राप्त निर्णयों और संकल्पों के कारण उपजता है।

‘कामायनी’ के नायक मनु के चरित्र को समझना हो तो हमें प्रसाद की इस मनुष्य केंद्रित सोच और समझ को अपने सामने रखना होगा। यह न प्रेमचंद के भिन्न तरह के यथार्थवाद जैसी समझ है और न परंपरागत आदर्शवाद से मेल खाती है। इस आदर्शवाद कोउनके काव्य में मौजूद शैव और वैष्णव प्रभावों को देखते हुए, अक्सर बिना किसी विवेचन विश्लेषण के उनके काव्य पर आरोपित कर लिया जाता है। प्रसाद का काव्य इस पूर्वग्रह का पूरी तरह निराकरण करता है।

प्रसाद अपने निबंधों में यथार्थवाद को ही नहीं, आदर्शवाद को भी साहित्य की मूलभूमि बनाने समझने से इनकार करते हैं। आदर्शवाद को प्रसाद मनुष्य की महत्ता स्थापित करने वाला दर्शन कहते हैं। इसका मतलब यह है कि वे वहां ऐसी मनुष्य चेतना की प्रधानता देखते हैं जो युग स्थितियों और समाजैतिहासिक प्रभावों को अपना नियंता नहीं मानती। वहां मनुष्य चेतना ब्रह्म के अंशावतार की तरह युग स्थितियों के साथ लीलामय खिलवाड़ किया करती है। इस आदर्शवादी प्रवृत्ति को प्रसाद का काव्य ‘खो गए दैवी अस्तित्व’ की तरह देखता है। दैवी चेतना की आदर्शवादी प्रधानता को वह पतनशील विलासप्रिय प्रवृत्तियों की लीलाभूमि की तरह देखता है। यह काव्य इस पतनशील आदर्शवाद को प्रलय के घटित होने का मुख्य कारण मानता है।

आदर्शवाद की बाबत प्रसाद की यह कटु आलोचना, जिसे हम उनके काव्य में परोक्ष रूप में पिरोया हुआ देख सकते हैं, विश्वयुद्ध कालीन समय के आत्मालोचन का परिणाम जान पड़ती है। आर्य श्रेष्ठता के दैवी वारिस के रूप में एक ओर हिटलर खड़े हैं और दूसरी ओर हमारे औपनिवेशिक दौर के शैव, वैष्णव या इस्लामी अतीत की महापता पर गर्व करने वाले शासक हैं, जिनकी नकेल अंग्रेज़ के हाथ में है। ये सब मिलकर भारतीय समाज को प्रलयकालीन हालात में धकेले लिए जाते हैं। हमारे इन शासकों का दैवी चेतना विलास, प्रसाद को स्वीकार्य नहीं है। इसलिए वे अपना वैकल्पिक रचना संसार खड़ा करते हैं।

एक भारतीय विकल्प के रूप में प्रस्तुत प्रसाद का यह जो छायावाद है, वह न यथार्थवादी है और न आदर्शवादी। तब फिर वह क्या है? ऊपर इसे हमने प्रसाद का मनुष्यवाद कहा है, परंतु उससे बात पूरी तरह स्पष्ट नहीं होती। इसलिए आइए, इसकी गहराई में उतरने की कोशिश करते हैं।

प्रसाद ने अपनी काव्य चेतना की व्याख्या करते हुए उसे ‘आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति’ कहा है। प्रसाद के लिए आत्मा, मनुष्य के मनुष्य होने की पहचान की तरह है। 1920 में प्रकाशित उनके निबंध ‘कविता का भविष्य’ में काव्य, मनुष्य और उसकी आत्मा के बीच के रिश्ते पर गौरतलब चर्चा मिलती है। वे कहते हैं कि काव्य की मूलभूमि ‘बाहरी प्रकृति से ध्यान हटाने के उपरांत, अंतर्जगत पर ध्यान देने’ से निर्मित होती है। ऐसा करने से ‘काव्य का लक्ष्य मनुष्य’ हो जाता है और उसे ‘आत्मा के रहस्य का ज्ञान होता है’।

