संस्कृत कवि एवं समीक्षक।चार काव्य संग्रह सहित २५ पुस्तकें प्रकाशित। ‘संस्कृत काव्यशास्त्र और विमर्श’ हाल में प्रकाशित एक चर्चित पुस्तक।
भारतीय भाषाओं में संस्कृत भाषा का अपना महत्व इसके साहित्य के कारण है।संस्कृत साहित्य उत्तर और दक्षिण भारत में समान रूप से रचित है।संस्कृत वाल्मीकि, व्यास और कालिदास की साहित्य भाषा है तो वह बीसवीं सदी में लिख रहे अप्पा शास्त्री और इक्कीसवीं सदी में व्हाट्सएप और फेसबुक पर सक्रिय युवाओं की भी रचना भाषा है।इसकी रचनात्मकता में भारत की विविधताएं, प्रांतीयताएं और देशिकताएं अभिव्यक्त होती हैं।संस्कृत साहित्य के समकाल को जाने बिना भारतीय साहित्य को जानने का कोई दावा करे तो वह उस व्यक्ति का अपना आग्रह हो सकता है, किंतु उससे भारतीय साहित्य की रचनात्मकता का पूरा परिदृश्य नहीं उभर सकेगा।पिछले दो सौ वर्षों के संस्कृत साहित्य की रचनाधर्मिता पर संस्कृत के कुछ प्रतिष्ठित विद्वानों के समक्ष कुछ प्रश्न रखे गए थे।उनके उत्तर में संस्कृत रचना के कई दृश्य प्रकट होते हैं।इस परिचर्चा से संस्कृत साहित्य की विविधता का बोध हो सकता है।
सवाल
(१) आपकी दृष्टि में पिछले दो सौ वर्षों की अवधि के दो या तीन संस्कृत कवि कौन हो सकते हैं, जिनके योगदान को भारतीय नवजागरण या स्वतंत्रता संग्राम तथा संपूर्ण भारतीय साहित्य के संदर्भ में अद्वितीय कहा जा सके?
(२) स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति और उसमें बाधक तत्वों की पहचान संस्कृत साहित्य किस तरह करता है? देश-विभाजन की विभीषिका, आपातकाल, नगरीय जीवन की समस्या, गांवों से पलायन जैसी राष्ट्रीय घटनाओं को समकालीन संस्कृत रचनाकारों ने किस तरह देखा है?
(३) वैश्वीकरण की अनुगूंज संस्कृत साहित्य में किस तरह है? वैश्वीकरण से उत्पन्न संकटों को संस्कृत रचनाकार किस तरह लेते हैं? क्या वे वैश्वीकरण के समानांतर देशीय अस्मिता का कोई सुदृढ़ पक्ष अपनी रचनाओं में रख पाते हैं?
(४) भारत की अन्य भाषाओं के साथ संस्कृत का रचना के स्तर पर किस तरह का संवाद है?
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राधावल्लभ त्रिपाठी सुख्यात विद्वान, अध्येता एवं साहित्यकार।२५० से अधिक ग्रंथ प्रकाशित। ‘स्वतंत्रता संग्राम और संस्कृत’, ‘भारतीय साहित्यशास्त्र की रूपरेखा’ ये दो हाल में प्रकाशित पुस्तकें। |
संस्कृत और हिंदी के रचनाकारों में दुतरफा संवाद था, जो टूट गया
(१) गुमानी (वास्तविक नाम लोकरत्न पंत, १७९०-१८४६) भारतीय साहित्य के सर्वाधिक उपेक्षित और सबसे बड़े रचनाकारों में एक हैं।उन्नीसवीं सदी के कम से कम चार दशकों तक गुमानी संस्कृत और हिंदी के सबसे बड़े कवि के रूप में साहित्याकाश पर छाए हुए थे।उन्होंने संस्कृत, हिंदी, कुमाऊँनी और नेपाली भाषाओं में रचे अपने विपुल साहित्य के द्वारा कूर्मांचल के जन-जन में नवजागरण की चेतना का संचार किया।वे पिछले दो सौ सालों में निश्चित रूप से संस्कृत के गिने-चुने श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं, आधुनिक हिंदी के भी वे पहले कवि हैं।संस्कृत और हिंदी साहित्य के इतिहासों में अलबत्ता उनका उल्लेख नहीं किया जाता।मेरे संस्कृत साहित्य के समग्र इतिहास के चौथे खंड में ही कदाचित गुमानी कवि पर पहली बार संस्कृत साहित्य को उनके विपुल अवदान के संदर्भ चर्चा की गई है।
कवि गुमानी की संस्कृत में चौबीस छोटी-बड़ी रचनाओं के अतिरिक्त दो कृतियां मिश्रित भाषा में, छह हिंदी में तथा चौदह कुमाऊंनी में हैं।गुमानी संस्कृत में वैज्ञानिक साहित्य लिखते हैं, लोगों तक ज्ञान की विरासत पहुंचाने के लिए लोकभाषा में सरल सुंदर छंदोबद्ध रचनाएं करते हैं, इतिहास और संस्कृति के प्रसंगों पर लेखनी खूब चलाते हैं, नीति और सदुपदेश से उनका साहित्य भरा पड़ा है।समस्यापूर्ति में भाषा के खेल में और एक साथ अनेक भाषाओं में रमने, विचरने में उन्हें आनंद मिलता है।सुभाषित या नीतिपरक पद्यों की रचना में वे दक्ष हैं, विविध देवताओं की स्तुति में उन्होंने खूब लिखा है।वे भक्त कवि भी हैं, शास्त्रकवि भी हैं और लोककवि भी हैं।वे भारत की धरती के कवि हैं।अपने देखे हुए नगरों और गांवों का विशद चित्रोपम यथार्थ वर्णन गुमानी ने खूब किया है।
पिछले दो सौ सालों में संस्कृत की दूसरी उल्लेख्य कवि क्षमा राव हैं।उन्होंने नारी हृदय की संवेदना और अनुभूतिप्रवणता के साथ नए युग की नई गीता संस्कृत में रची।उन्होंने सत्याग्रहगीता, उत्तरसत्याग्रहगीता में भारत के जन-जन के उस संघर्ष को साकार किया, जिसे उन्होंने न केवल आंखों से देखा, जाना, परखा बल्कि उसमें स्वयं भी वे सम्मिलित थीं।उन्होंने संस्कृत साहित्य के पूरे परिदृश्य को बदल दिया।वे संस्कृत की एक युगप्रवर्तक कवि हैं।उन्होंने महाकाव्य का सारा पुराना ढांचा तोड़ कर उसका नया मानक दिया, संस्कृत में कथानिका या कहानी की विधा का सार्थक उपक्रम किया, यात्रावृत्तांत और जीवनी इन दोनों विधाओं में भी अनुपम योगदान दिया।उनका रचा सारा का सारा ही विपुल संस्कृत वाङ्मय अनुभूति की आंच और सांच में तपा तथा निखरा हुआ है।गांधी के जीवन और दर्शन को काव्यात्मक अभिव्यक्ति उनकी कविता में मिली।धरती का उच्छ्वास और इतिहास का करुण क्रंदन हम उन्हें पढ़ते हुए सुनते हैं।इसके साथ ही अपने साहस के कारण भी क्षमा वरेण्य हैं।अंग्रेजी राज में वे अपने महाकाव्य लिख रही हैं, और अंग्रेज साहबों को कड़ी फटकार लगा रही हैं।वे आजाद भारत में स्वातंत्र्य समरगाथा की अंतिम कड़ी वाली अपनी रचना प्रस्तुत करती हैं, तो एक हत्यारे के रूप में नाथूराम गोडसे की भर्त्सना करते हुए उसके कुकृत्य को हिंदू समाज पर कलंक बताती हैं।एक महिला कवि के रूप में वे संस्कृत की दुर्गा और भवानी भी हैं और मीरा भी।उनका मीरालहरी काव्य नारी हृदय के समर्पण, आस्था और सामाजिक विसंगतियों के प्रति विरोध के भाव की अभिव्यक्ति करता है।अंतिम तीन महाकाव्यों में उन्होंने स्वराज्यचेतना को धर्मचेतना से जोड़ दिया है।
तीसरे महाकवि जो हमारे समकालीन भी रहे हैं, रेवाप्रसाद द्विवेदी हैं।वे परंपराओं को विस्तारित करते हैं, अपने समय की आहटों को सुनते हैं और गुनते हैं।प्रातिभ उर्वरता में वे बेजोड़ हैं।
(२) कदाचित क्षमा देवी ने ही राष्ट्रविभाजन की विभीषिका पर ‘उत्तर सत्याग्रहगीता’ में कुछ चर्चा की है, अन्यथा संस्कृत जगत में अतीतोपजीविता और वर्तमान की चुनौतियों से पराङ्मुखता की शुतुरमुर्गी प्रवृत्ति बड़े पैमाने पर रही है।गुमानी १८५७ के पहले अपना साहित्य रचकर जा चुके थे, और देशविभाजन के समय क्षमा राव मुंबई में थीं।संस्कृत के अनेक बड़े-बड़े पंडित घनघोर विपत्तियां झेलकर लाहौर से कराची और दूसरे नगरों से पाकिस्तान बनते समय भाग कर आए। ‘झूठा सच’ या ‘ट्रेन टु पाकिस्तान’ जैसे उपन्यासों की तो संभावना भी संस्कृत में क्या बनती, पर भारत विभाजन पर न किसी ने ‘अश्रुविसर्जनम्’ काव्य लिखा, न किसी ने कोई ‘विलाप-लहरी’ रची; जबकि अन्य प्रसंगों को लेकर संस्कृत में बीसवीं शताब्दी में अश्रुविसर्जनम् जैसे काव्य भी कई लिखे गए, कई कई विलाप-लहरियाँ रची गईं।आंखों देखे नंगे यथार्थ को झेल कर फिर रचना में उसकी बसाहट करने की चुनौती का वरण संस्कृत के कवियों ने उस समय नहीं किया।बांग्लादेश की मुक्ति पर भावोच्छ्वसित होकर ऐसे कई छंदोगुंफनपटु संस्कृतज्ञों ने नाटक और काव्य रच डाले, जिनका बंगाल और पूर्वी पाकिस्तान से प्रत्यक्ष परिचय नहीं था, केवल अखबार पढ़कर या समाचार सुनकर वे आनंदतरंगित हो उठे थे।बहुत ओजस्वी और फड़कती हुई कविताएं लिखी गईं।
मुझे लगता है कि १९७५-७६ से संस्कृत की रचनात्मकता का परिदृश्य बदलने लगता है।आपातकाल की विभीषिकाओं पर परमानंद शास्त्री जनविजयम् जैसा मार्मिक महाकाव्य लिखते हैं।उसमें आपातकाल की विभीषिका का स्वानुभूत वर्णन है।इसी समय इंदिरा गांधी की प्रशस्ति में सत्यव्रत शास्त्री ‘इन्दिराचरितम्’ जैसा भारी भरकम महाकाव्य लिखते हैं।प्रतिष्ठा, तरह-तरह के मान-सम्मान सत्यव्रत शास्त्री को ही मिलते हैं, परमानंद शास्त्री का साहित्य उनके साहित्य से मात्रा में ज्यादा ही होगा, पर वे एकांत साधक हैं और उपेक्षित रहते हैं।
इसके बाद तो गांवों से पलायन और महानगरों के संत्रास पर ही नहीं, कारोना काल में महानगरों से मजदूरों के भागने की दारुण स्थितियों पर भी अच्छी कविताएं संस्कृत में आईं।महाराजदीन पांडेय, हर्षदेव माधव, बलराम शुक्ल, कौशल तिवारी के नाम यहां लिए जा सकते हैं।
(३) वैश्वीकरण की दारुण परिणतियां तथा तज्जन्य संकट का बोध हर्षदेव माधव जैसे इक्के-दुक्के कवियों की रचनाओं में व्यक्त हुआ है।कथा-साहित्य में कालूरि हनुमंत राव तथा एच.आर. विश्वास की कुछ कहानियों में भारतीय मध्यमवर्ग पर भूमंडलीकरण के पड़े प्रभावों के करुण मार्मिक प्रसंग हैं।कालूरि हनुमंत राव की कविताओं औऱ कहानियों में भी विषयवस्तु और भाषा में ताजगी है।पर वे उपेक्षित हैं, क्योंकि वे संस्कृत के प्राध्यापक नहीं रहे।
संस्कृत में पर्यावरण के विनाश पर बहुत मार्मिक रचनाएं की गईं।रामजी ठाकुर और रामचंद्र मिश्र की कविताएं उल्लेखनीय हैं।वैश्वीकरण के समानांतर देशीय अस्मिता की पक्षरचना हो सके, ऐसी हल्की सी संभावना घुप्प अंधेरे में कहीं टिमटिमाती क्षीण लौ की तरह दिखती है।क्षीण इसलिए कि एक तो रवींद्रनाथ टैगोर जैसी समय के आर-पार देख सकने वाली प्रतिभा पिछले दो सौ वर्षों में संस्कृत साहित्य में नहीं हुई; दूसरे, हमारा समकाल बेहद जटिल, अनिश्चय और संक्रांति में उलझा हुआ है, और संस्कृत समाज में सहज, सरल पर बेहद सतही और निरर्थक व्याख्यान तक सीमित और संतुष्ट रह जाने की प्रवृत्ति हावी है।जिन रचनाकारों में यह संभावना कुछ बलवती होकर बनती लगती है, उनपर ध्यान नहीं दिया गया।
