महावीर प्रसाद द्विवेदी पर शोध कार्य। बंगवासी मॉर्निंग कॉलेज में शिक्षण।

जयशंकर प्रसाद आधुनिक युग में लिख रहे थे। वे ‘कामायनी’ के माध्यम से पौराणिक युग के यथार्थ व्यक्त न करके अपने युग के यथार्थ व्यक्त कर रहे थे। अपने युग की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों के आधार पर ही उन्होंने इड़ा, श्रद्धा और मनु के चरित्र का गठन किया।

‘कामायनी’ पर एक महत्वपूर्ण चर्चा आज से लगभग 65 वर्ष पहले मुक्तिबोध द्वारा हुई थी। इसके बाद भी इस महाकाव्य पर कई कोणों से विचार आते रहे हैं। यह भी कहा गया कि ‘कामायनी’ एक अपठनीय पुस्तक है। इस बीच दुनिया में बहुत कुछ घट चुका है। 21वीं सदी में सोचा जा सकता है कि यह एक ऐसा महाकाव्य है जिसपर बार-बार चर्चा होनी चाहिए। हमने प्रयास किया है कि ‘कामायनी’ पर चर्चा फिर शुरू हो, क्योंकि बहुतों को लग सकता है कि मनु, श्रद्धा और इड़ा ऐसी प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि हैं जो आज भी मौजूद हैं और उनके बीच संघर्ष चल रहा है।

मुक्तिबोध मनु को वेदकालीन नहीं मानते। मनु में अधिक सुख का लोभ था। आज के संदर्भ में लोभ बढ़-चढ़ गया है, भय भी। लोग उपभोक्ता संस्कृति में बाजार-निर्भर हो रहे हैं। ऐसे में मानवता का क्षय हो रहा है। मनुष्य खुद वस्तुओं में बदल गया है।

इड़ा औद्योगिक समाज की विचारधारा की प्रतीक है। उसमें बुद्धि तत्व है। ‘योग्यतम की विजय’ उसका सिद्धांत है। प्रसाद ने इड़ा को नवजागरण काल के तर्क और बुद्धि के प्रतीक के रूप में देखा है। श्रद्धा आदर्शवाद का प्रतिनिधित्व करती है। ‘कामायनी’ को आधुनिक समय के दर्पण के रूप में देखा जाए तो कई अनोखे निष्कर्ष निकल सकते हैं। ‘वागर्थ’ में विद्वान लेखकों ने ‘कामायनी’ पर जो विमर्श शुरू किया है, मुझे आशा है कि शिक्षा और साहित्य दोनों संसारों में इस शुरुआत का स्वागत किया जाएगा।

सवाल

(1) क्या ‘कामायनी’ आधुनिक भौतिकवादी विकास और सुखवाद की आलोचना का काव्य है, जयशंकर प्रसाद ने इन्हें एक चुनौती के रूप में क्यों देखा?
(2)‘कामायनी’ में श्रद्धा के जरिए प्रसाद किन मूल्यों को उपस्थित करते हैं? उन मूल्यों पर संकट क्यों आया?
(3) वर्तमान युग में उपभोक्तावादी विश्व की रचना किन रूपों में की जा रही है, क्या मनु को इस विश्व का नागरिक कहा जा सकता है?
(4) क्या इड़ा और श्रद्धा से नवजागरण तथा छायावाद (रोमांटिसिज्म) के संबंधों को समझा जा सकता है, या ये दो ध्रुव हैं?
(5) प्रसाद के स्वप्नों का भारत कैसा है, आज का भारत उनके स्वप्नों के कितना निकट या दूर है?

 

 

प्रसाद का स्वप्न है समरसता की स्थापना

विजय बहादुर सिंह
वरिष्ठ आलोचक और कवि। प्रमुख कृतियाँ : नागार्जुन का रचना संसार’, ‘महादेवी के काव्य का नेपथ्य। भवानी प्रसाद मिश्र और नंददुलारे वाजपेयी ग्रंथावली का संपादन।

ये सारे सवाल अकेले अंतिम सवाल के जवाब द्वारा उत्तरित किए जा सकते हैं। प्रसाद को पढ़ने वाले जानते हैं कि अपनी जीवन दृष्टि और विश्व दृष्टि में वे जिस जमीन पर खड़े हैं, वह निखालिस देशी और जातीय है। जातीय यानी भारतीय यानी वैदिक और औपनिषदिक। जिन्हें इसका बोध है, वे भारतीय और भारतीयता को लेकर कैसे भी पौराणिक जीवनपथ की ओर नहीं जाते। यद्यपि हिंदी काव्य और कथा साहित्य में बहुप्रतिष्ठित राम और कृष्ण का संबंध इसी बहुमान्य पौराणिक पथ से है। वैदिक और औपनिषदिक विश्व दृष्टि से इस पौराणिक दृष्टि और उसके पीछे सक्रिय दार्शनिक दृष्टि का क्या संबंध है, जब तक यह सुस्पष्ट नहीं हो जाता, तब तक भारत और भारतीयता अथवा जातीयता का सवाल हल कर सकना आसान नहीं है।

वैदिक भारतीयता आनंदवादी है। यही वेदांत का मत है। इसी भारत में जन्मे जैन और बौद्ध दृष्टि का मूल प्रस्थान दुखवादी और निवृत्तिवादी है। बौद्धजन यद्यपि मध्यमार्ग की भी बात करते हैं। तब भारत के पुराण कहां खड़े होते हैं, इसपर स्वतंत्र रूप से विचार करने की जरूरत है। प्रसाद की भारतीयता का रिश्ता पुराणवादी भारतीयता से है या नहीं है, यह सोचने की बात है।

प्रसाद अपनी मूल दृष्टि में औपनिषदिक हैं। यह दृष्टि उन्हें कहीं से भी निवृत्तिवादियों के पास नहीं ले जाती, अतएव यह पुराणवादियों के करीब भी है। उनके समकालीन मैथिलीशरण गुप्त जरूर ‘पौराणिक’ के करीब हैं। इसलिए उनका भारत-अतीत प्रसाद के भारत-अतीत से सर्वथा भिन्न है।

नवजागरण की अपनी दृष्टि और व्याख्याएं हैं। ‘कामायनी’ कितनी नवजागरणवादी है? क्या पता कुछेक हद तक पुनरुत्थानवादी भी हो, तथापि प्रसाद एक कवि और नाटककार के रूप में जो स्वप्न देखा करते थे, उसका कितना संबंध बंगाल के नवजागरणवादियों से था, कितना महाराष्ट्र के प्रार्थनावादियों और कितना हिंदी प्रदेशीय आर्य समाज से, इसका स्वतंत्र विचार जरूरी है। ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में एक यह वाक्य दिनकर लिखते हैं- ‘एक बात सच है कि ब्रह्म समाज के सभी नेता हिंदुत्व की घबराहट के प्रतीक थे। यह भी कि यह बहुत कुछ शरमाये हुए लोगों का युद्ध था। यह रक्षापरक लड़ाई थी।’ (पृष्ठ 545)। इस नवजागरण से प्रसाद और छायावाद का क्या कुछ रिश्ता बनता है, इसपर सोचने की जरूरत है। प्रसाद के यहां घबराहट और जातीय शर्म के बदले कठिन आत्मविश्वास और जुझारूपन है। उदारता और उच्चाशय भी है।

‘कामायनी’ न आधुनिक भौतिकवाद और सुखवाद की आलोचना का काव्य है, न समर्थन का। वह वस्तुतः एक समग्र जीवन-दृष्टि का काव्य है, जिसे प्रसाद खुद समरस जीवन दृष्टि कहते हैं। वे कहीं भी भौतिकता का निषेध या निंदा नहीं करते। हाँ, उसकी अतिवादिता की कठोर आलोचना वे जरूरत करते हैं। चिंता सर्ग में देव सभ्यता संबंधी उनकी टिप्पणियां याद की जा सकती हैं।

आज हम जिसे आधुनिक भौतिकवाद कहना चाहते हैं, उसका प्राचीन भौतिकवाद या देववंशी भोगवाद से कोई मनोवृत्तिपरक फर्क नहीं है। जब हम यह कहते और याद करते हैं कि यहां दूध की नदियां बहती थीं, या अयोध्या, वैशाली, मगध और हस्तिनापुर का जीवन वैभवपूर्ण था तो यह सब भोगवाद का ही स्वरूप था। मैं नहीं जानता कि सोने की लंका की कल्पना रामायण के अलावा इलियड और ओडेसी जैसे काव्यों में भी की गई हो। महाभारत में मय नामक दानव द्वारा रची गई सभा यशब, हकीक आदि गुरियों से निर्मित थी, यानी ‘मणि मयी सभा’ थी।

युधिष्ठिर ने जो राजसूय महायज्ञ किया था, वह भी सारी पृथ्वी (?) को विजित कर सर्वजयी होने के लिए किया था। इसलिए भारत के लोगों को भोगवाद से न पहले कभी चिढ़ या परहेज था, न आज है। अंबानी वगैरह को लेकर भारत की सरकारों और लोक समाज के मन में घृणा का भाव है या प्रशंसा का, इसे बताने की शायद ही जरूरत हो। मेरी अपनी दृष्टि में जैने दर्शन का ‘अपिरग्रह सिद्धांत’ या कबीर का जीवन-दर्शन ही अध्यात्मपरक है-

साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय॥

अध्यात्म की दूसरी सरल पहचान अपने जैसा ही सबको और सबके जैसा अपने को मानना और व्यवहार करना है। जहां यह अभेद खत्म होता है, वहीं से अधर्म-भाव की शुरुआत होती है। कामायनी के श्रद्धा सर्ग में श्रद्धा के मुंह से जो पंक्तियां कहलवाई गई हैं, उन्हें यहां याद करने की जरूरत है-

एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड
प्रकृति वैभव से भरा अमंद,
कर्म का भोग, भोग का कर्म
यही जड़ का चेतन आनंद।

बनो संसृति के मूल  रहस्य
तुम्हीं से फैलेगी वह बेल,
विश्व भर सौरभ से भर जाय
सुमन के खेलो सुंदर खेल।

शर्त बस यही है कि यह सारा कर्म-व्यापार हमें जड़ता या अंध-भोगवाद की ओर न ले जाय। हमारी संवेदनशीलता और मानवीयता बची रहे। भोग के साथ त्याग करने की हमारी सार्मथ्य और हमारा पौरुष बचा रहे। तभी हम दिव्य चेतना के अधिकारी माने जाएंगे। चेतना का इतिहास तभी सुंदर और दिव्य होगा। तभी हम उस समन्वय-पथ के पथिक माने जाएंगे, जिसे हमारे वैदिक ॠषियों ने और पर्यावरण को लेकर हमारे संबंधों के बारे में गांधी ने यही कहा था।

श्रद्धा अपनी समग्रता में प्रसाद की उस जीवन दृष्टि की अभिव्यक्ति है, जिसे वे एक परिपूर्ण जीवन दर्शन और जीवन व्यवस्था के रूप में देखते हैं। याद करें तो वे श्रद्धा सर्ग में वैराग्यवादियों और एकांत तपस्यावादियों का निषेध करते हैं और भारत के तीसरे महत्वपूर्ण पुरुषार्थ के महत्व की याद दिलाते हैं। यह पुरुषार्थ ‘काम’ है। ॠग्वेद में यह शब्द इस रूप में आया है, ‘कामस्तग्रे समवर्तताधि मनसोरेतः प्रथम यदासीत्।’ प्रसाद और कामायनी की दृष्टि को समझने के लिए यह एक सूक्ति वाक्य है। ‘काम’ पुरुषार्थ ही श्रद्धा सर्ग है। पूरे सर्ग में इसकी व्याख्या कर मनुष्य के सपनों का गायन किया गया है।

‘काम’ से बाहर निकल श्रद्धा उन समस्त जातीय मूल्यों की पहचान और परिभाषा बन जाती है। निश्चय ही ये मूल्य उस पारंपरिक जीवन प्रवाह की याद दिलाते हैं, जिन्हें यह देश सहस्राब्दियों से किंचित हेरफेर के साथ और बावजूद जीता आया है।

यहां एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न हिंसा और अहिंसा के संदर्भ में उठता है। प्रसाद इसे व्यावहारिक स्तर पर भी उठाते हैं, सैद्धांतिक स्तर पर तो उसपर विचार करते ही हैं। अहिंसा निश्चय ही जीवन धर्मी है, किंतु आपात हिंसा का निषेध वे नहीं करते। यदि करते होते तो कभी चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों को वे अपने तंबाकू वाले कारखाने में शरण नहीं देते। किंतु तब मुख्य बात स्वाधीनता थी, जिसकी चेतना को जगाने के लिए उन्होंने अनेक कविताएं और नाटकों की रचना की। प्रसाद का आनंदवाद हमें अब तक गलत ढंग से समझाया गया।

प्रसाद बौद्ध और जैन आदि निवृत्तिवादी वैराग्य को, साथ ही पौराणिक हिंदूवाद को दरकिनार कर वैदिक आनंदवाद की ओर अगर जाते हैं तो क्यों? क्या उसकी कोई ऐतिहासिक जरूरत उन्हें महसूस होती है? इसके लिए पहली जरूरत यह है कि हम वैदिक जीवन दृष्टि को समझें। ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में दिनकर लिखते हैं- ‘असल में वैदिक साहित्य (संहिता-भाग) उद्दाम आशावाद से ओतप्रोत है और निराशा की उसमें कहीं गंध भी नहीं मिलती। उनका सबसे प्रधान स्वर यह है कि यह जिंदगी आनंद से जीने के योग्य है और देवताओं को प्रसन्न रख कर हम मरकर भी ऐसा लोक प्राप्त कर सकते हैं, जहां आनंद ही आनंद है।’ अब जरा ‘श्रद्धा’ के इन संदेशों को पढ़िए-

कहा आगंतुक ने सस्नेह-
‘अरे तुम इतने हुए अधीर।
हार बैठे जीवन का दांव,
जीतते मर कर जिसको वीर।
तप नहीं केवल जीवन सत्य
करुण यह क्षणिक दीन अवसाद,
तरल आकांक्षा से है भरा
सो रहा आशा का आह्लाद।’

यहां वैराग्यवाद को ‘तप’ शब्द के माध्यम से इंगित करके प्रसाद ने अपनी दृष्टि सुस्पष्ट कर दी है।

प्रसाद वैदिक आनंदवाद और आशावाद की ओर क्यों जा रहे थे? क्या तब भी जाते, जब हमें आजादी मिल चुकी होती? इसका उत्तर हमें प्रसाद की औपन्यासिक जीवनी ‘कंथा’ के एक विशेष प्रसंग में मिलता है, जहां डॉ. मोतीचंद्र नारियल बाजार में जुटने वाली प्रसाद मंडली (रामचंद्र शुक्ल, केशव प्रसाद मिश्र, शांतिप्रिय द्विवेदी, रायकृष्ण दास, विनोद शंकर व्यास, मोहनलाल रस्तोगी आदि) के समक्ष अपनी यह समस्या रखते हैं- ‘मैं कला का प्रेमी हूँ और इतिहास का अध्येता/…. असल में मैंने एक फिल्म कंपनी बनाई है और चाहता हूँ कि एक कला-सजग ऐतिहासिक फिल्म तैयार हो। प्रतिक्रिया देते हुए शुक्ल जी बोल पड़ते हैं- मामला जब इतिहास और कला की युगलबंदी का हो, तो इस दिशा में निर्विवादित हमारे प्रसाद जी ही आपकी कोई मदद कर सकते हैं। और प्रसाद डॉ.मोतीचंद्र जी को संबोधित कर कहते हैं कि आपसे चर्चा के बाद मैंने रात में काफी सोचा-विचारा। असल में मेरी जो तीसरे उपन्यास वाली योजना है वह वस्तुतः एक साथ इतिहास और प्रेम का आख्यान है। मुझे लगता है कि इतिहास का यह कालखंड शब्द-दृश्यों में पुनर्सृजित होना ही चाहिए। अपने गौरवपूर्ण अतीत का यह ध्वंस-संदर्भ सबको ठीक से जानना-समझना ही चाहिए।’

आचार्य शुक्ल के द्वारा उत्सुकता प्रकट करने पर प्रसाद जो सबसे महत्वपूर्ण कथन करते हैं उसे जीवनी लेखक के ही शब्दों में पढ़िए- ‘मौर्यवंशीय अंतिम सम्राट वृहस्पतिमित्र और इरावती की कथा। इसमें मुझे यह दिखाना है कि कैसे अशोक की अहिंसा नीति से देश पराक्रम-वंचित हो उठा और किस तरह से भारत विदेशी लुटेरों के लिए आसान लक्ष्य बन गया। अहिंसा-सिद्धांत ने ऐसा अनिष्ट रचा कि सैनिकगण भिक्षु बनकर संघों में आराम और ऐश्वर्य का भोग करने लगे।’

‘कामायनी’ में मनु के पलायन भाव और ‘तप’ की ओर उनकी उन्मुखता की श्रद्धा द्वारा की जाती वर्जना को हम इस संदर्भ से भी समझ सकते हैं।

अंततः प्रसाद की दृष्टि और मनोभूमि को समझने के लिए ‘स्कंदगुप्त’ नाटक के सामूहिक गीत की इन पंक्तियों को हम याद कर सकते हैं- ‘जातियों का उत्थान-पतन/आंधियां, झड़ी, प्रचंड समीर/खड़े देखा, झेला हँसते/प्रलय में पले हुए हम वीर।’

यही बात वे अपनी कविता ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ में भी महाराणा को याद करते हुए कहते हैं।

प्रसाद के प्रारंभिक आलोचकों ने उन्हें जिस स्तर पर देखा और महसूस किया, उसमें तत्कालीन अकादमिक दबाव और छायावाद को लेकर एक प्रतिरक्षात्मक भंगिमा का भाव था। तथापि एकाध ने उनकी शक्ति साधना और पुरुषार्थ बोध की चर्चा की है।

अपनी समग्रता में प्रसाद क्या हैं? यानी कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और साहित्य-चिंतन में प्रसाद का लोक-बोध, इतिहास-बोध, स्वप्न ऐर सभ्यता-स्वप्न क्या है? किंतु ये प्रस्थान बिंदु सार्थकता तभी प्राप्त करेंगे, जब हम यह स्वीकार कर लें कि वे कैसे कवि-कथाकार-नाटककार हैं। उनके नाटकों में धर्म-दर्शन, राजनीति-सत्ता राजनीति का चेहरा क्या है?

जो एक और केंद्रीय सवाल ‘कामायनी’ को लेकर है, उसका संबंध क्या केवल किसी जाति विशेष से है। (जैसा कि ‘मानस’ में है) या उसका समग्र विश्व मानवता से संबंध है? उनकी श्रद्धा और इड़ा क्या विश्व-स्त्री की दो छवियां नहीं हैं या फिर यह कि स्त्री केवल हृदय नहीं है वह तर्कशील बुद्धि भी है। क्या मानव सभ्यता की रचना में इन दोनों शक्तियों की आनुपातिक सक्रियता अनिवार्य नहीं है?

