महावीर प्रसाद द्विवेदी पर शोध कार्य। बंगवासी मॉर्निंग कॉलेज में अध्यापन
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भारतेंदु युग के हिंदी नवजागरण को अपने लेखन, संपादन और साहित्यिक गतिविधियों के माध्यम से विकसित किया। द्विवेदी युग को हिंदी नवजागरण की दूसरी मंजिल माना गया है। उस पर 1905 की रूसी क्रांति, बंगभंग-विरोधी आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, प्रथम विश्व युद्ध और 1917 की नवंबर क्रांति जैसी अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाओं का असर पड़ा था। इसके अलावा, द्विवेदी जी की कृति ‘संपत्तिशास्त्र’ में अंग्रेजी राज के आर्थिक शोषण, नए किस्म के सामंतवाद, किसानों की बदहाली, अंग्रेजों की व्यापार-नीति, भारत के उद्योग-धंधों के विनाश आदि का विस्तृत विवेचन है। उनकी दृष्टि किसानों पर केंद्रित हुई थी। इसी युग में प्रेमचंद का लेखन सामने आया। कहना न होगा, इन घटनाओं के लगभग सौ साल बाद उनपर पुनर्विचार की जरूरत महसूस की जा सकती है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ पत्रिका में शिक्षा के आधुनिक विषयों- विज्ञान, भूगोल, इतिहास आदि पर लेख छापकर हिंदी पाठकों को वैज्ञानिक दृष्टि से समृद्ध कर रहे थे। वे संकीर्ण मानसिकता के विरोधी और आधुनिक विचारधारा के हितैषी थे। उन्होंने संस्कृत के वेद, उपनिषद, पुराण से लेकर अंग्रेजी की प्रख्यात रचनाओं का हिंदी में अनुवाद करके भाषिक दीवारें तोड़ीं। उन्होंने रूढ़िवादी दृष्टि का खंडन करते हुए प्राचीन भारतीय संस्कृति के बुद्धिपरक मूल्यांकन पर जोर दिया। आज की स्थितियों में उनके काम कैसी प्रेरणा देते हैं, इस पर चर्चा की जरूरत है।
बांग्ला नवजागरण के प्रवर्तक राजा राममोहन राय अंग्रेजी में शिक्षा के समर्थक थे, जबकि द्विवेदी जी ने इस धारणा का खंडन करते हुए हिंदी तथा भारतीय भाषाओं में शिक्षा का समर्थन किया था। उनका कहना था, ‘अंग्रेजी भाषा सीखने की आवश्यकता है जरूर, तथापि इससे मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने की महत्ता कम नहीं हो सकती।’ भारतेंदु की परंपरा में वे समझते थे कि मातृभाषा में शिक्षण देशोन्नति का प्रमुख साधन बन सकता है। उनका मानना है, ‘भारत के लिए सौभाग्य का दिन तभी होगा जब हिंदी भाषा में सब प्रकार की उच्च शिक्षा देने के लिए विद्यमान विश्वविद्यालयों और कालेजों के साथ ही साथ, हिंदी विश्वविद्यालयों और हिंदी कालेजों की भी स्थापना हो जाएगी।’ अंग्रेजी के वर्चस्व काल में द्विवेदी जी के ये सपने कितने पूरे हो सके, यह देखने की जरूरत है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने राष्ट्रीय जागरण के लिए हिंदी को सबसे मजबूत साधन समझा था। उस जमाने में हिंदी के स्वरूप निर्धारण में कई समस्याएं थीं। इस समस्या को उन्होंने हिंदी लेखकों की हिंदी में सुधार लाकर काफी हद तक दूर किया। उन्होंने उदार होकर लिखा, ‘हम अपनी भाषा की उन्नति अवश्य करना चाहते हैं। इससे उर्दू के पक्षपातियों की हानि नहीं। वे अपनी भाषा की उन्नति करें, हम अपनी।’ गौर करने की बात है कि हिंदी के नए स्वरूप के गठन में द्विवेदी जी की उदारवादी, समावेशी और वैज्ञानिक दृष्टि काम कर रही थी।
एक ओर महात्मा गांधी स्वराज के लिए देशी उद्योग-धंधों की उन्नति और देशी वस्तुओं के उपयोग का नारा लगा रहे थे। दूसरी ओर, अपनी ‘मातृभाषा के स्वराज की आवश्यकता’ टिप्पणी में द्विवेदी जी लिख रहे थे, ‘भाषा के स्वराज की प्राप्ति का कुछ भी उपाय अब तक नहीं किया गया। और बिना इस स्वराज्य के शासन-व्यवस्था का विधान कभी सुचारू रूप से नहीं चल सकता।’
उन्होंने यह भी कहना चाहा कि भारत को पराधीनता से बाहर निकालने और देश में सुचारुशासन व्यवस्था कायम करने के लिए औपनिवेशिक अंग्रेजी भाषा का त्याग कर हिंदी भाषा को प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है, ‘स्वराज्य पाकर भी क्या कोई देश विदेश की भाषा के द्वारा शासन-कार्य का संपादन कर सकता है? …जातीय जीवन को एक सूत्र में बांधने के लिए भी सबसे श्रेष्ठ उपाय मातृभाषा का स्वराज्य ही है।’ इस तरह द्विवेदी जी सभी भारतीय भाषाओं के महत्व की ओर संकेत कर रहे थे। उन्होंने राष्ट्रीय जागरण का आह्वाहन किया था।
यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आज जिस राजभाषा हिंदी का स्वरूप भारत के शैक्षणिक, प्रशासनिक, वैज्ञानिक, वैधानिक एवं कानूनी क्षेत्रों में कार्यान्वित है, उसकी नींव द्विवेदी जी ने रखी थी।
भारत में 20वीं सदी के आरंभिक दो दशक उथल-पुथल से भरे रहे हैं। ये दशक ही द्विवेदी युग के नाम से जाने जाते हैं और भारतीय नवजागरण के उत्कर्ष के रूप में देखे जाते हैं। यह छायावाद और प्रेमचंद के अभ्युदय का समय भी रहा है। इस दौर में कई नई प्रवृत्तियों का उदय हुआ और कला, साहित्य तथा सामाजिक जीवन में नया मोड़ आया। वर्तमान समय में उस युग के मूल्यांकन का काफी महत्व है।
इस परिप्रेक्ष्य में द्विवेदीयुगीन साहित्य के अध्ययनकर्ताओं एवं विशेषज्ञों के सुचिंतित विचार निम्नलिखित प्रश्नों के आधार पर इस परिचर्चा में प्रस्तुत हैं।
सवाल
- हिंदी क्षेत्र के लिए महावीर प्रसाद द्विवेदी का क्या महत्व है?
- द्विवेदी युग, छायावाद और प्रेमचंद के बीच क्या संबंध और क्या फर्क है?
- द्विवेदी युग में हिंदी समाज की स्थितियां क्या रही हैं और धार्मिक सुधारों पर किस रूप में चर्चा हुई है?
- महावीर प्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक दृष्टिकोण पर आपका क्या मत है।
- द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ का संपादन करते हुए कलाओं और विज्ञान की उन्नति के संदर्भ में क्या किया?
- महावीर प्रसाद द्विवेदी का किसान-प्रश्न पर क्या दृष्टिकोण है? कृपया अवलोकन करें।
अवधेश प्रधान |
प्रेमचंद द्विवेदी युग के ज्ञानोदय की उपलब्धि हैं
(1)हिंदी क्षेत्र में सबसे पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘कविवचन सुधा’, ‘हरिश्चंद्र मैग्जीन’ और ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ निकाल कर पत्रकारिता के माध्यम से नए साहित्य के साथ राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति, देश दशा, ज्ञान-विज्ञान, इतिहास आदि से संबंधित सामग्री छाप कर नई राष्ट्रीय और जनवादी चेतना का प्रसार शुरू किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ के माध्यम से इसी कार्य को एक नई मंजिल तक पहुंचाया। सांस्कृतिक-सामाजिक रूढ़ियों पर केवल प्रहार से संतोष न करके उन्होंने इतिहास, पुरातत्व, भौतिक विज्ञान, रसायन, वनस्पति विज्ञान, जीव विज्ञान, चिकित्सा, कृषि विज्ञान, शिक्षा, भूगोल, समाजशास्त्र आदि पर अधिक से अधिक विचार सामग्री के द्वारा पाठकों को वैज्ञानिक और बुद्धिवादी ढंग से सोचने-विचारने की संस्कृति को अपनाने की प्रेरणा दी।
‘सरस्वती’ हिंदी समाज में नवजागरण का अग्रदूत बनकर उभरी। पौराणिक कथाओं और पुरानी मान्यताओं पर लोग नए ढंग से सोचने लगे। मैथिलीशरण गुप्त और हरिऔध ने अपने काव्यों में पौराणिक कथा प्रसंगों और चरित्रों को यथासंभव तर्कसंगत और मानवीय रूप देने का प्रयास किया। द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य और तत्कालीन अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य के बीच संबंध को और घनिष्ठ बनाया और ‘सरस्वती’ देश के श्रेष्ठ चार-पांच पत्रों में गिनी जाने लगी।
भारतेंदु ने ‘कविवचन सुधा’ के समय से ही साहित्यकारों का ध्यान अंग्रेजी राज की अनीति और देश की दुर्दशा की ओर खींचना शुरू किया था। उस दिशा में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘संपतिशास्त्र’ जैसी पुस्तक लिखकर अनेक लेखकों को अंग्रेजी राज की अर्थनीति का गंभीर अध्ययन और विवेचन करने की प्रेरणा दी और इस प्रकार लोगों की राजनीतिक चेतना को निखारने के काम में गहराई आई। किसानों की समस्याओं का भी ठोस विश्लेषण जमीनी हकीकत की रोशनी में किया जाने लगा। द्विवेदी जी ने उस दिशा में स्वयं लिखकर रास्ता दिखाने का काम किया। द्विवेदी जी और उनके सहयोगियों का राजनीतिक और आंदोलनपरक लेखन भविष्य के किसान आंदोलनों की वैचारिक पृष्ठभूमि बनाने में कामयाब रहा। प्रेमचंद के कथा साहित्य का द्विवेदी जी और उनके सहयोगियों के किसान संबंधी लेखन से घनिष्ठ संबंध है।
रामविलास शर्मा ने महावीर प्रसाद द्विवेदी के साहित्य को उस युग के आधुनिक साहित्य का ज्ञानकांड कहा है। इस ज्ञानकांड की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ज्ञान की गहरी बातें भी अत्यंत सरल, सुबोध भाषा में कही गई हैं। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह है कि द्विवेदी जी साहित्य के द्वारा जनसाधारण को सुशिक्षित-सुसंस्कृत करना चाहते थे। वे पुराने से पुराने और नए से नए लेखकों से हमेशा जनता को समझ में आने वाली भाषा में लिखने का आग्रह करते थे। उन्होंने भारतेंदु युग के वयोवृद्ध लेखक बालकृष्ण भट्ट, काशी प्रसाद जायसवाल जैसे दिग्गज लेखकों से ‘सरस्वती’ में लिखवाया। रामचंद्र शुक्ल जैसे आलोचक, प्रेमचंद जैसे कथाकार और गुप्त जी जैसे कवि उनके युग की देन हैं। ब्रजभाषा की जगह कविता में हिंदी को जमाने का और हिंदी को ज्ञानविज्ञान की समर्थ-सक्षम भाषा बनाने का श्रेय उनको है। वे समूचे हिदी समाज के सबसे बड़े जन शिक्षक साहित्यिक आचार्य थे। भारतेंदु के बाद वे हिंदी के सबसे बड़े युग निर्माता साहित्यकार थे। हिंदी क्षेत्र में बुद्धिवाद, विकासवाद और स्वतंत्र बौद्धिक चिंतन का मार्ग प्रशस्त करने वाला उनके जैसा और कोई नहीं हुआ।
(2)आमतौर पर कहा जाता है कि छायावाद का प्रादुर्भाव द्विवेदी युगीन नैतिक आदर्शवाद और इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया में हुआ था। सुमित्रानंदन पंत और निराला दोनों ने महावीर प्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक दृष्टिकोण की व्यंग्यपूर्ण आलोचना की थी। द्विवेदी जी ने भी न कभी छायावाद का समर्थन किया, न निराला के मुक्त छंद का।
1977 में रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ के प्रकाशित होने के बाद द्विवेदी युग से छायावाद के संबंध को नए सिरे से पहचानने की ओर लोगों का झुकाव हुआ। छायावाद का द्विवेदी युग से संबंध का एक आधार है : साहित्य में रीतिवाद-विरोधी अभियान। रीतिवादी कविता की पिटी-पिटाई परिपाटी का जैसा चौतरफा विरोध द्विवेदी युग में हुआ, वैसा पहले कभी न हुआ था। साहित्य की नई भूमि का निर्माण हिंदी कविता से रीतिवाद का उन्मूलन किए बिना संभव न था।
द्विवेदी युग ने नायिका भेद का, नखशिख वर्णन का और अलंकार-चमत्कार का बहिष्कार करके छायावाद की नई कविता के लिए जमीन तैयार की। छायावादी कविता का नया सौंदर्यबोध इसी जमीन पर अंकुरित हुआ। दूसरे, अलंकार विधान का और नए छंदों के प्रयोग का प्रस्ताव द्विवेदी जी ने इसीलिए किया, क्योंकि उनकी दृष्टि में तुकांत की परिपाटी और छंदविधान के पुराने नियम कवि के लिए बेड़ियों की तरह थे। निराला ने अपने मुक्त छंद को ‘कविता की मुक्ति’ के लिए आवश्यक बताया।
‘सरस्वती’ में द्विवेदी जी भाव और शैली की दृष्टि से ऐसी कविताएं छापीं जो छायावादी कविता का पूर्वरूप भी कही जा सकती है। रामविलास जी ने विस्तार से बताया है कि निराला का द्विवेदी जी के प्रति एक विनम्र शिष्य भाव ही स्थायी था। मैथिलीशरण गुप्त, गयाप्रसाद शुक्ल सनेही आदि द्विवेदी युगीन कवियों का प्रभाव छायावादी कविता पर भी लक्ष्य किया जा सकता है। गद्य के समान कविता में भी खड़ीबोली हिंदी के प्रयोग का आंदोलन द्विवेदी युग में न चला होता तो प्रसाद, निराला, पंत जैसे कवि ब्रजभाषा में ही काव्य रचना न कर रहे होते, यह कैसे कहा जा सकता है!