ऊपर मैंने गुमानी कवि की बात की।स्वामी तपोवन (१८९९-१९५९) का ‘ईश्वरदर्शनम् अथवा ‘तपोवनचरितम्’ एकदम अलग तरह की विलक्षण कृति है।वह गहरे आध्यात्मिक अनुभव का अद्भुत काव्यात्मक आख्यान है।संस्कृत का अपना रसबोध और गहरी वेदना और संकट की अनुभूति के साथ चित्त को मथ कर निकलता अध्यात्म का बोध कदाचित संस्कृत का कवि दे सकता है, यह संभावना वहां लगती है।जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंच कर स्वामी तपोवन तटस्थ तथा निर्लिप्त दृष्टि से बाल्य जीवन से इस कथा के लेखनकाल तक की अपनी सारी जीवनयात्रा का विहगावलोकन करते हैं।वे सर्वत्र स्वयं के लिए अन्यपुरुष सर्वनाम या नाम लेकर अपने से अलग होकर अपनी गाथा यहां रचते हैं।
आत्मकथाकार अपने समय की भी कथा कहता है, साथ में अपनी जीवनगाथा भी गूंथता है।वह इस समय के पार और इस जीवन के आगे की यात्रा की झलक भी देता है। ‘तपोवनचरितम्’ एक मुमुक्षु की साधना की कथा है।इसमें इस देश के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक वैभव की अनूठी कथा भी पिरोई हुई है।अनेक संतों व महात्माओं के सत्संगों, उनके साथ हुए संवादों और उनसे हुए शास्त्रार्थों के कौतुकवर्धक विवरण शब्दशः उद्धृत करते हुए स्वामी तपोवन ने यहां दे दिए हैं।इन्होंने संन्यास लेने के पूर्व तथा बाद में संस्कृत तथा मलयालम में अनेक काव्यों तथा शास्त्रीय ग्रंथों की रचना की थी।उनकी इस रचना में ईश्वर की कांति सब ओर फैली दिखती है।ज्ञान की पिपासा तथा ईश्वरदर्शन की अभिलाषा के कारण ‘तपोवनचरितम्’ अनुभूतियों की गहराई में उतरता है।हिमालय की ऊंचाइयों का आरोहण करते हुए आत्मकथाकार आत्मा की ऊंचाइयों का भी आरोहण करता है।स्वामी तपोवन ने यहां आत्मानुभूतियों का तल्लीनता के साथ वर्णन किया है।हिमालय की यात्रा में आत्मकथाकार का मृत्यु से साक्षात्कार का प्रसंग जितना रोमांचक है उतना ही कारुणिक और मन के आवरण तोड़ने वाला है।शरीर बीमार और शिथिल है, अशिथिल चित्त उसे देख रहा है।शरीर मूर्च्छित हो गया है, स्वामी तपोवन उसके भीतर अमूर्च्छित हैं।ये सारे अनुभव बहुत चमकदार और पैने गद्य में गूंथे गए हैं।इस कृति से गुजरना अपने चित्त के विकारों का प्रक्षालन करना है।
(४) संस्कृत के रचनाकार अन्य भारतीय और वैदेशिक भाषाओं के साहित्य से मुहावरे, शब्दावली, विषयवस्तु और अभिप्राय खूब ले रहे हैं।यह एकतरफा संवाद है।भारतेंदु और महावीरप्रसाद द्विवेदी के समय तक हिंदी और संस्कृत के रचनाकारों में जीवंत दुतरफा संवाद था, वह टूट गया।
२१, लेंड मार्क सिटी, होशंगाबाद रोड, भेल संगम के पास, भोपाल–४६२०२६ (म.प्र)
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रमाकांत पांडेय संस्कृत के प्रसिद्ध समीक्षक एवं विद्वान।अभिनवगुप्त के स्तोत्रों के मार्मिक टीकाकार के रूप में चर्चित। ‘प्रेमतत्वः द्वैत से अद्वैत तक की यात्रा’ हाल की पुस्तक। |
संस्कृत का कवि सदा जागरूक और चिंतनशील रहा है
(१) स्वतंत्रता संग्राम वस्तुतः संस्कृत मनीषियों एवं संस्कृत साहित्य की अभिप्रेरणा का ही प्रतिफल है।भारत को शारीरिक, मानसिक तथा आर्थिक रूप से परतंत्र करने की अंग्रेजों की सोच ने संस्कृत को अपने वास्तविक स्वरूप से पदच्युत करने का निंदनीय प्रयास किया था।वारेन हेस्टिंग्स ने संस्कृत को एक ओर जहां राष्ट्रभाषा के पद पर अभिषिक्त किया था तथा शास्त्र परंपरा का आलोड़न कर संस्कृत में नए ग्रंथों के प्रणयन का सूत्रपात किया था, वहीं दूसरी ओर उनके बाद के अंग्रेज शासकों ने संस्कृत को पदच्युत कर अंग्रेजी तथा ईसाइयत के प्रचार का उपक्रम किया।यह स्थिति संस्कृतज्ञों तथा संस्कृत प्रेमियों के लिए असह्य थी।अनेक पंडितों ने इसका प्रबल विरोध किया।इस अवधि में संस्कृत की रचनाधारा निखरी और संस्कृत ने नई भावप्रवणता प्राप्त की।
विगत २०० वर्षों की अवधि में अनेक महाकवि तथा मनीषियों ने संस्कृत को अपनी रचनाओं से समृद्ध किया, तथापि महामहोपाध्याय पंडित गंगाधर शास्त्री, पंडिता क्षमा राव तथा सनातन कवि आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी का नाम मूर्धाभिषिक्त है।गंगाधर शास्त्री ने अपने ‘अलिविलासिसंलाप’ काव्य में एक ओर शास्त्र और कविता के अंतःसंबंधों को रेखांकित किया तो दूसरी ओर, काव्य की युगबोधपरकता को भी रेखांकित किया।उनके ‘अलिविलासिसंलाप’ काव्य में कोई कथा नहीं है, तथापि उन्होंने दर्शन और साहित्य के मंजुल सामंजस्य से कविता को नई भूमि प्रदान की।
उनका यह काव्य वेदांत की व्यावहारिक, प्रातिभासिक तथा पारमार्थिक सत्ताओं के आधार पर अर्थनिर्धारण का नया उपक्रम है।काव्यनायक अलि प्रसंगानुसार व्यावहारिक सत्ता में सामान्य भ्रमर है, किंतु पारमार्थिक सत्ता में उसके अनेक रूप दृष्टिगत होते हैं।कभी वह गुरु है, कभी परमहंस, तो कभी दुर्बल जनता का शोषक अंग्रेज शासक।जिस प्रकार भ्रमर प्रत्येक पुष्प से मकरंद ग्रहण कर अपने छत्ते को रस से परिपूर्ण बनाता है, उसी प्रकार अंग्रेज भोली-भाली भारतीय जनता का शोषण कर उसके अन्न या धन रूप मकरंद से अपने राष्ट्र को समृद्ध करने में लगे थे।भ्रमर का संबंध चिरस्थायी नहीं होता, वह पराग ग्रहण तक ही सरोजिनी, मालती या केतकी से प्रणय रखता है।अंग्रेज भी ठीक इसी प्रवृत्ति के थे।
गंगाधर शास्त्री अपने काव्य में अंग्रेजों की शोषक प्रवृत्ति का वर्णन प्रातिभासिक रूप में शायद इसलिए करते हैं कि उस समय अंग्रेजों के विरुद्ध खुलकर कुछ भी कहना संभव नहीं था तथा रचना के प्रतिबंधित होने का भी प्रबल भय था।गंगाधर शास्त्री का यह काव्य संस्कृत साहित्य में अनूठा उदाहरण है।यहां शास्त्र अपने दुर्भणता तथा दुःश्रवता जैसे दोषों का परित्याग कर कविता बन जाता है।कविता उसे अपनाकर शास्त्र बन जाती है।कविता और शास्त्र के इस मंजुल समन्वय से युगबोध का महान महोदधि स्वयं तरंगित होने लगता है।
पंडिता क्षमा राव का रचना संसार अतिविस्तृत है।उन्होंने सत्याग्रहगीता, उत्तरसत्याग्रहगीता, स्वराज्यविजय, श्रीतुकारामचरित, श्रीरामदासचरित तथा श्रीज्ञानेश्वरचरित जैसे महाकाव्यों की रचना तो की ही, मीरा लहरी, शंकरजीवनाख्यान, कथापंचक, ग्रामज्योति तथा कथामुक्तावली जैसी रचनाओं से भी संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया।सत्याग्रहगीता उनकी १९३१ के आसपास की रचना होगी, जिसका प्रकाशन पेरिस से १९३२ ई. में हुआ था।यह महाकाव्य गीता की शैली में लिखा गया।इसमें कुल १८ अध्याय हैं, किंतु श्लोकों की संख्या ६५९ ही है।समग्र काव्य स्वतंत्रता आंदोलन के उपक्रमों को बड़ी निर्भीकता से उपस्थापित करता है।
इस महाकाव्य की रचना की प्रेरणा गांधी जी की दांडी यात्रा थी।यह महाकाव्य अपने अंतस में अनेक ऐसी घटनाओं को समेटे हुए है जिन्हें स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के आलोक में देखा जाना चाहिए।महात्मा गांधी के जीवन दर्शन, उदात्त चरित्र तथा राष्ट्र सेवा का वर्णन इस महाकाव्य में देखा जा सकता है।उत्तरसत्याग्रहगीता भी स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण पहलुओं को प्रस्तुत करती है।देशवासियों के मन में अभिनव चेतना के संचार, मंदिरों में अछूतों के प्रवेश, चंपारण सत्याग्रह, विश्व युद्ध, भारत छोड़ो आंदोलन इत्यादि के साथ गांधी जी के सेवाग्राम वापसी तक का वर्णन यह महाकाव्य करता है।
आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी हमारे युग के महान पंडित, चिंतक, शास्त्र रचनाकार तथा महाकवि हैं।उन्होंने काव्यशास्त्र में नए सिद्धांतों की स्थापना करते हुए ‘नव-अलंकारवाद’ को स्थापित किया।अनेक महाकाव्यों की रचना के साथ-साथ ‘स्वातंत्र्यसंभवम्’ महाकाव्य की रचना की।उनका यह महाकाव्य संभवतः सर्वाधिक विशाल महाकाव्य है, जो कल्हण की राजतरंगिणी की शैली को आज के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है।इस महाकाव्य के कुल ७५ सर्ग प्रकाशित हैं तथा ३५ अन्य सर्ग प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं।प्रकाशित सर्गों की पद्य संख्या ६०६४ है तथा २६१५ पद्य अप्रकाशित सर्गों में हैं।द्विवेदी जी ने १८५७ से अब तक की समस्त घटनाओं का वर्णन इस काव्य में किया है।स्वतंत्रता के संकल्पोदय से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक का वर्णन तो इसमें है ही, कतिपय अन्य राष्ट्रीय विभीषिकाओं तथा रामजन्मभूमि के निर्णय आदि को भी कवि ने अपने महाकाव्य का विषय बनाया है।इन आचार्यों ने संस्कृत की जीवंतता, सार्वकालिकता तथा सर्वांगीणता को प्रतिष्ठापित किया।२१वीं शताब्दी में संस्कृत के महत्व तथा शास्त्र चिंतन के सातत्य को समुन्नत किया।इस प्रकार उपर्युक्त तीनों महाकवि स्वतंत्रता संग्राम तथा संपूर्ण भारतीय साहित्य के संदर्भ में अद्वितीय माने जा सकते हैं।
(२) संस्कृत का कवि सदा जागरूक और चिंतनशील रहा है।वैदिक काल से ही वह अपने आसपास की घटनाओं के प्रति सचेत रहा है।उसने समग्र मानवता के परिप्रेक्ष्य में उन घटनाओं को देखने का उपक्रम किया है।राष्ट्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति और उसके बाधक तत्वों की पहचान करने में संस्कृत का कवि सर्वदा समर्थ रहा है।उसने दो टूक होकर किसी भी प्रश्न का उत्तर देने का साहस किया है।हृषीकेश भट्टाचार्य, श्रीश्वर विद्यालंकार, यादवेश्वर तर्करत्न, अप्पा शास्त्री, राशि वड़ेकर आदि महनीय कवियों ने राष्ट्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति और उसमें बाधक तत्वों की पहचान की।उन्होंने राष्ट्र विभाजन की विभीषिका का अपने शब्दों में वर्णन किया।
अप्पा शास्त्री ने बंग विभाजन की विभीषिका का ‘संस्कृतचंद्रिका’ तथा ‘सूनृतवादिनी’ के माध्यम से प्रबल विरोध किया।जन-जन में राष्ट्रभक्ति को जगाने के लिए उन्होंने अपने काव्यों में नए प्रतीकों को अपनाया।लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की कारागार यात्रा का सटीक वर्णन किया।क्लाइव जैसे अंग्रेज शासकों को लुटेरा कहा।