प्रसाद का नवजागरण से कोई संबंध है अथवा नहीं, इसका निर्णय ‘काव्य और कला तथा अन्य निबंध’ पर विचार किए बगैर संभव नहीं है। नवजागरण के मूल प्रस्थान का संबंध अगर जातीय अस्मिताबोध से है, तब हम मान सकते हैं प्रसाद का भी है। क्योंकि अपने समूचे लेखन  में वे यही करते रहे हैं। यह उनके सृजन की केंद्रीय साधना है। उनके यहां जो भाव प्रबलता और पौरुष वर्चस्व है, जिसे वे इतिहास से भरपूर सहयोग लेते हुए प्रकट करते हैं, वह कितना नवजागरण का है, कितना उनका स्वयं का सोचा-समझा और उपार्जित, यह विचार की मांग करता है।

इसे यो समझा जा सकता है कि मुगल काल में जो भक्ति आंदोलन प्रबल होकर उभरा या यों कहें वह सिकंदर लोदी, शेरशाह, अकबर-जहांगीर काल तक अगर कबीर, जायसी, सूर, मीरा, तुलसी आदि आए तो ये किस नवजागरण के चलते आए? आए भी तो ये अपनी शक्तियां कहां किस स्रोत से लेकर आए?

प्रसाद पर सोचते हुए हमें यह सोचना पड़ेगा कि उनका भारत-बोध स्वाध्याय अर्जित और खूब गहरा है। संभव है किसी सीमा में वे नवजागरणवादियों से कुछ ग्रहण करते दिखते हों पर उनके समूचे लेखन को देखने से लगता है कि नवजागरणवादी न भी आए होते, तब भी कवि प्रसाद अपनी भूमिका इसी तरह निभाते। अन्यथा उनका नाट्य-चिंतन ऐसा नहीं होता। आश्चर्य होता है कि उनकी नाट्य-संकल्पना न पूरी तौर पर भरत-मार्गी है न अरस्तू-मार्गी। वे अपनी कहानियों में भी जैसे स्त्री चरित्रों की सृष्टि करते हैं, वे चकित करती हैं। पुरस्कार की मधूलिका और आकाशदीप की चंपा को याद करें।

सही है, नवजागरणवादियों की तरह वे भी उसी वेदांत की ओर जाते हैं और जैनों-बौद्धों के दर्शन से अपनी असहमति रेखांकित करते हैं, किंतु यज्ञवादी हिंसक पुरोहितवाद और कर्मकांडपरक धर्म की वे कठोर आलोचना भी करते हैं, खास तौर से ‘स्कंदगुप्त’ नाटक में। वे अपने समय के अकेले ऐसे क्रांतिद्रष्टा लेखक हैं जो हिम्मत से यह कहते हैं- ‘धर्म के अंधभक्तो/ मनुष्य अपूर्ण है/ इसलिए सत्य का जो विकास उसके द्वारा होता है, अपूर्ण होता है। यही विकास का रहस्य है।’ प्रख्यात कीर्ति का कथय है।—

धातुसेन कहता है, ‘जिस धर्म के आचरण के लिए पुष्कल स्वर्ण चाहिए, वह धर्म जन साधारण की संपत्ति नहीं। धर्मवृक्ष के चारों ओर स्वर्ण के कांटे और जाल फैलाए गए हैं और व्यवसाय की ज्वाला से वह दग्ध हो रहा है।’

विवेकानंद जरूर कभी-कभी ऐसा तेवर अपनाए हुए दिखते हैं। जरूरी नहीं कि कवि प्रसाद ने यह दृष्टि उनसे ली हो। कबीर की तरह यह उनकी स्वानुभूति की उपज है, ‘कवि हूँ पाया है प्रकाश’ – यही तो है!

नवजागरण काल में ब्राह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज जैसे नए धार्मिक मंचों को लेकर प्रसाद के सर्जक की कोई रुचि नहीं है। हाँ, वेदांत उनका अपना प्रेरणा और प्रकाश-केंद्र है।

‘कामायनी’ में वे जिस विश्वात्मवाद की प्रतिष्ठा करते हैं, वही समरसता है। ‘समरस थे जड़ या चेतन/सुंदर साकार बना था/चेतनता एक विलसती, आनंद अखंड घना था।’ यही तो उनका भारत स्वप्न है। उनके इस भारत स्वप्न को किंचित और यथार्थवादी भूमि पर समझना हो तो ‘चंद्रगुप्त’ नाटक में कार्नेलिया द्वारा गाए गए इस गीत के माध्यम से हम समझ सकते हैं- ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा।’

इस देश में प्रसाद अपनी कैसी दुनिया बसाना चाहते हैं, उसका रहस्य ‘लहर’ में संकलित गीत ‘ले चल वहां भुलावा देकर’ से समझा जा सकता है। अफसोस है कि छायावाद के कई आलोचकों ने इसे उनका स्वप्न-लोक गीत न मान पलायन गीत न केवल मान लिया, बल्कि इसी आधार पर उन्हें पलायनवादी कवि की भी संज्ञा दे डाली।

29 निराला नगर, दुष्यन्त कुमार मार्ग, भोपाल-462003 (मध्य प्रदेश) मो. 9425030392

 

मानव जीवन संतुलित द़ृष्टि से ही सुरक्षित रह सकता है

हेतु भारद्वाज
वरिष्ठ लेखक, लघु पत्रिका आंदोलन के एक प्रमुख व्यक्तित्व और अक्सरपत्रिका के संपादक।

(1)कोरोना काल की भयावह स्मृतियां अभी ताजा हैं- पूरी विश्व-मनीषा को कोरोना वायरस ने निरूपाय कर दिया था। मनुष्य की सारी वैज्ञानिक प्रगति धरी रह गई थी। अज्ञात महामारी ने ‘कड़ी आपदाओं की वृष्टि’ से विश्व को डांवाडोल कर दिया, क्योंकि कोरोना का ‘अश्रुमय प्रालेय हलाहल नीर’ उमड़ रहा था। ‘कुटिल काल के जालों सी’ भयानक ‘व्यालों सी फन फैलाये’ वायरस का आलोड़न सारी मानव-संस्सृति को लीलने को आतुर था।

चारों ओर मृत्यु के तांडव की खबरें थीं। मृत्यु का नगां नर्तन था, ‘नीचे जल था, ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन/एक तत्व की ही प्रधानता उसे कहो जड़ या चेतन।’ मृत्यु और कोरोना पर्याय बन गए थे। जड़-चेतन का भेद  मिट गया था। ‘निरुपाय मनुष्य’ हतप्रभ था। समझना कठिन हो गया कि यह आपदा कोई दैवी संकट है या मनुष्य के विलासितापूर्ण अहंकार का प्रतिफलन। अस्थिरता के इस दौर में मुझे लगा कि ‘कामायनी’ के रचयिता जयशंकर प्रसाद ने ऐसे ही प्रलय की कल्पना की थी। वे प्रलय के कारणों को समझने का प्रयास कर रहे थे। जयशंकर प्रसाद आधुनिक काल के ऐसे रचनाकार हैं, जो वर्तमान और भावी जीवन को अतीत के संदर्भ से समझने का प्रयास करते हैं।

‘कामायनी’ की रचना करते समय उन्हें विश्व को हिला देने वाली प्रलयंकारी घटनाओं का आभास हो गया था। ‘चिंता’ और ‘आशा’ सर्गों को पढ़ते समय प्रसाद की चिंताओं का हमें अहसास हो जाता है, साथ ही उनकी इस प्रतिज्ञा का भी कि ऐसी भयावह स्थिति में मानव कल्याण कैसे संभव है। ‘कामायनी’ मनुष्य की आपदाओं की ओर संकेत करती है। वह इन आपदाओं के उत्स को समझने का प्रयास करती है। प्रसाद जानते हैं कि साधनों की अधिकता और भौतिकवाद का अतिरेक जीवन की अंत:सलिला के प्रवाह को न केवल बाधित कर सकती है, बल्कि उसको प्रदूषित कर विनाश की ओर ले जा सकती है। प्रसाद का सारा चिंतन, दर्शन, रचनात्मक संघर्ष भौतिकवादजन्य विलासिता के आतंक से विश्व को बचाने का प्रयास है। वे इस आक्रमण की चुनौती स्वीकार करते हैं तथा मनुष्य को इससे बचाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

(2)जयशंकर प्रसाद एक महान रचनाकार का नाम है, जो मानव विकास की प्रक्रिया को बहुत गहराई से समझते हैं। वे मानते हैं कि मनुष्य का सांस्कृतिक विकास केवल साधनों के आविष्कारों से नहीं नापा जा सकता, क्योंकि उसकी सांस्कृतिक बुनावट का आधार सिर्फ वे उदात्त जीवन मूल्य हो सकते हैं, जिनको श्रद्धा का नाम दिया जा सकता है। प्रसाद मानते हैं कि मनुष्य की प्रगति के लिए जितना भौतिक विकास जरूरी है, उससे कहीं अधिक जरूरी है उसका आंतरिक विकास, जिसकी निर्मिति होती है उन मूल्यों से जो मनुष्य को भावनात्मक रूप से सशक्त बनाते हैं। वे भावनात्मक मूल्य, जिनको हम श्रद्धा के अनतर्गत रख सकते हैं, मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाते हैं।