जिस प्रकार कविता में मैथिलीशरण गुप्त और आलोचना में रामचंद्र शुक्ल द्विवेदी युग की उपलब्धि हैं, उसी प्रकार कथा साहित्य में प्रेमचंद द्विवेदी युग की ही उपलब्धि हैं। प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पंच परमेश्वर’ 1916 में ‘सरस्वती’ में छपी थी। द्विवेदी जी ने उसका मूल शीर्षक (पंचायत) बदल दिया था। 1920 तक प्रेमचंद की कुछ और कहानियां ‘सरस्वती’ में छपीं- सौत (1915), सज्जनता का दंड (1916), ईश्वरीय न्याय (1917), दुर्गा का मंदिर (1917), बलिदान (1918), पुत्रप्रेम (1920)।
द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ में तोल्सतोय पर जितनी भी टिप्पणियां लिखी हैं उनमें तोल्सतोय के प्रति उनका आदर और अनुराग छलका पड़ता है। कौन जाने, प्रेमचंद के मन में तोल्सतोय के प्रति प्रेम और आकर्षण ‘सरस्वती’ की ही प्रेरणा रही हो। प्रेमचंद ने तोल्सतोय की 23 नीतिकथाओं का हिंदी रूपांतर करके ‘प्रेम प्रभाकर’ नाम से छपाया था। साहित्य में बोलचाल की हिंदी पर द्विवेदी जी का जोर रहा, प्रेमचंद ने अपने लेखन में उसी तरह की मुहावरेदार हिंदी बरती। द्विवेदी जी ने किसानों की समस्या पर विस्तार से और ब्योरेवार लिखा। प्रेमचंद का समूचा कथा साहित्य उसी चिंता और चिंतन का कलात्मक प्रतिफलन है। प्रेमचंद भी साहित्य को बुद्धिवाद और उपयोगिता की कसौटी पर उसी तरह कसते हैं जिस तरह द्विवेदी जी। सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों के खंडन में दोनों समानधर्मा हैं। दोनों यथार्थोन्मुखी साहित्य के पक्षधर हैं। प्रेमचंद ने द्विवेदी जी के विज्ञानपरक लेखों के संग्रह का संपादन किया। प्रेमचंद का निर्माण द्विवेदी युग में हुआ, लेकिन राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक दृष्टि से वे द्विवेदी युग और छायावाद युग को पार करते हुए जहां पहुंचे वहां उनके हाथों में प्रगतिशील आंदोलन की पताका फहरा रही थी।
(3)भारत में, विशेष रूप से हिंदी प्रदेश में जातिप्रथा एक पुरानी बीमारी है जो जीवन के हर क्षेत्र में जड़ तक समाई हुई है। जब थोड़ा-बहुत शिक्षा का प्रचार हुआ तो सभी जातियों के शिक्षित लोगों ने अपनी अपनी जाति-बिरादरी के संघ बनाने शुरू किए। इन संघों ने समाज-सुधार के खूब प्रस्ताव पास किए; सामाजिक बुराई तो दूर न हुई, जात-पांत की गांठें और कसती गईं।
‘सरस्वती’ में सत्यशोधक नाम से एक लेखक ने लिखा, ‘बाल विवाह, वृद्ध विवाह, अनमेल विवाह, शादी-ब्याह में फिजूलखर्ची आदि कुरीतियों को रोकने के लिए ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, कान्यकुब्जों, गौड़ों, सनाढ्यों, अग्रवालों, खंडेलवालों, पल्लीवालों, कायस्थों, कलवारों आदि की सैकड़ों सभाएं हैं, पर इन सभाओं के कार्यकर्ताओं ने यह विचार नहीं किया कि हमारी सारी सामाजिक कुरीतियों की जड़ वर्ण-व्यवस्था है। जातियों की ये छोटी-छोटी सभाएं, जो वर्ण-व्यवस्था के भेद को और भी पुष्ट करती हैं, लाभ के साथ हानि ही पहुंचावेंगी और व्यापक सुधार के आंदोलन के मार्ग में विघ्न डालेंगी।’
जुलाई 1915 की ‘सरस्वती’ में सत्यशोधक ने ‘समाज शास्त्र’ शीर्षक लेख में भारतीय समाज में प्रचलित तंत्र-मंत्र, टोना-टोटका, छींक आदि असगुन और ऐसे ही तमाम अंधविश्वासों, मिथ्याविश्वासों की ओर ध्यान खींचते हुए उन अशिक्षितों और अर्ध-शिक्षितों का मौलिक विचार भी उद्धृत किया है, ‘यदि वर्णाश्रम फिर पहले की तरह स्थापित हो जाए तो देश का पूर्ण रूप से सुधार हो जाए।’
द्विवेदी युग के लेखकों ने अंधविश्वास, मिथ्याविश्वास और रूढ़ियों की जड़ पर प्रहार करने के लिए आधुनिक विज्ञान और समाज विज्ञान के सत्य का खूब प्रचार किया। गोशालाओं के समर्थकों से सत्यशोधक ने प्रश्न किया, ‘…भारत जैसे विशाल देश में गोशाला प्रणाली से, गोहत्या में भला कितनी कमी हो सकेगी? क्या मुसलमानों से दंगा-फसाद करने से गोरक्षा के आंदोलन को लाभ पहुंच सकता है? क्या गोशालाओं का प्रबंध चरित्रहीन मनुष्यों के हाथ में सौंप देने से चोरी, छल-कपट, कुप्रबंध और सार्वजनिक अविश्वास की आशंका नहीं?’
द्विवेदी जी ने किसान के प्रश्न पर लिखते हुए इस तथ्य को बराबर उजागर किया कि देश के किसान अपढ़ हैं, वे अंग्रेजी राज के काले कानूनों के बारे में कुछ नहीं जानते- यह उनकी बदहाली का एक और कारण है। वे किसानों को, आदिवासियों को जनसाधारण को अधिक से अधिक साक्षर और शिक्षित बनाने पर जोर देते हैं। जनता को शिक्षित बनाने के काम में अंग्रेजी राज और जमींदारों की उदासीनता की उन्होंने बारबार आलोचना की।
सितंबर 1913 की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित ‘एक मुसलमान विद्वान का संस्कृत प्रेम’ शीर्षक लेख में द्विवेदी जी ने डॉ.शहीदुल्ला के बारे में लिखा कि ‘ये वही महाशय हैं जिन्होंने संस्कृत में नामवरी के साथ बीए पास करने पर एम.ए.में संस्कृत पढ़ना चाहा था। पर विश्वविद्यालय तब के धर्म ध्वजधारी पंडितों ने उन्हें इसीलिए पढ़ाना अस्वीकार कर दिया कि इस क्लास की पाठ्य पुस्तकों में वेद भी है।’ कलकत्ता विश्वविद्यालय की ही तरह काशी हिंदू विश्वविद्यालय के धर्मध्वजियों ने भी इसी तर्क पर महादेवी वर्मा को संस्कृत पढ़ाने से मना कर दिया था और अभी दो बरस पहले एक मुसलमान युवक को संस्कृत विद्या एवं धर्म विज्ञान संकाय में अध्यापक पद पर ‘ज्वाइन’ करने नहीं दिया था! द्विवेदी जी मुसलमानों और स्त्रियों को संस्कृत पढ़ाने के पक्ष में थे। उन्होंने स्त्री शिक्षा के पक्ष में लगातार लिखा। धर्म और समाज की रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष में रामावतार शर्मा और भारतेंदु युग के वयोवृद्ध लेखक बालकृष्ण भट्ट ने उनका डटकर सहयोग किया। भट्ट जी के बारे में उन्होंने लिखा था कि ‘संस्कृत के आचार्य और जाति के ब्राह्मण होकर भी आपने हिंदू समाज की दकियानूसी रूढ़ियों का सदा तिरस्कार किया। जाति-पांति और ऊँच-नीच के झमेलों की आपने कभी परवा न की।’ द्विवेदी जी ने स्वयं ‘बालविधवा विलाप’ शीर्षक कविता लिखी और ‘सरस्वती’ में हीरा डोम की ‘अछूत की शिकायत’ नामक कविता छापी।
(4)महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य को सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा। इसलिए उन्होंने साहित्य को एक नई दृष्टि से परिभाषित किया- ज्ञानराशि के संचित कोष का नाम साहित्य है। इतिहास, पुरातत्व, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र, नृतत्वशास्त्र, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, जंतु विज्ञान, शरीर रचना और शरीर क्रिया विज्ञान, आयुर्वेद, चिकित्सा विज्ञान, कृषि विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, व्यापार- वाणिज्य शास्त्र, पशुपालन, नौकायन, वैज्ञानिक आविष्कार, भूगर्भशास्त्र, भूगोल, खगोल शास्त्र, मनोविज्ञान, धर्म-अध्यात्म आदि ज्ञान-विज्ञान की तमाम शाखाओं से मानव जीवन और मानव समाज का घनिष्ठ संबंध है तो साहित्य भी इससे सर्वथा अलग नहीं हो सकता।
‘सरस्वती’ एक ऐसा साहित्यिक पत्र था जिसमें साहित्य के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान से संबंधित प्रचुर सामग्री भी छपा करती थी। इस तरह द्विवेदी जी ने साहित्यिक पत्रकारिता को सांस्कृतिक नवजागरण का एक मंच बना दिया। उन्होंने साहित्य के सामने ऐसी सरल सुबोध भाषा का आदर्श रखा जिसके द्वारा जनसाधारण के बीच नए विचारों का प्रचार सरलतापूर्वक हो सके। उन्होंने नखशिख वर्णन, नायिकाभेद, अलंकार-चमत्कार की पुरानी परिपाटी को हटा कर साहित्य को नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय आदर्शों की ओर उन्मुख किया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि रीतिकालीन कविता में ‘कवियों की व्यक्तिगत विशेषता की अभिव्यक्ति के लिए अवसर बहुत कम रह गया था।
उन्होंने साहित्य के आदर्श को अधिक से अधिक युग की आवश्यकता के अनुरूप प्रस्तुत करने की ईमानदार कोशिश की। उनकी दृष्टि में ‘भारत-भारती’ उस युग की आदर्श कविता थी। नए आदर्श की अभिव्यक्ति में जो भी पुरानी रूढ़ियाँ बाधक हो रही थीं उनको छोड़ देने का साहसिक आह्वान उन्होंने किया।