यादवेश्वर समग्र भारतीय परंपरा से परिचित महाकवि हैं।उनकी कर्मभूमि काशी तथा बंगाल रहीं। ‘अश्रुविसर्जनम’ की रचना के माध्यम से उन्होंने उन महनीय आचार्यों का स्मरण किया, जिन्होंने राष्ट्र की अभ्युन्नति तथा शास्त्रीय परंपरा के विकास में अपना योगदान दिया।अभिराज राजेंद्र मिश्र ने अपने गीतों में कहीं व्यंग्य के माध्यम से तो कहीं वाच्य के माध्यम से अनेक घटनाओं को स्थान दिया।हरिश्चंद्र रेणापुरकर ऐसे कवियों में अग्रगण्य माने जा सकते हैं।उन्होंने प्रत्येक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं को पहचाना और संस्कृत में उनका वर्णन किया।
(३) स्वतंत्रता के बाद विकास के सोपानों में आरूढ़ होता हुआ भारत वैश्वीकरण में प्रविष्ट हुआ।संस्कृत के कवियों ने वैश्वीकरण को विषय बनाकर अनेक रचनाएं कीं।राधावल्लभ त्रिपाठी, राजेंद्र मिश्र, हर्षदेव माधव आदि कवियों ने वैश्वीकरण के विभिन्न पक्षों को अपने काव्यों में उकेरा।उन्होंने इसके लिए नए प्रतिमानों का अन्वेषण किया।राधावल्लभ त्रिपाठी ने समग्र काव्य विधाओं को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करने का स्तुत्य उपक्रम किया।अभिराज राजेंद्र मिश्र ने अनेक गीतों में इसके दुष्प्रभावों को उकेरने का उपक्रम किया।रामकरण शर्मा, गोविंद चंद्र पांडेय जैसे महनीय आचार्यों की रचनाओं में वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों को देखा जा सकता है।अपने ‘भागीरथी’ काव्यसंग्रह में गोविंद चंद्र पांडेय आज की संचार व्यवस्था पर भी कटाक्ष करते हैं।वे संचार माध्यमों के कारण लोगों के हृदय में विरह के अभाव को उचित नहीं ठहराते।आज का संस्कृत कवि अपनी परंपराओं और प्राचीन धरोहरों के वर्णन के प्रति भी सचेत है।अनेक कवियों ने छीजती परंपराओं तथा नष्ट हो रहे धरोहरों के प्रति दुख व्यक्त किया है।
(४) यह सर्वमान्य तथ्य है कि संस्कृत समस्त भारतीय भाषाओं की उपजीव्य भाषा रही है।प्रारंभ से ही यह उपजीव्यता दो स्तरों पर देखी जाती रही है- १. शब्द संपत्ति की दृष्टि से तथा २. वर्ण्य विषय की दृष्टि से।प्रायः समस्त भारतीय भाषाओं की अधिकतम शब्दावली संस्कृत से व्युत्पन्न है।साथ ही संस्कृत ने भी इन भाषाओं से समय-समय पर बहुत कुछ लिया है।संस्कृत मात्र देने वाली भाषा नहीं रही, वह शब्द व्यवहार के क्षेत्र में लेने वाली भाषा भी रही है।उन शब्दों को परिभाषित करने के लिए आचार्यों ने व्याकरण और कोषादि की रचना भी की है।वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, पुराण तथा संस्कृत में लिखित अन्य महाकाव्य, नाटक, छंदशास्त्र आदि समस्त भारतीय भाषाओं में संस्कृत से उतरे हैं तथा उन्होंने इन भाषाओं को समृद्ध किया है।परवर्ती काल में संस्कृत ने भी भारतीय भाषाओं से वर्ण्य विषय लिए।
संस्कृत के कवियों ने अनेक दृष्टियों से भारतीय तथा विश्व साहित्य का आलोड़न किया।उन्होंने पाश्चात्य छंदों को संस्कृत में उतारा।पाश्चात्य काव्य विधाओं तथा भावबोध से भी संस्कृत साहित्य को संबलित किया।विल्सन, कार्ल कापेलर इत्यादि पाश्चात्य कवियों ने संस्कृत को अन्य भाषा-साहित्य में तथा अन्य भाषा-साहित्य को संस्कृत में अनूदित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया।
आजकल अनूदित साहित्य संस्कृत में अत्यधिक प्रिय हो रहा है।इस प्रकार संस्कृत अनेक दृष्टियों से अन्य भाषाओं से संवाद करती दृष्टिगत हो रही है।आज का संस्कृत साहित्य विश्व साहित्य के सम्मुख गौरवान्वित होकर खड़ा है।समग्र विश्व का भावबोध संस्कृत के क्रोड़ में खेल रहा है तथा संस्कृत का भावबोध विश्वमयता को धारण कर वैश्विक सहृदयों के आस्वाद का विषय बन रहा है।
ग्रीक, लैटिन, अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी, हिंदी, मराठी, गुजराती इत्यादि भाषाएं भिन्न होकर भी आज संस्कृत से संवाद करती दिख रही हैं तथा संस्कृत इन भाषाओं से एकमयता प्राप्त कर रही है।लोक और शास्त्र कविता में समा रहे हैं तथा कविता लोकमयता और शास्त्रीयता को धारण कर तद्रूप हो रही है।
निदेशक, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल परिसर, संस्कृत मार्ग, बाग सेवानिया, भोपाल–४६२०४३ (म.प्र) मो. ९९६८६८८७८१
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बजरंग बिहारी तिवारी हिंदी संस्कृत के समीक्षक एवं दलित विमर्शकार के रूप में चर्चित। ‘केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित चेतना’ चर्चित पुस्तक। |
संस्कृत साहित्य में अंध–राष्ट्रवाद और अन्याय–विरोधी स्वर है
(१)अगर पिछली दो शताब्दियों के संस्कृत कवियों से मुझे किन्हीं दो का चुनाव करना हो तो मैं पंडिता क्षमा राव और आचार्य वीरभद्र मिश्र का नाम लेना चाहूंगा।पंडिता क्षमा राव (जन्म १८९०, पूना, मृत्यु १९५४) के लेखन से हम जान सकते हैं कि संस्कृत साहित्य के बड़े हिस्से ने औपनिवेशिक युग में कैसी भूमिका निभाई; वह जनाकांक्षाओं के प्रकटीकरण का जरिया किस प्रकार बनी।क्षमा राव का काव्य-सृजन आकार ले रहे नव-भारत का आख्यान है।कवि की आकांक्षा समग्र मुक्ति के लिए आकुल जनाकांक्षा से एकमेक हो गई है।गांधी दर्शन दोनों आकांक्षाओं का संधिस्थल है।
क्षमा राव की संस्कृत शिक्षा घर पर ही हुई।पहले उन्होंने अंग्रेजी में लिखना आरंभ किया।उसके बाद संस्कृत में लिखने लगीं।मीरा के महत्व का संज्ञान लेने वाली, उन पर लिखने वाली वे संभवतः पहली आधुनिक रचनाकार थीं।उन्होंने ५ महाकाव्य लिखे- सत्याग्रहगीता, उत्तरसत्याग्रहगीता, श्रीतुकारामचरितम्, स्वराजविजयः और श्रीज्ञानेश्वरचरितम्।उनकी अन्य उल्लेखनीय कृतियां हैं- ग्रामज्योतिः, कथापंचकम्, विचित्रपरिषद्यात्रा, मीरालहरी।पंडिता क्षमा राव नीचा दिखाने वाले सभी तरह के पदानुक्रमों को अस्वीकार करने वाली कवि हैं।
जाति-वर्ण का निषेध करते हुए ‘ज्ञानेश्वरचरित’ में उनका कथन है- ‘मदीयचेतसि कुलस्य वर्णस्य न वा विचिंतनम्।’ यही बात ‘स्वराज्यविजय’ महाकाव्य में भी है- ‘मनुष्यकुलसम्भूता वयं सर्वे सहोदराः’ मानवकुल में जन्मे हम सभी सहोदर हैं।उसी रचना में वे बताती हैं- ‘समाजे हि समानः स्याद् द्विजेन मलशोधकः।’ द्विज और सफाईकर्मी दोनों ही बराबर हैं। ‘जगत्यां हि समाः सर्वे नोच्चः कोपि न चावरः’ संसार में सभी समान हैं, कोई ऊंचा-नीचा नहीं। ‘सत्याग्रहगीता’ और ‘उत्तरसत्याग्रहगीता’ दोनों महाकाव्य मिलकर स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत भारत और स्वतंत्र भारत की तस्वीर पूर्ण करते हैं।
दूसरे क्रांतिकारी कवि आचार्य वीरभद्र मिश्र (१९४२-२०००) हैं।सामाजिक लोकतंत्र को राजनीतिक लोकतंत्र से वरीय मानने वाले वीरभद्र जी ने कई मोर्चों पर काम किया।उन्होंने सांस्कृतिक जड़ताओं की न केवल पहचान कराई, वरन उन पर तीव्र प्रहार भी किया।संस्कृत को समकाल के अनुरूप बनाने के लिए उन्होंने नई शब्दावली के गठन का संकल्प किया।शब्द रचना का काम वे दीर्घकाल तक करते रहे। ‘सर्वगन्धा’ पत्रिका (१९७७-२०००) उनके तमाम नवाचारों की प्रयोगभूमि रही है।इस पत्रिका के जरिए उन्होंने संस्कृत को देवत्व के, पौरोहित्य के वाहक की छवि से मुक्त करने का यत्न किया।वीरभद्र मिश्र संस्कृत को समर्थ-सुव्यवस्थित-अकृत्रिम भाषा मानते थे; आसमान से उतरी अलौकिक ब्रह्मवाणी नहीं।दुखद है कि आज तक ‘सर्वगन्धा’ पत्रिका के अंकों का संरक्षण, पुनर्प्रकाशन और उस पर शोधकार्य नहीं हो सका है।आचार्य वीरभद्र मिश्र के योग्य उत्तराधिकारी और बहुतों को बेतरह चुभने वाले कवि डॉ. महराजदीन पांडेय ‘विभाष’ के सत्प्रयत्नों से ‘वीरभद्र-रचनावली’ राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली से २०१७ में छपकर आ गई है।रुक-रुक कर प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘सर्वगन्धा’ के समस्त अंकों को एक जिल्द में लाना या डिजिटल माध्यम में उपलब्ध कराना अभी प्रतीक्षित है।वीरभद्र जी की रचनाओं में डेढ़ सौ से अधिक कविताएं (इनमें बाल कविताएं भी शामिल हैं) ‘युगधर्म’, (पांच सर्गों में निबद्ध प्रबंधकाव्य) ‘लघुवंश’ (तीन सर्ग, कालिदास के महाकाव्य ‘रघुवंश’ का विडंबनकाव्य), १४ छोटे-बड़े नाटक, पुराणशैली में रचित पांच अध्यायों वाला ‘अस्तव्यस्तपुराणम्’ (सत्यनारायणव्रत -कथा से पोषित और विवेकहीनता में मग्न मानस पर चोट करती यह रचना बड़े साहस से संभव हुई है), ‘धृतराष्ट्रोपनिषद्’, ‘अनुनय’, ‘भद्रकोष’ आदि शामिल हैं।
पंडिता क्षमा राव स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अर्जित मूल्यनिष्ठ लोकतंत्र के आदर्शों की रचनाकार हैं तो वीरभद्र मिश्र स्वतंत्र भारत की विडंबनाओं, संसदीय लोकतंत्र की अर्थहीन होती परंपराओं, मूल्यक्षरित संवैधानिक संरचनाओं, अधिकारच्युत किए जा रहे नागरिक समुदाय के कवि हैं।उनकी रचनाओं में तत्कालीन राजनीतिक संदर्भ खूब हैं।ये संदर्भ कहीं इशारों में आए हैं और कहीं मुखर रूप में।वीरभद्र, हिंदुत्व को भारत के लिए अशुभ मानते हैं, धर्म के आधार पर नागरिकों से भेदभाव किए जाने के विरुद्ध हैं।अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने लिखा : ‘इयमपरावार्ता यत् हिन्दुत्वं राजनीतिक बिंदुरूपेण देशस्य कृते हानिकरम्।भारते ये अहिन्दवो वसन्ति तेषां भावना अपि आदरणीया।तेऽपि भारतस्य नागरिकाः तेषामपि त एवाधिकाराः…’ इसका अर्थ है, दूसरी बात यह कि राजनीतिक रूप से हिंदुत्व देश के लिए हानिकारक है।भारत में अहिंदू भी रहते हैं।उनकी भावना भी आदरणीय है।वे भी भारत के नागरिक हैं।उनके भी अधिकार हैं।
दुनिया में भयंकर शोषण, दमन और हिंसा देखते हुए उन्होंने क्रांतदर्शी कविजनोचित प्रश्न पूछा, कौन कहता है कि संसार का (कोई) नियंता है? कोई बोता (खेती करता) है, (लेकिन) फसल नहीं ला पाता/ कोई बिना जोते-बोए अनाज ले जाता है।/ मेहनती के पास गुड़-तेल नहीं/ मेहनत न करने वाले बारंबार रबड़ी-मलाई सेवन करते हैं/ बिना वस्त्र के बालिका मरती है/(लेकिन) पिल्लों की बढ़िया देखभाल होती है/ …(यदि) जगत निर्माता ईश्वर है/ तो (उसके होने का) प्रमाण लुप्त हो चुका है-/ कौन कहता है संसार का नियंता है?
