स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में काम।महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी (बिहार) में पीएच.डी. की छात्रा।फिलहाल कोलकाता में रहती हैं।
‘उफ्फ ये दिल्ली की सर्दी और दिल्ली का ट्रैफिक – न जाने भगवान ने इन दो चीजों को कितनी फुर्सत में बनाया है।न ये कम होते हैं और न इनका कोई विकल्प निकलता है।अब तो मुझे एफएम पर बजने वाले सारे नए-पुराने गाने भी कंठस्थ हो गए हैं।आज कितनी देर हो गई मुझे।’
मीता खुद में ही बड़बड़ाए जा रही थी और कार की स्टेयरिंग ऐसे घुमा रही थी मानो सीधा अपने चैंबर में ही कार पार्क करेगी।डॉ. मीता सबरवाल – शहर के एक जाने माने अस्पताल में मनोचिकित्सक।परिवार में पति और दो प्यारे से बच्चे, जिनके पैरेंट्स टीचर मीट की वजह से उसे देर हो गई थी।मां का जिम्मेदार जज्बाती मन तमाम व्यस्तताओं के बीच भी अपने बच्चों की जरूरतों को निचले पायदान पर नहीं रख पाता है।खैर दिल्ली के असाध्य ट्रैफिक को साध कर किसी भी तरह डॉ. मीता अपनी मंजिल -अपने अस्पताल पहुंची।तीसरी मंजिल पर पहुंचने के लिए लिफ्ट की जगह सीढ़ी का सहारा लिया।सोचा, इसी बहाने आज सुबह की सैर जो छूट गई थी, उसका भुगतान हो जाएगा।औरतों के दिमाग का हर पुर्जा एक ही समय में एक ही गति से काम करता है।दो कामों के बीच अगर चंद सेकंड का समय मिल जाए तो उसमें भी वो किसी तीसरे काम का निपटारा कर रही होती हैं।जिस तरह के पेशे में मीता थी, उसमें लोगों की बात सुनने समझने के लिए धैर्य की बहुत जरूरत होती है।इंसान जो अपनों से नहीं कह पाता वो डॉक्टर से बांट लेता है।उसे डॉक्टर पर ईश्वर-सा भरोसा होता है।सिर्फ इस उम्मीद की वजह से कि डॉक्टर के पास उसकी समस्या का समाधान होगा।और बात जब मन के स्वास्थ्य की हो तब मामला बेहद संवेदनशील हो जाता है।
सारी भागदौड़, तनाव के बीच सारे पेशेंट्स को देखने का कोटा अच्छी तरह से पूरा हुआ तो मीता ने थोड़ी चैन की सांस ली।मीता की ओपीडी दोपहर तक होती थी।उसके बाद उसे विजिट पर जाना होता था, क्योंकि कई बार दूसरी बीमरियों से भी जूझ रहे मरीजों को भी साइकैट्रिस्ट की जरूरत पड़ती थी।शरीर भी कई बार स्वस्थ होने से इनकार कर देता है अगर मन खुश न हो।
पर आज कोई विजिट नहीं थी तो मीता ने सोचा कि कैंटीन में बैठ कर आराम से अदरक वाली चाय और ग्रिल्ड सैंडविच खाएगी।हॉस्पिटल कैंटीन की ये दो चीजें मीता के लिए स्ट्रेस बस्टर का काम करती थीं।इसके लिए उसे अगले दिन आधा घंटा ज्यादा वर्कआउट करना भी मंजूर था।आज वह थोड़ी खुश भी थी कि जल्दी घर चली जाएगी।लेकिन बॉस और भगवान का बुलावा कब आ जाए ये कोई नहीं जान सकता।मीता अपना बैग पैक कर ही रही थी कि मोबाइल स्क्रीन पर राघव सर का नंबर फ्लैश होने लगा।जब नजर पड़ी तो लंबी सांस के साथ उसकी भौवें खुद ब खुद तन गईं।
‘मीता निकल गई हो क्या’
‘नहीं सर, बस जाने ही वाली थी।बताइए।’
‘चैंबर में आना एक जरूरी केस डिस्कस करना है।’
अक्सर सर फोन पर ही हल्की फुल्की डिटेल दे दिया करते थे।इस बार उनका कुछ न कहना मीता को अजीब लगा।
‘जी सर आती हूँ।’ कह कर मीता ने कॉल काटा और मन में ढेर सारे सवालों के साथ राघव सर के चैंबर में पहुंच गई।हाथ में एक फाइल लिए हुए अपनी कुर्सी खींचते हुए राघव सर ने कहा।
‘बैठो मीता।एक नया केस आया है।सुसाइड एटैंप्ट का।२० साल का लड़का है।आईआईटी दिल्ली फर्स्ट ईयर।मैंने पूरी फाइल पढ़ी है।कुछ क्लियर नहीं होता कि डिप्रेशन या किसी दूसरे तरह की मेन्टल इलनेस की हिस्ट्री हो।परिवार में भी किसी तरह की आर्थिक दिक्कत नहीं है।न ही कॉलेज में रैगिंग या रिलेशनशिप का मामला है।बैकग्राउंड बिलकुल क्लीन है।फिर इसने सुसाइड एटैंप्ट क्यों किया समझ नहीं आता।चूंकि आत्महत्या का मामला है, इसलिए पुलिस भी इन्वॉल्व हो गई है।लड़का किसी से बात करने के लिए तैयार नहीं है।दो दिन आईसीयू में रखने के बाद प्राइवेट वार्ड में उसे शिफ्ट किया गया है।हर कोई जानना चाहता है कि उसने इतना बड़ा कदम क्यों उठाया।मेरी नजर में तुमसे बेहतर और कोई नहीं जो उससे बात कर सके।मैं चाहता हूँ, ये केस तुम हैंडल करो।’
मीता के लिए ऐसा केस कोई नया नहीं था।आज युवा वर्ग में आत्महत्या के मामलों में बहुत इज़ाफ़ा हो चुका है।मन के अस्वस्थ हो जाने पर अच्छा अकादमिक बैकग्राउंड, अच्छी नौकरी, अच्छा परिवार सब कुछ बेमानी हो जाता है।आज का युवा वर्ग न धैर्य रखना जानता है, न हार स्वीकारना और न ही परिस्थितियों से लड़ना।अत्यधिक उम्मीदों, महत्वाकांक्षाओं और भविष्य की चिंता का बोझ लिए घूमता है यह वर्ग।