उन्होंने एक ओर हिंदी कविता की सदियों पुरानी छंदों की पिटी-पिटाई लकीर छोड़कर द्रुतविलंबित वंशस्थ और वसंततिलका जैसे संस्कृत वृत्तों का प्रयोग करने का सुझाव दिया, तो दूसरी ओर उर्दू-फारसी की लोकप्रिय बहरों का। संस्कृत वृत्त तो नहीं चल पाए, लेकिन उर्दू छंदों का प्रयोग चल पड़ा। संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला आदि का उदाहरण देकर उन्होंने हिंदी कविता में तुकांत रचना का मोह छोड़कर अतुकांत कविता को प्रोत्साहित किया। यह कविता की नई जमीन बनाने का प्रयास था, जहां से मुक्त छंद की दूरी बहुत कम रह गई थी। वह कविता में न केवल कोमलकांत पदावली के पक्षपाती थे, न अलंकार-चमत्कार के। वह सरसता को, सच्ची भावपरकता को ही कविता का प्राण समझते थे। इसके अभाव में कविता पद्य-रचना मात्र रह जाती है। पारसी थिएटर के नाटक उनकी नजर में निम्न स्तर के थे, लेकिन हिंदी के साहित्यिक दृष्टि से उच्चस्तरीय नाटकों में अभिनेयता का अभाव उन्हें खटकता था।
हिंदी में उपन्यासों की बढ़ती लोकप्रियता देखकर वे प्रसन्न थे और इसे वे ‘हिंदी के उत्थान का शुभ लक्षण’ मानते थे। उनका विचार था कि ‘उपन्यास जातीय जीवन का मुकुर होना चाहिए।’ उन्होंने ‘हिंदी नवरत्न’ की प्रखर आलोचना की और बिहारी-मतिराम-देव के स्थान पर तुलसी-सूर-भारतेंदु हरिश्चंद्र का ऊंचा मूल्यांकन किया। गद्य के साथ-साथ कविता में खड़ीबोली हिंदी के प्रयोग को उन्होंने आंदोलन का रूप दिया। रहस्यात्मकता और अत्यधिक लाक्षणिकता के कारण उन्होंने छायावाद की आलोचना की। वे समाज और साहित्य के क्षेत्र में नएपन को प्रोत्साहित करते थे, लेकिन उनकी साहित्य दृष्टि की भी एक सीमा थी इसीलिए न वे मुक्त छंद का समर्थन कर सके, न छायावादी कविता का।
(5) ‘सरस्वती’ (मई 1922) में द्विवेदी जी का एक लेख छपा- ‘हिंदी में विज्ञान-विषयक पुस्तकों की आवश्यकता।’ इसमें उन्होंने बताया कि पुराने जमाने में हिंदी समाज में सबसे अधिक शृंगार रस का बोलबाला था, फिर जासूसी उपन्यासों की धूम मची और इस कुरुचि से जो पिंड छूटा तो देशभक्ति, जातीयता, असहयोग, साम्यवाद और चरखे ने और सब विषयों को बहुत कुछ दबा दिया।’ द्विवेदी जी ने कहा, साहित्य की सर्वांगीण उन्नति होनी चाहिए। पश्चिमी देशों की उन्नति का एक कारण ‘विज्ञान का अनुशीलन भी है।’ अंग्रेजी में और बांग्ला, गुजराती, मराठी आदि प्रांतीय भाषाओं में जितनी विज्ञान की पुस्तकें छपी हैं, उनकी तुलना में हिंदी में नाममात्र की भी नहीं। उन्होंने प्राणीशास्त्र, शरीरशास्त्र, कीट-पतंग शास्त्र, रसायनशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, वनस्पतिशास्त्र आदि पर सरल भाषा में लोकप्रिय पुस्तकें लिखने की जरूरत पर बल दिया। इस दिशा में स्वयं उन्होंने पहल की और ‘सरस्वती’ में विज्ञान की विविध शाखाओं और वैज्ञानिक आविष्कारों के बारे में बराबर लिखा।
उनके कुछ लेख इस प्रकार हैं- पृथ्वी, मंगल, सौरजगत की उत्पत्ति, अक्षांश और रेखांश, रेडियम, विकास-सिद्धांत, रक्त-विज्ञान, समुद्र के भीतर तार डालना, परमाणु की शक्ति, ध्वनि, पानी, पानी में न डूबने वाले जहाज, मनुष्य जाति के पूर्व पितामह, पौने पांच हजार मील से बातचीत। उन्होंने डॉ. जगदीशचंद्र बोस के आविष्कारों पर कई लेख लिखे। कोपरनिकस, गैलीलियो और न्यूटन के बारे में लिखा। हर्बर्ट स्पेन्सर को ‘इस समय के वैज्ञानिकों का राजा’ कहा। स्पेन्सर के भारत-प्रेम की सराहना की और उसे ‘ब्रह्मर्षि’ तक कहने में संकोच न किया। वनस्पतियों, जीव जंतुओं, रोगों, मंत्रों आदि के अलावा पुरातत्व संबंधी लेख भी मिला लें तो द्विवेदी जी के विज्ञान-विषयक लेखों की संख्या सौ से भी अधिक होगी।
उन्होंने हिंदी समाज में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के लिए स्वयं लिखने के साथ साथ और विद्वानों से भी लेख लिखवाकर छापे, जैसे गिरिजा प्रसाद द्विवेदी का आर्यभट पर लेख(अगस्त 1902), रामावतार शर्मा का ‘भूगोल विधा’ (1912), परमात्मा (1913), स्तनधारी पशुओं में मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता (1914), द्वारकानाथ मैत्र का ‘क्रम विकास’ (1915), जगन्नाथ खन्ना का ‘पदार्थ कैसे बने’ (1917), गिरींद्र मोहन मिश्र का ‘मानवीय ज्ञान का क्रम विकास’।
विभिन्न ललित कलाओं पर लिखते हुए द्विवेदी जी ने भारत में चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत आदि की उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिए बार-बार प्राचीन भारत के इतिहास की ओर संकेत किया है। ‘भारत की चित्र विधा’ (जनवरी 1913) शीर्षक लेख में उन्होंने उन पाश्चात्य कलाविदों की पक्षपातपूर्ण दृष्टि पर अपना रोष प्रकट किया है जो कभी भारतीय कलाकृतियों को शरीरशास्त्र के नियमों के अनुकूल न पाकर निम्न कोटि की बताते हैं या यूनानी कारीगरों की नकल करार देते हैं। तक्षशिला, नालंदा और धान्यकटक में चित्रकला, मूर्तिकला की भी शिक्षा दी जाती थी और लंका, चीन, कोरिया, जापान तक उसका प्रसार हुआ। मुगल काल में भी उसका विकास होता रहा। अंग्रेजी राज में पतन के दौर में भी ‘दक्षिण के राजा रवि वर्मा और कलकत्ता के बाबू अवनींद्रनाथ ठाकुर आदि ने भारतीय चित्रविधा की थोड़ी बहुत लाज रख ली है।’
आधुनिक युग के कलाविदों में कलकत्ता के प्राध्यापक हैवेल, सिंहल के आनंद कुमार स्वामी और गुजरात के एन.सी.मेहता की द्विवेदी जी ने प्रशंसा की है। ‘भारतीय चित्रकला’ शीर्षक लेख में चित्रकला के आस्वादन की खूबियों पर भी रोशनी डाली है। द्विवेदी जी ने कुतुब मीनार, मतोरा के गुफा-मंदिर, श्रीरंग पत्तन, चिदंबर, बनारस, सांची के पुराने स्तूप, खजुराहो, लाहौर के किले में पच्चीकारी की रंगीन चित्रावली आदि के साथ एक लेख दक्षिण भारत की प्राचीन नाट्यशालाओं पर भी लिखा।
जिस प्रकार राजा रविवर्मा की जीवनी के साथ-साथ उनके चित्र भी ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुए, उसी प्रकार द्विवेदी जी ने यशस्वी मूर्तिशिल्पी म्हातरे की जीवनी और उनकी मंदिराभिमुखी, सरस्वती, पार्वती आदि प्रसिद्ध मूर्तियों के विवरण के साथ उनके चित्र भी प्रकाशित किए। उन्होंने महान कलाविद आनंद कुमारस्वामी के अलावा मानवाचार्य विष्णु दिगंबर पलुस्कर, सुप्रसिद्ध गायक मौला बख्श और पांच वर्ष के बालक अलौकिक गायक मास्टर मदन की भी जीवनी लिखी। शुक और रंभा, शकुंतला, अहल्या, द्रौपदी चीरहरण, उर्वशी, व्यास, विश्वामित्र, पार्वती आदि पर राजा रविवर्मा आदि के चित्र छापे और उन पर कविताएं लिखवाईं। कविता को चित्रकला से जोड़ा।
(6)महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1908 में जो पुस्तक ‘संपत्तिशास्त्र’ नाम से लिखी उसमें बड़े विस्तार से बताया कि भारत में हमेशा से जमीन जोतने-बोने वाला किसान ही जमीन का मालिक हुआ करता था और राजा को उपज का छठा भाग कर के रूप में अदा किया करता था, लेकिन अंग्रेजी राज में जमीन का मालिकाना हक गवर्नमेंट का हो गया और वह रिआया से लगान वसूल करने लगी। अगर किसान लगान अदा न कर पाए तो सरकार जब चाहे उसे जमीन से बेदखल कर दे। इंग्लैंड की तरह यहां भी जमींदारी प्रथा शुरू की गई। सरकार किसानों की जमीन छीन कर अपने नामजद जमींदारों को दे देती थी। जमींदार किसान से लगान वसूल करके सरकार को मालगुजारी देता था। अगर जमींदार मालगुजारी अदा न कर पाए तो सरकार उसे बेदखल करके किसी और जमींदार को दे देती थी। साल-दर-साल लगान और मालगुजारी बढ़ती जाती थी और किसानों की हालत बद से बदतर होती जाती थी।
अंग्रेजी राज में आर्थिक शोषण का मुख्य स्रोत किसान हो गए थे। बंबई फ्रंट में मालगुजारी 26 फीसदी ज्यादा बढ़ा दी गई तो मालाबार जिले में 84, 85 और 105 फीसदी तक मालगुजारी वसूल की जाती थी। द्विवेदी जी ने लिखा है कि ‘‘1891 और 1901 के बीच मध्य प्रदेश में कोई दस लाख से अधिक आदमी भूखों मर गए।’ द्विवेदी जी ने 1918 में ‘सरस्वती’ में गंगाधर पंत का एक लेख छापा था-‘अवध के जमींदार और काश्तकार’। इस लेख का एक वाक्य मोटेटाइप में छपा था- ‘-पुराने बसे हुए काश्तकारों को मौरूसी हक मिल जाने चाहिए।’
इसका राजनीतिक निहितार्थ समझाते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा है, ‘मौरूसी हक देने का मतलब था अंग्रेजों की जमींदारी का खात्मा, इस जमींदारी में जो देशी छुटभैये शामिल थे उनकी लूट-खसोट का खात्मा, विदेशी साम्राज्यवाद और देशी सामंतवाद के गठबंधन का खात्मा।’
द्विवेदी जी कांग्रेस और उसकी राजनीति को किसानों की कसौटी पर रख कर परखते थे। उन्होंने खरी खरी भाषा में सवाल किया, ‘‘हर साल जो यह कांग्रेस होती है उसने आज तक किसानों पर अपनी कितनी भक्ति प्रकट की है? उसके दिए हुए प्रस्तावों में कितने प्रस्ताव ऐसे हैं जिनसे किसानों को लाभ पहुंचने की संभावना है? अथवा इन प्रांतिक सभाओं ने ही इन विचारों के लिए क्या किया है? कांग्रेस के जो प्रतिनिधि इस समय विलायत की हवा खा रहे हैं वे इन लोगों की कौन-कौन सी शिकायतें सुनने के इरादे से वहां गए हैं?