‘कामायनी’ भौतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के बीच संघर्ष में उलझे मनुष्य के भीतर विद्यमान उसके देवत्व को बचाने की यात्रा है। यहां प्रसाद भारतीय संस्कृति के मूल स्वभाव को रूपायित करने का प्रयास करते हैं। भारत में प्राचीन काल से उदात्त जीवन मूल्यों को (जिसका समुच्चय श्रद्धा में है) जरूरी माना गया। यही देवासुर संग्राम है। यह संग्राम अनवरत रूप से चलता रहता है। इस संग्राम में अंतिम विजय देवत्व की होती है। इसलिए प्रसाद ने श्रद्धा के शासन की परिकल्पना की है।

(3)वर्तमान काल में उपभोक्तावादी संस्कृति का बोलबाला है। उसके धुंधलके में मनुष्य के नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्य खोते जा रहे हैं। पूरे विश्व पर बाजारवादी शक्तियां हावी हैं, जो मनुष्य को विलास, प्रतिद्वंद्विता, शत्रुता तथा विनाश की ओर धकेल रही है। दैहिक सुख, वैभव और शक्ति का संचयन हमारे जीवन के लक्ष्य बन गए हैं। इनसे परे हमें कुछ भी दिखता नहीं है। इड़ा इसी कुहासे की प्रतीक है जिसके संपर्क में आकर मनु इधर-उधर भटकते रहते हैं। उनकी सारी शांति भंग हो जाती है। उन्हें लगता है कि हमारे जीवन का लक्ष्य भौतिक सामग्री एकत्र करने या शक्तिके संचय से दूसरों को गुलाम बनाना है। सच्चा सुख और शांति तो उन मूल्यों को खोजने में है, जो इस जीवन के लिए अपरिहार्य हैं। पुष्प का सौंदर्य केवल बाहरी रंगीनियों में नहीं, उसकी सुगंध में भी होता है। सुगंध ही फूल के जीवन को सार्थक बनाती है।

आज का युग बाहरी चमक-दमक के पीछे भाग रहा है। इससे उसे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। मनु का सारा भटकाव इसी द्वंद्व को लेकर है। अत: वे आज के उस मनुष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं जो भोग और वैराग्य, संग्रह और दान, प्रेम और घृणा, निर्माण और संहार जैसी प्रवृत्तियों के बीच झूल रहा है। प्रसाद इस संघर्षरत मनुष्य को बचाने के बहाने समूची मानवता को बचाने का संदेश देते हैं। यह संघर्ष ‘कामायनी’ के इड़ा सर्ग के इस छंद में व्यक्त हुआ है-

किस गहन गुहा से अति अधीर।
झंझा-प्रवाह सा निकला यह
जीवन विक्षुब्ध महासमीर।
ले साथ सकल परमाणु-पुंज नभ,
अनिल, अनल, क्षिति और नीर।
भयभीत सभी को भय देता
भय की उपासना में विलीन।
प्राणी कटुता में बांट रहा
जननी को करता अधिक दीन।
निर्माण और प्रति पद विनाश में
दिखलाता अपनी क्षमता।
संघर्ष कर रहा-सा जब से,
सब से विराम सब पर ममता।
अस्तित्व चिरंतन धनु से कब यह
छूट पड़ा है विषम तीर,
अस्तित्व लक्ष्य भेद को शून्यवीर।

(4)छायावादी कविता को नवजागरण से जोड़कर देखा जाता है तथा उसमें नवजागरण की ध्वनियां भी सुनाई देती हैं। यह सच है कि छायावादी कविता कहीं न कहीं नए बदलाव की बात करती है। उसपर अंग्रेजी की रोमांटिक कविता का भी प्रभाव देखा जा सकता है, किंतु रोमांटिसिज्म तथा नवजागरण को दो ध्रुव मानना ठीक नहीं है। रोमांटिसिज्म जमी गर्द  हटाने का प्रयास था। छायावाद भी कहीं न कहीं नई आहट के साथ अवतरित होता है। यह जरूर है कि यह आहट बहुत मुखर नहीं है। किंतु उसकी शांत मुखरता परिवर्तनकारी है। छायावाद में नवजागरण तथा रोमांटिसिज्म दोनों का समुच्च्य है।

(5)प्रसाद के पूरे साहित्य में भारत तथा भारतीय संस्कृति के विभिन्न क्षितिजों को खोजने का प्रयास है। प्रसाद सांस्कृतिक द़ृष्टि से भारत को बहुत समृद्ध देश मानते हैं। पर वे इस बात से चिंतित हैं कि इतनी समृद्ध संस्कृति का पराभव क्यों हुआ? वे अपने नाटकों में इस पराभव के कारणों की खोज करते हैं। साथ ही वे यह भी संकेत करते हैं कि इस पराभव की पीड़ा से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है। प्रसाद इसके लिए दार्शनिक मार्ग चुनते हैं वे कहना चाहते हैं कि जीवन में शांति और आनंद पाने के लिए हम समरसता का रास्ता पकड़ें। भौतिक वैभव हमारे जीवन को समृद्ध कम, खोखला अधिक करता है। अत: हमें भौतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के बीच सामंजस्य रखने का प्रयास करना चाहिए। प्रसाद का संदेश यही है-
हम एक कुटुंब बनाकर,
यात्रा करते हैं उसमें।
सुनकर यह दिव्य तपोवन
जिसमें सब अघ छुट जाए।

ए-243, त्रिवेणी नगर, गोपालपुरा बाईपास, जयपुर-302018  मो. 9521446162

 

कामायनी का मूल स्वर संरक्षणवादी है

श्रीप्रकाश शुक्ल
सुपरिचित कविआलोचक। बोेली बातऔर क्षीरसागर में नींदकविता संग्रह चर्चित। हिंदी कविता के प्रतिष्ठित शमशेर सम्मान से सम्मानित। अद्यतन आलोचना पुस्तक महामारी और कविता। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर।

(1) ‘कामायनी’ आधुनिक समय में यंत्रों की आलोचना का काव्य है। उसकी भूमिका यही है कि आनंद तथा भोग में कैसे अंतर किया जाए। आनंद मन तथा विश्वास का विषय है, जबकि भोग बुद्धि का। आनंद आत्मा का प्रकाश है, जबकि भोग एक आधुनिक लिप्सा।

‘कामायनी’ में प्रसाद ने आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था के व्यक्तिवादी रूपों को ठीक से रेखांकित किया है। कई जगहों पर आत्मालोचन भी है। प्रसाद मनु के भोग को रेखांकित करते हैं- ‘आकर्षण से भरा विश्व यह केवल भोग्य हमारा’। इसी के साथ ज्ञान, इच्छा और क्रिया के सामंजस्य से समाधान भी प्रस्तुत करते हैं, लेकिन अंततः वे भौतिक की जगह आध्यत्मिक समाधान ही प्रस्तुत कर पाते हैं। उसे व्यावहारिक जगत से जोड़कर वे देख नहीं पाते। खुद मनु अपने लिए स्वतंत्रता तथा दूसरे के किए नियम-विधान की अपेक्षा करता है।

प्रसाद ने आधुनिक युग की समस्याओं कोे उठाया है, लेकिन समाधान में वे मनु वाली प्रवृत्ति के ही साथ खड़े होते दिखते हैं, अर्थात एक  वाक कौशल रचते हैं, जिसमें समस्या आधुनिक है लेकिन समाधान व्यक्तिवादी। सब कुछ जानते हुए भी वे मनु से दूरी बनाने की कोशिश नहीं करते, जिससे अंत तक रूमानी वैयक्तिकता के शिकार हो जाते हैं।

उनके सामने असल चुनौती यही है। सब कुछ समझते हुए भी प्रसाद समाधान के लिए मनु के व्यक्तिवाद से संघर्ष नहीं कर पाते। एक भग्न सामंती व्यवस्था के जर्जर चरित्र के प्रति सहानुभूति का होना उन्हें व्यापक जीवन संदर्भों से जोड़  नहीं पाता।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि कामायनी में प्रसाद आधुनिक भौतिकवादी विकास की असंगतियों को समझते तो हैं, लेकिन इनका समाधान प्रगतिशील शक्तियों के संघर्ष में न देखकर पुरातन सामंती समन्वयवाद के भीतर देखते हैं जो कुछ और नहीं यथास्थितिवाद है। वे पूंजीवादी वर्तमान की आलोचना किसी नए विकल्प के लिए नहीं करते बल्कि पुरातन की भव्यता, पवित्रता और आदर्श को नष्ट करने के लिए करते हैं। इसी स्थान पर वे कमजोर दिखते हैं। यही कारण है कि कुंवर नारायण के शब्दों में, उनका ऐश्वर्य हमें आकृष्ट करता है, लेकिन उसके साथ हम सहज नहीं हो पाते।

(2)प्रसाद श्रद्धा के जरिए, मुक्तिबोध के शब्दों में, अभेदानुभूति के आनंद के मूल्यों को उपस्थित करते हैं जिससे समाज के वास्तविक संघर्षों की उपेक्षा हो जाती है और एक काल्पनिक समाधान ही प्रस्तुत हो पाता है। मनु श्रद्धा के साथ हिमालय चले जाते हैं। यहां प्रसाद का व्यक्तिमूलक आनंदवादी अद्वैत चिंतन है, जिसपर मुक्तिबोध ने प्रहार किया है, क्योंकि इससे विषमतामूलक समाज में बहुत परिवर्तन नहीं हो पाता। यह एक तरह से पलायन प्रवृत्ति है, जिसके शिकार मनु के माध्यम से खुद प्रसाद होते हैं। यह सामंती मन की ऊब भी है जो पूंजीवाद की बदली स्थितियों में खुद को समायोजित नहीं कर पाती। मनु अपने अहं की पूर्ति न होता देखकर झुंझलाता है और पराक्रम की जगह पलायन को चुनता है।