आत्मा की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि ‘यह सांत (?) में अनंत के अनुभव की दशा’ है। सांत में अनंत का अनुभव हर तरह का काव्य नहीं कराता। यहां प्रसाद श्रेष्ठ काव्य के प्रतिमान को खोजते हुए दिखाई देते हैं।

उनकी निगाह में ऐसा काव्य, ‘जो भावों के आविष्कार की कला’ से युक्त होता है, महान या श्रेष्ठ होता है। इसे हम प्रसाद के छायावाद की व्याख्या करने वाले प्रतिमानात्मक लक्षण की तरह भी देख सकते हैं। प्रसाद यहां जिस कला को काव्य की श्रेष्ठता का आधार बना रहे हैं, वह, उनकी निगाह में, ‘ ज्ञान के विकास से होने वाला भावों का विकास’ है, जो नए भावों के आविष्कार तक ले जाता है।

अब सवाल उठता है कि नए भावों का काव्यमूलक आविष्कार कैसे होता है? यहां प्रसाद अपने समय से बहुत आगे का चिंतन करते नजर आते हैं। वे भावों के विकास को ज्ञान के विकास से जोड़ते हैं। उनके मुताबिक काव्य में भावों के नए आविष्कार का आधार जिस ज्ञानदशा’ में निहित है, वह सामान्य ज्ञान दशा न होकर , ‘ ज्ञान की ऊर्जितावस्था’ होती है। इसे प्रसाद अन्यत्र ‘ज्ञान की श्रेयमयी संकल्प दशा’ भी कहते हैं। यह ज्ञान जब ‘आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति’ बनता है, तो ही वह श्रेष्ठ काव्य का उदाहरण हो पाता है।

प्रसाद काव्य की ‘संकल्पात्मक आत्मानुभूति’ को ‘रहस्यानुभूति’ भी कहते हैं। चूंकि यह काव्य का ही स्वरूपात्मक प्रतिमान है, इसलिए वे  यहां तक कह देते हैं कि ‘जो रहस्यमय नहीं है, वह काव्य भी नहीं है’। प्रसाद ऐसा इसलिए कह पाते हैं, क्योंकि वे रहस्यानुभूति को आदर्शवाद के अमूर्त लोक से नहीं जोड़ते।

छायावादी रहस्यानुभूति के विशिष्ट स्वरूप को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि ‘जो साधारण है, वही वस्तुतः असाधारण होता है’। उनका ‘सांत’,न सिर्फ ‘साधारण’ है, वह ‘क्षुद्र’ भी है। इसलिए प्रसाद ‘अनंत की अनुभूति’ के लिए यथार्थ की पूरी दुनिया को ही आधार बनाने में समर्थ हो जाते हैं।

यहां प्रसाद रामचंद्र शुक्ल की रहस्यानुभूति संबंधी धारणा का खंडन करते नजर आते हैं। शुक्ल जी को छायावादी रहस्यानुभूति इसलिए आपत्तिजनक लगती थी, क्योंकि वह सूफी और ईसाई आदर्शवाद की जमीन से पैदा हुई एक अभारतीय वस्तु थी। परंतु प्रसाद उसे युगबोधक यथार्थ की मार्फत ग्रहण करते हुए भारतीय बना लेते हैं। वे भारतीय समाज के साधारण और क्षुद्र जनों के भीतर की असाधारणता और महानता को खोजते हुए अपनी रहस्यानुभूति को युगबोधक अद्वैतवाद की शक्ल देने में कामयाब हो जाते हैं।