1921 में द्विवेदी जी ने एक पुस्तिका ‘किसान’ छद्म नाम से लिखी थी-‘अवध के किसानों की बरबादी’। इसमें उन्होंने ताल्लुकेदारों के मालिकाना हक की आलोचना की और पुराने काश्तकारों को कब्जेदारी का हक दिलाने का मुद्दा उठाया। उन्होंने चेताते हुए कहा, ‘नजराना, बेगार, चारा-घास, इनाफा और बेदखली का दौरदौरा बहुत हो चुका… प्रकारांतर से उन्हें गुलाम बना रखने का समय गया।’ फिर रूस की क्रांति की याद दिलाई, ‘‘जिन किसानों की दुरवस्था की सीमा न थी, वही किसान अब रूस के राज्य संचालक बन गए हैं। जो किसान अवध में पशुवत समझे जाते हैं वही किसान खुद सरकार के स्वदेश में महासभा (पारलियामेंट) के आधार हो रहे हैं।’
किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए उन्होंने किसानों के संगठन की आवश्यकता बतलाई और 1924 में लिखा, ‘रूस के किसान और सैनिक अब स्वयं ही वहां का शासन कर रहे हैं। यह सारी करामात संगठन की है।’ आगे चलकर स्वामी सहजानंद सरस्वती और उनके साथियों ने किसान आंदोलन में जमींदारी उन्मूलन और काश्तकार संघर्ष को एक बड़ा मुद्दा बनाया।
एन 1/65ई 52, शिव प्रसाद गुप्त कालोनी, सामने घाट, नगवा, वाराणसी-221005 मो.8400925082
अजय तिवारी |
सांस्कृतिक विकास कीअनिवार्य कड़ी हैं महावीर प्रसाद द्विवेदी
(1)हिंदी के सांस्कृतिक विकास में महावीर प्रसाद द्विवेदी का महत्व कई तरह से है। वे साहित्यिक लेखक, विचारक, संपादक, वैयाकरण, भाषाशास्त्री, आर्थिक चिंतक आदि के रूप में विभिन्न दिशाओं में कार्य करने वाले मनीषी थे। यह बहुमुखी व्यक्तित्व नवजागरण काल के सर्जकों की आम विशेषता थी। इस दृष्टि से आचार्य द्विवेदी ने हिंदी के बौद्धिक मानस के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाई। उन्होंने एक तरफ हिंदी को जातीय पहचान दिलाई दूसरी तरफ बंगाली और मराठी के उदाहरण से हिंदी जाति को भारतीयता की चेतना दी।
हिंदी क्षेत्र में सामंती गढ़ मजबूत थे, यहां अतीतानुराग और रूढ़िवाद का व्यापक असर था। इन सामंती तत्वों को औपनिवेशिक शासकों से संरक्षण प्राप्त था और अंग्रेजी पढ़ी नई पीढ़ी राष्ट्रीय गौरव से शून्य, साम्राज्यवादी संस्कृति की अनुयायी थी। द्विवेदी जी ने सामंती रूढ़िवाद और औपनिवेशिक श्रेष्ठता की विचारधाराओं के विरुद्ध हिंदी समाज को जागरूक किया। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि नवजागरण के व्यक्तित्व ‘विशेषज्ञ’ नहीं होते थे, ज्ञान और प्रशिक्षण की सीमाओं में बंधे नहीं रहते थे। द्विवेदी जी भी ऐसी किसी सीमा से बंधे नहीं थे। बंगालियों-मराठियों की भांति द्विवेदी जी भी ‘अपनी जाति के अगुआ’ के रूप में हिंदी को एक ओर ज्ञान की दृष्टि से समृद्ध करने में लगे थे, दूसरी ओर भाषा की दृष्टि से व्यवस्थित करने में। एक ओर वे हिंदी को विश्व की भाषाओं के समकक्ष लाने का प्रयत्न कर रहे थे, दूसरी ओर हिंदी बौद्धिकों को अपनी जनता से जोड़ने का प्रयत्न कर रहे थे।
द्विवेदी जी मूलतः साहित्यकार और साहित्यिक पत्रकार थे। इसलिए उन्होंने नए सृजन की प्रेरणा दी, रचनात्मक साहित्य को नई विषयवस्तु से जोड़ा, अलंकार और नायिकाभेद की बद्ध रूढ़ियों को अपदस्थ किया, प्राचीन साहित्य की गर्व करने योग्य बातों को उभारा, विकास के अवरोधक पक्षों को अस्वीकार किया, अंग्रेजी से सीखने और संस्कृत से जुड़ने की आवश्यकता पहचानी। स्वभावतः उनका हिंदी चेतना को आधुनिक संस्कार देने में बहुत बड़ा योगदान है। इस योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
(2)भौतिक विकास की अपेक्षा सांस्कृतिक विकास की कड़ियां आपस में अधिक जुड़ी होती हैं। वैसे कोई भी विकास तभी होता है, जब पहले की स्थिति से निरंतरता भी हो और परिवर्तन भी। यही द्वंद्वात्मक संबंध द्विवेदी युग और स्वच्छंदतावादी युग में है। प्रेमचंद प्रधानतः छायावाद (स्वच्छंदतावादी) युग के लेखक हैं, हालांकि निराला-महादेवी की तुलना में वे महावीर प्रसाद द्विवेदी युग के अधिक निकट दिखाई देते हैं। इस संबंध के विषय में रामविलास शर्मा ने लिखा है, ‘सरस्वती, मर्यादा तथा हिंदी की अन्य पत्रिकाओं में इस समय (रूसी क्रांति के बारे में) जो सामग्री निकली, उससे यदि सुधा और हंस में निराला और प्रेमचंद के लेखों की तुलना करें तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचंद की यथार्थवादी धारा और निराला की छायावादी धारा, दोनों ही द्विवेदी युग से जुड़ी हुई हैं।’ (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण)
इस चर्चा में आचार्य रामचंद्र शुक्ल को जोड़ लें तो बात अधिक परिपूर्ण होगी। कारण यह कि द्विवेदी जी द्वारा ‘सरस्वती’ का संपादन और शुक्ल जी का लेखन लगभग साथ-साथ आरंभ हुआ था। उन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। द्विवेदी जी ने रीतिवादी साहित्यशास्त्र का सुसंगत विरोध किया था, उस विरोध को सैद्धांतिक दृष्टि से शुक्ल जी ने और रचनात्मक दृष्टि से छायावाद ने, विशेषतः निराला ने, आगे बढ़ाया। इन सभी में परस्पर संबंध के कई धरातल सामने आते हैं।
द्विवेदी जी, प्रेमचंद और निराला तीनों ही साम्राज्यवाद-विरोधी लेखक थे। वे अपनी राष्ट्रीयता को जनसाधारण की कसौटी पर परिभाषित करते थे। तीनों ही ‘अमीरी और विलासिता’ में ढली सामंती सौंदर्य-दृष्टि एवं अभिरुचि के विरोधी थे, बदले में किसान के हितों से राष्ट्रीयता और संस्कृति को परिभाषित करते थे। उपन्यास के लिए द्विवेदी जी ने जो आदर्श रखा था, प्रेमचंद उसी रस्ते पर चले और हिंदी में उपन्यास को उन्होंने ‘जातीय जीवन का मुकुर’ बना दिया। निराला ने मुक्त छंद के माध्यम से कविता की ‘बंधनमय’ राह छोड़कर जिस नए काव्य का सृजन किया, उसका सैद्धांतिक आधार बनने में ‘पादांत में अनुप्रासहीन छंद’ का द्विवेदी जी संघर्ष महत्वपूर्ण था।
द्विवेदी जी ने नई वैज्ञानिक खोजों को ‘सरस्वती’ के माध्यम से हिंदी समाज के सामने प्रस्तुत किया। इस पत्रिका ने केवल ज्ञान के स्तर पर ही नहीं, बल्कि संवेदना के स्तर पर भी नए साहित्य को, अर्थात छायावाद को, प्रेरित किया।
सबसे उल्लेखनीय है जगदीशचंद्र बसु की खोजें। उन पर ‘सरस्वती’ में अनेक बार लेख प्रकाशित हुए। इन खोजों ने जड़ और चेतन के आत्यंतिक विभाजन को मिटा दिया। मनुष्य प्राणी-जगत ही नहीं, जंगम प्राणी और वनस्पति जगत भी सजीव और सप्राण है, बसु की इस खोज ने एक तरफ नए ज्ञान का प्रकाश दिया और मानव-मात्र की समता के विचार को पुष्ट किया, दूसरी तरफ जड़-चेतन का भेद हटाकर प्रकृति के मानवीकरण की प्रवृत्ति उत्पन्न की। तीसरी तरफ मनुष्य, प्राणी-जगत, वनस्पति और जड़ पदार्थ सब जगह एक ही स्पंदन विद्यमान है, इस निष्कर्ष ने विश्वात्मा की व्याप्ति के संबंध में छायावादी धारणाओं को बल पहुंचाया, जिससे एक प्रकार के रहस्यवाद का प्रभाव उस कविता पर दिखाई देता है। इसलिए द्विवेदी युग और छायावाद में दिखाई देने वाला वैपरीत्य ऊपरी है, उनका अंतःसंबंध गहरा है।
(3)द्विवेदी जी धार्मिक सुधारों पर सीधे बात नहीं करते, लेकिन उनके आविर्भाव से पहले देश में धर्मसुधार आंदोलनों की एक शताब्दी बीत चुकी थी। धर्मसुधार के साथ समाजसुधार जुड़ा हुआ था। इस सुधार आंदोलन की विशेषता यह थी कि उसने देश के सभी भागों को प्रभावित किया था। बंगाल में राममोहन रॉय से पंजाब में दयानंद सरस्वती तक, महाराष्ट्र में ज्योतिराव फुले से तमिलनाडु में पेरियार एवं रामास्वामी नायकर तथा केरल में नारायण गुरु तक भारत का कोई क्षेत्र इन आंदोलनों से अछूता नहीं था।
सभी आंदोलनों की अपनी विशेषताएं थीं, लेकिन सबमें एक बात सामान्य थी। वे सभी भारतीय समाज के पारंपरिक संबंधों को बदलना चाहते थे, उन संबंधों को दृढ़ बनाए रखने वाले धार्मिक विश्वासों को चुनौती देते थे और अपने-अपने ढंग से तार्किक दृष्टिकोण को बढ़ावा देते थे। एक तरफ अंग्रेजी शासन के कारण पश्चिमी संस्कृति से संपर्क, दूसरी तरफ न्यूटन से लेकर आइंस्टीन तक वैज्ञानिक उपलब्धियों का ज्ञान। 19वीं-20वीं सदी के भारतीय बौद्धिकों पर इसका गंभीर असर पड़ा था।
द्विवेदी जी इन सब बातों के प्रमाण हैं। उनका विवेकवादी और यथार्थवादी दृष्टिकोण अनेक दृष्टियों से अपने युग से आगे बढ़ा हुआ था। उन्होंने धार्मिक अंधविश्वासों के विरुद्ध ज़ोरदार अभियान चलाया। समाज सुधार आंदोलनों से द्विवेदी जी के दृष्टिकोण में एक अंतर था। सभी आंदोलन या तो सुधारवाद की सीमाओं में बंधे थे और अंग्रेजी शासन के प्रति नरम रुख रखते थे या फिर उग्र रुख अपनाते थे और पुनरुत्थानवादी स्वरूप ग्रहण कर लेते थे। विवेकानंद अपवाद थे जो इन दोनों सीमाओं से अलग थे, लेकिन उनका वेदांत भौतिकवादी सांख्य दर्शन से भी प्रभावित था और अध्यात्मवाद को भारत की श्रेष्ठता का आधार भी मानता था। द्विवेदी जी अध्यात्मवाद और रूढ़िवाद के विरुद्ध अविचल संघर्ष चलाते हैं। वे प्राचीन दर्शन का आधार लेकर और आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान का सहयोग लेकर नई वैचारिक संस्कृति का अभियान चलाते हैं। यहां तक कि वे ईश्वर के अस्तित्व को भी अस्वीकार करते हैं।
धर्मसुधार के साथ समाजसुधार का संबंध अटूट है। सतीप्रथा, जातिप्रथा, मूर्तिपूजा, कर्मकांड, बालविवाह, विधवाविवाह-वर्जना, स्त्रीशिक्षा प्रतिबंध, सांप्रदायिक वैमनस्य-इन सभी सामाजिक बुराइयों को धर्म के आधार पर कायम रखा जाता था। सुधारवादी आंदोलन इन बुराइयों से मुक्ति के लिए अंग्रेजी राज का सहयोग चाहते थे, भले अंगरेज इसका लाभ उठाकर समाज को विखंडित करें। पुनरुत्थानवादी अंदोलन अंग्रेजी सुधारों का विरोध करते थे और समस्त ज्ञान का स्रोत वेदों को मानते थे। द्विवेदी जी दोनों तरह की अति से हटकर आधुनिक, वैज्ञानिक और ऐतिहासिक दृष्टि अपनाते थे।
आज जब धर्मसुधार तो दूर, समाजसुधार को भी ‘देशद्रोह’ बताया जाता है, तब द्विवेदी जी के चिंतन का क्रांतिकारी और युगांतरकारी महत्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने निरीश्वरवाद को भारतीय दार्शनिक परंपरा का महत्वपूर्ण अंग बताकर चेतना को अंधविश्वासों से ही मुक्त नहीं किया, बल्कि समाजसुधार के रास्ते में आनेवाली धार्मिक बाधाओं को भी दूर किया। इस प्रकार, सीधे समाजसुधार और धर्मसुधार आंदोलन से जुड़े न होने पर भी उन्होंने इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किया।
(4)जिस विचारक का सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण इतना बुद्धिवादी, वैज्ञानिक और आधुनिक हो, उसके साहित्यिक दृष्टिकोण का प्रगतिशील होना स्वाभाविक है। साहित्य में नए विकास के लिए जड़ हो चुकी पुरानी प्रवृत्तियों का विरोध किया जाना चाहिए। साहित्य रचना में यह पुरानापन सबसे अधिक समस्यापूर्ति और नायिकाभेद के रूप में था। इस विषयवस्तु के लिए कौशल के रूप में अलंकारशास्त्र और छंदशास्त्र भी था। द्विवेदी जी ने इन सभी चीजों का विरोध किया।
बीसवीं सदी के आरंभिक दिनों में यह विरोध न सरल था न साधारण। इसके लिए जिस साहस की आवश्यकता थी, उसका द्विवेदी ने भरपूर परिचय दिया। जिस काव्यशास्त्र पर यह नायिकाभेद और समस्यापूर्ति निर्भर थी, वह दरबारी, रीतिवादी काव्यशास्त्र था। हिंदी की रीतिवादी कविता ब्रजभाषा में लिखी गई थी। इसलिए काव्य की भाषा के रूप में ब्रजभाषा की मान्यता उस पुरानेपन का अभिन्न अंग था।
द्विवेदी जी से पहले भारतेंदु और उनके सहयोगियों ने गद्य में खड़ीबोली को प्रतिष्ठित कर दिया था। द्विवेदी जी के सामने चुनौती थी गद्य के साथ काव्य की भाषा के रूप में खड़ीबोली को स्थापित करने की। यह संघर्ष भी उन्होंने साहस और सफलतापूर्वक किया। पहले हम जिक्र कर चुके हैं कि द्विवेदी जी ने एक ओर भारतेंदु के युग से अनेवाली नई, जनवादी चेतना का विकास किया, दूसरी ओर छायावाद के लिए जमीन तैयार की। यह काम उन्होंने जिस दृष्टिकोण से किया वह यथार्थवाद के साथ था।