असल में मूल्यों के संकट के पीछे व्यक्तिवादी रुझान है जिसके भीतर से प्रसाद एक सुरक्षित आदर्शवादी स्थिति को चुनते हैं। इससे वास्तविक सामाजिक स्थितियां कई बार उपेक्षित हो जाती हैं। यही कारण है कि वास्तविक सामाजिक संघर्ष कई बार ‘कामायनी’ में दब जाते हैं या उभर नहीं पाते। एक नैतिक संदर्भ हमेशा प्रभावी रहता है, जिसकी परिणति अतिरिक्त आनंद में होती है जो वास्तविक रूप में विषय नहीं होना चाहिए।

साहित्य अगर संघर्ष का प्रकाश है और हाशिये की आवाज है तो ये दोनों ही मूल्य कामायनी के आनंदवाद में दब जाते हैं।

‘कामायनी’ में श्रद्धा एक समुन्नत सामाजिक व्यवस्था का संकेत करती है जो मनु को साफ संदेश देती है कि पुरानी सामंती व्यवस्था को भूलकर नई पूंजीवादी व्यवस्था में, सृजन का मानवीय विकल्प चुने। वह साफ कहती है-
प्रकृति के यौवन का शृंगार
करेंगे कभी न बासी फूल।

यहां शक्ति के बिखरे विद्युत कणों को समन्वित करने की बात भी है ताकि नई आशा का संचार हो सके। लेकिन श्रद्धा को प्रसाद अंत तक उसकी तार्किक परिणति तक न ले जाकर अपने भीतर की सामंती सोच से समझौता करवा  कर उसकी धार को भोथरा कर देते हैं। यह एक रूमानी आदर्शीकरण है, जिससे श्रद्धा अपने समय से पीछे चली जाती है।

श्रद्धा का यह पक्ष छायावाद के व्यक्तिवाद को नए जीवन संदर्भों से जोड़ता है। छायावाद की राष्ट्रीयता में आत्मगौरव के बीज मिलने लगते हैं, लेकिन इसको जब नवीन जीवन स्थितियों में होकर आगे बढ़ने का समय आया तो प्रसाद  हिमालय चले जाते हैं। फलतः श्रद्धा आज के संघषर्षशील मनुष्य के लिए एक आदर्श बनने से वंचित हो जाती है।

असल में जीवन की विषम स्थियियों के प्रति श्रद्धा की मानसिक प्रतिक्रियाएं किसी ठोस धरातल पर आकार नहीं ले पातीं, यद्यपि उनमें संभावनाएं थीं। वह मनु को समझाती तो है लेकिन प्रसाद का मनु-मन उसको सही दिशा में विकसित नहीं कर पाता। फलस्वरूप श्रद्धा समरसता की बात शिव तत्व की समानता के आधार पर करती है, जो अंततः सबल के पक्ष में घटित होता है। ठीक आज के राष्ट्रवाद की तरह!

यही कामायनी का यथास्थितिवाद है। मुक्तिबोध ने श्रद्धावाद को पतनशील पूंजीवाद का डिफेंस कहा है। इसी कारण आज श्रद्धा एक भव्य चरित्र भले लगे, लेकिन वह अनुकरणीय नहीं हो सकती। वह एक भारतीय स्त्री का यथार्थ न होकर एक कल्पना के रूप में दिखाई देती है, जिसकी गति पीछे की ओर है।

(3)वर्तमान उपभोक्तावादी समाज पूंजीवाद की चरम स्थिति है जिसमें आनंद नहीं भोग ही जीवन का लक्ष्य है। मनु को इस विश्व का नागरिक इस अर्थ में कहा जा सकता है कि वे भोग में आनंद के पक्षधर हैं, लेकिन वे कहीं न कहीं प्रकृति का संरक्षण चाहते हैं। इसलिए प्रकृति शक्ति के शोषण के ख़िलाफ़ हैं। इसी कारण वे वर्तमान उपभोक्तावादी समाज के निकट नहीं पड़ते।

प्रसाद ने मनु को आत्ममोह-ग्रस्त चरित्र के रूप में रखा है जो उस बूढ़े की तरह रहता है जिसका वासनामय वैभव समाप्त हो गया है और वह नई स्थितियों से जुड़ नहीं पा रहा है। बदलते समय में वह असहज है। जितना ही असहज, उतना ही उच्च उसका दंभ! मनु के चरित्र की यह सबसे बड़ी कमजोरी है, जिस कारण वह इस विश्व का नागरिक नहीं बन पाता। उसका विश्व उसके द्वारा कल्पित है जो लुट चुका है और जिसे वह न पाने के कारण झल्लाता है। वह अतीत के गौरव से ऊर्जा लेता है, लेकिन वर्तमान की विसंगतियों से घबराता है। जाहिर है, जो वर्तमान से भागेगा वह इस विश्व का नागरिक नहीं हो सकता।

इसमें एक दिक्कत मनु के अंतर्मुखी स्वभाव को लेकर है जो उसे सामाजिक नहीं बनाने देता। मनु का यह अंतर्मुखीपन है, जो एक ऐसी खीझ पैदा करता है जिससे वह भाववाद का शिकार हो जाता है। वह समाधान के लिए अतीत के वैभव में प्रवेश करता है जो अब कहीं होता नहीं।

एक बात और समझनी होगी कि इस सभ्यता में जिस ताकत को जीने का अधिकार मिलता है, वह इड़ा के माध्यम से ‘कामायनी’ में मौजूद है-
यह नीड़ मनोहर कृतियों का
यह विश्व कर्म-रंग स्थल है
है परंपरा लग रही यहां
ठहरा जिसमें जितना बल है।

यह आधुनिक पूंजीवाद का वर्चस्वशाली रूप है जो ताकत के पक्ष में झुका हुआ है।

(4)नवजागरण इहलौकिकता के प्रति आग्रह है जो वास्तव में सामंती अहमन्यता के खिलाफ है। इससे बुद्धि का सामाजिक पक्ष है जिसमें मानवीयता है और संघर्ष भी है।

‘कामायनी’ में संघर्षधर्मी मानवीयता का अभाव है। छायावाद बेशक व्यक्ति सत्ता के बोध का काव्य है। लेकिन इस सत्ता की दीक्षा सामाजिक मंगल की ओर झुकी हुई है न कि  आत्मरति की ओर। इड़ा में सामाजिक निर्माण का संकल्प है, लेकिन वह मनु के अहंकार के सामने झुक जाती है। उसका बुद्धिवाद कौतूहल का विषय बनकर रह जाता है।

श्रद्धा के पास कोमल हृदय है। वह तमाम मानवीय आदर्शों से संपन्न है, लेकिन उसमें सामाजिक हस्तक्षेप की भावना का अभाव है। इसीलिए मुक्तिबोध उसे ऐसे ‘प्राइवेट इंडिविजुअल’ के रूप में शिनाख्त करते हैं, जिसके पास कोई सकर्मक व्यक्तित्व नहीं है जबकि ऐसा व्यक्तित्व नवजागरण की बुनियादी जरूरत थी। श्रद्धा के पास इच्छा बहुत है, लेकिन कर्म का अभाव है जो कि जागरण के लिए जरूरी था।

कह सकते हैं कि श्रद्धा व इड़ा दोनों ही किसी न किसी आदर्श के प्रतिरूप हैं जो अतीत से संचालित है। उनमें यदि कहीं आत्मालोचन है भी, वह अंततः एक रणनीति बनकर रह जाता है। उसमें जीवन स्पंदन और भविष्य के निर्माणमूलक स्वप्न आकार नहीं ले पाते।

ऐसे में इड़ा और श्रद्धा दोनों में से किसी का संबंध नवजागरण से बन नहीं पाता। दोनों अंततः सामंजस्य की ओर झुकते हैं, जबकि पूंजीवादी व्यवस्था की विषम स्थितियों में यह समरसता संभव नहीं है। यह हृदय परिवर्तन की कामना है जो अंततः कभी संभव नहीं है।

(5)प्रसाद अपने संपूर्ण चिंतन में समन्वयवादी हैं। यह समन्वय अंततः वर्चस्व के पक्ष में घटित होता है। यही उनके राष्ट्रवाद की परिणति है। वे अच्छे तथा बुरे के बीच संघर्ष को समझते हैं लेकिन उनका आदर्शमूलक  शुद्धतावादी मन इसको तार्किक निष्कर्ष पर न ले जाकर आनंद की एक उच्च अवस्था में पहुंचा देता है, जहां वर्ग भेद के बावजूद आनंद से जीने की बात की जाती है। महाचेतना की आनंदमय अभिव्यक्ति का चिंतन अंततः शोषण और यथास्थिति का पोषण करता है।