इस विवेचन से स्पष्ट है कि प्रसाद  न तो यथार्थवाद की मार्फत आने वाले ‘मनुष्य की लघुता’ को स्वीकार करते हैं और न आदर्शवाद के द्वारा प्रस्तावित ‘मनुष्य की उस महत्ता’ को अपने सिर पर बिठाते हैं, जो स्वरूपतः पारलौकिक एवं अवतारवादी है। वे इन दोनों संभावनाओं से अलग अपने उस मनुष्य तक पहुंचते हैं, जो अपने समय की ज्ञान धाराओं के साथ हमकदम होकर नए भावों की सृष्टि करता है और अपनी साधारणता को असाधारण बनाता है। वह अपनी ज्ञान संकल्पमय रचनाशीलता से जन्म लेने वाली आत्मानुभूति को काव्य के रूप में अभिव्यक्त करता है।

इस तरह प्रसाद का मनुष्य अपने युग की उपज बन कर हमारे सामने आता है। वह यथार्थवाद के द्वारा उद्घाटित मनुष्य की लघुता के भीतर मौजूद उसकी महानता को प्रकट करता है और आदर्शवाद के द्वारा प्रस्तावित मनुष्य की पारलौकिक महानता को जमीन पर उतारता है।

प्रसाद के छायावाद के ‘दार्शनिक’ होने की यह जो वस्तुस्थिति है, वह हिंदी के छायावाद को पश्चिमी स्वच्छंदतावाद से बहुत अलग बनाती है।

प्रसाद के काव्य का दर्शन पक्ष उनके अपने मौलिक चिंतन की उपज है। इसे हिंदी आलोचकों के द्वारा बहुत कम समझा गया है। हिंदी आलोचकों का ध्यान ‘कामायनी’ के शैव दर्शन पर अटका रहा है, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि ‘कामायनी’ में कैलाश यात्रा हूबहू प्रत्यभिज्ञा दर्शन को काव्य वस्तु बनाने का सजग प्रयास बहुत कम करती है। कैलाश वहां चेतना के ज्ञान संकल्पात्मक रूप का ‘ऊर्जस्वित शिखर’ है। प्रसाद ‘ज्ञान के ऊर्जित रूप’ में उस आत्मानुभूति को ‘मन से वाणी में उतारते’ हैं,जो सांत में अनंत का बोध कराती है और इस तरह ‘जड़ और चेतन के बीच समरसता’ के बोध तक ले जाती है।

जड़ और चेतन की समरसता इसलिए हमारा युगबोधक लक्ष्य हो जाती है, क्योंकि पश्चिम के भौतिकवाद के सांस्कृतिक आक्रमण ने भारत की चेतना को जड़ और चेतन के बीच विभाजित कर दिया है। दार्शनिक रूप में यह भारत के ज्ञान विमर्शों का यथार्थवाद और आदर्शवाद में विभाजन है। ऐसे में भारत को जिस नई चेतना वाले मनुष्य की जरूरत है वह वही हो सकता है, जिसे अपनी चेतना के किसी भीतरी शिखर पर जड़ और चेतन के बीच समरस एकता दिखाई देती हो। इसीलिए प्रसाद ‘कामायनी’ में आधुनिक मनुष्य की मनोवृत्तियों पर एकाग्र होते हैं। वे आधुनिक मनोविकारों की तर्ज़ पर चिंता, आशा, ईर्ष्या, आसक्ति आदि पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। वहां जो निर्वेदऔर आनंद है, वह भी प्रत्यभिज्ञा दर्शन वाला वैराग्य और  ‘सर्वस्पर्शवेद्यातरशून्य चिदानंद’ नहीं है। वहां ज्ञान, इच्छा और क्रिया के ‘एक दूसरे से मिल न सकने’  से जुड़ा ‘आधुनिक व्यवहारवादी एवं सापेक्षतावादी दर्शन’ है, जो शैव आदर्शवाद को बहुत पीछे छोड़ चुका  है और आधुनिक यथार्थवाद के नियतिवादी रूप को भी अपना अनुकरणीय नहीं बना रहा है ।