को ब्रूते जगतोऽस्ति नियन्ता?
कश्चिद्वपति, न शस्यं लभते
कश्चिद्वपति न, शस्यं लभते।
श्रमिणे नास्ति गुडं वा तैलं
विश्रमिणे ‘रबड़ी’ बहुबेलम्।
वस्त्रं विना बालिका म्रियते
शुनीशवः शालैः संस्क्रियते।
…
अस्तीशो जगतामभियन्ता
तदा प्रमाणं लोपं गन्ता-
को ब्रूते जगतोऽस्ति नियन्ता?
(२) विभाजन की पीड़ा संस्कृत साहित्य में बारंबार व्यक्त हुई है। ‘स्वराज्यविजय’ (१९६२, पं. क्षमा राव) महाकाव्य के नायक गांधी जी कहते हैं कि वे अपनी देह के हजारों टुकड़े कर देंगे, लेकिन सपने में भी जन्मभूमि के विच्छेद का ख़याल नहीं आने देंगे- ‘खंडनं स्वशरीरस्य करिष्येऽहं सहस्रशः।न तु स्वप्नेऽपि विच्छेदं चिन्तयिष्ये जनुर्भुवः।’ ५४ सर्गों वाले इस महाकाव्य के छियालीसवें से पचासवें सर्ग तक विभाजन की विभीषिका अंकित है।आचार्य मधुकर शास्त्री के ‘गान्धिगाथा महाकाव्य’ (१९७३) में देश के बंटवारे का दर्द समाया है।
कोलकाता, बिहार और युक्तप्रांत के सांप्रदायिक दंगों से मर्माहत गांधी जी अपने आत्मीय खान अब्दुल गफ्फार खां के साथ जगह-जगह जाकर हिंसा की आग बुझाने का यत्न करते रहे।वे स्वातंत्र्य-उत्सव में भी सम्मिलित न हुए।सांप्रदायिक हिंसा ने, उस हिंसा को आत्मसात किए एक विषधर-व्यक्ति ने उनकी जान ली। ‘विशालभारतम्’ महाकाव्य (१९६७, पं. श्यामवर्ण द्विवेदी, इस महाकाव्य का प्रथम भाग ही ‘जवाहरदिग्विजयम्’ शीर्षक से प्रकाशित है) में पुनः विभाजन का पीड़ादायक प्रसंग चित्रित है।
महाकाव्य के आठवें सर्ग में संकेतित है कि गांधी की हत्या अंध-राष्ट्रवाद की देन है।यह हत्या एक नवोदित राष्ट्र के माथे पर कलंक है।अंधराष्ट्रवाद ने हिटलर, ख़ुमैनी आदि को पाला-पोसा है।भविष्य में भी वह ऐसे विनाशकों को पैदा करेगा।कवि के अनुसार पाकिस्तान को उसके हिस्से का पचपन करोड़ रुपये देने के लिए गांधी जी का अनशन मानवता के महाभाव से अनुप्राणित राष्ट्रवाद का उदाहरण है।
देश विभाजन और सांप्रदायिक हिंसा के प्रश्न ‘श्रीजवाहरज्योतिर्महाकाव्यम्’ (१९६७, रघुनाथप्रसाद चतुर्वेद) तथा ‘स्वराज्यविजयं’ महाकाव्य (१९७१, द्विजेन्द्रनाथशास्त्री) जैसी कृतियों में आए हैं।आधुनिक संस्कृत काव्य में अंध-राष्ट्रवाद, उन्मादी धार्मिकता, देश विभाजन, आंतरिक हिंसा आदि संदर्भों के बाहुल्य को समेटते हुए महराजदीन पांडेय ‘विभाष’ ने अपनी एक ग़ज़ल में यह मौजूं शे’र कहा है-
देशे द्विधा विभिन्ने स्वाधीनतानिशीथे
गान्धिनि रुजा तरन्ती कविता कदाचिदेषा। (अर्थात स्वतंत्रता की आधी रात को देश के दो टुकड़ों में टूट जाने पर गांधी जी की तैरती हुई पीड़ा ही शायद कविता है।)
स्वतंत्र भारत में जनता के दुखों का, संघर्षों का भरपूर संज्ञान संस्कृत कवियों ने लिया है।किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों की पीड़ा और आक्रोश संस्कृत कविता का प्रमुख विषय है।हर्षदेव माधव के काव्य-संग्रह ‘बुद्धस्य भिक्षापात्रे’ (२००९) में
सन्ति वंचनायुक्ता निराशाःसंगृहीत यह कविता देखिए-
कृषीवलः
बीजच्छलेन
स्वयौवनं क्षेत्रे निक्षिपति
तथापि-
तस्य कोष्ठागारे- (किसान/बीज के बहाने खेत में/फेंकता है अपना यौवन/फिर भी/उसके कोठार में रहती हैं/छलनाभरी निराशाएं।)
सभ्यता की विकास-यात्रा ने कई पड़ाव पार किए हैं।यह समाज बहुत आगे आ गया है।आगे आने के दावे से कवि आश्वस्त नहीं।वह इस अग्रगामिता को प्रश्नांकित करता है।उसकी स्मृतियां अतीत में हुए दुर्व्यवहारों-दुष्कर्मों का बोझ ढोती हैं।यह घाव करता अतीत इतिहास की कंदरा से बार-बार निकलता है।घाव को हरा करता है, गहरा करता है।हर्षदेव माधव की कविता की एक दलित स्त्री अपने पांव के घाव दिखाती हुई कहती है- ‘अयं व्रणो/ब्राह्मणानां कूपाद् जलमानेतुं/ गतयोश्चरणोऽपराधः’।अर्थात यह घाव/ब्राह्मणों के कुएं से पानी लाने/गए पांवों के अपराधस्वरूप है।ग्लानि-बोध से दबे कवि कौशल तिवारी की ईमानदार आत्मस्वीकृति है-
यस्मात्कूपाज्/जलग्रहणाद्यूयं पूर्वजैर्निरुद्धा:,/स कूपोधुनापि/तत्रैव वर्तते,/तस्मिन् सत्यपि /वयं स्मः पिपासव:,/यतो हि/जलस्य स्थाने तत्र वर्तन्ते युष्माकं/आक्रोशा:,/चीत्कारा:,/अभिशापा:,/तान् ग्रहणार्थं/कोऽपि नाऽऽगच्छति,/तत् सर्वम् अस्माकमेवाधुना/अस्माभि: सहैव भविष्यति /प्रलयपर्यन्तम्,/पूर्वजा:!/जलस्य विनिमये जलं मिलति/तथा…॥
अर्थात जिस कुएं से/पानी लेने से रोका था पुरखों ने तुम्हें/वह कुआं आज भी वही है/उसके होने पर भी/हम प्यासे हैं/क्योंकि पानी की जगह/वहां पर हैं तुम्हारे/आक्रोश,/चीखें,/अभिशाप,/उनको लेने के लिए/कोई नहीं आता/अब वह सब हमारा ही है/हमारे साथ ही रहेगा/प्रलय पर्यंत,/पुरखो! पानी के बदले पानी मिलता है/और….॥
(३) पिछली शताब्दी के आख़िरी दशक में ज़ोरदार दस्तक देने वाला वैश्वीकरण कवियों के लिए स्वागत का नहीं, चिंता का विषय बना।नव-स्वाधीन राष्ट्रों की चूलें हिला देने वाले इस वैश्वीकरण से हर भाषा के जनपक्षधर रचनाकार जूझे, अद्यावधि जूझ रहे हैं।कल्याणकारी वैश्वीकरण की अवधारणा को समर्थन देने वाले कवि पूर्णचंद्र शास्त्री वैश्वीकरण के नए संस्करण के प्रति आशंकित हैं। ‘प्रबुद्धभारतम्’ (२०१०) में वे कहते हैं कि पराधीन (या कमज़ोर) राष्ट्रों का जिस मात्रा में दमन होता है, उसी अनुपात में विश्व की जनसंस्कृति का ह्रास होता है-
पराधीनस्थराष्ट्राणां यन्मात्रं दमनं भवेत्।
तन्मात्रो हि भवेद् ह्रासो विश्वस्मिन् जनसंस्कृते॥
‘लहरीदशकम्’ (२००३, दूसरा संस्करण) में राधावल्लभ त्रिपाठी स्पष्ट करते हैं कि जनता (की बस्ती) एक तरफ़ तो सब ओर फैलते गगनचुंबी भवनों द्वारा हटाई जा रही है, दूसरी ओर, दुर्नीति की दावाग्नि (धार्मिक घृणा) से वह जलाई जा रही है।विज्ञान और तकनीकी विकास की विडंबनाओं को रेखांकित करते हुए श्रीनिवास रथ लिखते हैं कि ‘नए’ विश्व के लोग चंद्रमा पर पहुंच रहे हैं, हर्षातिरेक में रोमांचित हैं, लेकिन उसी समय वर्ण-जाति के भेद की कई दीवारें, चेतना को चीरती हुई जन-जन में पीड़ा जगाती हैं-
यदेन्दुमण्डले पदं निधाय विश्वमानसं
प्रफुल्लरोमजालकं दधाति हर्षमदभुतम् ।
तदैव वर्णभेदनीतिभीतिजातवेदना-
विदीर्ण-चेतना रुजं सृजत्यलं जने जने ॥
इस वैश्वीकृत भारत में उत्पीड़नकारी परंपराएं बदस्तूर हैं।कन्या भ्रूणहत्या, बलात्कार, दहेज के लिए वधू दहन आदि ख़बरों से अखबार भरे ही रहते हैं।संस्कृत कवियों के यहां इस मुद्दे को प्राथमिकता से उठाया गया है। ‘तदेव गगनं सैव धरा’ काव्य संग्रह में श्रीनिवास रथ पूछते हैं- किमिति सपदि नववधू-विशसनं/दैनिन्दिनी प्रथा।अर्थात अब क्योंकर नई बहू की हत्या/प्रथा बन गई रोज-रोज की।
वेदकुमारी घई, प्रवेश सक्सेना, सिम्मी कंधारी, पुष्पा दीक्षित आदि की कविताओं में पुरुष वर्चस्व की आलोचना है।स्त्री को जला देने की घटना-संकुलता पर ‘देवराला नारीदाहः’ में महाश्वेता चतुर्वेदी लिखती हैं-
अहो दुर्मेधसःक्रूराः नार्योगृहविभूतयः।
दहेजलोभाद् दुर्वृतैः हन्यन्ते लुब्धकामकैः॥
निर्भयाकांड से क्षुब्ध नवोदित रचनाकार संस्कृता ने मानवता को जगाने का आह्वान करते हुए कविताएं लिखीं।उनकी एक कविता की पंक्तियां हैं-
अद्य वयं त्वां जागरयामः जागृहि सुप्ते मानवते।
एका त्वया निर्भया दृष्टा क्रूरैराहतसत्त्वा..
किन्तु न रक्षाकरः प्रदत्तः त्वया समीपं गत्वा..