मुक्तिबोध ने इस संदर्भ में सही लिखा है कि मनु के माध्यम से सारस्वत प्रदेश के उजाड़ को प्रसाद समझते हैं, उसके व्यक्तिवादी पूंजीवादी मानस को भी समझते हैं, लेकिन सामंती चरित्र के प्रति खुद की सहानुभूति के कारण अच्छे तथा बुरे के बीच संघर्ष न करवा कर, उसकी आलोचना न करके पुनर्निर्माण के वायवीय मूल्यों के दायरे में बुरे के प्रति सहानुभूति प्रदान करते हैं। इससे व्यक्तिवादी वासनाओं को आध्यात्मिक औचित्य मिलता है। ऐसे में मनु वेदकालीन मनु न होकर प्रसाद के सामंती मन का प्रतीक हो जाता है जो पूंजीवाद की व्यवस्था में भी अपने अहं तथा व्यक्तिवाद को बचाए रखने की कोशिश करता है। यह उनके राष्ट्रवादी चिंतन में शक्तिशाली के वर्चस्व का संरक्षण करता है, जिससे एक समतामूलक समाज के निर्माण का सपना पूरा नहीं हो सकता।

इसीलिए आज प्रसाद के सपनों के भारत को पाना संभव नहीं है। आज का राष्ट्रवाद उससे अधिक आक्रामक हो गया है, जिसमें व्यक्तिवाद के साथ तकनीकी की अराजकता भी शामिल हो गई है। भव्य राष्ट्र की वर्तमान परिकल्पना प्रसाद की तरह ही एक आनंदमय सत्ता संपोषित अभिव्यक्ति ही है, जिसके नीचे शोषण का बाजार फल फूल रहा है। आज भी राष्ट्रवाद और उसकी बुनियाद स्वरूप पूंजीवाद अपने अहं की संतुष्टि के लिए कभी इतिहास से तो कभी साहित्य से वैधता पाने की कोशिश कर रहा है। संभव है, प्रसाद को भी वह इस नजरिए से देखे।

ऐसे में नए भारत के लिए प्रसाद की सीमा को समझते हुए उसकी अर्थ संकोची भव्यता को सावधानी से समझने की कोशिश करनी होगी और ध्यान देना होगा कि एक व्यक्ति की इच्छा ही राष्ट्र की इच्छा नहीं हो सकती। वह प्रसाद का मनु हो या फिर आज की सत्ता का मानव!

कह सकते हैं कि दिव्यता की छवियों से आच्छादित राष्ट्रवाद कुछ का ही हो सकता है। यह कुछ का होना जनतांत्रिक नहीं पूंजीवादी सोच का होना है। यह वह भारत नहीं होगा, जिसकी हमें तलाश है- एक जनतांत्रिक, समतामूलक, वैज्ञानिक चिंतन और इतिहास-दृष्टि से संपन्न भारत। हमारे स्वप्न में भविष्य की भविष्यता नहीं, उसकी वर्तमानता की जरूरत है। अर्थात हमारे स्वप्न में वर्तमान का निषेध नहीं होना चाहिए, बल्कि व्यक्तिगत वासनाओं को आध्यात्मिक औचित्य प्रदान करने की प्रवृति का निषेध होना चाहिए, ताकि जनता की वास्तविक स्थितियों को समझते हुए इन्हें बदला जा सके। हमारे स्वप्न में हाशिए की आवाज होनी चाहिए न कि केंद्र को संरक्षित करने की कामना।

इस दृष्टि से भारत अभी प्रसाद के स्वप्नों से काफी दूर है। और यह भी कि उनके स्वप्न से नए भारत को नहीं बनाया जा सकता।

मुक्तिबोध याद आते हैं- प्रसाद ने देव द्वंद के प्रतीक रूप में श्रद्धा व मनु को हिमालय में प्रतिष्ठित कर यह स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय पूंजीवाद के पास, विश्वदृष्टि के रूप में प्राक-पूंजीवादी सामरस्य के एकांतिक व्यक्तिवादी संस्करण के अलावा विचारधारा के क्षेत्र में अब देने के लिए कुछ नहीं है।

सुमेधस, 909, काशीपुरम कालोनी, सीरगोवर्धन, वाराणसी-221011 मो.9415890513

 

कामायनी में भावनात्मक बुद्धि की महत्ता है

बसंत त्रिपाठी
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यापन। कविता, कहानी और आलोचना विधाओं में सतत लेखन। कविता की पांच किताबें, कहानी और आलोचना की एकएक किताब के अलावा कई संपादित किताबें। अद्यतन कविता संग्रह घड़ी दो घड़ी

(1) ‘कामायनी’ निश्चित तौर पर आधुनिक भौतिकवादी विकास और सुखवाद की आलोचना है, क्योंकि आध्यात्मिक और आत्मिक सुख के बजाय क्षणिक सुख प्रसाद की नज़र में संसार के संकट का मूल कारण है। इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रसाद सांसारिकता और प्रगति के विरुद्ध थे। हताश और अवसादग्रस्त मनु को श्रद्धा के द्वारा कर्म की महत्ता बताना और उसे संसार के आनंद के रूप में देखकर उसे भोग के लिए प्रेरित करना प्रगति की आकांक्षा और स्वीकार के बगैर संभव नहीं था।

प्रसाद केवल क्षणिक सुख की उस आकांक्षा के विरोधी थे जो देव सभ्यता का ध्वंस और बाद में सारस्वत प्रदेश में मनु बनाम इड़ा और समस्त प्रजाजन के बीच संघर्ष के रूप में घटित हुआ। इस क्षणिक सुख की अनियंत्रित आकांक्षा की परिणति भयंकर रक्तपात में हुई। इस रूपक का विस्तार करें तो पाएंगे कि प्रसाद औपनिवेशिक लूट, राज्य का विस्तार और एकाधिकार की प्रवृत्ति के कारण सांसारिक सुखों की अविवेकी चाह, यानी ऐश्वर्य की अनियंत्रित आकांक्षाओं को मानते हैं। इसलिए ‘कामायनी’ के आमुख में प्रसाद ने इस रूपक को ‘मनुष्यता का मनोवैज्ञानिक इतिहास’ कहा है। दरअसल ब्रिटिश औपनिवेशीकरण का आर्थिक और राजनीतिक पक्ष भयानक था, लेकिन उससे ज्यादा भयानक था उसका सांस्कृतिक पक्ष। वह दिमाग को गुलाम बनाकर रखने का प्रकल्प था। इसलिए ‘कामायनी’ में जो भावोद्गार हैं, उसे निरी कल्पना नहीं कहा जा सकता।

(2)श्रद्धा ‘कामायनी’ की एक पात्र है और प्रसाद के दर्शन को स्थापित करने वाली चिंतक भी। श्रद्धा का आगमन ‘कामायनी’ में जिन परिस्थियों में होता है उसे ध्यान से रखना चाहिए। देवताओं के स्वैराचार से प्रलय आया और समूची सभ्यता नष्ट हो गई। देवों के वशंज मनु प्रलय में बचे रह गए। प्रलय के बाद प्रकृति अपने पूरे वैभव के साथ पुनः सजीव हो उठी, लेकिन मनु अकेले बचे थे। अकेलेपन, निराशा और अवसादग्रस्त मनु ने जैसे इसे ही अपने जीवन की नियति मान ली थी। यानी विनष्ट सभ्यता के पुनर्निर्माण और अवसादग्रस्त व्यक्ति की मुक्ति की भूमिका ‘कामायनी’ में शुरू में ही बन चुकी थी। इन्हीं परिस्थितियों में श्रद्धा का आगमन होता है। सभ्यता की पुरानी संकल्पना असफल हो चुकी थी और मनु के पास नई दुनिया की कोई संकल्पना नहीं थी, लेकिन श्रद्धा के पास थी। वह मनु के समक्ष उसी नई दुनिया को गढ़ने का प्रस्ताव रखती है और उसमें क्रियाशील सहयोग और समर्पण की बात भी कहती है।

श्रद्धा औद्योगिक क्रांति और प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात विकास के पश्चिमी मॉडल के बरक्स भारतीय संघर्ष का परचम है। उसकी सीख और उसके क्रियाकलाप ‘कामायनी’ के दर्शन के आधार हैं। प्रसाद उसके मुख को पश्चिम के आसमान में घिरे बादल को चीर कर निकले सूर्य की भांति देखते हैं। यहां पश्चिम केवल दिशा नहीं बल्कि सभ्यता भी है। श्रद्धा के माध्यम से जयशंकर प्रसाद ने पश्चिम के प्रबोधन और साम्राज्यवादी विस्तार की आकांक्षाओं के समक्ष भारतीय दावेदारी प्रस्तुत की है। प्रसाद अपने समय की जिन समस्याओं को महसूस कर रहे थे, वह उनके अपने समय में भले उतनी तीखी न हो, लेकिन आज उसकी तीव्रता हर कोई महसूस कर रहा है। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि दो सभ्यताओं की असफलता के बावजूद श्रद्धा ही थी जो नई सभ्यता का प्रस्ताव लेकर उपस्थित हुई। इसीलिए प्रसाद ने उसे ‘कामायनी’ कहा। समरसता के जिन मूल्यों की बात प्रसाद श्रद्धा के माध्यम से उठाते हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। श्रद्धा पशुपालन, कृषि और तकली जैसी तकनीक यानी छोटी मशीनरी की पक्षधर थी। यद्यपि आज़ाद भारत के निर्माण और विकास की परियोजना में उसके लिए ज्यादा स्पेस नहीं था। दूसरी चुनौतियां मसलन विभाजन, विभिन्न वैधानिक संस्थाओं के निर्माण की जद्दोजहद, भाषा जैसे सवाल थे जिनके बरअक्स समरसता की संकल्पना तत्कालीन भारत के लिए ज्यादा प्रभावी नहीं हो पाई।