‘कामायनी’ मूलतः शैव दर्शन की अभिव्यक्ति करने वाला काव्य नहीं है। वहां मनु की कैलाश यात्रा की आखिरी सहचरी श्रद्धा  है, जो शैव न होकर वैष्णव किस्म के आदर्शवादी नियतिवाद  का पर्याय है। तथापि आखिर में वह भी अधिक बड़े सत्य में समाहित होकर पीछे छूट जाती है। दूसरी ओर ईड़ा एक हद तक सहचारिणी होने के बावजूद, अंततः अनुकरणीय नहीं है, क्योंकि वह भी एक अन्य तरह का, यानी यथार्थवादी कोटि का नियतिवाद है। प्रसाद यथार्थवादी और आदर्शवादी, दोनों तरह के नियतिवाद को अस्वीकार करते हैं। वे मनु के रूप में मन के उस मननशील आत्मबोध के पर्याय हैं, जो संघर्ष और पुरुषार्थ की ज्ञान संकल्पात्मक ऊर्जा के सहारे आगे बढ़ता है।

प्रसाद का छायावाद मनुष्य के भाव जगत को उसकी समग्रता में अभिव्यक्ति देने के लिए, लाक्षणिकता और वक्रता से झांकने वाली व्यंजनावृत्ति को अपनी भाषा भंगिमा बनाता है। दार्शनिक विचार गर्भत्व के कारण प्रसाद की काव्य भाषा अभिधा के बजाय प्रकृति के प्रतीक रूप पर अधिक भरोसा करती है। वह मनुष्य की कामना, इच्छा, वासना, कामभाव, ईर्ष्या, क्रोध आदि किसी भाव को ऐसे दार्शनिक अर्थों की अभिव्यक्ति के लिए त्याज्य नहीं समझती। इसीलिए वह शैवों की तरह काम का परिहार नहीं करती । अपितु काम के उस उदात्त रूप तक पहुंचती है, जहां उसका कर्ममय शब्द व्यापार, अर्थ के तल पर  आनंदमय हो जाता है।

इसका अर्थ यह है कि  प्रसाद का छायावाद, अभिव्यक्ति और अंतर्वस्तु, दोनों रनों में, आधुनिक मनुष्य केंद्रित दर्शन का काव्यमय प्रतिफलन है। अपनी प्रखर युगबोधक इतिहास चेतना के कारण प्रसाद और हिंदी का ‘ज्ञान संकल्पात्मक आत्मानुभूति वाला  छायावाद’,स्वच्छंदतावाद की कल्पना बहुल भावभूमि से बहुत अलग जान पड़ता है। उसके पास उसकी अपनी ‘मनुष्य केंद्रित दर्शनभूमि’ है और उसे ‘प्रकृति केंद्रित स्वतःस्फूर्त भाव स्फोट वाले स्वच्छंदतावाद’ से अलग कर, भारत की संस्कृति भूमि की अद्वितीय उपज बनाती है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी के आधुनिक काव्य का विवेचन करते हुए उसे, ‘आत्मा’ की नहीं, ‘भावों की मुक्तावस्था’ कहा है। इसके साथ वे यह भी कहते हैं कि आधुनिक युगबोध में ज्ञान का जितनी तेजी से विकास हुआ है, उसके मुकाबले हमारे भाव जगत का उतना विकास नहीं हो पाया। ‘भावों के ज्ञान से पिछड़’ जाने की स्थिति में वे आधुनिक काव्य की असफलता के कारणों को देखते हैं। यहां प्रसाद के छायावाद संबंधी विवेचन हिंदी आलोचना में एक गंभीर हस्तक्षेप करते प्रतीत होते हैं। शुक्ल जी छायावाद को लेकर अच्छी राय नहीं रखते थे। वे छायावाद को एक भिन्न किस्म की अभिव्यक्ति की भंगिमा तक सीमित करके देख रहे थे, जबकि प्रसाद छायावाद को ‘नए भावों के आविष्कारक’ के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। नए भावों को वे ज्ञान की नई विकास भूमियों से उपजने वाली वस्तु की तरह देख रहे थे। इससे स्पष्ट है कि प्रसाद हिंदी काव्य की भावभूमि को आधुनिक ज्ञान के विकास के बरक्स पिछड़ा हुआ नहीं मान रहे थे। यही नहीं, वे ज्ञान की नई मौलिक चिंतन भूमियों का विकास भी कर रहे थे, जो यथार्थवाद और आदर्शवाद का भारतीय विकल्प हो कर सामने आई थीं। इस तरह प्रसाद शुक्ल जी की छायावाद संबंधी दृष्टि की एकांगिता को खारिज करते हैं और हिंदी छायावाद को स्वच्छंदतावाद के मुकाबले अधिक विकसित काव्यधारा की तरह स्थापित करते हैं।