(४) संस्कृत का रचनाकार हमेशा बहुभाषी रहा है।जनपदीय भाषाओं, प्राकृतों के प्रति अवमानना के भाव संस्कृत साहित्य में देखने को नहीं मिलते।एक भाषा का एकछत्र राज्य रहे, यह विचार यहां अजनबी है।काव्यमीमांसाकार ने अपने एक रूपक में कहा है- ‘उक्तिविशेषः काव्यं भाषा या भवति सा भवतु।’ विलक्षण या चमत्कारपूर्ण कथन काव्य है, भाषा चाहे जो हो।
पूर्वोद्धृत ‘विशालभारत’ महाकाव्य में श्यामवर्ण ने भाषा के प्रश्न पर विचार करते हुए कहा-
भाषाबलं शस्त्रबलान्महौजः स्वराज्य लाभाय च रक्षितुं तत् ।
शस्त्रं शरीरं वशमाकरोति मनोवनं हस्तयते च भाषा॥
-स्वराज्य प्राप्ति और उसकी रक्षा के लिए भाषा का बल शस्त्रबल से बढ़कर है।शस्त्र शरीर पर कब्जा करता है और भाषा (तो) चित्त को हस्तगत कर लेती है।
२०४, दूसरी मंजिल, टी–१३४/१, बेगमपुर, मालवीय नगर, नई दिल्ली–११००१७ मो.९८१८५७५४४०
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अभिराज राजेंद्र मिश्र पद्मश्री और साहित्य अकादेमी सम्मान से विभूषित प्रसिद्ध संस्कृत रचनाकार एवं विद्वान।छह गजल संग्रह, सात कहानी संग्रह, दो महाकाव्य, अठारह खंडकाव्य सहित करीब सौ से अधिक साहित्यिक ग्रंथ प्रकाशित।पूर्व-कुलपति संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी। ‘वाडवाग्निः’ हाल में प्रकाशित कहानी संग्रह। |
संस्कृत में अंग्रेजी राज के विरोध की परंपरा है
(१) ‘देववाणीसुवासः’ के संपादकीय में संभवत: मैंने पहली बार १७८४ को अर्वाचीन संस्कृत साहित्य की प्रारंभ की तिथि मानते हुए पुरोवर्ती काल विभाजन किया था, जो इस प्रकार था-
१. पुनर्जागरण काल – १७८४-१८८४
२. स्थापनाकाल – १८८५-१९४६/५०
३. समृद्धिकाल -१९४७-२०२२ (आगे भी)
पुनर्जागरण से मेरा अभिप्राय था तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स की सदाशयता से संस्कृत का राजभाषा पद पर आरूढ़ होना तथा शासन की सुदृढ़ पक्षधरता से चतुर्मुखी प्रचार-प्रसार तथा उन्नति होना।वारेन हेस्टिंस की प्रेरणा से १७६५ से १७९१ के बीच संस्कृत में कुछ विलक्षण कार्य हुए।
१. चार्ल्स विलिकिन्स द्वारा श्रीमद्भगवदगीता का अंग्रेजी में अनुवाद हुआ।
२. वोलास्टन के अंग्रेजी व्याकरणग्रंथ का मधुसूदन तर्कालंकार द्वारा इंगलैण्डीयव्याकरणसारः’ नाम से रूपांतर हुआ (फोर्ट विलियम कालेज कलकत्ता १८३५)।
३. कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश विलियम जोन्स द्वारा १७८४ में कालिदास की अमर कृति ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ का अंग्रेजी में रूपांतर तथा जॉन फॉस्टर द्वारा पुन: उसी का जर्मनी भाषा में रूपांतर।इसी रूपांतर को पढ़ कर उस युग का सर्वश्रेष्ठ सहृदय कवि गेटे भावविभोर हो उठा था तथा उसकी प्रशस्ति ने समूचे यूरोप को भारत की महिमा – गरिमा की ओर उन्मुख कर दिया था।
४. वारेन हेंस्टिग्स ने मैथिल पंडितों के सहयोग से ‘विवादसारार्णवः’ नाम की एक विधिसंहिता भी लिखवाई थी, जिसका अंग्रेजी अनुवाद उसने स्वयं किया था।
५. बेकन के निबंधों का संस्कृतानुवाद, लॉक के दर्शन का संस्कृतानुवाद तथा शेक्सपियर के अनेक नाटकों का अनुवाद भी हेंस्टिग्स के शासन काल में हुआ।
६. संस्कृतोद्धार की दिशा में अग्रिम कार्य हेंस्टिग्स के उत्तराधिकारी लार्ड कार्नवालिस ने १७९१ में बनारस संस्कृत पाठशाला की स्थापना करके किया!
उपर्युक्त विवरण से मेरे काल विभाजन और इसके तर्क की पूर्णतः पुष्टि होती है।इस काल में उस भूली-बिसरी विश्वभाषा को पहली बार अपने घर में सम्मान मिला था, राजभाषा का पद मिला था और उसकी स्थगित सर्जना का प्रवाह एक बार पुनः शासकीय संरक्षण में निर्बंध हो उठा था।
परंतु, १८३५ में लार्ड मैकाले ने वारेन हेंस्टिग्स तथा कार्नवालिस की सदाशयता को उनका प्रमाद सिद्ध कर दिया तथा उसने ब्रिटेन के शासकों को समझा दिया कि यदि संस्कृत राजभाषा बनी रही तो शीघ्र ही गौरांगों के हाथों से भारत निकल जाएगा, क्योंकि इस भाषा में पशु-पक्षियों की भी पराधीनता को निन्द्य तथा पाप माना गया है।भारतीय तभी तक चुप है जब तक उनकी भीतरी स्वतंत्र होने की आकांक्षा जाग्रत नहीं होती।शहंशाह अकबर तथा दाराशिकोह जैसे कुछ सहृदय नायक मिले भी तो उन्हें भी अपनों का घोर विरोध सहना पड़ा।
मैकाले के संस्कृत-विरोध (१८३५) को ही मैं भारतीय स्वतंत्रता के महावृक्ष का बीज मानता हूँ।इस संस्कृत-विरोध ने ही जन-जन में अंग्रेजों के शासन के प्रति प्रतिरोध पैदा किया तथा प्रसुप्त स्वातंत्र्य-कामना की चिनगारी को सन्धुक्षित कर दिया।बंकिम बाबू ने स्वाधीनता का गायत्री मंत्र लिखा‘वन्दे मातरम्’ तथा महर्षि अरविंद ने स्वाधीनता की श्रीमद्भगवद्गीता लिखी – ‘भवानी भारती’।
उस युग में त्रिवेंद्रम से ‘जयन्ती’, काञ्ची से ‘मञ्जुभाषिणी’, पट्टाम्बि से ‘विज्ञानचिन्तामणि’, कोल्हापुर से ‘सूनृतवादिनी’, लाहौर से ‘विद्योदय’ तथा वाराणसी से ‘पण्डित’ (संस्कृत) पत्रिका का प्रकाशन हो रहा था।अयोध्या से ‘संस्कृत साकेत’, कलकत्ता से ‘देववाणी’ तथा ‘मञ्जूषा’ प्रकाशित हो रही थी, परंतु इन सबमें ‘सूनृतवादिनी’ पूर्णतः स्वाधीनता संग्राम को समर्पित पत्रिका थी।इसके संपादक अप्पाशास्त्री स्वयं महान क्रांतिकारी, स्वाधीनता आंदोलन के पोषक श्रेष्ठ संस्कृतज्ञ थे।वह अंग्रेजों के पिट्ठुओं के घोर विरोधी थे तथा नरसिंहाचार्य जैसे प्रतिष्ठित कवि को भी उन्होंने पत्रिका में प्रकाशित करने का निषेध कर दिया था।खुदीराम बोस की फाँसी के अवसर पर लिखे उनके आग्नेय अग्रलेख के कारण उन्हें वर्षों कारागार का कष्ट भोगना पड़ा था।
उस युग के वे ही संस्कृत कवि अंग्रेजों के प्रशंसक थे, जो या तो ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके थे अथवा यथा-कथञ्चित् शासन से पुरस्कृत अथवा लाभान्वित थे।
संपूर्ण १९ वीं शताब्दी की संस्कृत-कविता स्वाधीनता की कविता है।उस युग के कुछ संस्कृत कवि तथा उनकी कविताएँ हैं – १. शारदाचरणमित्र (भारतगौरवम्) २. कृष्णमाचार्य (भारतगीतम्) ३. श्री नगरकर (राष्ट्रिया जागृति:) ४. आत्माराम शास्त्री (शिवहृदयम्) ५. ए. के. ताताचार्य (भारतमनोरथः) ६. वरकृष्ष्णमाचार्य (भारतखड्गः) ७. म. म. रामावतार शर्मा (अभिनवभारतम्) ८.चारुचन्द्र वन्द्योपाध्याय (मातृसम्बोधनम्) ९.केशव गोपाल (तिलकसौभाग्यम्) १०. विधुशेखर भट्टाचार्य (उद्बोधनम्) ११. अप्पाशास्त्री राशिवडेकर (पञ्जरबद्धः शुकः) १२. कृष्णदेव काव्यतीर्थ (भारतवर्षम्) १३. पी. एस. सुब्रह्मण्य शास्त्री (भारत कौमुदी) १४.द्विजेन्द्र ब्रह्मचारी (मातृभूमिः) १५.विजयचन्द्र शर्मा (उद्बोधनगाथा) १६. शालग्राम शास्त्री (प्रबोधनम्) १७.मेधाव्रताचार्य (मातः का ते दशा ?) १८ महर्षि अरविंद घोष (भवानी भारती, खंडकाव्य) १९. यादवेश्वर तर्करत्न (अश्रुविसर्जनकाव्यम्) २०. लक्ष्मीनारायण (भारतेतिवृत्तम्) २१. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी (जातीयप्रार्थना)।
बंकिमचंद्र का संस्कृत गीत स्वातंत्र्य युद्ध का प्रतीक बन गया था।कितना आश्चर्य है कि ये संस्कृत कविताएं उन्ही दिनों की हैं, जब आंदोलन चल रहा था।परंतु स्वाधीनता देने वाले ये ही संस्कृत के कवि आज गुमनामी में डूब चुके हैं।
दो सौ वर्षों के अतराल में, विविध प्रकार के काल-विवर्तों का सामना करते संस्कृत कवियों में दो या तीन कवियों का गुणवत्ता की दृष्टि से चयन करना, मेरी दृष्टि में समप्रतिभ अन्यों का अपमान है।कम से कम दस प्रवरनामों का चयन करना ही उचित है।तथापि, अपने नैष्ठिक अध्ययन के बल पर मैं भारतीय नवजागरण तथा स्वाधीनता को दृष्टि में रखकर कहना चाहूँगा कि महर्षि अरविन्द, पण्डिता क्षमा राव तथा यतीन्द्रविमल चौधरी इन दो सदियों के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कवि हैं।
परंतु इनके साथ ही श्री जीव न्यायतीर्थ, वाई. महालिंग शास्त्री, जग्गू बकुलभूषण तथा विजयसारथि (सौभाग्य से जीवित) का भी योगदान अविस्मरणीय है।अपनी एकल रचनाओं से भी कीर्ति शिखर पर पहुँचे भारतविजय नाटक के कर्ता म.म. मथुरा प्रसाद दीक्षित तथा भारतविजय काव्य के कवि राजा केरल वर्मा भी नमनयोग्य हैं।
(२) १७८४ से १९४६ तक अर्थात १६४ वर्षों की संस्कृत कविता केवल राष्ट्रीय आकांक्षा तथा आत्माकांक्षाओं की अभिव्यक्ति की कविता है। ‘पारिजातहरण’ तथा ‘रुक्मिणीहरण’ सरीखे कुछ अपवादों को छोड़ दें तो इस डेढ़ शतक के कालखंड में बहुत ही कम वैदिक, पौराणिक अथवा आर्षकाव्याश्रित महाकाव्य लिखा गया है।१८५७ की क्रांति के बाद कुछ अंग्रेजपरस्त कवियों ने अवश्य ही महाकाव्य प्रणीत किए, परंतु वह मात्र राजप्रशस्तिपरक थे।हीरालाल शुक्ल (संस्कृत का समाजशास्त्र) का यह कथन सटीक प्रतीत होता है-‘उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय भाषाओं में महारानी विक्टोरिया के चरितलेखन की एक बाढ़-सी आ गई थी।संस्कृत-साहित्य उससे अप्रभावित न रहा।
विनायक भट्ट कृत अंग्रेजचन्द्रिका (१८०१) श्रीश्वर विद्यालंकार कृत ‘विजयिनीमहाकाव्यम्’ (१९०१), रामस्वामी राजू कृत ‘राजांग्लमहोदय:’ (१८९४) राजराजवर्मा प्रणीत (१८६३-१९१८) ‘आंग्लसाम्राज्यम्’, उर्वीदत्त प्रणीत ‘एडवर्डवंशम्’ (१९०५) तथा तिरुमल बुक्कपट्टनम् प्रणीत ‘आंग्लजर्मनीयुद्धविवरणम्’ इस कालखंड के चर्चित महाकाव्य हैं।अन्य विधाओं (खंडकाव्य, चंपू नाटकादि) में भी कुछेक कवियों द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य का भरपूर गुणगान किया गया।
बाध्य हूँ, इस संदर्भ में कीर्तिशेष हीरालाल शुक्ल को पुन: उद्धृत करने के लिए।वह लिखते हैं कि प्रखर राष्ट्रवादी तथा ‘भारतदुर्दशा’ सरीखा जीवंत नाटक लिखने वाले बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा उनके सभी संस्कृत मित्र भी प्रारंभ में अंग्रेजीशासन के अंधभक्त थे।१८७० में विक्टोरिया के सुपुत्र ड्यूक ऑफ एडिनवरा जब भारत आए तो उन्हें ‘सुमनोऽञ्जलिः’ नामक अभिनंदन ग्रंथ अर्पित किया गया, जिसके संपादक भारतेंदु जी ही थे।इसमें पंद्रह संस्कृत कवियों की भी प्रशस्तिपरक कविताएं संकलित थीं।पुष्पिका में भारतेंदु जी ने स्वयं लिखा था- काव्यसुमनांस्येकीकृत्य तदञ्जलिं श्रीयुक्त महारानीकुमार-चरणारविन्दयोः समर्पयितुमुत्सहे।’
उपर्युक्त विवरण से यह सिद्ध है कि अंग्रेजी राज को लेकर राजे-रजवाड़ों, सैनिकों की ही तरह साहित्यकारों का खेमा दो भागों में विभक्त था।१८५७ की क्रांति का एक रिपोर्ट-रजिस्टर मेरे पास कबाड़ी की कृपा से सुरक्षित है, जिसमें गदर की एक एक दिन की घटनाएँ दर्ज हैं।रीवा तथा ग्वालियर के शासक अंग्रेजों के परम पिट्ठू थे।इन्होंने भारी मात्रा में उस समय सैनिकों तथा अस्त्र-शस्त्र की सहायता दी थी।आज भी वे ही शासन में हैं।संस्कृत कवियों का समुदाय भी यूं ही द्विधा विभक्त था।कुछ अवसरवादी थे, धन- मानदेय के लोभ में निष्ठा बदलते रहते थे।अनेक राजभक्त कवि बाद में पश्चात्ताप-ग्रस्त होकर स्वदेश के प्रति समर्पित हो गए।भारतेंदु जी ऐसे ही कवि थे।
परंतु प्रारंभ में ही मैंने कवियों की नामावली दी है।वे विशुद्ध रूप से स्वाधीनता के समर्थक थे।आंदोलन सूत्र महात्मा गांधी (१९१६) के हाथ में आने तथा अंग्रेजों की दमन नीति के प्रगाढ़तर होने के बाद तो शायद ही किसी कवि ने अंग्रेजों की प्रशस्ति में कविता लिखी हो।
भारतभक्त संस्कृत कवियों ने स्वाधीनता संग्राम का अपनी लेखनी से भरपूर समर्थन किया।यहां अवसर नहीं कि इस विवरण की सोदाहरण समीक्षा करूं, तथापि एक दो मार्मिक प्रसंग अवश्य देना चाहूंगा।
श्री अन्नदाचरण की वनविहंग नामक कविता में, विहग के बहाने भारतवासियों की स्वतंत्रता की कामना हम पाते हैं.