(3)संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, युद्ध, स्वैराचार, भूमि का अधिग्रहण और राजनीतिक रूप से शक्तिहीनों की उनकी बसाहत से बेदखली, कृषि की तबाही जैसी अनगिनत परियोजनाएं ताकतवरों और क्रय-शक्ति की दृष्टि से अपेक्षाकृत संपन्नों के लिए बनाई जा रही हैं। अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए तर्कातीत होना और ज्ञानरहित कर्म करते जाना आज के संभ्रांत, मध्यवर्गीय जीवन का भयंकर सच है। यही मनु की मुश्किलों का कारण है। इच्छा की पूर्ति के लिए सत्ता का अधिग्रहण या सर्वसत्तावादी होने की आकांक्षा हमारे समय का अभिशाप है। कारपोरेट के साथ मिलकर राजसत्ता इस विश्व का निर्माण कर रही है। जनता जागरूक न होने पाए, इसलिए उसकी भोग की वृत्ति को उकसाया जा रहा है। यह आज की दुनिया का राजनीतिक एजेंडा है। मनु यद्यपि इस विश्व का नागरिक है, लेकिन नव-मध्यवर्ग और मनु में अंतर यह है कि मनु नई सभ्यता के निर्माण में प्रवृत्त होता है। वह परजीवी नहीं है। इसलिए उसे एक सीमा तक ही इस विश्व का नागरिक माना जाना चाहिए। दरअसल वह चिंतन और भोग के द्वैत के बीच डोल रहा है। लेकिन प्रसाद उसमें सुधार की संभावना देखते हैं। रहस्य और आनंद सर्ग इसके उदाहरण हैं।

(4)इड़ा और श्रद्धा को सीधे-सीधे नवजागरण और छायावाद का प्रतिनिधि मान लेना एकांगी होगा। दोनों एक सीमा तक ही नवजागरण और रोमांटिसिज़्म के प्रतीक हैं। श्रद्धा यद्यपि इड़ा की आलोचना हृदय न पाने की उक्ति से करती है। लेकिन रहस्य सर्ग में इच्छा लोक के बारे में वह यह भी कहती है कि लालसाएं यहीं संपादित होती हैं। इसके तट पर माया रूपी सुंदरता से विह्वल मतवाले विचरते रहते हैं। यहां चारों ओर चलचित्र की तरह संसृति की छाया घूमती रहती है। यहां भाव का चक्र लगातार चलता रहता है। यह माया का राज्य है जो जाल बिछाकर जीव को बंधन में डालता है। भाव इस लोक की जननी है। इस लोक में एक ओर वसंत रहता है तो दूसरी ओर पतझर। अमृत और विष, सुख और दुख, दोनों यहां एक ही डोर से बंधे हुए हैं।

भावशून्य ज्ञान और तर्कच्युत बुद्धि, दोनों ही प्रसाद के लिए सभ्यता के निर्माण की दृष्टि से अपर्याप्त थे। इच्छा, बुद्धि और कर्म का संतुलन ही उन्हें अभिप्रेत था। यह निदान किंचित रहस्यवादी लग सकता है, लेकिन समस्या वास्तविक है। ‘कामायनी’ की भूमिका में जहां प्रसाद ने लिखा है कि बुद्धि का विकास और राज्य स्थापना इड़ा के प्रभाव से ही मनु द्वारा हुआ, लेकिन बुद्धिवाद के विकास में अधिक सुख की चाह दुख का कारण है। वे नवजागरण के विरोधी नहीं थे, लेकिन उसपर भाव की निगरानी भी चाहते थे। भावप्रेरित तर्काधारित कर्म ही मनुष्यता का लक्षण है, प्रसाद कामायनी में यही कहते हुए दिखाई पड़ते हैं। यदि श्रद्धा को छायावाद का पूर्ण प्रतिनिधि मान लेंगे तो अपने पुत्र को इड़ा को सौंपने या उसके द्वारा भावलोक की आलोचना विरोधाभासी प्रतीत होगी।

(5)गौरतलब है कि 19वीं शताब्दी के अंत से ही भारत को ढूंढ़ने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। विवेकानंद, महात्मा फुले, रवींद्रनाथ ठाकुर, तिलक, आगरकर, सुब्रह्मण्यम भारती, महात्मा गांधी, महर्षि अरविंद, भगतसिंह, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, बाबा साहब अंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू आदि इस दिशा में सक्रिय थे। इन सभी चिंतकों का ध्यान पश्चिम और पूरब के बीच समन्वय और संघर्ष से एक नए पथ की तलाश पर था। चूंकि नया भारत अभी संकल्पना के स्तर पर कई तरह के प्रयोगों से गुज़र रहा था, इसलिए उसको संकल्पनात्मक रूप देने में कई तरह के अंतर्विरोध दिखाई पड़ते हैं। प्रसाद की नए भारत संबंधी चिंतनधारा का प्रतिनिधित्व ‘कामायनी’ की श्रद्धा करती है।

प्रसाद को श्रद्धा अचानक एक संकल्पना की स्थापना के विश्वसनीय पात्र के रूप में नहीं मिल जाती। उसे वे धीरे-धीरे अर्जित करते हैं। कविता, कहानी नाटक और निबंधों में उनका सतत शोध जारी रहता है और ‘कामायनी’ में अपने चरम रूप में दिखाई पड़ता है।

प्रसाद औपनिवेशिक आधुनिकता के सांस्कृतिक संकट को समझ रहे थे, इसलिए उससे पूर्व की प्रतिच्छवियों और दार्शनिक उक्तियों-कथाओं से भविष्य के भारत की संकल्पना प्रस्तुत करते हैं। इसलिए उथले अर्थों में उन्हें पुनरुत्थानवादी तक कह दिया जाता है। यद्यपि प्रसाद पुरानी व्यवस्था को लौटा ले आने के समर्थक नहीं हैं।

‘कामायनी’ में श्रद्धा अपने पुत्र को इड़ा को सौंप कर मनु-मुक्ति के कर्तव्य में प्रवीण होती है। ज्ञान के माध्यम से आनंद तक की यात्रा करने वाले मनु, अंत में मिलने आए हुए प्रजाजनों को ‘स्व’ और ‘पर’ के भेद से मुक्त होने के बाद जो कहते हैं, वह उनके ज्ञान स्थल की मुख्य विशेषता है। आज का भारत प्रसाद के स्वप्नों से उतना ही दूर है जितना गांधी, प्रेमचंद, भगतसिंह या डॉ अंबेडकर से दूर है।

302, बृज हरि अपार्टमेण्ट, ड्रमण्ड रोड, अशोक नगर, प्रयागराज-211001 मो।9850313062

 

मिथक के आवरण में वर्तमान की कथा है ‘कामायनी’

अच्युतानंद मिश्र
चर्चित युवा कवि तथा लेखक। अद्यतन कविता संग्रह आंख में तिनकाऔर लेखों का संग्रह बाजार के अरण्य में

 

(1)कामायनी का प्रकाशन 1936  में हुआ था। यह देश और दुनिया के लिहाज़ से एक कठिन समय था। दुनिया आर्थिक मंदी के सुरंग से गुजरते हुए विश्व युद्ध के विस्फोटक दरवाज़े पर दस्तक दे रही थी। उत्पादन की तीव्र गति और तकनीक की बढ़ती मांग एक विकृति निर्मित कर रही थी। बेतहाशा उत्पादन के बावजूद दुनिया के बड़े हिस्से में लोग भूखे मर रहे थे। भारत में भी स्थितियां जटिल हो रही थीं। गांधी के आंदोलन में एक शिथिलता और दुहराव नजर आने लगा था। भगत सिंह कि शहादत हो चुकी थी। वैश्विक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप अंग्रेजी राज द्वारा जारी दमन बढ़ चला था। ‘कामायनी’ की रचना इन परिस्थितियों में हो रही थी।

आप देखें 1936 न सिर्फ ‘कामायनी’, बल्कि ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘गोदान’ का प्रकाशन वर्ष भी है। कठिन और जटिल समय रचनात्मकता के विस्फोट का समय भी होता है- यह बात यहां देखी जा सकती है। हिंदी साहित्य की तीन अनुपम अद्वितीय और कालजयी कृतियां 1936 में प्रकाशित होती हैं। कामायनी उत्पादन की प्रक्रिया, जिसके केंद्र में भौतिकवादी विकास की यांत्रिक अवधारणा है, जो मनुष्य को चेतना से विलग कर वस्तु में बदलती है- उसका क्रिटिक रचती है।

मनु मिथकीय चरित्र नहीं है, वह वर्तमान के दर्शन का प्रतिनिधि चरित्र है। इस बिंदु से कामायनी पर विचार करें तो आप देखते हैं -जो तुमुल कोलाहल कलह है, छीना -झपटी है, हिंसा है, दमन और घृणा है उत्पादन की बढ़ती गति है- सब मिलाकर वह एक बाह्य संसार बना रहे थे। यह बाह्य संसार वस्तुओं के उपभोग की अवधारणा पर टिकी थी। यह उपभोग सतत लालसा की अमानवीय भावभूमि पर अवस्थित थी। ‘कामायनी’! वस्तुतः इस लालसा और वासना को प्रश्नांकित करती है। वह सतत उपभोग जनित सुखवाद की अमानवीयता का बखान रचती है। इसे करने के लिए प्रसाद जिन मिथकीय पात्रों का निर्माण करते हैं- वे वस्तुतः वर्तमान के मनुष्य हैं। मिथक के आवरण में वर्तमान की कथा है-कामायनी। कामायनी अपने समय के मनुष्य, समाज और संस्कृति के प्रश्न रखती है। उसका जीवन दर्शन किसी अतीत का जीवन दर्शन नहीं है।  अब यह प्रश्न भिन्न है कि प्रसाद जिस तरह का समाधान देख रहे थे- क्या वह सचमुच मनुष्य के लिए, समाज के लिए कोई बेहतर विकल्प था?

