युवा कवयित्री।विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।
कवि
तुम्हें मुझपर विश्वास है यह ठीक है
पर मुझे नहीं सीखना
किसी का भी पात्र होना
कि मैं पशु नहीं
जो बांटा जाए जंगली और पालतू में
और पालतू हो जाऊं
कि फिर
कहते हुए अपना सब दुख
अवसाद मुझमें भर दो तुम
फिर ढक दो पीतल की परात
उस पर रखो अपने थके हुए पांव
और इन्हीं कंधों पर
एक जंगल जन्म लेने लग जाए
जिसमें भटकें भीतर के बनैले जीव
और भूख प्यास के लिए
कुतरते जाएं
मेरी आत्मा को कर दे लहूलुहान
कि जब तक तुम्हें दिखाई देगा मेरा रक्तिम स्वर
मैं पात्रता खो दूं
और खो दूं विश्वास भी
क्या फर्क पड़ता है
कि यह विश्वास तुम्हारा है कि मेरा
पर यह बर्तन मेरा नहीं है
मैं भी बर्तन नहीं हूँ
न मैं कोई रेल हूं कि टिकट खरीदने और तुम्हें तुम्हारे गंतव्य तक लिए चली जाऊं
मुझ पर बिलकुल न करो विश्वास
मैं कोई राजनेता नहीं हूँ
शायद मैं थोड़ी कवि हूँ।
एक चुप ही बचा है अब
दोबारा गरम की जा रही है चाय
रोज की तर्ज पर पसरा हुआ है एक चुप
मुझे मेरी जगह दिखाने के
कितने हैं तरीके इस जगह के पास
पर जताने का- महज एक चुप
जैसे प्रिय की मृत्यु से उपजे
शोक की खबर के लिए
हैं पैदल शब्द
किसी शोक संदेश में मौलिकता नहीं है
और पत्राचार उबाऊ हो चले हैं
वही लीक-लीक कुशलक्षेम
मैं ठीक हूँ, उम्मीद है तुम भी ठीक होगे
और उम्मीद है कि वह खुद चुप है
इतनी सी है देह
हाथ के नाखून से शुरू
और पांव के नाखून पर खत्म
इतने ही अंग हैं प्यार करने के लिए
पर चुप रह जाने वाले
किसी जवाब के लिए नहीं है
कोई औसतता तक
हैं अनुमान के ग्रंथ
कागज पर छपे सुभाषित या आयतें
चुप रह जाने वाले मृत होंठ का भी
होता है अपना सौंदर्य
दोबारा गर्म की जाने वाली
चाय की पहली चुस्की के बाद भी
उठ सकती है एक चुप
और घर से निकलते हुए
एक आदमी की आंख में भी
शब्द इतने औसत हैं कि
हर चुप को ठेल देते हैं
अपने कद को कर देते हैं इतना लंबा
कि चुप अपने आप बौना दिखता है
पर जब सिर उठाता है हुजूम
शब्द बिगड़ कर धुंध में इस तरह बदलते हैं
कि लगता है
एक चुप ही बचा है अब
जो मौलिक है।
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