समटन् वनतश्च पादपात् स्पृहया काननपादपान्तरम्
त्वमलं सुखमत्र यासि यत्परतन्त्रे मयि तत्कलापि नो।
प्रभुरोषकषायलोचनं प्रभुकोपोत्थिततर्जनार्जनम्,
न सेवकता न वन्दिता किमिह त्वां विहग स्पृशत्यहो॥
अर्थात हे पक्षी! वन से वनांतर के पादप तक अपनी चाहत से तुम जाने में समर्थ हो।यहाँ जो सुख है, उसकी एक कला भी मुझ परतंत्र को प्राप्त नहीं है।प्रभुओं के गुस्से से लाल आंखों, की गई डाट-डपट के साथ आजीविका कमाना….अहो, तुम्हें न नौकर होना पड़ता है और न बंदी होना होता है।
अप्पाशास्त्री ने ‘अधर्मविपाकम्’ नाटक में, वायुवेग से बढ़ती विदेशी अपसंस्कृति का चित्रण किया है।सरोजमोहिनी देवी ने अंग्रेजियत में डूबीं भारतीय महिलाओं पर व्यंग्य कसा है।महेशचन्द्रचूडामणि ने अंग्रेजी भाषा की घोर निंदा की तथा संस्कृत के पुनरभ्युदय की आशा की।
अन्यान्य कवियों ने भी भारतीय समाज की विपन्नता, निर्धनता, भुखमरी तथा करुण स्थितियों का आंखों देखा वर्णन लिखा।ड्यूक आफ एडिनबरा को संबोधित एक कविता में कवि ने लिखा, ‘आप तो महानगरों के चाकचिक्य तथा सौधों के ऐश्वर्य को देख चले गए प्रसन्न मन, परंतु उन भारतीय गांवों की विपन्न दशा नहीं देखी, जहां रोटी के लाले पड़े हैं।वस्तुतः इस युग की कथा उत्सादन, उत्पीडन, आत्मयंत्रणा तथा समस्या-आक्रांत भारतीय समाज की पीड़ा की कविता है।
(३) गुलामी की यंत्रणा में पिसते भारत को कभी भी अपनी विश्वगुरुता भूली नहीं और न ही भारत ने अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को विस्मृत किया।उन्हें याद रहा,‘अमृतस्य वयं पुत्राः’।१८ वीं १९ वीं शती की कविता में पदे-पदे यह भावना अनुस्यूत है।महर्षि अरविंद की भवानी भारती में उस स्वर्णिम अतीत का चित्रण है जिससे अद्भुत जिजीविषा का संचार होता हैः
ते ब्रह्मचर्येण विशुद्धवीर्या ज्ञानेन ते भीमतपोभिरार्याः।
सहस्रसूर्या इव भासुरास्ते समृद्धिमत्यां शुशभुर्धरित्र्याम्।
अर्थात ज्ञान, ब्रह्मचर्य और भयानक तपस्याओं से वे आर्य विशुद्ध वीर्य, महान पराक्रमी थे।वे हजारों सूर्यों जैसे भासमान हो इस धरती पर शोभित रहे हैं।
इस संबोधन के बाद कवि को स्वप्न में भारत धरित्री का विराट रूप दिखता है और वह विस्मय- विमुग्ध अर्जुन की तरह भारतमाता की वंदना करता है तथा उसकी मुक्ति की प्रतिज्ञा भी।भारत के विराट रूप का यह वर्णन विलक्षण है।
अपने उस स्वर्णिम अतीत के ही कारण दासता जर्जर भारतीय कभी हताश नहीं हुए।उन्हें अपनी अस्मिता का बोध था कि इस गहन तमिस्रा का अंत कभी न कभी अवश्य होगा- ‘य: जीवति स पश्यति।’
चक्रवत् परिवर्तन्ते दुःखानि सुखानि च ।
चक्रारपंक्तिरिव गच्छति भाग्यपंक्तिः ॥
अर्थात पहिये की तरह दुख और सुख आते जाते हैं।पहिये के अरों की पंक्ति की तरह भाग्यपंक्ति भी ऊपर-नीचे गति करती है।
अपनी इसी दार्शनिक (आध्यात्मिक) आस्था के बल पर भारत ने अंतत: अपनी खोई स्वातंत्र्य लक्ष्मी पुन: प्राप्त कर ली।
(४) आचार्य भरत (चौथी शती ईसा पूर्व) स्पष्टतः कहते हैं कि समूचे भारत की एकमात्र भाषा संस्कृत है।वही भाषा लोक में (गाँव-गिराँव) तीन कारणों से प्राकृत बन जाती है।आचार्य के ही शब्दों में-
एवं तु संस्कृतं पाठं यथाप्रोक्तं समासतः।
प्राकृतस्य पाठ्यस्य सम्प्रवक्ष्यामि लक्षणम् ॥
एतदेव विपर्यस्तं संस्कारगुणवर्जितम्।
विज्ञेय प्राकृतं पाठ्य नानावस्थान्तरात्मकम्।
त्रिविधं तच्च विज्ञेयं नाट्ययोगे समासतः।
समानशब्दं विभ्रष्टं देशीगतमथापि वा।
संस्कृत के साथ सभी भारतीय भाषाओं तथा उप-भाषाओं के अटूट संबंध की यह अद्भुत व्याख्या है।संस्कृत ही समस्त प्रांतीय भाषाओं (दक्षिण को छोड़ ) में समान शब्द, विभ्रष्ट शब्द अथवा देशज शब्द के रूप में विद्यमान है।प्राकृतभाषी प्राकृत को ही संस्कृत की जन्मदात्री सिद्ध करने में लगे रहते हैं।परंतु सत्य के प्रति ‘श्रद्धा’ होनी आवश्यक है।आचार्य भरत उन कारणों की भी समीक्षा करते हैं, जिनसे यह परिवर्तन होता है।वे कारण हैं संस्कृत शब्दों का संस्कारगुण-वर्जित उच्चारण।संस्कृत का त्रिविक्रम, जतुगृह, उष्ट्रपृष्ठांग, मधुर शब्द हजारों वर्षों के अंतराल में हिंदी में कब तिकड़म, जौहर, ऊटपटांग तथा माहुर बन गया यह कौन बता सकता है? संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच जन्मनाल से संबंध है।
सनराइज विला, लोअर समर हिल, शिमला–१७१००५ मो. ९४१८०४१५३७
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महराजदीन पांडेय ‘विभाष’ महत्वपूर्ण संस्कृत गजलकार। ‘वीरभद्र मिश्र रचनावली’ के संपादक।रुबाई तथा मंदाक्रांता छंद में प्रकाशित ‘मध्ये मेघयक्षयोः’ चर्चित काव्य।सेवानिवृत्त सह–आचार्य। |
आधुनिक संस्कृत साहित्य और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य के बीच संवाद जरूरी है
(१) मेरे विचार से १८वीं शताब्दी के अंतिम दशक से १९३५ तक का कालखंड, जिसमें ईसाई धर्मांतरण, सती प्रथा उन्मूलन, जन सामान्य की दुरवस्था आदि का रचनाकारों ने साक्षात्कार किया और उसके बाद १९३५ से मैकाले की शिक्षा नीति के प्रतिरोध, अंग्रेजी शासन के प्रति असंतोष, बंग-भंग आदि घटनाओं से जनमानस के उद्वेलन तक के काल की संस्कृत-पत्रिकाओं विशेषतः ‘संस्कृतचंद्रिका’ और ‘सूनृतवादिनी’ के मंच से रचनाकारों का एक समूह रचना के मोर्चे पर अपने समकालीन रूढ़िवादी संस्कृतज्ञों और अंग्रेजी शासन की रीतियों-नीतियों से एकसाथ जूझ रहा था।यह समूह एक छोटा समूह था, परंतु उन अनुभव क्षणों की रचनाएं कर रहा था जो मानव-विरोधी परिस्थितियों से मुठभेड़ के क्षण थे।ऐसे रचनाकारों में मैं अप्पाशास्त्री राशिवडेकर का नाम पहले लेना चाहूंगा, जो अकेला न सही परंतु एक महत्वपूर्ण नाम है।
इस कालखंड के रचनाकारों का मंच रचनाकारों, पत्रकारों और नवजागरण में सचेत नागरिकों का दूर तक आदर्श रहा।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक से २०वीं शताब्दी के मध्य तक यदि एक नाम चुनने का आग्रह हो तो मैं भट्ट मथुरानाथ शास्त्री का नाम लूंगा।इनके ज्येष्ठ समकालीनों में रामावतार शर्मा का प्रगतिशील तेजोमय व्यक्तित्व भट्ट जी के कुछ अपूर्ण को पूर्ण करता लगता है।अन्य समकालीनों में राजराज वर्मा, मथुरा प्रसाद दीक्षित, हरिदास सिद्धांत वागीश, रमा चौधरी दंपती, वेंकट राघवन्, वीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य आदि हैं।
१९५० से आज तक की अवधि के संस्कृत साहित्य से मैं दो नाम लेना चाहूंगा।उनमें एक हैं १९५० से १९८० तक रचनारत और काव्यशास्त्र-चिंतक रेवा प्रसाद द्विवेदी ‘सनातन’।दूसरा नाम है १९८० से आज तक रचनारत वीरभद्र मिश्र।द्विवेदी जी के ज्येष्ठ समकालीनों में प्रथम कवि श्रेष्ठ बच्चूलाल अवस्थी ‘ज्ञान’ हैं और कनिष्ठ समकालीनों में जगन्नाथ पाठक, अभिराज राजेंद्र मिश्र, रमाकांत शुक्ल, रामचंद्रडु, भास्कराचार्य त्रिपाठी आदि हैं।
कवि-चिन्तक वीरभद्र मिश्र में युग की प्रत्येक महत्त्व की आहट पर सजगता, गम्भीर और त्रासद कवनीय वस्तु को व्यंग्य में ढालकर हृद्य बना लेने का कौशल, शब्दसाधना- यह एक साथ देखी जा सकती है।जिस भावबोध और वैचारिक संवेदन की उनकी रचनाएं हैं उनका युग अभी तक जारी है।वीरभद्र मिश्र के समकालीनों में राधावल्लभ त्रिपाठी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।अभिराज राजेंद्र मिश्र, रमाकांत शुक्ल, विंध्येश्वरी प्रसाद मिश्र आदि उनके अन्य समकालीन रचनाकार हैं।
(२) राष्ट्रीयता की भावना एक बृहत्तर अस्मिताबोध के रूप में १९वीं-२०वीं शताब्दी में संस्कृत कविता में उभरी है।अप्पाशास्त्री के ‘पञ्जरबद्ध शुकः’; अरविन्द घोष की ‘भवानी भारती’ और पंडिता क्षमा राव की ‘सत्याग्रह गीता’ से लेकर रमाकांत शुक्ल की कविता ‘भाति मे भारतम्’ और राजेंद्र मिश्र की कविता ‘वंदे सदा स्वदेशम्’ तक कई-सौ संस्कृत रचनाएं प्रकाश में आईं।इस युग की रचनाओं में ‘राष्ट्र’ एक परादेवता और स्वतंत्रता-समानता एक बड़े मूल्य के रूप में स्थापित हुई है।इनके उत्कृष्ट उदाहरणों में ‘गणपति सम्भवम्’ (प्रभुदत्तशास्त्री), शिवराज्योद्यम् (श्रीधर भास्कर वर्णेकर), पूर्वभारतम् (प्रभुदत्त स्वामी), मधुवर्षणम् (दुर्गादत्त शास्त्री) आदि हैं।ये स्वाधीन भारत के स्वप्न-भंग की मनोदशा की रचनाएं हैं।येे रोमांस-मुक्त यथार्थवादी हैं, अतएव अधिक मार्मिक हैं।इस संदर्भ में रेवाप्रसाद द्विवेदी के ‘स्वातंत्र्य सम्भवम्’ के कुछ अंश, परमानंद शास्त्री का वानरदूतम् और वीरभद्र मिश्र की ‘हे स्वतंत्रते’, ‘राजनीतेरिन्द्रजालम्’, ‘धृतराष्ट्रोपनिषद्’ आदि रचनाएं अच्छे उदाहरण हैं।
राजनीति के अपराधीकरण पर प्रशास्यमित्र शास्त्री की एक रचना, जिसमें वे जेलर मित्र से पूछते हैं कि पहले से कम अपराधी दिख रहे हैं आप के यहाँ, ऐसा क्यों? उस पर वह कहता है-
अरे किं नैव जानासि महानिर्वाचनं सखे!