यथार्थ की जो धारणा द्विवेदी जी ने प्रस्तुत की, वह सतही और इकहरी नहीं है। उनके अनुसार, यथार्थ के दो पहलू हैं। एक, ‘जो बात जैसी दिख पड़े, वैसे ही वर्णन करना, दूसरे, उस देखे हुए का कवि द्वारा अनुभूत सत्य। दिखने और अनुभूत होने की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से साहित्य की वस्तु निर्मित होती है।’ यह द्विवेदी जी के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिणाम है।
जाहिर है कि साहित्य को लेकर उनकी अनेक मान्यताएं अत्याधुनिक हैं। फिर भी, उनके दृष्टिकोण पर पुरानेपन का कुछ दबाव भी था। इसलिए उनमें अपने युग से मिले कुछ अंतर्विरोध भी थे। एक तरफ वे ‘कालिदास की निरंकुशता’ का विरोध करते थे, किसी प्राचीन साहित्यकार के मूल्यांकन में कैसी आलोचना-दृष्टि होनी चाहिए, यह प्रमाणित करते थे, दूसरी तरफ नए युग के लिए आवश्यक गीत की स्वच्छंदता की अपेक्षा प्रबंध की अनिवार्यता पर जोर देते थे।
एक तरफ वे समस्या देकर कविता लिखवाने का विरोध करते थे, दूसरी तरफ स्वयं विषय देकर कविता लिखवाते थे। इन अंतर्विरोधों के बावजूद उनका सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि वे कविता को पद्य से अलग करते थे और अतुकांत छंदों का समर्थन करते थे, जिसने निराला के मुक्तछंद का रास्ता बनाया। वे खुद भी छंद के नियमों को कवि के लिए बेड़ियां मानते थे।
‘गीतिका’ की भूमिका में निराला ने इसी प्रकार के विचार प्रकट किए हैं। काव्य के लिए प्रकृति और करुणा का महत्व उनसे ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पहचाना, यह बात कही जा सकती है। सबसे बड़ी बात यह कि द्विवेदी जी सरल और जनसाधारण के बोलचाल की भाषा को कविता के लिए आदर्श मानते थे। उनकी दृष्टि में अभिव्यक्ति अपने में पर्याप्त नहीं थी, उसका लक्ष्य था संप्रेषण और वह तभी हो सकता था जब कवि के भाव से पाठक के भाव का तादात्म्य हो।
(5)यह तथ्य विदित है कि द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ के माध्यम से साहित्य के अतिरिक्त इतिहास, विज्ञान, अर्थशास्त्र, दर्शन, समाजशास्त्र, राजनीतिविज्ञान आदि विभिन्न विषयों पर सामग्री प्रकाशित की। इसके लिए वे स्वयं परिश्रम करते थे और इन क्षेत्रों के विद्वानों से दुनिया भर में संपर्क करते थे। अकारण नहीं है कि ‘सरस्वती’ के योगदान के कारण द्विवेदी युग को हिंदी का ज्ञानकुंड कहा जाता है। दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी जिस हिंदी पत्रिका को खोजकर पढ़ते थे वह ‘सरस्वती’ थी।
जिन दिनों द्विवेदी जी ‘सरस्वती’ का संपादन कर रहे थे, उन्हीं दिनों जगदीशचंद्र बसु की विद्युत तरंग विषयक खोज ने जड़ और चेतन के संबंध को लेकर समझदारी ही बदल दी। अन्य लेखों के अलावा स्वयं द्विवेदी जी ने इस विषय के विभिन्न पक्षों पर अनेक बार लेख लिखा। फरवरी-मार्च 1903 में बसु की खोज से सिद्ध हुआ कि जीवित पदार्थ में विद्युत तरंगों से ही नहीं, संगीत से भी कंपन होता है, किंतु निर्जीव पदार्थ में नहीं। मनुष्य की लाश में कंपन नहीं होता, लेकिन सभी जीवित प्राणियों के अलावा सोना-चांदी जैसे धातुओं में भी कंपन होता है। बार-बार आघात से उन्हें भी संवेदनशून्य बनाया जा सकता है फिर शक्तिवर्धक औषधियों से पुनर्जाग्रत किया जा सकता है। (संपादक, सरस्वती, फ़रवरी-मार्च 1903)
इसी प्रकार, अप्रैल 1908 में, मनोविज्ञानपरक विषय में बसु की खोज का क्या प्रभाव पड़ा, इस पर- ‘पंडित लोग मनोविज्ञान को जड़विज्ञान से अलग समझते हैं। पर उन दोनों में जो गूढ़ संबंध है उसको भी वे जानते हैं। इस गूढ़ संबंध को स्पष्ट करने की चेष्टा बहुत कुछ बसु महाशय ने की है।
यहां एक बात का उल्लेख करना आवश्यक है, जिसका प्रसंग प्रस्तुत प्रश्न में नहीं है। एक संक्रमणकालीन समय में नए ज्ञान और जीवन मूल्य के लिए संघर्ष करते हुए विवादों से बचना संभव नहीं होता। ‘सरस्वती’ ऐसे विवादों का मंच थी। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता से विवादों का जो अटूट संबंध दिखाई देता है, उसका सूत्रपात ‘सरस्वती’ और उसके संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ही किया था। बस एक बात का फर्क है। ‘सरस्वती’ में हिंदी शब्द ‘अनस्थिरता’ पर विवाद होता था और अब ‘होना-सोना’ और ‘छिनारा’ पर होता है! इसका कारण उद्देश्य का अंतर है। द्विवेदी जी ने स्वयं विज्ञान और कलाओं के बारे में गंभीर रुचि रखते हुए सरस्वती को नए हिंदी मानस के निर्माण का सशक्त मंच बनाया। लेकिन अब आवारा पूंजी और आवारा राजनीतिज्ञों का ध्यान आकर्षित करने के लिए संपादक उत्तेजक मुद्दे खोजते हैं। मैंने 2001 में ‘सरस्वती’ की शतवार्षिकी पर ‘तद्भव’ में लिखा था : ‘उसमें साहित्य, कला, उद्योग (शिल्प), स्त्री-शिक्षा, विज्ञान, दर्शन, इतिहास, परंपरा, अंतरराष्ट्रीय घटनाचक्र आदि असाहित्यिक विषयों पर जितनी सामग्री छपी, आज भी साहित्यिक पत्रिका में नहीं छपती। (आधुनिकता पर पुनर्विचार)
(6)द्विवेदी जी ने देश की सबसे बड़ी समस्या माना जनता की गरीबी और देश की पराधीनता को। इन समस्याओं के समाधान के लिए ज्ञानक्षेत्र का उपयोग किया। उन्होंने ‘सम्पत्तिशास्त्र’ में और ‘सरस्वती’ के अंकों में बारंबार दिखाया कि ब्रिटिश राज का सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि किसान अपनी जमीन के मालिक नहीं रहे, वे असामी बन गए। इसलिए लगान न अदा कर पाने के कारण ज़मीन से बेदखल कर दिए जाते थे। बाद के मार्क्सवादी अध्येताओं ने इस बात को लगातार रेखांकित किया है।
जमीन को लेकर अंग्रेजों ने जो कानून बनाए वे नए प्रकार के सामंतवाद को विकसित करते थे। इस सामंतवाद से किसानों का शोषण अधिक तेज होता था। द्विवेदी जी ने यह दिखाया कि किसान एक ओर अंगरेज़ सरकार की लूट का शिकार है, दूसरी ओर अंग्रेजों के पाले हुए जमींदारों की लूट का। जमीन के असली मौलिक अंगरेज हो गए हैं, किसान की हैसियत भाड़े पर खेती करने वाले श्रमिक जैसी हो गई है। लगान की दरें मनमाने तरीके से तय की जाती थीं। अंग्रेजों द्वारा निर्धारित लगान में जमींदार अपने लिए भी अंश जोड़ देते थे। मनमाना लगान न दे पाने पर जमीन बचाने के लिए किसान कर्ज लेता था। अंगरेज़, जमींदार और महाजन मिलकर किसान को इस तरह लूटते थे कि आखिर उसके बैल-बछिए बिक जाते थे, जमीन नीलाम हो जाती थी। किसान की दुर्दशा का असर शेष समाज पर भी पड़ता था। अकाल से लाखों लोग मरते थे। यह तथ्य द्विवेदी युग को भारतेंदु युग से जोड़ता था।
जुलाई 1914 की ‘सरस्वती’ में द्विवेदी जी ने ‘देश’ का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताया कि उसका मतलब यहां रहने वाले लोग हैं, जिनमें 6 प्रतिशत व्यवसायी हैं, ‘70 फीसदी किसान’, इसलिए किसानों के हित के बिना देशहित की बात व्यर्थ है।
उनके चिंतन में किसान का यह महत्व था कि उन्हीं के बलपर शासन, प्रशासन, स्वराज्य का आंदोलन, नेताओं का कारोबार, जमींदारों-ताल्लुकेदारों, व्यापारियों, महाजनों का ठाट चलता है। इसका अर्थ यह है कि स्वाधीनता के लिए गंभीर प्रयत्न तभी संभव है जब किसान को केंद्र में रखकर आर्थिक कार्यक्रम बने। ऐसा कार्यक्रम था लगानबंदी। लेकिन द्विवेदी जी की इच्छा के विपरीत स्वराज्य के अभिजन नेता लगानबंदी का कार्यक्रम नहीं चलाते थे। पराधीन देश में पूंजीवादी उत्पादन के विकास का महत्व द्विवेदी जी समझते थे। लेकिन समाज के सबसे शोषित, सबसे उत्पीड़ित समुदाय-किसान को केंद्रीय स्थान देते थे। यह उनकी ऐतिहासिक दृष्टि की बहुत बड़ी विशेषता थी।
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रविभूषण |
महावीर प्रसाद द्विवेदी से हिंदी वालेआज भी बहुत कुछ सीख सकते हैं
(1)महावीर प्रसाद द्विवेदी (9 मई 1864-21 दिसंबर 1938) के लेखन का एक सामाजिक- राजनीतिक प्रयोजन था, जिसे उन्होंने ‘सरस्वती’ के संपादन के जरिए पूरा किया। हिंदी प्रदेश में नवीन सामाजिक चेतना का प्रसार केवल साहित्य-रचना से संभव नहीं था। इसलिए उन्होंने समाज और साहित्य के रिश्ते पर सदैव बल दिया। उन्होंने लिखा है, ‘सामाजिक शक्ति या सजीवता, सामाजिक अशक्ति या निर्जीवता और सभ्यता तथा असभ्यता तथा असभ्यता का निर्णायक एकमात्र साहित्य है।
हिंदी क्षेत्र उनके समय बंगाल प्रेसिडेंसी में था। यह क्षेत्र आज भी रूढ़िवाद, अंधविश्वास, अंधास्था में डूबा हुआ है। द्विवेदी जी ने अपने लेखन और संपादन के जरिए हिंदी क्षेत्र में सामाजिक, साहित्यिक-सांस्कृतिक चेतना का विकास किया। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दो दशकों और इक्कीसवीं सदी के आरंभिक दो दशकों का अंतर केवल एक शताब्दी या समयावधि का अंतर नहीं है। आज का समय कहीं अधिक सामाजिक-सांस्कृतिक और वास्तविक अर्थों में राष्ट्रीय चेतना के ह्रास या विघटन का समय है, जबकि द्विवेदी जी ने अपने लेखन और संपादन से इस चेतना का सदैव विकास किया। उन्होंने लेखकों एवं कवियों का एक नया समूह पल्लवित कर केवल अपनी संगठन-क्षमता का परिचय नहीं दिया, बल्कि एक नई सामाजिक चेतना का भी विकास किया।
द्विवेदी जी रूढ़िवाद के विरोधी थे। उनके जन्म के लगभग एक दशक बाद 1875 में आर्यसमाज की स्थापना हुई। 1887 में ‘भारत धर्म महामंडल’ और 1915 में ‘हिंदू महासभा’ की स्थापना हुई। दिसंबर 1898 में संस्कृत में द्विवेदी जी ने एक कविता लिखी थी-‘कथमहं नास्तिक’। धार्मिक कर्मकांड, देवपूजा आदि उनकी दृष्टि में निरर्थक थे। वे वेदों को ईश्वर-रचित न मानकर मनुष्य-रचित मानते थे। ‘सरस्वती’ के संपादक बनने के पहले ही सितंबर 1901 की ‘सरस्वती’ में उनका एक लेख ‘निरीश्वरवाद’ प्रकाशित हुआ था। आज का हिंदी क्षेत्र धर्म, पाखंड, कर्मकांड, मूर्तिपूजा, धार्मिक अंधास्था में कहीं अधिक डूबा हुआ है। धर्म और राजनीति ने मिलकर हिंदी प्रदेश में बहुत कुछ नष्ट कर डाला है।
द्विवेदी जी का जातियों और कुलों की पवित्रता में विश्वास नहीं था और न ‘स्वर्ग’, अपवर्ग, पारलौकिक आत्मा’ में। उन्होंने ‘धार्मिक चेतना’ की जगह विवेक-चेतना पर बल दिया। उन्होंने अपने लेखन और संपादन से अपने सहयोगी लेखकों के साथ देश को एक नया जागरण-मंत्र दिया। रामविलास शर्मा ने उनके समय को ‘हिंदी नवजागरण का तीसरा चरण’ कहा है। उनके द्वारा धार्मिक चेतना के स्थान पर वैज्ञानिक चेतना के लिए किए गए प्रयासों के महत्व का हमें पता तब लगेगा, जब हिंदी क्षेत्र में आज की धार्मिक और सांप्रदायिक चेतना को समझेंगे, जिससे समाज का विकास नहीं, विनाश हो रहा है।
बौद्धिक चिंतन की जो नींव बालकृष्ण भट्ट (1844-1914) ने मासिक पत्र ‘हिंदी प्रदीप’ के द्वारा डाली थी, उसे द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के जरिए आगे बढ़ाया। उन्होंने साहित्यकारों को केवल साहित्य तक सीमित नहीं रखा। वे विविध विषयों पर लिखते रहे। देखा जा सकता है कि ‘सरस्वती’ पत्रिका ने वैज्ञानिक विचारधारा का किस तरह प्रसार किया। द्विवेदी जी के महत्व को हम तब समझेंगे, जब उस समय हिंदी क्षेत्र में अन्य राजनीतिक -सामाजिक संगठनों से उनकी तुलना करेंगे। हिंदी समाज को उन्होंने गति-शक्ति दी थी और विवेक-चेतना, वैज्ञानिक-चेतना से संपन्न किया था।
(2)छायावाद को गलत ढंग से द्विवेदी युग की प्रतिक्रिया में देखा और समझा गया है। द्विवेदी युग में ही छायावाद और प्रेमचंद ने अपनी आंखें खोलीं। अभी विस्तार से द्विवेदी युग के साथ इन दोनों के संबंधों पर विचार नहीं किया गया है। इनका समय और समाज एक ही था। छायावाद से पहले प्रेमचंद के लेखन का आरंभ हो चुका था। ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ीबोली पूरी तरह द्विवेदी-युग में गतिवान हो चुकी थी। हिंदी गद्य भी इसी समय परिमांर्जित हुआ।