कई बार माता-पिता का हद से ज्यादा स्ट्रिक्ट हो जाना भी युवाओं और बच्चों को गलत फैसले की तरफ मोड़ देता है।इंसान माता-पिता बनने में इतना व्यस्त हो जाता है कि दोस्त बनना ही भूल जाता है।बच्चों को इतना विश्वास नहीं दिला पाता कि वह बिना किसी डर और झिझक के अपनी खुशी और गलती दोनों मां-बाप के साथ बांट सके।
‘ठीक है सर।मैं आज रात को फाइल पढ़ कर कल पेशेंट से मिलती हूँ और आपको अपडेट करती हूँ।’
कभी-कभी मीता को अपने रोबोटिक जीवन पर कुढ़ भी मचती थी।आम बोलचाल की भाषा में वह किसी शख्स को पेशेंट तो बोल जाती थी लेकिन ऐसा बोलना उसे एक लापरवाही भरा लहजा लगता था।मानो जैसे इंसान नहीं, बल्कि किराने की दुकान में रखा साबुन या तेल हो जिसे एक तय श्रेणी में बांट दिया गया हो।
अपना सारा सामान और केस की फाइल गाड़ी की पिछली सीट पर लगभग फेंकते हुए मीता बुदबुदा रही थी- ‘ये सर भी न, कल सुबह मुझे नहीं बुला सकते थे।’ अक्सर कुछ बना बनाया प्लान बिगड़ने या काम की ज्यादा व्यस्तता होने की वजह से मीता चिड़चिड़ी हो जाती थी।सोचती थी इससे तो अच्छा टीचिंग लाइन में चली गई होती।लेकिन जीवन के सारे फैसले इंसान के हाथ में नहीं होते।कुछ नियति पहले से तय करके रखती है जिसे स्वीकारने के अलावा इंसान के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं होता।जीवन की कुछ घटनाएं नया देने की तुलना में बहुत कुछ छीन लेती हैं।मीता से भी ईश्वर ने उसकी एक अनमोल चीज छीन ली थी, जिसका जिक्र वह किसी से नहीं करती थी।साहित्य और कला की दुनिया में डूबी रहने वाली लड़की ने अचानक एमबीबीएस करने के बाद मनोविज्ञान पढ़ना क्यों चुना, इस सवाल का जवाब मीता ने हमेशा के लिए अपने भीतर दफन कर दिया था।
ड्राइविंग सीट से पलट कर उसने एक नजर फाइल पर डाली तो न जाने क्यों अचानक से उसका मन तरल हो आया।पल भर में सारा चिड़चिड़ापन उस तरल भाव में बह गया।उसकी आंखों में ममता उतर आई।खुद पर गुस्सा भी आया यह सोच कर कि कभी-कभी वह इंसान की तरह नहीं, बल्कि एक मशीन की तरह व्यवहार करती है, जिसके सीने में दिल नहीं, बल्कि कोई मशीनी पुर्जा फिट हो।
मीता को उस दिन घर पहुंचने में देर हो गई।बच्चे बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।घर की डोर बेल बजी तो बच्चे बुलेट ट्रेन की स्पीड से भाग कर आए और मीता से लिपट गए।मां और बच्चे के बीच कुछ पल की दूरी भी ऐसी लगती है मानो बरसों बीत गए हों।मीता ने दोनों बच्चों को अपने सीने से लगाकर ढेर सारा प्यार किया और कुछ देर उनके साथ ही बैठी रही।सुनती रही उनके पूरे दिन का बकर पुराण।बच्चे जन्नत की सबसे सुंदर झील में खिले वे फूल होते हैं, जिनमे मन की सारी पीड़ाओं और थकावट को पल भर में सोख लेने का औषधीय गुण होता है।उनकी मिश्री-सी मीठी बातें सुनते हुए मीता के मन की थकावट हमेशा दूर हो जाती थी।डिनर के बाद बच्चों को सुला कर मीता अपने स्टडी रूम में आ गई।शेखर के लिए इसमें कुछ नया नहीं था।किसी जरूरी केस के लिए अदरक वाली मसाला चाय और स्टडी रूम के साथ मीता का पुराना याराना था।
स्टडी चेयर पर बैठ कर मीता ने टेबल लैंप जलाया और फाइल उठा ली।फाइल के सबसे ऊपर वाले हिस्से पर लिखा था- शांभव शर्मा।नाम पढ़ कर पल भर के लिए उसका मन अचंभा से भर गया।कितना सुंदर अर्थ है इसके नाम का – खुशी का स्रोत।भला ये इतना कमजोर फैसला कैसे ले सकता है।अक्सर किसी इंसान के नाम से ही तो हमारा सबकॉन्सस माइंड हमारे मन में उसकी पहली छवि बनाता है।फाइल के पहले पन्ने पर लड़के की तस्वीर के साथ उसकी सारी डिटेल दी हुई थी।
नाम- शांभव शर्मा, उम्र-२० साल, आईआईटी दिल्ली, फर्स्ट ईयर सिविल इंजीनियरिंग।स्कूल में ज्यादातर फर्स्ट डिवीज़न, ढेर सारे डिबेट कम्पटीशन में इनाम, खेल कूद में भी आगे, अपने लाजवाब सेंस ऑफ़ ह्यूमर की वजह से दोस्तों और टीचर्स का चहेता।एक हँसमुख सीधा-सादा पढ़ाई और करियर पर ध्यान देने वाला लड़का।अभी तक के अकादमिक और पारिवारिक जीवन में कोई ऐसी घटना नहीं जिसे आत्महत्या के फैसले से जोड़ कर देखा जा सके।मीता की नजर फाइल में लगे लड़के की तस्वीर पर टिक गई।सांवला-सा गोल चेहरा, लंबी सीधी नाक, बड़ी-बड़ी दो मासूम आंखें और उनपर बिलकुल पढ़ाकू बच्चे वाला गोल फ्रेम का चश्मा, टेढ़ी मांग निकाल कर सलीके से बनाए बाल।ईश्वर भी नींद में इस तस्वीर को देखकर अंदाजा नहीं लगा सकता कि ये आत्महत्या जैसा कमजोर फैसला ले सकता है।थोड़ी देर बाद मीता ने फाइल बंद कर दी और बत्ती बुझा कर कमरे में आ गई।
‘अरे बहुत जल्दी आ गई तुम।ऐसा तो कभी नहीं होता कि अपने स्टडी रूम से तुम आधे घंटे में ही आ जाओ।’
शेखर ने थोड़ा आश्चर्य से पूछा।
‘कोई फायदा नहीं था लंबे समय तक बैठे रहने का’।एक लंबी सांस लेकर मीता ने कहा।
‘क्यों क्या हुआ?’