(2)श्रद्धा मनु के भीतर के झंझावातों और तूफानों को कम करती है। एक तरह से वह समन्वय का मार्ग विकसित करने का यत्न करती है। आरंभ में हम देखते हैं- मनु अकेला है, एकांगी है, असहाय है, निरुपाय है- ‘भीगे नयनों से से देख रहा था प्रलय प्रवाह’। प्रश्न उठता है कि वह बचता क्यों है? क्योंकि वह उस प्रलय प्रवाह के विरुद्ध संघर्ष नहीं करता, अपितु समर्पण करता है। इसलिए वह अपनी विशिष्टता के बोझ तले दबा हुआ है। यह प्रलय प्रवाह वर्तमान का हाहाकार है, जिसे एक दर्शक की भांति मनु देख रहा है। वह इस प्रलय प्रवाह के विरुद्ध कोई विद्रोह नहीं करता, बल्कि भावुक प्रतिक्रियाएं देता है और अपनी आत्मलीनता में निराशा का सौंदर्य रचने की कोशिश करता है।

मनु का मन विशेष वर्ग का प्रतिनिधि है। इसी हताश, निराश और संशयग्रस्त मनु के सामने श्रद्धा आती है। उसे जीवन और समाज की ओर प्रवृत्त करती है। मनु के समक्ष श्रद्धा एक लालसा है, आकांक्षा है, वासना है।

मनु की दृष्टि से अगर हम श्रद्धा को देखें तो पाते हैं कि वह उपभोग की वस्तु है। उपभोग मनु का विशिष्टवर्गीय अधिकार है। श्रद्धा मनु की सोई हुई या शांत पड़ गईं प्रवृत्तियों को उभारती है, इसलिए मनु सहज ही चिंता से आशा की और चले जाते हैं। यह चिंता और आशा, मनु के भीतर की दबी और जाग्रत आकांक्षा, लालसा के ही विविध रूप हैं। श्रद्धा  उसका परावर्तन है। वह मनु की विकृतियों का पर्दा है। आकांक्षा को स्वीकार्य बनाने का मार्ग है। जो मनु चिंतित हो उत्तुंग शिखर पर ‘भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह’ वही मनु श्रद्धा के संसर्ग में आकर- ‘लगे देखने लुब्ध नयन से/प्रकृति विभूति मनोहर शांत।’ यह जो 180  डीग्री का रूपांतरण है -इसके मूल में श्रद्धा है। श्रद्धा मूलतः मनु के भीतर के समन्वय का मार्ग है। सुख को स्वीकार्य बनाने का आदर्शवादी विकल्प। इसलिए श्रद्धा सिर्फ उन प्रवृत्तियों को हृदय में जगाती है, जो मनु के भीतर बाह्य झंझावातों से सो गई हैं।

श्रद्धा परिवर्तन की आकांक्षा नहीं है- वह उपभोग की आक्रामकता को सम करने का दर्शन है। उपभोग की आकांक्षा की विडंबना यही है कि वह साझा नहीं कर सकती। वह आकांक्षा सतत बढ़ती जाती है। भोग की यह सतत आकांक्षा मनु को अपनी ही संतति के विरुद्ध ला खड़ा करती है। और यह समन्वय की श्रद्धा की तमाम कोशिशों का यथार्थ प्रकट कर देता है।

(3)मनु उपभोग और सतत लालसा की आकांक्षा का प्रतिनिधि है। वह विश्व नागरिक नहीं है, विशेष वर्ग का प्रतिनिधि है। उसका दुख और उसकी लालसा एक ही सिक्के के  दो पहलू हैं। एक दूसरे को समर्पित। सवाल यह है मनु श्रद्धा को, इड़ा को क्या देता है। कौन सा विकल्प है मनु के पास। मनु कभी अपने आत्म से बहिर देख क्यों नहीं पाता?

वर्तमान मनुष्य भी लालसा, आकांक्षा, वासना और वस्तुओं के इस अपरिमित संसार से घिरा हुआ है। वह वस्तुओं में ही मुक्ति खोजता है। वह कहता है-
स्वर्ग बनाया है जो मैंने
उसे न विफल बनाओ
अरी अप्सरे! उस अतीत के
नूतन गान सुनाओ।

(4)श्रद्धा और इड़ा मनु के जीवन दर्शन के दो विकल्प हैं, भोग के दो तर्क। दोनों में बाह्य विरोध भले दिखता हो, मगर दोनों में एक आंतरिक समन्वय है -दोनों ही मनु का मुखर विरोध नहीं करतीं। उसे अपने अनुरूप ढालती हैं। इसे नवजागरण और रोमांटिसिज्म की जगह प्रसाद की विश्व दृष्टि से जोड़कर देखना चाहिए। प्रसाद की दृष्टि में समन्वय का महत्व है, विद्रोह का नहीं। पूंजीवादी व्यवस्था विपरीत-सी लगती स्थितितों का समन्वय करती है। यही आक्रामक और हिंसक पूंजीवाद, लोकतंत्र का उपयोग अपने पक्ष में करने के लिए कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रश्रय देता है। पूंजीवाद का जो संबंध आक्रामक उपभोग और कल्याणकारी राज्य से है, वही संबंध मनु का इड़ा और श्रद्धा से है।

प्रसाद कामायनी के बहाने दमनकारी राज्य की सामाजिक दृष्टि का व्यापक चित्र खींचते हैं। कहीं न कहीं उस दमन को सह्य बनाने का, स्वीकार्य बनाने का दर्शन रचते हैं। भारतीय नवजागरण में यह भी एक धारा थी जो मानती थी कि समन्वय के रास्ते आधुनिकता का वरण किया जा सकेगा। प्रसाद मनु की समस्या के समक्ष दो विकल्प रखते हैं- श्रद्धा और इड़ा। आप गौर से देखें तो श्रद्धा और इड़ा मनु के आत्मविस्तार हैं। इस आत्मविस्तार की सीमाएं उस दृष्टि की सीमा है जो मनुष्य को, समाज को परिवर्तन की अनिवार्यता से विलगाती है। मनु के जीवन में सिर्फ पाने का महत्व है। कुछ भी वह नहीं खोता। वह आधुनिक उपभोक्तावादी चरित्र का प्रतिनिधि है जो नित नए सोपान की तलाश में रहता है। वह छोड़ने का नहीं, सतत कुछ पाने का रास्ता है। प्रसाद उस जीवन दृष्टि की आलोचना तो करते हैं मगर उस जीवन दृष्टि के भीतर से ही समन्वय खोज लाते हैं। यह प्रसाद की दृष्टि की समस्या है ।

(5)प्रसाद के यहां समन्वय पर बल है। वे चाहते हैं कि सबका कल्याण हो, लेकिन उस कल्याण के लिए भावुकता के चित्र खींचते हैं। बुनियादी परिवर्तन की आकांक्षा उनके यहां नहीं है। कल्याण की यह आकांक्षा भाववादी दृष्टिकोण  बनकर रह जाती है। इसलिए आखिर में एक सुखांत जैसा मोड़ आ जाता है। जो मनु आरंभ में अपनी मनःस्थिति से परेशान है और उससे मुक्ति के लिए आत्मलीनता के गर्त में डूबता जाता है, वह अंत में सबको सुखी बनाओं के दर्शन का संगीत गाता है।

हिम खंड रश्मि मंडित हो
मणि द्वीप प्रकाश दिखाता
जिनसे समीर टकराकर
अति मधुर मृदंग बजाता।

प्रलय प्रवाह का अंत लहरों के कोमल नर्तन में होता है। सबकुछ मनु के भीतर और मनु के ही हित में होता है। सामान्य मनुष्य उस होने में उपलक्ष्य भर है। क्या हम मनु के ही भारत में नहीं रह रहे हैं? मनु अपने ही झंझावत और अपनी ही कोमल तान के लिए सारा संसार मथ देते हैं। यह कैसा आनंद है, सुख है- जो अपने से शुरू होकर अपने को ही तृप्त करना जानता है। जन-अरण्य का रुदन कहां है- इस सपनों के भारत में। वह झंझावत, वह तूफान, वह हृदय विदीर्ण करने वाला चीत्कार कहां है? यह सिर्फ एकनिष्ठ हृदय की बात बनकर रह जाती है। यहां कोलाहल की पहचान तो है, मगर उससे त्राण का कोई आत्मसंघर्ष नहीं। पलायन है, उपभोग है और अखंड आनंद की कामना। प्रसाद इस समन्वय का जो चित्र खींचते हैं उसका सौंदर्य, महज लालसा और वासना का सौंदर्य है, जो आत्म का अतिक्रमण न कर आत्म में ही समाधान खोज लेता है-
चिर मिलित प्रकृति से पुलकित
वह चेतन पुरुष पुरातन
निज शक्ति तरंगायित था
आनंद-अम्बु -निधि शोभन।

हिंदी विभाग, श्री शंकराचार्य संस्कृत यूनिवर्सिटी,कलाडी-683574, जिला : अर्नाकुलम, केरल  मो.9213166256

संपर्क :​ 83, शशिभूषण बनर्जी लेन, सलकिया, हावड़ा-711106 ई-मेल –gupta.puja788@gmail.com