छायावाद का जन्म द्विवेदी युग में हुआ, पर प्रेमचंद का उपन्यास ‘सेवासदन’ इसी काल में प्रकाशित हुआ। रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद की यथार्थवादी और निराला की छायावादी धाराओं को द्विवेदी युग से जुड़ी माना है- ‘जो चीज इन्हें जोड़ती है, वह है साम्राज्य-विरोधी अंतरराष्ट्रीय चेतना’। द्विवेदी जी की किसान-दृष्टि और प्रेमचंद की किसान-दृष्टि में बहुत अर्थों में समानता है।
द्विवेदी जी जमीन पर जमींदारों के हक के विरोधी थे, ‘इन जमींदारों का जमीन पर क्या हक है, कुछ समझ में नहीं आता? बीच में इन्हें डालकर क्यों गवर्नमेंट इनका घर भरती और काश्तकारों का मुनाफा कम करती है?’ ‘सरस्वती’ में किसानों से संबंधित कई लेख प्रकाशित हैं। जिस समय कांग्रेस के प्रस्तावों में किसान अनुपस्थित थे, उस समय द्विवेदी जी की चिंता के केंद्र में किसान थे। प्रेमचंद के पहले वे हिंदी के अकेले लेखक-संपादक हैं, जिन्होंने ‘लगान’ पर सबसे अधिक विचार किया।
‘देश की बात’ टिप्पणी (सरस्वती, जुलाई 1914) में उन्होंने किसानों पर सबसे अधिक लिखा। ‘सम्पत्तिशास्त्र’ (1908) में ‘कर’ और ‘लगान’ में भेद किया। जमीन पर अंग्रेजों के स्वामित्व पर द्विवेदी जी ने बार-बार अपनी बात कही है, ‘यदि कृषकों से लगान मिलना बंद हो जाए, तो बड़े-बड़े राजा-महाराजों और ताल्लुकेदारों की दुर्गति का ठिकाना न रहे, सरकार के शासन चक्र का चलना बंद हो जाए, वकीलों और बैरिस्टरों के घोड़े-गाड़ी बिक जाएं और व्यापारियों तथा महाजनों को शीघ्र ही टाट उलटना पड़े।’ ऐसा लगता है, जैसे यह प्रेमचंद लिख रहे हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद के संबंध पर एक स्वतंत्र लेख लिखा जाना चाहिए। प्रेमचंद द्विवेदी युग की श्रेष्ठ कलात्मक उपलब्धि हैं।
छायावादी कवियों में निराला की कविता को द्विवेदी युग से जोड़ा जा सकता है। द्विवेदीयुगीन कवियों की शैली से छायावादी कवि प्रभावित थे। द्विवेदी जी ने अपने एक आरंभिक निबंध ‘कवि-कर्तव्य’ (1901) में गद्य और पद्य दोनों में काव्य-रचना की बात कही है। उन्होंने पादांत में अनुप्रासहीन छंदों की बात कही है। छंद को कविता का आवश्यक अंग नहीं माना है। ‘मेघनाद-वध’ के अनुवाद की भूमिका में तुकांत छंदों पर आक्रमण किया गया है। छायावाद की निंदा उन्होंने उसकी दुरूहता, रहस्यमयता और अभिव्यंजना की जटिलता के कारण की थी।
(3)द्विवेदी युग में हिंदी समाज पिछड़ी अवस्था में था। धार्मिक मान्यताएं समाज में अधिक प्रचलित थीं। निरक्षरता और निर्धनता दोनों थी। किसानी बुरी स्थिति में थी। जनार्दन भट्ट का लेख ‘हमारे गरीब किसान और मजदूर’ 1914 की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुआ था। द्विवेदी युग के कई लेखकों ने किसान-मजदूरों की जीवन-स्थितियों को सामने रखकर लेख लिखे थे। स्त्रियों की दशा अत्यंत खराब थी। घर के भीतर ही उनका संपूर्ण संसार था। बाद में उनमें से कुछ मुख्यतः असहयोग आंदोलन के दौरान बाहर निकलीं। स्त्री जागरण को लेकर द्विवेदी जी और उस युग के लेखकों में चिंताएं दिखाई देती हैं।
स्त्री-शिक्षा के विरोधी तब कम नहीं थे। द्विवेदी जी ने 1914 में स्त्री-शिक्षा के विरोधी तर्कों का खंडन किया था। ‘गुजरातियों में स्त्री-शिक्षा’ (सरस्वती, फरवरी-मार्च 1903) ‘जापान की स्त्रियां’ (सरस्वती, जनवरी, 1905), ‘जापान में स्त्री-शिक्षा’ (सरस्वती, मार्च 1905) जैसे लेख लिखकर उन्होंने अपने समाज की स्त्रियों में जागरूकता उत्पन्न की थी।
हिंदी समाज बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दो दशकों तक किसी भी दृष्टि से जाग्रतावस्था और उन्नत अवस्था में नहीं था। शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम था। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की संख्या नाम मात्र की थी। सामाजिक कुरीतियां, रूढ़िवादी मानसिकता, गरीबी, अशिक्षा में फँसे समाज के सामने उस समय न कोई बड़ा सुधारक था, न नेता। सामाजिक-राजनीतिक चेतना का अभाव था। कोई धार्मिक-सामाजिक आंदोलन नहीं था। द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ के माध्यम से एक जागरण मंत्र फूंका और लोगों की चेतना विकसित की। इसके महत्व का अंदाजा आज के हिंदी समाज को सामने रखकर लगाया जा सकता है।
नगरीकरण कम था। औद्योगिक विकास में हिंदी प्रदेश केवल उस समय ही नहीं, आज भी पिछड़ा है। सामाजिक परिष्कार एवं उन्नयन के लिए द्विवेदी जी ने धार्मिक चेतना के स्थान पर वैज्ञानिक चेतना का प्रचार-प्रसार किया, शिक्षा की आवश्यकता बताई और साहित्य का क्षेत्र व्यापक किया। सीमित अर्थ में ही सही, यह एक सामाजिक सुधार का आंदोलन था।
(4)द्विवेदी जी का साहित्यिक दृष्टिकोण व्यापक था। उन्होंने लिखा, ‘दस-पांच किस्से, कहानियाँ, उपन्यास या काव्य आदि पढ़ने लायक पुस्तकों का होना साहित्य नहीं कहलाता और न कूड़े-कचरे से भरी हुई पुस्तकों का नाम ही साहित्य है।’ ‘सरस्वती’ पत्रिका में राजनीति के लिए जगह नहीं थी, पर अर्थशास्त्र, इतिहास, समाजशास्त्र, आधुनिक विज्ञान आदि पर लेख प्रकाशित होते थे। भाषा और साहित्य के जातीय स्वरूप पर द्विवेदी जी का विशेष ध्यान था।
उनके अनुसार साहित्य में ‘तोप, तलवार और बम के गोलों से कहीं अधिक शक्ति है।’ साहित्य से अनुराग नहीं रखनेवालों को उन्होंने समाजद्रोही, देशद्रोही, जातिद्रोही, आत्मद्रोही और आत्महंता कहा है। साहित्य का समाज से अभिन्न, अविच्छिन्न संबंध उनके लिए आवश्यक था। 1923 के अपने एक भाषण में उन्होंने एक जाति विशेष में साहित्य के अभाव अथवा उसकी न्यूनता को असभ्यता या अपूर्ण सभ्यता से जोड़ा था और कहा था कि जिस जाति-विशेष की सामाजिक अवस्था जैसी होती है, उसका साहित्य भी वैसा ही होता है। इस प्रकार जाति विशेष का उत्थान और विकास साहित्य के उत्थान और विकास से जुड़ा है। उनका ध्यान साहित्य के सर्वांगीण विकास पर था। ‘उत्तेजना’ को उन्होंने सामान्य जीवन में हानिकारक माना है।
द्विवेदी जी सात भाषाओं-हिंदी, संस्कृत, उर्दू, गुजराती, मराठी, बांग्ला और अंग्रेजी के जानकार थे। वे भाषा को जनता से जोड़कर देखते थे। उन्होंने अपने कई लेखों में ‘हिंदू-उर्दू की एकता’ की बात कही है। वे भाषा और साहित्य दोनों में विचार-स्वातंत्र्य को महत्व देते हैं। वे रीति-विरोधी थे। उनके लिए रस, भाव, अलंकार, छंदशास्त्र और नायिका-भेद का महत्व नहीं था। साहित्य को उन्होंने सदैव मनुष्य जाति के उपकार से जोड़कर देखा है। देव-मतिराम और सूर-तुलसी इसी कारण एक श्रेणी के कवि नहीं हैं। रीतिवाद का संबंध उन्होंने राज दरबारों से जोड़ा। कविता में अलंकारों को ‘बलात’ लाने के वे विरोधी थे और समस्यापूर्ति वाली पद्धति की उन्होंने आलोचना की थी।
उन्होंने काव्य-विकास के लिए यथार्थवादी दृष्टि आवश्यक मानी थी। जहां तक भाव-प्रकाशन का प्रश्न है, वे किसी भी प्रकार के प्रतिबंध के विरुद्ध थे। बीसवीं सदी के आरंभ में ही उन्होंने ‘कवि-कर्तव्य’ बताए। ‘सरस्वती’ पत्रिका ब्रजभाषा का विरोध और खड़ीबोली का समर्थन करती थी।
द्विवेदी जी ने साहित्य में एक साथ कई बड़े कार्य किए। हिंदी गद्य का विकास किया, हिंदी को अनेक प्रकार के विषयों के विवेचन का माध्यम बनाया, कविता में ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ीबोली को प्रतिष्ठित किया, साहित्य से रीतिवाद को बाहर किया और कविता के लिए उसका छंदबद्ध होना आवश्यक नहीं माना। ग्रिर्यसन (1851-1941) की भाषाभेद-नीति पर उन्होंने ध्यान दिया है और बिहार की भाषाओं को हिंदी न कहने पर खेद प्रकट किया है। उन्होंने दो प्रकार की भाषा -‘साधु और ग्राम्य’ की चर्चा की है। उनके अनुसार जातीय भाषा साधु भाषा है और ग्राम्य भाषा जनपदीय भाषाएं हैं। हिंदी से बिहार की बोलियों और ब्रज, बुंदेलखंडी आदि के अलगाव का उन्होंने विरोध किया है। उन्होंने संस्कृत और प्राकृत से हिंदी को सर्वथा भिन्न भाषा मानकर उसकी निजी विशेषताएं बताई हैं।
(5)आज का समय हिंदू जागरण का है, द्विवेदी जी का समय हिंदी नवजागरण का था। जिस समय भारतीय पूंजीपति-उद्योगपति कम थे, बीसवीं सदी के उस पहले दशक में उन्होंने ‘संपत्तिशास्त्र’ पुस्तक लिखी थी। एक शताब्दी से अधिक का समय बीत चुका है, हिंदी के किसी लेखक, पत्रकार और संपादक ने अर्थशास्त्र पर स्वतंत्र पुस्तक नहीं लिखी है।
द्विवेदी जी ने राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और आधुनिक विज्ञान का अध्ययन किया था। वैज्ञानिक चेतना के प्रचार के लिए ‘सरस्वती’ में उन्होंने विज्ञान संबंधी कई लेख प्रकाशित किए थे। डार्विन और विकासवाद पर कई लेख छापे थे। आज डार्विन और विकासवाद को पाठ्यक्रम से हटाया जा रहा है।
द्विवेदी जी का ‘विकास-सिद्धांत’ शीर्षक लेख अगस्त 1906 की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुआ था। विकासवाद का सिद्धांत उनकी दृष्टि में ‘निर्विवाद’ और ‘प्रत्यक्ष’ है। ज्ञान की विकासमान परंपरा में उनका विश्वास था। विकासवाद पर द्वारिकानाथ मैत्र का एक बड़ा लेख ‘क्रम विकास’ शीर्षक से ‘सरस्वती’ में छपा था। उन्होंने बेंजामिन फ्रैंकलिन पर लिखा, जिन्होंने 1742 में ‘फ्रैंकलिन स्टोव’ का और 1753 में ‘द लाइटिंग रोड’ का आविष्कार किया था। उनका ध्यान ‘औद्योगिक शिक्षा’ पर भी था।
‘भारत में औद्योगिक शिक्षा’ उनका एक निबंध है। उन्होंने ब्रिटिश दार्शनिक, राजनीतिक अर्थशास्त्री जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-1873) के ग्रंथों- ‘ऑन लिबर्टी’(1857), ‘द स्टडी ऑफ सोश्योलॉजी’ (1901) और एजुकेशन ः इंटलेक्चुअल, मोरल एंड फिजिकल’ (1861) की चर्चा भी की थी। कला एवं विज्ञान की उन्नति से संबंधित लेख लिखे थे और ‘सरस्वती’ में ऐसे लेखों का प्रकाशन भी किया था। द्विवेदी जी का ज्ञान अगाध और व्यापक था।
‘सरस्वती’ के पाठकों में उन्होंने वैज्ञानिक चेतना का प्रसार किया। आज हिंदी प्रदेश में योजनाबद्ध ढंग से वैज्ञानिक चेतना के स्थान पर धार्मिक-सांप्रदायिक चेतना को बढ़ावा दिया जा रहा है। हिंदी के साहित्यकार और संपादक वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार पर कम ध्यान दे रहे हैं। आज हमारे लिए पहले की तुलना में महावीर प्रसाद द्विवेदी कहीं अधिक अर्थवान और प्रासंगिक हैं।
(6)बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दो दशकों में कांग्रेस ने किसान प्रश्न को सामने नहीं रखा था। नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में भारत में तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं और लगभग दो करोड़ कृषकों ने खेती-किसानी छोड़ दी है। आज के अधिसंख्य हिंदी लेखकों, पत्रकारों और संपादकों के यहां किसानों के जीवन से जुड़े कम सवाल हैं। हिंदी साहित्य फिलहाल किसान-विमुख है। द्विवेदी जी मुख्यतः राष्ट्रीय आंदोलन के तीसरे चरण (1905-1918) के लेखक हैं। वे जमींदारों के साथ नहीं, किसानों और काश्तकारों के साथ हैं। ‘सरस्वती’ में उन्होंने किसानों के प्रश्नों को सामने रखा और स्वयं भी किसानों की चिंता की, ‘काश्तकार निरन्न होकर मर जाएं, कुछ परवाह नहीं। उनके हल-बैल बिक जाएं, कुछ परवा नहीं। वे देश छोड़कर फीजी, जमाइका और ट्रिनिडाड को चले जाएँ, कुछ परवा नहीं। उन्हें (जमींदारों को) रुपये से काम! प्रजा के प्रतिनिधि बतावें इनके लिए उन्होंने क्या किया?’ स्वाधीन भारत के जन-प्रतिनिधि बताएं कि उन्होंने किसानों के लिए क्या किया?