‘पता नहीं शेखर।बस बैठा नहीं गया।एक अजीब सी बेचैनी होने लगी मुझे।इसलिए जल्दी आ गई।’
शेखर मीता को एक टक देख रहा था।मीता अपने फोन में शांभव की तस्वीर खींच कर ले आई थी।शेखर को दिखाते हुए कहा, ‘देखो इस तस्वीर को गौर से।इस लड़के की आंखें बोलती हैं।लगता है मानो किसी खत्म हो चुकी सभ्यता के इतिहास की तरह कोई पीड़ा बहुत गहराई तक दफन है इसकी आंखों में।मुझे इन आंखों ने बेचैन कर रखा है शेखर।’
‘सो जाओ मीता, कल सुबह बात करेंगे।अभी तुम थोड़ी खो सी गई हो, दिन भर की थकावट भी है’।
मीता के कंधे पर एक प्यार भरा स्पर्श रखकर शेखर ने कहा तो वह मुस्करा भर दी।मीता की आंखों से नींद कोसों दूर थी।उसे बेसब्री से रात के खत्म होने का इंतजार था।रात भर उसका दिमाग अपने १० साल के करियर के आधार पर अंदेशे लगाता रहा कि आखिर वह कौन–सा कारण होगा जिसने एक जीवन से भरे लड़के को जीवन खत्म करने पर मजबूर किया होगा।मीता का मन बार–बार यह कह रहा था कि जरूर रिलेशनशिप का मामला होगा।
युवा मन तकलीफ में सूखे हुए फूल की पंखुड़ियों जितना कमजोर हो जाता है।पीड़ा का बोझ सह नहीं पाता।किसी खास शख्स के साथ बिताए अतीत के सुंदर पलों की हल्की-सी हवा चलती है और भविष्य बिखेरने पर आतुर हो जाता है।लेकिन बार-बार मीता का मन शांभव के शांत सलोने चेहरे और गहरी आंखों पर अटक जाता।मात्र एक ब्रेकअप की वजह से एक मेधावी लड़का भी मन से यूं कमजोर हो सकता है क्या।
मीता की वह रात बिस्तर पर करवट बदलते और पानी पीते बीती।अगली सुबह वह कुछ ज्यादा हड़बड़ी में थी।घर के काम निपटाते हुए बीच-बीच में वह खीज जाती।शेखर मीता की बेचैनी समझ रहा था।किचन में बच्चों का लंच पैक करती मीता के पास जाकर उसने हौले से लंच बॉक्स अपनी ओर सरका लिया।
‘लाओ, आज मैं बच्चों का लंच पैक कर देता हूँ और उन्हें स्कूल छोड़ भी आऊंगा।तुम जाकर तैयार हो जाओ।’
न जाने क्या था शेखर की आवाज में कि मीता की आंखों से दो मोती बह निकले।कई बार इंसान का पूरा अस्तित्व किसी काम में इस कदर समाहित हो जाता है कि दिल और दिमाग के बीच की सारी रेखाएं समाप्त हो जाती हैं।वह जाने अनजाने अपने मन की सारी भावनाओं और संवेदनाओं को उस एक काम में उड़ेल देता है।इस प्रक्रिया में कई बार दिल की धड़कनें इतनी तेज चलने लगती हैं मानो शरीर को अपनी ही ऊर्जा में भस्म कर देंगी।ऐसे में किसी अपने का प्यार भरा स्पर्श या परवाह के दो बोल यों लगते हैं मानो मरुभूमि में बारिश की ताजा बूंदें विवाह में चांद तारे तोड़ लाने जैसी अल्हड़ बातें नहीं होतीं।विवाह में घर की छोटी-छोटी जिम्मेदारियों को बांट लेना और अबोले मन को समझ जाना ही प्यार की परिभाषा होती है।शेखर जानता था कि मीता अपनी खीज, परेशानी जल्दी जाहिर नहीं करेगी।उसने जब आहिस्ता से मीता के हाथों से टिफिन लिया तो अपनी आंखों की मोती को संभालते हुए वह मुस्कराई और कमरे में तैयार होने चली गई।
ठीक ११ बजे वो शांभव के वार्ड के बाहर खड़ी थी।फाइल से उसे मालूम चला था कि शांभव को माइथोलॉजी की किताबें पढ़नी अच्छी लगती हैं।औपचारिकता के तौर पर वह अपने साथ वेस्टर्न माइथोलॉजी की एक किताब ले गई थी।आज से पहले उसने किसी पेशेंट के लिए ऐसा नहीं किया था।न जाने क्यों वह एक खिंचाव महसूस कर रही थी शांभव के लिए।कारण उसे भी मालूम नहीं था।शायद ये मात्र उसका एक भावनात्मक पहलू था, या शायद एक मां का भय, जिसके बच्चे भी बड़े हो रहे थे, या शायद उसका अतीत।दरवाज़े पर लगे शीशे से उसने भीतर झांका तो देखा शांभव बड़ी तलीन्नता से कोई किताब पढ़ रहा था।मीता दरवाजा खोल कर भीतर कमरे में आ गई।
‘हेलो शांभव, आई ऍम डॉक्टर मीता।’
‘हेलो डॉक्टर नाइस तो मिट यू।’
‘ये तुम्हारे लिए एक छोटा सा गिफ्ट।’