जहां तक भावों की नवीन भूमियों को विकसित करने का सवाल है, प्रसाद का छायावाद प्रेम को इस लायक बनाता है कि वह आधुनिक युगबोध के तनाव, द्वंद्व, अंतर्विभाजन, छलना और विडंबना से ताल्लुक रखने वाले अंतर्विरोधों का वहन कर सके। जो लोग छायावाद को प्रेम काव्य की तरह देखते हैं, उन्हें साथ ही यह भी देखना चाहिए कि प्रकृति की अंतश्चेतना की तरह अभिव्यक्त  यह प्रेम, किस तरह अंतर्विरोधग्रस्त संबंधों को एक नए मनुष्य केंद्रित दर्शन की तरह समाहित और समन्वित करता हुआ मानवीय चेतना का पर्याय बनाता है।

इसका मतलब यह है कि हमारा छायावाद न निरा प्रकृति काव्य रहता है, न विशुद्ध प्रेम काव्य होता है, अपितु मनुष्य केंद्रित आत्मानुभूति का काव्य हो जाता है।

आत्मानुभूति का रूप लेता छायावाद का यह प्रेम ‘छलना की माया’ की तरह आता है और हमारे अंतर्सत्य का उद्घाटन करने के संदर्भ में अपनी चरितार्थता को पाता है। इसे प्रसाद अपने छायावाद की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए, ‘मोती में झलकने वाली कांति की छाया कहते हैं। यह मोती साधारण भारतीय मनुष्य है – अपने भावों में सच्चा और खरा, जिसे प्रसाद प्रेम की छाया के असर में झलकने वाली आत्मानुभूति की कांति प्रदान करके, उसके  ‘सच्चा होने की स्थिति’ को अभिव्यक्त हो पाने में भी मदद करते हैं।

छलना थी तब भी मेरा उसमें विश्वास घना था
उस छाया की माया में, कुछ सच्चा स्वयं बना था

छलना की इस माया को प्रसाद ‘स्वानुभूति’ और ‘राष्ट्रप्रेम’ वाले दोनों स्तरों पर एक साथ, एक दूसरे की छाया की तरह, मौजूद पाते हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो प्रसाद का काव्य ‘प्रवंचनाओं’ और ‘विडंबनाओं’ के निजी रूपों का ही नहीं, उनके औपनिवेशिक आख्यानों का खुला चिट्ठा है।

युगबोधक यथार्थ प्रसाद के काव्य में सर्वाधिक मुखर है। निराला में वह अधिक ठोस रूप लेता है, इसलिए वहां युगबोध और आत्मबोध के बीच की दरार नाटकीय अभिव्यक्ति के अधिक करीब आ जाती है। पंत इसे अपने सौंदर्य बोध से और महादेवी भावों के अति विस्तार से व्यंजित करते हैं। इस लिहाज से इन सभी की परस्पर पूरकता में हिंदी का छायावाद अपने शिखर को छूने लायक होता  है।