21वीं सदी में किसानों का नहीं, पूंजीपतियों, उद्योगपतियों और कॉरपोरेटों का भला किया गया है। द्विवेदी जी ने अपने समय में कौंसिलों के किसान प्रतिनिधियों की आलोचना की। आज किसानों के विरोध में सरकार बिल लाती है और किसान संगठन लगभग एक वर्ष तक इस बिल की वापसी के लिए धरना-प्रदर्शन करते हैं। द्विवेदी जी किसानों का संगठन आवश्यक समझते थे। रामविलास शर्म ने लिखा है कि द्विवेदी जी को ‘अवध के कृषि-तंत्र का जैसा प्रत्यक्ष ज्ञान था वैसा ज्ञान रजनी पाम दत्त को नहीं था और न हो सकता था।’ उन्होंने अपने कई लेखों में किसानों से जुड़े कई सवाल किए। कांग्रेस के प्रस्तावों पर टिप्पणी की कि उनके यहां किसानों की कितनी चिंता है। उन्होंने ‘राजतंत्र’को ‘लगान’ से जोड़कर देखा। ‘सम्पत्तिशास्त्र’ में उन्होंने लिखा था कि देश की जमीन राजा और जमींदारों की न होकर प्रजा की है। उन्होंने अपने एक लेख में 70 प्रतिशत किसानों की बात कही है, जिनकी दुर्गति का ज्ञान अन्य को नहीं हो सकता था।
द्विवेदी जी ने बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दो दशकों में अपने लेखन और संपादन से जो युगांतकारी कार्य किए, उनसे आज हिंदी के लेखक-संपादक बहुत कुछ सीख कर, प्रेरित होकर हिंदी समाज को रसातल में जाने से बचा सकते हैं और अपनी सार्थक रचनात्मक भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं।
204, रामेश्वरम साउथ ऑफिस पाड़ा, डोरंडा, रांची-834002 (झारखंड), मो.9431103960
वैभव सिंह |
द्विवेदी जी ने आधुनिक ज्ञान के लिए तर्कपूर्ण हिंदी का निर्माण किया
विशाल हिंदी भाषी इलाके लंबे समय तक सामंतवाद और बुद्धिवाद-विरोधी विचारों से आक्रांत रहे हैं। विवेकवादी आंदोलन के कारण यहां प्रायः विवेकवाद की वैसी प्रतिष्ठा नहीं हो सकी, जैसी देश के अन्य प्रांतों में हुई। मजे की बात यह है कि वर्तमान में बंगाल-महाराष्ट्र कम, हिंदी पट्टी के बुद्धिजीवी ही ‘रेशनल’ चिंतन और प्रबोधन के औपनिवेशिक चरित्र संबंधी चिंता की आड़ में उनके बारे में संदेह पैदा करने वाली बौद्धिकता के प्रचार में सबसे आगे हैं। परिवेश को खुली आंख से देखने वाला जानता है कि हिंदी क्षेत्र में तरह-तरह का जातिवाद, पितृसत्तावादी विचार, सामंती सोच, अंधविश्वास इसकी प्रमुख समस्याएं रही हैं।
ऐसे प्रांत में महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे एक नहीं कई संपादकों और विचारकों की जरूरत रही है। अपनी सामाजिक सजगता तथा लोक समीक्षा के बल पर द्विवेदी जी हिंदी नवजागरण के प्रतीक बने। उन्होंने हिंदी गद्य के निर्माण में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। हिंदी क्षेत्र के पाठकों को एक नया बौद्धिक आकाश दिलाने में उन्होंने अपना तन-मन न्योछावर कर दिया तथा हिंदी को नूतन विषयों, जैसे- अर्थशास्त्र, राजनीति, शिक्षा आदि के लिए भी उपयोगी बनाने पर बल दिया। उन्होंने ब्रजभाषा के वर्चस्व को समाप्त कर आधुनिक खड़ी बोली में गद्य तथा कविता की रचना के लिए वातावरण निर्मित किया। उन्होंने सत्रह साल तक ‘सरस्वती’ का जिस प्रकार संपादन किया, वह संपादकों के आगे एक जीवित आदर्श की तरह है। भाषा के व्याकरण को सुधारा तथा उसके अनगढ़पन को दूर किया।
इसी कारण रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है- ‘यदि द्विवेदी जी न उठ खड़े होते तो जैसी अव्यवस्थित, व्याकरण विरुद्ध और ऊटपटांग भाषा चारों ओर दिखाई पड़ती है, उसकी परंपरा जल्दी न रुकती। उनके प्रभाव से लेखक सावधान हो गए और जिनमें भाषा की समझ और योग्यता थी, उन्होंने अपना सुधार किया। सरस्वती के संपादन के दौरान उन्होंने हल्की, सिफारिशी रचनाओं को नहीं छापा।’ उनके ‘आत्मकथन’ से पता चलता है कि तब उन्हें बनारसी दुपट्टे, बढ़िया घड़ी और पैरगाड़ी आदि का प्रलोभन भी दिया जाता था, पर उन्होंने सरस्वती में किसी की मौसी का मरसिया छापने या किसी प्रभावशाली व्यक्ति की स्पीच छापने आदि का काम नहीं किया। ऐसी ईमानदारी हिंदी पट्टी में दुर्लभ है, क्योंकि यहां बौद्धिक ईमानदारी से अधिक जाति-कुल के सामाजिक प्रभाव और शक्ति को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है।
वर्तमान कालखंड के दृष्टिकोण से द्विवेदी युग, छायावाद तथा प्रेमचंद युग समकालीन प्रतीत होते हैं। लगभग पचीस-तीस साल के कालखंडीय दायरे में उनकी सहवर्ती उपस्थितियां हैं। लेकिन समकालीनता साबित हो जाने भर से यह नहीं कहा जा सकता कि ये तीनों एक ही संवेदना या वैचारिक प्रेरणा के अधीन भी हैं। छायावाद को द्विवेदी युग की प्रतिक्रिया माना गया तथा प्रेमचंद के लेखन को साहित्यिक-सामाजिक जागरूकता का अगला चरण।
बीसवीं सदी के आरंभ में भारतीय समाज में शिक्षा का स्तर इतना बढ़ गया था कि आसानी से कई वैचारिक-साहित्यिक प्रवृत्तियां समानांतर रूप से सक्रिय रह सकती थीं। द्विवेदी युग के सामाजिक आदर्शों में एक नवीन समाज के प्रति जागरूकता थी, पर वे आदर्श अभी मानव मन की स्वच्छंदता और मुक्ति से दूर थे।
द्विवेदी जी ने भाषा, साहित्य, ज्ञान, शिक्षा आदि के बारे में एक खुली दृष्टि का परिचय दिया, पर उनकी खुली दृष्टि भी सूक्ष्म मनोभावों तथा जटिल मानवीय अंतःकरण को स्वीकार नहीं कर पाती थी। इसी कमी को दूर करने के लिए काव्य के क्षेत्र में छायावाद तथा गद्य खासतौर पर उपन्यास-कला के क्षेत्र में प्रेमचंद का आगमन हुआ। यह भी सच है कि द्विवेदी जी ने अपने समय के ज्वलंत सामाजिक प्रश्नों पर लेखन किया। इससे जो बौद्धिक प्रभामंडल तैयार हुआ, उसका असर हमें छायावाद और प्रेमचंद पर दिखता है।
रामविलास शर्मा तो मानते हैं कि छायावाद में जो भी प्रगतिशील चीजें हैं, वे द्विवेदी युगीन साहित्य की देन हैं। उनका यह भी मानना है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘संपत्तिशास्त्र’ नामक ग्रंथ की रचना में जिस प्रकार से किसानों और मजदूरों को केंद्र में रखकर भारतीय राजनीति और अर्थशास्त्र की आलोचना की है, वही आगे चलकर प्रेमचंद के साहित्य रचना के लिए प्रेरक बनी। उन्हीं के शब्दों में- ‘गांवों की जिस बदहाली का चित्रण द्विवेदी जी ने संपत्तिशास्त्र में किया है, वह सब प्रेमचंद के कथा-साहित्य की पृष्ठभूमि है।’
नामवर सिंह ने द्विवेदी जी के संदर्भ में लिखा है कि उस दौर के सभी लेखक एक तरह से लोक समीक्षक थे तथा हिंदी गद्य सार्वजनिक जीवन की व्यापक हलचल से ओतप्रोत और अनुप्राणित था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि छायावादी लेखकों की रचनाएं और प्रेमचंद केवल द्विवेदी जी की परंपरा को आगे बढ़ा रहे थे। वे मर्यादा, स्वच्छंदता, समाज-व्यवस्था, मानवतावाद आदि विषयों पर अपने ढंग से लेखन कर रहे थे। प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ (1914) पर द्विवेदी युगीन वर्णनशैली का प्रभाव दिखता है, पर उनकी बाद की कहानियां पूरी तरह से उनकी मौलिक शैली की उपज प्रतीत होती हैं। इस प्रकार तीनों साहित्यिक प्रवृत्तियों में (द्विवेदी युग, छायावाद और प्रेमचंद साहित्य) में हमें विचारों की जुड़ी हुई कड़ियां दिखती हैं, साथ ही इनमें हमें अपनी-अपनी मौलिकता भी दृष्टिगत होती है।
द्विवेदी युग के समय हिंदी क्षेत्र में कोई खास वैचारिक हलचल नहीं दिखती है, केवल आर्य समाज के प्रभाव के कारण थोड़ा पढ़े-लिखे लोगों में धर्म के प्रति किंचित आलोचनात्मक दृष्टि पैदा होती दिखती है। विश्वविद्यालयों तथा कालेजों की दशा भी ठीक न थी। इन्हीं परिस्थितियों के मध्य ‘सरस्वती’ में द्विवेदी जी ने प्राचीन हिंदू ग्रंथों का परिचय प्रस्तुत किया, ताकि देशवासियों को पुरानी संस्कृति का ज्ञान दिया जा सके। वे पुरानी संस्कृति के बारे में सकारात्मक रहते हुए नई चेतना का विकास करने का प्रयत्न करते हैं। उन्हीं के माध्यम से स्त्री शिक्षा जैसे विषयों पर बल दिया गया।
उन्होंने 1920 में ‘वैदिक रचना करने वाली स्त्रियां’ लेख लिखकर स्त्रियों के वैदुष्य को उभारा। ‘पढ़े-लिखों का पांडित्य’ नामक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने दो टूक शब्दों में लिखा था कि संस्कृत न बोल सकने के कारण स्त्रियों को अनपढ़ नहीं माना जा सकता। इस देश में प्राकृत बोलने वाली स्त्रियों की बड़ी संख्या थी। प्राकृत अपने में बड़ी भाषा थी और उसमें गाथा सप्तशती, सेतुबंध महाकाव्य और कुमारपालचरित जैसे ग्रंथ रचे गए। यानी पुराने संस्कृत नाटकों के आधार पर यह दावा तर्कसंगत न था कि स्त्री शिक्षा पर पहले बल न दिया जाता था और वर्तमान में भी नहीं देना चाहिए।
सामाजिक जीवन में धर्म के अधिक प्रचार, उग्र शास्त्रार्थ आदि का उन्होंने पक्ष नहीं लिया। जो शास्त्र-पुराण के नाम पर तरह-तरह का धर्मध्वजाधारी घूमते फिरते थे, उनकी कटु आलोचनाएं की हैं। अपने 1918 के एक लेख ‘धर्म्मान्ध्य’ में उन्होंने ऐसे आक्रामक धर्मोपदेशों के समुदाय की निंदा करते हुए लिखा था- ‘इन धर्मध्वजियों के मुकाबले में तो हम ब्रह्मसमाज और राधास्वामी संप्रदाय के अनुयायियों को ही भला कहेंगे। वे मर्मभेदी भाषण तो नहीं करते, कुत्सा और कदर्थना से तो दूर रहते हैं, शास्त्रार्थ के लिए लोगों को ललकारते तो नहीं फिरते, अपने सिद्धांतों के अनुसार जिसे धर्म समझते हैं उसका चुपचाप अनुष्ठान तो करते हैं।’ उन्होंने ही हीरा डोम की पहली कविता ‘अछूत की शिकायत’ (1914) को प्रकाशित किया, जिसमें दलित दृष्टि से वर्ण-जाति व्यवस्था की कटु आलोचना थी, साथ ही साहित्य की भावभूमि के विकास की प्रक्रिया में लोक छवियों और लोकरूपों की अभिव्यक्ति भी थी।