अपनी लाई हुई किताब को शांभव की तरफ बढ़ाते हुए मीता ने कहा तो उसके चेहरे पर आश्चर्य, हैरानी और खुशी तीनों के मिश्रित भाव उभर आए।हौले से मुस्करा कर उसने एक नजर किताब पर डाली।मीता शांभव के होठों के किनारों पर उभर आई एक मासूम मुस्कान को देख पा रही थी।कुछ देर तक मीता ने इधर-उधर की बातें कीं ताकि मानसिक और भावनात्मक तौर पर अपने मन की गांठें खोलने के लिए शांभव खुद को तैयार कर सके।बातों के दौरान मीता यह महसूस कर पा रही थी कि वह एक बेहद संवेदनशील लड़का था।पर जब-जब परिवार की बात आती कुछ अधूरा और अनकहा उभर आता उसकी आंखों में।मीता इतना तो समझ गई थी कि शांभव का मन अपने आत्महत्या करने के फैसले को लेकर ग्लानि से भरा हुआ था।वह यह भी महसूस कर पा रही थी कि कुछ तकलीफदेह घटा था उसके बचपन में, जिसने बुरी तरह उसके बालमन को प्रभावित किया था।इतना कि युवा अवस्था की समझ और परिपक्वता भी उसे संभाल नहीं पा रही थी।
‘शांभव तुम एक समझदार बच्चे हो।तुम ये तो समझ ही गए होगे कि मैं यहां क्यों आई हूँ।’
एक गहरी सांस लेकर मीता ने कहा।जवाब में शांभव ने अपनी उंगलियों को दबाते हुए सिर्फ हां में सर हिलाया।
‘तो क्या हम…’
वाक्य अधूरा रह गया।मीता ने एक प्यार भरा स्पर्श उसके कंधे पर रखा।जैसे सदियों से अपनी सारी वेदना और जड़ता को समेटे बर्फ का कोई सिला उस ममता भरे स्पर्श की ऊर्जा पाते ही पल भर में पिघल गया।शांभव एक छोटे बच्चे की तरह फफक कर रो पड़ा और कुछ देर तक मीता का दुपट्टा उसकी सिसकियों को अपने भीतर समेटता रहा।उसके आंसुओं से भीगता रहा।
‘डॉक्टर मैं इतना कमजोर कभी नहीं था।न जाने यह सब कैसे और क्यों।’
‘इसमें कुछ भी ऐसा नहीं शांभव जिसके लिए तुम ग्लानि या शर्म महसूस करो।हम सब इंसान हैं।हम सब अपने जीवन में अनगिनत कमजोर पलों से जूझते हैं।टूटते हैं, बिखरते हैं और फिर से संवरते हैं।कई बार इंसान मजबूत रहते-रहते थक जाता है।कमजोर पड़ना भी जरूरी है ताकि हम अपनी मजबूती को नए सिरे से समझ सकें।जैसे शरीर काम करते-करते थक जाता है, बीमार पड़ जाता है वैसे ही कभी-कभी मन को भी दवा की जरूरत होती है।पर अब सब ठीक है।तुम ठीक हो।मुझसे सब कुछ बांट सकते हो, एक दोस्त की तरह।’
शांभव ने सिसकियों के बीच अपनी बात शुरू की।
‘कॉलेज में मैं एक लड़की से सोशल मीडिया के जरिए मिला था।मृणाल नाम था उसका।नाम में ही एक अजीब सा जादू था उसके।बहुत चाहा खुद को रोकना, लेकिन खिंचता चला गया।कोई औपचारिक तौर पर प्यार का इजहार हमने नहीं किया था, लेकिन हमारे बीच बहुत सी बातें होती थीं।हर मुद्दे पर।पढ़ाई, पॉलिटिक्स से लेकर सिनेमा, खेल-कूद तक।फैशन टेक्नोलॉजी में बीएससी कर रही थी वह।बस एक फैशन की ही दुनिया थी जिसके विषय में न मुझे ज्यादा जानकारी थी न रुचि।मृणाल जब फैशन के बारे में बताती तो एक अच्छे छात्र की तरह मैं चुपचाप उसे सुनता।और शायद एक प्यार में डूबे पागल लड़के की तरह भी।पता ही नहीं चला कि मेरी तरफ से कब ये दोस्ती प्यार में बदल गई।मृणाल के मन में क्या था यह मुझे मालूम नहीं था और न कभी पूछने की मुझे हिम्मत हुई।’
मीता चुपचाप शांभव को सुन रही थी। ‘पूछने की हिम्मत क्यों नहीं हुई तुम्हे?’ मीता ने पूछा।
‘डरता था कि कहीं उसे खो न दूं।’
‘भला ये क्या बात हुई।कोई भी रिश्ता धुंध के बीच नहीं फलता फूलता।धुंध के उस पार तो जाना ही पड़ता है।’
‘कभी-कभी ये मायने नहीं रखता कि कोई आपका क्या लगता है।वह आपके पास है, साथ है, इसी में दुनिया मुक्कमल लगती है।’
मीता शांभव की इन बातों पर एकटक उसे निहार रही थी।प्यार का यह कैसा रूप था जहां पाने की कोई इच्छा नहीं थी।सिर्फ उसका होना भर ही इस लड़के के लिए सबकुछ था।भला आज के इस आधुनिक युग में जहां युवा वर्ग दैहिक सुख के चश्मे से प्यार को देखता है, वैसे समय में क्या कोई ऐसा भी अनछुआ मासूम प्यार कर सकता है।मीता हैरान थी उस २० साल के लड़के की भावनात्मक परिपक्वता पर।
‘तो फिर चीजें बिगड़ी कैसे?’
मीता ने बात को आगे बढ़ाते हुए पूछा।
‘मेरी गलती की वजह से।’
‘मतलब?’