देशेऽस्माकं सुसम्पन्नं तस्मादेव साम्प्रतम्।
हत्याभियोगिनः सर्वे भ्रष्टतारोपिणस्तथा
विधायक पदं लब्ध्वा राजधान्यां प्रतस्थिरे॥
अर्थात अरे क्या पता नहीं, अपने देश में अभी-अभी चुनाव जो हुआ है? उस चुनाव में सारे हत्यारोपी और भ्रष्टाचार आरोपी विधायक के रूप में चुन लिए गए और राजधानी चले गए।वीरभद्र मिश्र की अनेक कविताओं में एक का यह अंश देखें-
‘शपथं कृत्वा नहि पालयिता, स्वार्थे प्रतिपक्षं लालयिता।
लज्जा तस्य न पार्श्वे गन्त्री, किं सखि धूर्तो, नहि सखि मन्त्री॥’
अर्थात कसम खाता है, पर उसे निभाता नहीं, स्वार्थ में विरोधी के सामने भी बिछ जाता है, उसे लज्जा तो बिलकुल नहीं आती।सखि, क्या तुम किसी धूर्त की बात कर रही हो? नहीं, नहीं, मंत्री की! ऐसी कुछ वेधक रचनाएं हैं-
‘जिताऽस्माभिर्जना आसन्दिका यामो नमस्काराः।
पुरे वः पञ्चमे वर्षे प्रवेक्ष्यामो नमस्काराः॥’
-विंध्येश्वरी प्रसाद मिश्र (अर्थात हमने कुर्सी जीत ली, चल रहे हैं, नमस्कार! आप लोगों की बस्ती में फिर पांचवें वर्ष आएंगे नमस्कार!)
और
‘मदीया रक्षका न्यायालया ग्राम प्रधानश्च।
मयैवालुण्ठितस्त्वं किन्तु ते पार्श्वे प्रमाणं किम्॥
-इच्छाराम द्विवेदी (अर्थात अपराधी कहता है-ग्राम प्रधान मेरा है, पुलिस मेरी है और न्यायालय मेरे हैं।हां, मैंने ही तुम्हें लूटा है, परंतु तुम्हारे पास प्रमाण क्या है?)
आतंकवाद और धार्मिक पहचान की प्रतिक्रिया पर बहुत कम रचनाएं हैं, शायद इससे रचनाकार की कथित धर्मनिरपेक्ष छबि को आंच आ जाती।इसी प्रकार आर्थिक भ्रष्टाचार, शासन क्षेत्र की अकर्मण्यता, कृषक जीवन की विपन्नता, श्रम-शोषण, जातीय विषमता आदि पर शायद इसलिए कम रचनाएं हैं, क्योंकि इससे रचनाएं कालजयी नहीं होतीं।संस्कृत रचनाकारों में अधिसंख्य होश संभालते ही किन्हीं शाश्वत सत्यों की तलाश में निकल पड़ते हैं ‘डॉन क्विक्जॉट्’ होकर और पीछे मुड़-मुड़कर संसार को गरियाते दूर तक चले जाते हैं, क्योंकि ये सारी चीजें ठहरीं सांसारिक, अनित्य!
वे समाधिभंग होने पर इस लोक के प्रभुओं का गुणगान करने और ‘कुचपञ्चाशिकाएं’ लिखने लगते हैं।
धार्मिक विकृति पर वीरभद्र के ‘अस्तव्यस्त पुराणम्’, ‘युगधर्मः’ और राम सेवक मालवीय के ‘भू भामिनी विभ्रमम्’ के ‘साकेतवर्णनम्’ (सातवें सर्ग) जैसी रचनाएं दुर्लभ हैं। ‘दलितोदयम्’ (हीरालाल शुक्ल), ‘अंबेडकर दर्शनम्’ (बलवंत देव सिंह मेहरा) ‘सत्नामि चरितम्’ (मिथिला प्रसाद त्रिपाठी) जैसी रचनाओं में जातीय विषमता की पीड़ा अपेक्षित प्रभविष्णुता से व्यक्त नहीं हुई है।
कृषक और श्रमिकों पर ‘तपस्विकृषीवलम्’ (हरिहर शर्मा अर्याल), ‘कृषीवलविंशतिका’ (रमाकांत पांडेय) और रिक्शेवाले के जीवन पर लिखी ‘त्रिचक्रिकाचालक काव्यम्’ (बलराम शुक्ल) जैसी कुछ अंगुलिगण्य रचनाएं हैं।
आधुनिक संस्कृत साहित्य में आज की स्त्री गायब है।पंडिता क्षमा और उनकी बेटी लीला राव दयाल के बाद स्त्री लेखन का पथभ्रंश हो गया। (इसका एक अपवाद है वेद कुमारी घई की कविता ‘सीतासन्देशः’।आज भी संस्कृत के रचना क्षेत्र में स्त्री की स्थिति- ‘पढ़िए गीता बनिये सीता’ की मानिसकता वाली है।
कुछ पुरुषों ने अवश्य स्त्री पर परंपरा-भिन्न दृष्टिपात किया है।राधावल्लभ त्रिपाठी की इन पंक्तियों में एक प्राचीन संदर्भ में आधुनिक स्त्री की परंपरा के प्रति असहमति बड़ी तीक्ष्णता से व्यक्त हुई हैः
‘अद्यापि गुञ्जति रवः किल भैरवोऽसौ
दुर्वाससो ज्वलितवह्निसमोऽतितीक्ष्णः।
शापस्य च स्मृतिविनाशकरः समन्ता-
च्छ्रुत्वाऽपि तं विहसतीव च कण्वकन्या॥’
अर्थात जलती आग-सा भयानक, होश उड़ा देने वाला दुर्वासा का वह शाप स्वर अभी तक गूंज रहा है।परंतु उसे सुनकर आज कण्व कन्या हँस पड़ती है।
(३) अभी तक संस्कृत के आधुनिक रचनाकार वृद्ध पूंजीवादी व्यवस्था के ‘वैश्वीकरण’ का अपने प्राचीन सांस्कृतिक उद्घोष ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ से ताल-मेल बिठाने में लीन लग रहे हैं।और उसकी किसी भी चोट को कलि-प्रभाव मानकर निर्वेदग्रस्त हो जाते हैं।
आधुनिकता ने ईश्वर को किनारे करके उसका स्थान मनुष्य को दे दिया तो मनुष्य पहले तो फूला नहीं समाया, लेकिन कुछ ही दिनों में जाति में जाति की तरह मनुष्य में से तरह-तरह के इतने मनुष्य निकले, जिनमें कई ईश्वर से भी बढ़कर थे, फिर तो सबने अपने पुराने ईश्वरों को न्यौता दे डाला, अपनी-अपनी सहायता के लिए।इस बार यानी उत्तर-आधुनिक काल में जो ईश्वर आया तो इस बाजे-गाजे के साथ कि राजनीति, वाणिज्य, यहां-वहां सब जगह अनेक रूपों में व्याप्त हो गया।साहित्यकार इस पर एक पारदर्शी दृष्टि डाल सकता था, जो बहुतों से नहीं हो पाया।
उलटे हुआ यह कि अपनी-अपनी आस्था की बड़ी-बड़ी सजी हुई दुकानों पर उन्हें अपने-अपने धर्म के विश्वविजयी अभियान का गुमान होने लगा।वे प्रशस्तिवाचन करने लगे।डॉ. वीरभद्र मिश्र ने सर्वगंधा के मंच से इसका प्रत्याख्यान किया।
‘को ब्रूते जगतोऽस्ति नियन्ता’, अर्थात कौन कहता है, इस संसार का कोई कर्ता-धर्ता है?
इस पर ‘दुष्टं गंगावारि’, ‘चल रे कुम्भम्’, ‘युगधर्मः’ (महाकाव्य) उनकी सशक्त रचनाएं हैं।
चूंकि बदलते परिवेश में संस्कृत क्षेत्र की स्त्री को अपनी अस्मिता का बोध नहीं हुआ, इसलिए संस्कृत के कुछ उत्साही रचनाकार उसके कुछ रूमानी रूप गढ़ने लगे, जैसे केशवचंद्र दाश, जो अंत में रहस्यवादी हो गए।इसी प्रकार हर्षदेव माधव ने वैश्वीकृत लोक से प्रेरित होकर स्त्री को इतनी मुक्ति दे दी कि वह अकबका गई और चीख पड़ी- ‘ओह, इत्ती मुक्ति! हम इसका क्या करें।’ और वह आत्मविमूढ़ता में सुध-बुध खोकर नाच उठी।और विश्व बाजार, उसे यही तो चाहिए था।
ग्लोबल गांव का बाजार हमारी हर जरूरत अविलंब पूरा ही नहीं करता, हमारी जरूरतों को पैदा भी करता है और बेशुमार गैर-जरूरी जरूरतें।इस उत्तर-आधुनिक वशीकरण को बच्चूलाल अवस्थी लक्ष्य कर लेते हैं और कहते हैं-
‘कामना कामितं करे कर्तुम्
कामनानां परम्परां सूते।’
अर्थात हमारी कामना अभीष्ट को हाथ में लेने के लिए कामनाओं की एक श्रृंखला रचती है।
(४) आधुनिक संस्कृत साहित्य का अन्य भारतीय भाषाओं से संवाद जितना होना चाहिए, उससे बहुत कम है।इस विषय पर बात करते हुए मैं पहले अंलकारशास्त्र को लूंगा।
आधुनिक संस्कृत साहित्य में व्यावहारिक आलोचना का विकास नहीं हो पाया है।इसके अपवाद रेवा प्रसाद द्विवेदी रहे हैं।सामान्यतः संस्कृत समालोचना ‘अहोभाव ग्रस्त’ है।गुण-दोषों का आधुनिक संदर्भ में विवेचन करने वाली निर्मम आलोचना के न होने से रचनाकारों में स्वैरिता बढ़ी है।इधर ‘अलंकार प्रस्थान’ की अधिक चर्चा ने भी अलंकार से रस को विस्थापित करके रचनाकारों को शब्दों से खेलने का एक विस्तृत मैदान दे दिया है।
अच्छी समालोचना के कुछ उदाहरणों से अपनी बात पुष्ट करना चाहूंगा। ‘ईश्वर विलास महाकाव्यम्’ (श्रीकृष्ण भट्ट) अपनी पद संघटना और अलंकार सज्जा में बृहत्त्यी के काव्यों से किंचित कम नहीं है।उसके १३वें सर्ग के कुछ अंश, जिनमें यमक, श्लेष, अनुप्रास और अतिशयोक्ति की ललित पदावली में ‘ईश्वर सिंह’ के राज्याभिषेक का वर्णन है, उस पर वीरभद्र मिश्र की टिप्पणी है-‘भले ही इसमें ध्वनि है और शास्त्रीय दृष्टि से उत्तम काव्य है, किंतु कथ्य में स्फूर्ति और नयापन न होने से आधुनिक काव्य की दृष्टि से यह अत्यंत साधारण काव्य है, काव्य क्या, शिल्पभरित पद्यरचना है’।दूसरी ओर, कविता ‘पञ्जरबद्धः शुकः’ (अप्पाशास्त्री राशिवडेकर), जो संरचना की दृष्टि से एक साधारण रचना है, उस पर वीरभद्र मिश्र का कहना है- ‘पदशय्या नितांत श्लक्ष्ण एवं सपाट है।करुणा (बंधनजन्यशोक) से राष्ट्रपरक रतिभाव व्यंजित हो रहा है।अतः शास्त्रीय दृष्टि से उत्तम काव्य तो है ही, जीवन से जुड़े होने से आधुनिक कला की दृष्टि से भी बोलता हुआ काव्य है।यद्यपि बिंब प्रायः स्थिर हैं, फिर भी विषय में गांभीर्य उत्पन्न करते हैं।’
इधर अन्य भाषाओं के साथ संस्कृत रचनाकारों का संवाद आत्मालोचन के लिए उकसा रहा है।धीरे-धीरे ‘शुद्धता’ के मनोरोग और भाव-भाषा के स्तर पर मिलने-मिलाने में सांकर्य के पापबोध से छुटकारा मिल रहा है।संरचना की दृष्टि से नई विधाओं और नए छंदों के स्वीकार-नकार के प्रयोग अच्छे हो रहे हैं।अनुवादों और संवाद को बेहतर बनाने के प्रयास में हम नए-नए शब्दों, पदबंधों, मुहावरों की अपनी भाषा की रचनाओं में पहचान कर पा रहे हैं और गढ़ रहे हैं।इससे संस्कृत की भाषा के रूप में लोकग्राह्यता बढ़ रही है।
ग्राम–महादेव–निश्चलपुरवा, पत्रालय–परसदा, जनपद–गोण्डा–२७१४०१, उ.प्र. मो.७९८५८९३०८२
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सरोज कौशल संस्कृत की सुपरिचित समीक्षक एवं विदुषी।अनेक आलोचनात्मक आलेख प्रकाशित।जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के संस्कृत विभाग में आचार्य। |
संस्कृत में हिंदी, गुजराती, कन्नड़ आदि का साहित्य अनूदित हो रहा है
(१) मेरी दृष्टि में पुनर्जागरण के संदर्भ में महर्षि अरविंद और उनकी संस्कृत कविता सर्वप्रथम उल्लेखनीय है।अरविंद दार्शनिक तथा महायोगी के रूप में सुप्रथित हैं।इन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में एक क्रांतिकारी के रूप में भाग लिया था।अरविंद का संस्कृत काव्य ‘भवानी-भारती’ राष्ट्रीय अस्मिता से ओत-प्रोत काव्य है।महर्षि अरविंद की मान्यता थी कि राष्ट्रीय पुनर्जागरण के लिए भारत की अध्यात्म-चेतना को जागृत करना नितांत अपेक्षित है।इस कविता में अग्निशिखाएं देदीप्यमान होती हुई प्रतीत होती हैं।