‘बस वही गलती कर बैठा जिसके कारण हमेशा खुद से डरता रहा।हमेशा खुद से लड़ता रहा।’
‘शांभव तुम मुझे सारी बातें बता सकते हो कुछ है तुम्हारे मन में जो तुम्हें खुल कर सांस नहीं लेने दे रहा।जिसे लेकर तुम किसी अपराधबोध में हो।कोई डर है जिसने तुम्हारी आत्मा तक को जकड़ रखा है।अपने मन की इन गांठों को खोलो।’
मीता के परवाह और आश्वासन भरे शब्दों में कोई जादू था।उसके लहजे से उम्मीद की एक खिड़की शांभव के भीतर खुली और उसने मीता के सामने किसी पुराने बंद टूटते ढहते मकान की तरह अपने मन को पूरी तरह खोल कर रख दिया।
‘मुझे अच्छी तरह याद नहीं, लेकिन मैं उस वक्त चौथी या पांचवीं क्लास में था।हम दो भाई बहन हैं।दीदी मुझसे बहुत बड़ी हैं।लेकिन मैं नहीं जानता कि बड़ी बहन किसे कहते हैं।’
‘क्यों?’ मीता ने आश्चर्य से पूछा।
‘मुझमें और दीदी में १२ साल का अंतर है।दीदी पढ़ने के लिए दिल्ली गईं और वहीं शादी कर लिया।मां को कोई ऐतराज नहीं था, लेकिन पापा को यह शादी मंजूर नहीं थी।पापा ने दीदी को घर आने से मना कर दिया और दीदी ने हमसे सारे नाते तोड़ लिए।एक बार पलट कर मां और मेरे विषय में जानना तक नहीं चाहा।इसका कारण पापा से अत्यधिक नफरत थी या अपने चुनावों से प्रेम, यह मैं नहीं जानता।लेकिन दीदी के इस फैसले के बाद मां की सारी दुनिया मुझ तक सीमित हो गई।पापा की सरकारी नौकरी थी।घर पर मैं, मां, दादा जी और दादी।पापा की पोस्टिंग अक्सर शहर से दूर होती थी।पढ़ाई की अच्छी व्यवस्था नहीं थी, इसलिए मां साथ नहीं रही।गर्मी की छुट्टियों में हम पापा के पास जाते थे।वह भी एक गर्मी की ही छुट्टी थी जब शाम को मैं खेल कर घर वापस लौटा था।मैंने माँ पापा को किसी बात पर झगड़ते हुए देखा।मां रो रही थी।पापा चुपचाप बिस्तर के एक कोने में सर जमीन की ओर टिकाए बैठे थे।मैं इतना समझदार तो नहीं था कि उनके बीच पनप रहे तनाव का कारण समझ सकूं, लेकिन उस दिन मां को रोता हुआ देखकर मेरे भीतर कुछ टूट गया था।मैंने मां को कभी रोते हुए नहीं देखा था।या तो हँसते हुए, नहीं तो मुझपर गुस्सा होते हुए देखा था।उस दिन मां के बहते आंसुओं ने मेरे मन के कुछ हिस्से को हमेशा के लिए बंजर बना दिया।उन्हें खो देने के भय ने उस बंजर हिस्से में अपनी जड़ें मजबूती से फैला दी थीं।मैं उनसे बात करना चाहता था पर मैं चुप रहा।मुझे लगा शायद मेरे कुछ कहने या पूछने से मां और पापा फिर लड़ाई करने लगेंगे।उस दिन मां और पापा के बीच कोई बातचीत नहीं हुई।अगले दिन मां मुझे लेकर दादा-दादी के पास आ गई।
घर आने के बाद भी पूरे दिन एक भयानक चुप्पी पसरी रही।मां का मायूस चेहरा और सूजी आंखें मुझे बेचैन कर रही थीं।मैं एक बार उनके कमरे में जाकर झांकता और फिर सबकी नजरें चुरा कर भगवान के सामने हाथ जोड़ कर रोता।उनसे प्रार्थना करता कि वह मेरी मम्मी को किसी भी तरह हँसा दें।मैंने जब से होश संभाला पापा को मेहमान की तरह वीकेंड पर घर आते हुए देखा।मेरी हँसी-खुशी, नाराजगी-शिकायतें, जिद्द सब कुछ मां तक ही सीमित थीं।मां किसी से बात करने के लिए तैयार नहीं थी।मुझे किसी तरह जानना था कि आखिर हुआ क्या है।मैं यह जानता था कि मां किसी से कुछ कहे न कहे, लेकिन नानी से जरूर कहेंगी।मैं उनके फोन का इंतजार कर रहा था।जब फोन आया और जो मैंने सुना उसने पल भर में मेरे भीतर के बच्चे को मार दिया।ऐसा लगा जैसे अचानक से मैं बहुत बड़ा हो गया हूँ।इतना बड़ा कि अब मां को खुश रखने की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर है।’
शांभव इतना कह कर फिर से रोने लगा।मीता उसके पास बैठी उसका कंधा सहला रही थी।आसुओं के बोझ से जब मन थोड़ा हल्का हुआ तो उसने अपनी बात आगे बढ़ाई।
‘पापा का उनके ऑफिस में काम करने वाली किसी महिला के साथ संबंध था।मां ने उसके लिए लिखी पापा की कुछ कविताएं पढ़ ली थीं।मां ये सब नानी को बता रही थी।संबंध, कविताएं- ये सब मेरे नन्हे से दिमाग की पहुँच से बाहर की चीजें थीं।लेकिन मैं इतना जरूर समझ गया था कि मां उस घर में सिर्फ मेरी वजह से बंध गई थी।मां रो रही थी, कह रही थी, मुझे इस आदमी के साथ नहीं रहना।चीनू बहुत छोटा है, कहां लेकर जाऊं उसे मैं।दुनिया अकेली औरत को नोच खाने को तैयार रहती है।उसपर से चीनू के दादा जी की सामाजिक प्रतिष्ठा।मैंने घर से बाहर पैर निकाल दिया तो जीवन भर की उनकी कमाई- उनका मान सम्मान पल भर में मिट्टी हो जाएगा।मैंने इससे आगे नहीं सुना।रोता हुआ दूसरे कमरे में आ गया।मां की तकलीफ के लिए मैंने खुद को दोषी मान लिया।अगर मैं बड़ा होता तो मां खुश रहती।वह इस घर से चली जाती।पापा के साथ रहने की, दादा जी की सामाजिक प्रतिष्ठा बचाने का कोई बोझ उसकी आत्मा पर न होता।मैंने उस रात तय किया कि मैं मां को कभी तकलीफ में नहीं आने दूंगा।खूब पढूंगा, हर क्लास में अच्छे नंबर लाऊंगा, मां जो कहेगी मानूंगा, हर वह काम करूंगा जिसमें मां खुश रहे और पापा का दिया दुख भूल जाए।मैं मां का अच्छा बेटा बनूंगा।मां का मन कभी नहीं दुखाना है यह बात मेरे जेहन में बिलकुल वैसे ही बैठ गई जैसे चंद्रमा पर दाग।
जीवन अपनी गति से आगे बढ़ता रहा।मां, पापा के संबंध भी सामान्य होने लगे।मैं नहीं जानता मां ने पापा को सच में माफ किया या मेरे सुरक्षित सामाजिक और आर्थिक भविष्य के लिए खुद की आत्मा का गला घोंट दिया, लेकिन मैं इतना जानता था कि मेरे अच्छे नंबर देख कर मां दिल से खुश होती थी और अपनी सारी पीड़ाएं पल भर के लिए भूल जाती थी।मां को हर हाल में खुश रखना मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन गया था।यह एक ऐसा फितूर था जिसने कुछ हद तक मेरे दिल दिमाग को अंधा बना दिया था।ऐसा अंधा कि मैं हर लड़की में अपनी मां जैसा आदर्शवाद ढूंढने लगा था।
एक सामान्य सी दोस्ती भी मैं किसी से यह गुणा भाग करके करता था कि मां को पसंद आएगी या नहीं।कोई पढ़ने में सामान्य स्तर का हो तो उससे बात नहीं करता था क्योंकि मां को पढ़ने-लिखने और हमेशा अच्छे नंबर लाने वाले बच्चे पसंद थे।मां ने कभी मुझसे ऐसा नहीं कहा कि जो पढ़ने में अच्छा न हो या सामान्य हो उससे दोस्ती न करूँ।यह सब मैंने खुद ही तय किया था।क्योंकि मैं उनकी तकलीफ का कारण नहीं बनना चाहता था।अपने लिए मैंने बिलकुल सीधी लकीर खींच ली थी।उस लकीर पर चंद बिंदु तय कर लिए थे जो मां को पसंद थे और मैं बिना किसी भटकाव, बिना डगमगाए चुपचाप इसी सीधी लकीर पर चलना चाहता था।
‘मृणाल हर उस मापदंड पर सटीक बैठती थी जो मां को पसंद था।सुंदर थी, पढ़ने में अच्छी थी, अच्छे परिवार से थी।मुझे लग रहा था कि मैं बिलकुल आदर्श जीवन का निर्माण कर रहा हूँ।मेरे दिमाग के पास तर्क और खुद से बात करने की सारी क्षमता खत्म हो गई थी।मुझे लगता था जो भी चीज, जो भी फैसला मेरी मां को खुश रखे भला वह गलत कैसे हो सकता है।
‘धीरे-धीरे हर बात पर मैं मृणाल को अपनी मां का उदाहरण देने लगा था।मुझे लगता कि अगर अपनी पूरी बातचीत में मैं मां का जिक्र नहीं करूंगा तो एक बुरा बेटा बनूंगा।मुझे यह एहसास नहीं हो रहा था कि मैं एक अच्छा दोस्त या अच्छा साथी बनकर भी अच्छा बेटा बना रह सकता हूँ।नतीजा यह हुआ कि मृणाल का दम घुटने लगा मेरे साथ।और मुझे जिद्द हो गई कि मैं किसी भी तरह उसे पा कर ही रहूंगा।मृणाल को मैं किसी ट्रॉफी की तरह अपनी मां को सौंपना चाहता था।दोस्त बनकर समझने की जगह उसे आदर्श बहू बनाने में जुट गया था मैं।मजबूरी में मुझसे पीछा छुड़ाने के लिए मृणाल को पुलिस कम्प्लेन करनी पड़ी।अपमान, ग्लानि, हार, धोखा, गुस्सा सारी भावनाओं ने एक साथ मिलकर मेरे मन पर ऐसा तेज वार किया कि मैं कुछ भी सोचने समझने लायक नहीं बचा।मुझे ऐसी घुटन होने लगी मानो कोई मेरी सांस की नली को ऐंठ कर तोड़ देना चाहता हो।एक बार फिर से बचपन के पछतावे ने मुझे कस कर जकड़ लिया।बचपन में मां के दुख का और अब मृणाल के दुख का कारण भी मैं ही बना।मेरे इस उन्माद की वजह से वह मानसिक तौर पर डिस्टर्ब हो गई।पढ़ाई का उसका पूरा एक साल खराब हो गया।उसे थेरपी तक लेनी पड़ी।अपने स्वार्थ और निजी ग्लानि के पैने नाखूनों से मैंने जीवन से भरी एक लड़की की खनकती हँसी और ठहाकों का दम घोंट दिया।मैं एक बुरा इंसान हूँ मुझे जीने का कोई अधिकार नहीं।मुझे मर जाना चाहिए था।मैं सिर्फ लोगों को दुख दे सकता हूँ।और कुछ नहीं।’
इतना कह कर शांभव और जोर से रोने लगा।इतना कि वार्ड के पास से गुजरते दूसरे डॉक्टर भी खुद को उसका हाल पूछने से रोक न सके।मीता के पास आश्वासन के सारे शब्द कम पड़ गए थे।उसका दिमाग अपनी डाक्टरी डिक्शनरी नहीं, बल्कि अपने बच्चों के साथ अब तक बिताए हुए वक्त को खंगाल रहा था।तलाश रहा था कोई एक लम्हा, कोई एक बात, जिसमें कहीं उसने अपने बच्चों पर भी आदर्शवाद का बोझ तो नहीं डाला।उसकी हथेलियां शांभव की पीठ को सहला रही थीं और मन इस भय से कांप रहा था कि कहीं उसके बच्चों की भी ऐसी कोई अदृश्य मानसिक दुनिया तो नहीं, जिसमें वह भी कुछ साबित करने के लिए खुद से लड़ रहे हों।किसी ग्लानि से जूझ रहे हों।