कवि वर्ग भेद तथा वर्णभेद को विस्थापित कर राष्ट्रमंगल के लिए सम्मिलित उद्यम का आह्वान करता है- ‘ये के त्रिमूर्तिं भजतैकमीशं ये चैकमूर्तिं यवना मदीयाः।/माताह्वये वस्तनयान् हि सर्वान् निद्रां विमुञ्चध्वमये शृणुध्वम्॥’ अर्थात वे सब सुनें पूजा करते जो त्रिमूर्ति की/और यवन जो पूजा करते एकमूर्ति की।/माँ बुला रही तुम सब मेरे बेटे,/निद्रा त्यागो और सुनो जो कहती हूँ मैं।
कवि प्रत्येक देशवासी को जाग्रत और स्फूर्त करना चाहता है, चाहे वह किसी भी प्रांत का हो अथवा संप्रदाय का हो अथवा धर्म का हो।जब राष्ट्ररूपी महान लक्ष्य सामने हो तो संप्रदाय तथा वर्ग-वर्ण के संकुचित आवरणों का छिन्न-भिन्न हो जाना अनिवार्य हो जाता है।महर्षि अरविंद ‘उत्तिष्ठ देहि’, उठो और राष्ट्र को अपना सर्वस्व प्रदान करो अथवा अपने कर्तव्यपूर्ति के लिए कृतप्रतिज्ञ हो जाओ, ऐसा आह्वान पुनः-पुनः करते हैं।
उठो, उठो रे जागो जागो, तुम तो हो
प्रत्यक्ष तेज उस परमपुरुष के, उर में
आग ज्वलित है एक चिरंतन सबके।
आज दहन कर दो बैरी को,
फिर निर्द्वंद्व विहार करो।
भवानी के वचनों में मानो साक्षात अग्नि ही विद्यमान है।भवानी के आह्वान से प्रमादी से प्रमादी व्यक्ति भी राष्ट्र के लिए सन्नद्ध हो सकता है- आह्वान कर भारत के उन वंशधरों का/जिनमें आग चिरंतनता की सदा जल रही।/तुम जीतोगे समर, डरो मत, उठो सुप्त सिंहो, उठो! ‘उत्तिष्ठोतिष्ठ सुप्तसिंहाः!’ यह आह्वान ओजस्विता की पराकाष्ठा है।ऐसी अग्निगर्भिता वाणी संस्कृत कविता को तत्काल में जितनी सार्थकता प्रदान करती है, एतत्काल में भी उसी रूप में आंदोलित करती है।
जब रक्षक अपना कर्तव्य विस्मृत कर देते हैं और भोगों में निमग्न हुए अपने कुल को कलंकित कर रहे हों तो ऐसे सत्ता-मदचूर शासकों का कवि ही मार्गप्रदर्शन कर सकता है।कठोर शब्दों में उपालंभ देने की सामर्थ्य ही कवि को ‘क्रांतद्रष्टा’ के विरुद से विभूषित करती है- क्षत्रबन्धुर्भवनेषु गूढो, मद्येन कटाक्षैश्च विलासिनीनाम्।/धर्मान्यशो दुर्बलं विस्मृतोऽसि. युध्यस्व भो वञ्चक रक्षधर्मान्।अर्थात महलों के भीतर छुप-छुप कर/राजन्य कौन यह भ्रूविलास-मदिरा में डूबा/धर्म और यश भूल गया दुर्बल! रे वञ्चक!/उठ, अब कर तू युद्ध/और रक्षा कर अपने धर्मों की।
यहां धर्म एक व्यापक अर्थ का संप्रेषक है।संस्कृत के कवि ने ‘धर्म’ पद का प्रयोग कभी संकुचित अर्थ में नहीं किया।यह कवि का साहस है कि वह सत्ताधीशों को भी उपालंभ देने में समर्थ है।कवि की निर्भीकता श्लाघनीय है।
संस्कृत के कवि का यह तेवर, भाषा तथा भाव की उद्दीप्तता सभी को आश्चर्यचकित करती है तथा जन-जागरण के प्रयोजन का भी संधान करती है।वह शासकों को चुनौती देती है तथा प्रतिसत्ता रचने का विकल्प भी स्थापित करती है।
नवजागरण परंपराओं के संवर्धन मात्र का काल नहीं है, अपितु नूतन परंपराओं और प्रतिमानों की स्थापना का काल भी है।इससे पूर्व संस्कृत कविता के ऐसे ओजस्वी स्वर की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था।महर्षि अरविंद ने ‘गीता-प्रबंध’ जैसे ग्रंथ को रचकर भगवद्गीता की तद्युगीन व्याख्या भी की थी।
दूसरे कवि के रूप में मैं पं.अंबिकादत्त व्यास को रखना चाहती हूँ, जिन्होंने छत्रपति शिवाजी के जीवन को आधार बनाकर ऐतिहासिक उपन्यास ‘शिवराजविजय’ रचा।यह सर्वप्रथम १९०१ में प्रकाशित हुआ।कवि का यह उपन्यास पाश्चात्य तथा बांग्ला उपन्यासों से बहुत प्रभावित है।इसमें निरूपित घटनाएं कल्पित न होकर वास्तविकप्रायः हैं।व्यास जी ने उस समय में शिवराजविजय लिखकर राष्ट्रीय प्रेम से परिपूर्ण महाराज शिवाजी का आदर्श हमारे सम्मुख रखा, जब १८५७ में प्रथम स्वाधीनता संग्राम की विफलता के पश्चात जनता में भय तथा आतंक व्याप्त था।ऐसे विकट काल में ‘शिवराजविजय’ ने देशभक्तिपूर्ण कथानक के माध्यम से जनता में शंखनाद का पवित्र कार्य किया।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जैसे बांग्ला कवियों ने जिस उद्देश्य को सामने रखकर ‘आनंदमठ’ सदृश कृति की रचना की होगी, उसी उद्देश्य से अम्बिकादत्त व्यास ने ‘शिवराजविजय’ का सर्जन किया था।वस्तुतः यह धर्म-संस्कृति के ध्वंस की कुचेष्टाओं के प्रति विद्रोह का काव्य है, राष्ट्र के गौरव का स्मारक है।
तीसरी कवि पंडिता क्षमा राव समकालीन संस्कृत साहित्य में युगनिर्मात्री कवि के रूप में सुविख्यात हैं।उन्होंने विषयवस्तु के संदर्भ में युगबोध का संधान किया तथा विधाओं में भी अनेक नूतन प्रयोग कर संस्कृत के सातत्य में मौलिक अध्याय संयोजित किए।क्षमा राव एक अलग भावभूमि पर अपनी तरह से एक विशिष्ट योगदान करती है।
‘शंकरजीवनाख्यानम्’ यद्यपि जीवनी काव्य है, परंतु क्षमा राव अपने पिता के जीवन-संघर्ष से उद्भूत जीवन दर्शन के सूत्रों से अभिप्रेरणा प्रदान करती है ‘अनाश्रयोऽपि लोकेऽस्मिन् शुद्धात्मा न निरस्यते शुद्धात्मा’ अर्थात- पवित्र संकल्पवाला व्यक्ति लोक में अनाश्रित होने पर भी कभी नष्ट नहीं होता।शंकर पांडुरंग ने आत्मचरित से यह प्रकट कर दिया कि निश्चित रूप से सत्य की ही विजय होती है-
नानृतं प्रभवेदन्ते सत्यस्यैव ध्रुवो जयः।
इत्यात्मचरितेनैव शंकरेण निदर्शितम्॥
क्षमा राव ने धन की अपेक्षा सदैव विद्या को प्राथमिकता प्रदान की।जो विद्यारूपी धन से संपन्न है वही वरणीय है- ‘निर्धनोऽपि वरं विद्वान् न तु मुग्धो महीपतिः।’ विद्वान निर्धन होने पर भी श्रेष्ठ है, जबकि मूर्ख राजा होने पर भी श्रेष्ठ नहीं माना जाता।
अरविंद, अम्बिकादत्त और क्षमा राव ये तीन कवि भिन्न-भिन्न स्तरों पर पुनर्जागरण, स्वतंत्रता आंदोलन और नए समाज की रचना में रचना के स्तर से महान योगदान करते हैं।
(४) संस्कृत भाषा का भारत की अन्य भाषाओं के साथ रचना तथा अनुवाद के स्तर पर अभूतपूर्व संवाद रहा है।संस्कृत की सर्जना में मुख्यधारा से इतर पात्रों को नायक अथवा नायिका रूप में निरूपित किया गया।स्त्री-विमर्श अथवा दलित विमर्श जैसा आंदोलन तो प्रवृत्त नहीं हुआ, पर स्त्रियों और दलितों के गौरव को संस्कृत कवि-परंपरा ने उच्च-पीठिका पर स्थापित किया।डॉ. वेदकुमारी घई की ‘सीतासन्देशः’ कविता वर्तमान संदर्भ में सीता के प्रत्युत्तर का संज्ञान लेती है।यदि आज सीता का तिरस्कार कर दिया जाए तो वह कैसा चकित कर देने वाला उत्तर दे सकती है।स्त्री-चेतना को प्रतिबिंबित करने वाले काव्य राधावल्लभ त्रिपाठी, राजेंद्र मिश्र, हर्षदेव माधव आदि कवियों की लेखनी से अनायास प्रसूत हो रहे हैं।
लोकधर्मी परंपरा का उद्भव और विकास समकालीन संस्कृत साहित्य का मुख्य स्वर प्राप्त करता है।संस्कृत कवि संस्कृत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण काव्यों का हिंदी तथा अंग्रेजी में अनुवाद करके अन्य भाषा-भाषियों के लिए सुलभ करवा रहे हैं तथा अन्य भाषाओं के भी महत्वपूर्ण ग्रंथों का संस्कृतानुवाद संस्कृत जगत में संवाद का माध्यम बन रहा है।
प्रेमनारायण द्विवेदी ने ‘रामचरितमानस’, ‘बिहारी सतसई’ तथा सूर के काव्य सहित अनेक विदेशी काव्यों का भी प्रामाणिक संस्कृतानुवाद किया।श्रीराम दवे ने प्रेमचंद के ‘निर्मला’ उपन्यास, प्रसाद के खंडकाव्य ‘आंसू’, रवींद्रनाथ टैगोर की ‘गीताञ्जलि’ का अनुवाद किया।जगन्नाथ पाठक तथा परमानंद शास्त्री ने गालिब के दीवान का अनुवाद किया।गुजराती से गांधी जी के ‘हिंद स्वराज’ तथा अमृतलाल बेगड़ के नर्मदा पर लिखे यात्रा वृत्तांत का संस्कृत में अनुवाद हुआ है।
कन्नड़ लेखक भैरप्पा के अनेक उपन्यासों का एच.विश्वास तथा प्रतिभा राय के उड़िया उपन्यासों का भागीरथि नंद तथा फारसी के ईरानी कवियों की कविताओं का बलराम शुक्ल ने संस्कृत में अनुवाद किया है।
उन्नीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध एक प्रचंड विक्षोभ और विद्रोह का युग है और उसका उत्तरार्द्ध संस्कृत की प्रतिष्ठा का युग है।प्राथमिक उत्तेजना के परिशमन के साथ बाह्य आदर्श के समन्वय के फलस्वरूप जो आदर्श और सत्य कर्मसिक्त होकर गृहीत हुए, वे ही जीवन में रससिक्त होकर संस्कृत साहित्य में अवतरित हुए।इस समन्वयात्मकता से व्यक्ति जीवन आश्वस्त हुआ है।
संस्कृत–विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर–३४२००१मो.९९२८०२४८२४
संपर्क प्रस्तुतिकर्ता : १७३, शास्त्रीनगर, सांचोर, जि–जालोर, राज–३४३०४१ मो.९६०२०८१२८०
(All Images Ramesh Gorjala)
Article of esteemed Dr. Saroj kaushal is really enlightening that how Sanskrit has great significance about igniting patriotism & also that all important volumes of other launguage are also being translated by learned contemporary writers.
संस्कृतानुरागियों के लिए बहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण आलेख
यह बहुत उत्तम सामग्री है। विशेषतः संस्कृत-अध्येताओं के लिए।
सभी को साधुवाद
सार्थक परिचर्चा।
Wonderful and insightful article
अत्यन्त लाभदायक आलेख। सादर प्रणाम