इंसानी दिमाग और जज्बातों को समझने वाली उसकी सारी पढ़ाई उसपर ही फेल हो गई थी।हम हमेशा बच्चों को अच्छा बच्चा बनने की सीख देते हैं।हमारे पास उनके लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं इसकी लंबी लिस्ट होती है।पर क्या खुद से कभी पूछते हैं कि हम कैसे अभिभावक हैं।क्या मैं एक अच्छी मां हूँ- ये सवाल मीता के सामने यक्ष प्रश्न सा खड़ा हो गया।उसे यों लग रहा था कि सब कुछ छोड़ कर वह अपने बच्चों के पास चली जाए।उन्हें गले लगा कर खूब रोए।उनसे हर उस लम्हे के लिए माफी मांगे जिसमें उसने उन्हें डांटा, उन्हें कुछ ऐसा करने से रोका जिसमें उनकी खुशी थी, अपनी नौकरी या शादी से जुड़ी परेशानियों की वजह से उन्हें पर्याप्त समय नहीं दिया।बच्चों का मन बहुत उदार होता है।मां बाप का थोड़ा सा स्नेह और दुलार पा कर वह अपनी सारी तकलीफ भूल जाते हैं।हमेशा के लिए।शायद इसलिए कहते हैं कि बच्चे ईश्वर का रूप होते हैं, क्योंकि उनके पास माफ करने का हुनर होता है।
कुछ पल के लिए ही सही, लेकिन दिल और दिमाग दोनों से मीता को शांभव के पास लौटना ही था।उस वक्त शांभव के सामने डॉ मीता नहीं बल्कि सिर्फ मीता बैठी थी।जो एक डरी हुई मां भी थी और एक दुखी बहन भी।मीता ने अपने बड़े भाई को इसी मानसिक अवसाद की चक्की में पिसते और खुद का जीवन खत्म करते हुए देखा था।जब इस प्रेत ने उसके बड़े भाई केशव को अपना ग्रास बनाया उस वक्त केशव की उम्र भी २० साल ही थी।केशव पेंटर बनना चाहता था।फाइन आर्ट्स में आगे की पढ़ाई करना चाहता था।लेकिन अपने पिता की अतिमहत्वाकांक्षा की बलि चढ़ गया।वह भी खुद को अपने पिता का दोषी मान बैठा था।मान बैठा था कि डॉक्टर न बनकर उसकी पढ़ाई-लिखाई, परवरिश में लगाए पिता के पैसे और समय का ऋण नहीं उतार पाया।
बच्चों की अपनी एक अलग विकसित होती हुई दुनिया होती है।उनके कुछ सपने होते हैं जिन्हें वे बहुत लगाव से गढ़ते हैं।पर मां बाप अपने अधूरे सपनों का बोझ बिना किसी ग्लानि के बच्चों की मासूमियत पर डालते चले जाते हैं।और फिर एक दिन उनके अधूरे सपनों की दुनिया और बच्चों की खुद की विकसित होती दुनिया आपस में टकरा जाती है।ये टकराव बेहद भीषण होता है।
बड़े भाई को खोने के दर्द ने ही मीता को मानसिक स्वास्थ्य के विषय में जागरूक किया था।जिस दिन उसने अपने डुग्गु भैया को हमेशा के लिए खोया उसी दिन उसने मनोविज्ञान पढ़ने की ठान ली थी ताकि वह लोगों को अवसाद के दलदल में गिरने से बचा सके।केशव को खोने का दर्द आज भी उसके मन में वैसे ही ताजा था जैसे उस दिन जब उसने अपने बड़े भाई को पंखे से लटकते देखा था।यही दर्द मीता को कई बार काम के चिड़चिड़ाहट से बचा भी लेता था।वह शांभव का हाथ थाम कर उसके पास बैठ गई।
‘तुमने कुछ भी गलत नहीं किया।न अपनी मां के साथ और न मृणाल के साथ।हम सब अपने चुनावों के लिए जिम्मेदार होते हैं।स्वतंत्र होते हैं।तुम्हारी मां को तुम्हारे बेहतर भविष्य के लिए उस वक्त जो सही लगा उन्होंने किया।बल्कि मैं तो कहूंगी कि एक प्रतिकूल इंसान के साथ रहने का साहस दिखाया।और तुमने बखूबी उन्हें गुरुदक्षिणा भी दी।उनके दुख का कारण तुम नहीं, बल्कि तुम्हारे पिता का चुनाव था जिसने अपनी पत्नी के मन और समर्पण को नहीं समझा।नहीं समझा कि तुम्हारी मां उनकी पत्नी भी थी।नहीं समझा कि एक औरत जिस दुलार से बच्चे को संभालती है उसी दुलार से एक पति को भी अपनी पत्नी को संभालना होता है।परिवार साथ नहीं रहता था इसलिए शायद तुम्हारे पिता का मन अपने अकेलेपन की वजह से किसी और से जुड़ा।या यह भी हो सकता है कि पुरुष होने के दंभ में उन्हें कुछ गलत नहीं लगा इसमें।सुख और क्षणिक सुख के बीच एक बहुत महीन रेखा होती है।इंसान अपनी भावनाओं के जाल में फंस कर मानसिक और जिस्मानी जरूरतों के सामने घुटने टेक देता है।
‘जानते हो, गलती हर इंसान करता है, लेकिन जो उससे सीखता है वही बेहतर इंसान होता है।मृणाल के साथ तुम तब गलत करते जब तुम्हें अपनी गलती का एहसास नहीं होता।लेकिन आज तुम्हें अपनी गलती का एहसास है।इस एहसास ने तुम्हारे भीतर से सारी नकारात्मकता को निकाल दिया है।गलती की स्वीकृति ही मन को तराशने की पहली सीढ़ी होती है।यों समझो कि इस गलती के जरिए ईश्वर ने तुम्हें सही गलत का फर्क समझाया है और जीवन भर उस लड़की का शुक्रगुजार रहना जिसने तुम्हारी इस यात्रा में अपने मन पर तकलीफ झेली है।जीवन के हर मोड़ पर कृतज्ञता का भाव इंसान के मन से अहम, गुस्से, अति-आत्मविश्वास और अति-आत्ममुग्धता के मैल को दूर करता रहता है।दूसरों के प्रति नाराजगी या घृणा हमें ही दीमक की तरह धीरे-धीरे खत्म करती है।द्वेष की नकारात्मक ऊर्जा हमारे अवचेतन मन के लिए बहुत घातक होती है।कभी समय मिले तो डॉ जोसफ मर्फी की किताब ‘पॉवर ऑफ योर सबकॉनसस माइंड’ पढ़ना।भावनाओं का सारा खेल दिल से नहीं, बल्कि दिमाग से जुड़ा होता है।जिसने अपने दिमाग को समझ लिया समझो उसने खुद को समझ लिया।’
शांभव बिना कुछ कहे चुपचाप मीता को सुन रहा था और मीता भी बिना रुके, बिना अटके बोले जा रही थी।थोड़ी सी बातें और पर्ची पर दवाइयों का नाम लिखने वाली डॉ मीता का यह बिलकुल अलग ही रूप था।यूं लग रहा था जैसे ये सब कुछ वह था जो वह अपने भाई से कह न पाई थी।
‘मेरे लिए मृणाल को भूलना आसान नहीं।खासतौर से इस बात को कि वह मेरी वजह से तकलीफ में रही।’
शांभव की आवाज में बेहद उदासी घुली हुई थी।
मीता ने बहुत प्यार से उसका माथा सहलाया और कहा, ‘सचाई यही होती है कि अतीत से निकलने के लिए हम जितनी बाह्य शक्ति लगाते हैं उतना ही अतीत के दलदल में धंसते जाते हैं।अतीत से निकलना है तो अतीत के हर अच्छे बुरे पहलू को पहले स्वीकारना जरूरी होता है।जब सत्य आत्मसात हो जाता है तब जीवन में आगे बढ़ना भी आसान हो जाता है और समय के साथ अतीत स्वयं ही धुंधला होते चला जाता है।
कुछ चीजों का फैसला समय पर छोड़ दो शांभव और वर्तमान में जो करना जरूरी है वह करो।किसी भी रिश्ते को फलने-फूलने के लिए समय देना पड़ता है।तुमने अपनी जिंदगी के आशियाने में भावनाओं और संवेदनाओं का इतना ज्यादा मोर्टार डाल दिया था कि उसकी दीवारें हद से ज्यादा सख्त हो गई थीं।जीवन जीने के लिए दिल-दिमाग, जेहन सबका थोड़ा बहुत लचीला होना जरूरी होता है ताकि हम बदलाव को आसानी से स्वीकार सकें।जो तुम्हारे लिए बना है उससे तुम बिना किसी गुणा भाग के जुड़ते जाओगे।मृणाल को ट्रॉफी समझना, उसे अपनी मां की पसंद के मुताबिक ढालने की तुम्हारी जिद गलत थी।रिश्ता वही निभता है जिसमें एक-दूसरे के आत्मसम्मान की रक्षा होती है।प्रेम वही सच्चा होता है जिसमें दोनों साथी एक-दूसरे को जीवन की ऊंचाइयों पर लेकर जाते हैं।तुम हर काम परफेक्ट तरह से करना चाहते हो।परफेक्ट तो ईश्वर भी नहीं शांभव।
मृत्यु अपने तय समय पर ही आएगी।ईश्वर तुम्हें पेड़-पौधा, जानवर कुछ भी बना सकता था, लेकिन उसने तुम्हें इंसान बनाया।कभी सोचा है क्यों।सोचना।अगर कुछ पल के लिए मेडिकल साइंस की बात छोड़ कर हम पौराणिक कथाओं की ही बात करें तो कभी गौर किया है कि हर गलत चीज का अंत ईश्वर ने मानव रूप लेकर किया है।क्यों? वह इसलिए, क्योंकि मानव में बहुत संभावनाएं होती हैं।अगर व्यक्ति अपने भीतर की शक्ति को पहचान ले तो वह पूजनीय हो जाता है।
ईश्वर ने तुम्हारे इस बेवकूफी भरे प्रयास को असफल करके तुम्हें फिर से जीने का मौका दिया है।अपनी गलती से सीखने के लिए, न कि इसे फिर से किसी गिल्ट या बोझ में बिताने के लिए।माफ करने वाले और अपनी गलती मानने वाले इंसान का हृदय बहुत विशाल होता है।अपनी इस विशालता का सदुपयोग करो।’
इसके बाद कुछ देर के लिए दोनों के बीच मौन पसरा रहा।थोड़ी देर बार शांभव ने मीता की ओर देखते हुए पूछा।
‘क्या मैं आपको दीदी बुला सकता हूँ।’
मीता अपने आंसुओं को रोक न पाई।बड़े भाई का सुख ईश्वर उससे एक बार छीन चुका था।छोटे भाई को वह खोना नहीं चाहती थी।दोनों एक दूसरे के गले लग कर कुछ देर तक रोते रहे।कुछ अनमोल पा लेने के सुख से दोनों के कंधे एक दूसरे के आंसुओं से भीगते रहे।
संपर्क : द्वारा कुंदन शाही, फ्लैट ३ ए, ब्लॉक सी३, रोहिणी हाउसिंग कॉम्प्लेक्स, कोल इंडिया, उलटाडांगा, कोलकाता–७०००५४ मो.९८३०९०८३९३
मानवीय संबंधों पर एक खूबसूरत कहानी
एक लंबे अरसे के बाद मैं किसी कहानी के पोर-पोर में डूबता चला गया। शायद ऐसा कम ही होता है। पूरी कहानी को जल्द से जल्द पढ़ लेने की एक जिद समा गई। लगा सब कुछ आसपास घटित हो रहा है। कहानी का हर किरदार, हर पहलू और सन्दर्भ जीवन में गहरी सीख देता है। इस बात से हतप्रभ हूं कि इतने कम उम्र में मानव मनोविज्ञान और सम्वेदना की कितनी गहरी समझ है!!
आभार