महावीर प्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक दृष्टिकोण दो प्रमुख चीजों से मिलकर बना था। उन्होंने ब्रज आधारित रीतिवाद को समाप्त कर आधुनिक खड़ी बोली साहित्य का रास्ता प्रशस्त किया, दूसरी ओर उन्होंने भारत में साहित्य-शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान के विकास की जो लहर चल रही थी, उसमें अपना योगदान दिया।
‘सरस्वती’ में उन्होंने एक ओर वैज्ञानिकों की उपलब्धियों के बारे में परिचय दिया तो दूसरी ओर पुस्तकालयों, कोशों, कलापरिषदों, स्कूलों आदि के बारे में अपनी विचारपूर्ण टिप्पणियां दर्ज की हैं। हिंदी प्रदेशों में पुस्तकालयों से प्रेम करना तथा वहां नियमित जाने को अपनी दिनचर्या में शामिल करना महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है। पुस्तकालय संस्कृति के उचित विकास के अभाव ने हिंदी भाषा से जुड़ी प्रतिभाओं को भारी क्षति पहुंचाई है। पुस्तकालयों के बारे में जागरूकता और उनके प्रति सम्मान का ठीक ठीक विकास ही न हो सका। इसी समस्या को भांपकर द्विवेदी जी ने पुस्तकालयों के प्रति प्रेम को बढ़ाने का प्रयास किया।
उन्होंने ‘संसार के कुछ पुराने पुस्तकालय’ नामक लेख (मई 1917) लिखा था और उसमें मेसोपटामिया, असीरिया और अलेक्जेंड्रिया के प्राचीन पुस्तकालयों के साथ-साथ लंदन, बर्लिन, पेरिस आदि में दुनिया भर के प्रसिद्ध पुस्तकालयों की चर्चा की। पटना की खुदाबख्श लाइब्रेरी के महत्व पर भी वे इससे तीन साल पहले एक लेख प्रकाशित कर चुके थे। इसका तात्पर्य यह है कि द्विवेदी जी के दृष्टिकोण में साहित्य संसार भर के ज्ञान से अलग कोई रहस्यवादी-रीतिवादी दरबारी चीज नहीं था, बल्कि वह ज्ञान की ही एक कलात्मक शाखा था। वह ज्ञानकांड से जुड़ा था, न कि केवल एकांत की तपस्या-साधना अथवा मात्र काव्यशास्त्रीय परंपराओं से।
इसी दृष्टिकोण से उन्होंने दरबारी साहित्य का भी खंडन किया था, जिसमें नायिका-भेद, अलंकारशास्त्र तथा नीरस आडंबरों की भरमार थी। उन्होंने रीतिवादी साहित्य का विरोध केवल इसलिए नहीं किया, क्योंकि उसमें शृंगार रस की भरमार थी, बल्कि इसलिए किया, क्योंकि उसमें विषयवस्तु और सामाजिकता का आधार नितांत संकुचित था। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साहित्य को प्रतिष्ठित करने के लिए हिंदी को जैसा आधुनिक तर्कपूर्ण गद्य चाहिए था, उसके लिए भी उन्होंने सरस्वती के माध्यम से सफल प्रयास किया। ‘सरस्वती’ को ब्रज भाषा के रीतिवादी साहित्य का विरोध करने वाली पत्रिका के रूप में ही देखा जाता था। इसके माध्यम से खड़ीबोली को जैसी प्रतिष्ठा और स्वीकृति प्राप्ति हुई उसके बगैर न तो छायावाद का साहित्य प्रगति कर सकता था, न प्रेमचंद के साहित्य को पढ़ने वाला पाठक वर्ग तैयार हो सकता था।
सरस्वती अपने समय में ज्ञान और वैज्ञानिक विचारधारा के विकास की प्रमुख पत्रिका थी। इस पत्रिका ने एक ओर महत्वपूर्ण लेखक, जैसे मैथिलीशरण गुप्त, काशीप्रसाद जायसवाल, कामताप्रसाद गुरु, रामचंद्र शुक्ल और प्रेमचंद आदि की रचनाओं को छापकर उन्हें पाठकों के बीच लोकप्रिय बनाया तो दूसरी ओर इसने तेजस्वी संपादक हिंदी जगत को प्रदान किए, जिन्होंने हिंदी में ज्ञान-विज्ञान के विकास की परंपरा को आगे बढ़ाया। इनमें ‘आज’ पत्रिका के संपादक बाबूराव विष्णु पराड़कर तथा ‘प्रताप’ के संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी प्रमुख थे।
बाबूराव विष्णु पराड़कर ने माना है कि जब उन्होंने 1906 ईसवी में पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा था तब वे ‘सरस्वती’ पत्रिका का नियमित अध्ययन करते थे। इसी प्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी तो स्वयं सरस्वती में सहायक संपादक थे और उन्होंने हिंदी गद्य लेखन का जो संस्कार सरस्वती के माध्यम से प्राप्त किया, उसी का प्रयोग उन्होंने स्वाधीनता संग्राम के लिए एक तपी-तपाई राजनीतिक भाषा के विकास के लिए किया।
द्विवेदी जी के संपादन के दौरान विज्ञान और वैज्ञानिकों के बारे में चर्चा करना ‘सरस्वती’ का प्रमुख उद्देश्य था। द्विवेदी जी स्वयं तो धार्मिक किस्म के व्यक्ति थे, पर वे मूर्तिपूजा और कर्मकांड से अधिक जीवन में नीति-सदाचार को धर्म मानते थे। स्वाध्याय के गुण से जन्मी धर्म की उदारतावादी चेतना के कारण नए ज्ञान-विज्ञान को आसानी से स्वीकार कर लेते थे। उन्होंने ‘सरस्वती’ में भौतिकतावाद और विकासवाद के पक्ष में कई लेख प्रकाशित किए और साथ ही कुछ लेख पुनर्जन्म या अवतारवाद जैसी पुरानी मान्यताओं के विरोध में प्रकाशित हुए थे। औपनिवेशिकता के जटिल संदर्भों के बीच उनका विज्ञान प्रेम एक ओर विज्ञान के प्रति शुद्ध लगाव से प्रेरित था, तो दूसरी ओर वे भारतीय विज्ञान की उपलब्धियों को अंग्रेजी उपनिवेशवाद का विरोध करने के लिए भी इस्तेमाल करते थे।
उन्होंने वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बोस पर सरस्वती में लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था- ‘विज्ञानाचार्य वसु का विज्ञान मंदिर’। इसमें उन्होंने इस बात पर रोष प्रकट किया था कि विदेशियों ने विज्ञान के ज्ञान को भी विक्रय की वस्तु बना डाला तथा अपने मस्तिष्क से निकले खटमल मारने के यंत्र की भी कीमत वसूलते हैं। जबकि भारत में ज्ञान को बेचने या उसके बदले लाभार्जन की परंपरा न थी। इसी प्रकार द्विवेदी जी ने सरस्वती में रवींद्रनाथ ठाकुर को साहित्य के क्षेत्र में नोबल सम्मान मिलने की टिप्पणी ‘कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर को एक लाख बीस हजार का इनाम’ प्रकाशित की थी, पर उसमें भी उन्होंने विश्वभर में फैले औपनिवेशिक दुश्चक्र में पिसते भारतीयों की दशा के बारे में चिंता प्रकट की थी। एक ओर विश्व भर में एक भारतीय का यूरोप तक सम्मान और दूसरी ओर आम भारतीयों के साथ होने वाले भेदभाव और हिंसा। इस अंतर्विरोध को उन्होंने रोषपूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान की।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने रवींद्रनाथ की उपलब्धि पर गर्व प्रकट किया, साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि- ‘इन्हीं लोकोत्तर कवि और अद्वितीय साहित्य सेवी रवींद्रनाथ के देशबंधु कनाडा में धंसने नहीं पाते और पशुवत तुच्छ समझे जाकर नटाल और ट्रांसवाल के जेलों में ठूंसे और हंटरों से पीटे जा रहे हैं।’ इसी प्रकार द्विवेदी जी का ज्ञान-विज्ञान, कला व साहित्य जैसे सभी विषयों से प्रेम किसी तटस्थ अध्यवसायी वाला प्रेम न था। वे कोरे ज्ञानपिपासु भर न थे। बल्कि वे ज्ञान की राजनीति को समझते थे तथा ज्ञान-विज्ञान से संबंधित विषयों को भी औपनिवेशिकता की आलोचना विकसित करने तथा नवजागरण के मूल्यों का प्रचार करने के लिए करते थे।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के पृष्ठों पर गुलामों, मजदूरों और किसानों के बारे में लेख, टिप्पणियां एवं कविताएं प्रकाशित की थीं। उन्होंने ही पहली बार किसानों को भारतीय समाज के ‘भिन्न समुदाय’ के रूप में स्वीकार कर सरस्वती में उनकी समस्याओं पर विस्तार से विचार करने के लिए अवसर उपलब्ध कराए थे। वे मानते थे कि देश में सर्वाधिक सत्तर फीसदी आबादी किसानों की ही है, पर न तो सरकार और न ही कांग्रेस से जुड़े लोग किसानों की समस्याओं पर ध्यान देने के लिए तैयार हैं।
‘देश की बात’ नामक लेख उन्होंने जनवरी 1914 में सरस्वती में लिखा था, जब गांधी जी अभी सक्रिय न हुए थे तथा उनके द्वारा किसानों को कांग्रेस के आंदोलन से जोड़ा जाना अभी बाकी था। तभी वे यह स्पष्ट बता रहे थे कि देशभक्ति की धारणा क्या होती है तथा देशभक्ति की धारणा में किसानों के बारे में चिंतन को भी शामिल किया जाना चाहिए। आगे चलकर नेहरू ने बताया था कि भारतमाता का अर्थ होता है भारत में रहने वाले आम लोग, भारत के करोड़ों बेटे-बेटियां, उनके सुख-दुख और संघर्ष। पर इसके कई साल पहले ही द्विवेदी जी ‘देश की बात’ नामक लेख में लिख चुके थे- ‘नगर-कस्बे, गांव, पेड़, पहाड़, जंगल, नदियां, तालाब, मकान, मंदिर, मस्जिद आदि का समूह ही देश नहीं। ये सब देश के अंतर्गत हैं अवश्य, पर देश के साथ जिस भक्ति का ग्रंथिबंधन हुआ है, उस भक्ति का संबंध एकमात्र इन्हीं से नहीं है। इस भक्ति और इस हित का संबंध देश में रहने वालों से है। पेड़, पहाड़. नगर, कस्बे आदि से नहीं।’
वे आगे बताते हैं कि चूंकि देश में सर्वाधिक सत्तर फीसदी किसान हैं, इसलिए किसान की दुर्दशा पर विचार करना देशभक्ति का अनिवार्य अंग है। उन्होंने तॉल्सतॉय के चरित्र पर जब सरस्वती में एक संक्षिप्त टिप्पणी 1907 में लिखी थी तो उसमें भी ‘देहाती किसानों की तरह रहने’ के उनके गुण का विशेष उल्लेख किया था। भारत में किसानों की समस्या पर विचार करते हुए वे औपनिवेशिक सरकारों की भी तल्ख आलोचना विकसित कर रहे थे।
किसानों के अभावग्रस्त जीवन के साथ-साथ वे भारत में कृषि के व्यापक संकट और धरती के अनुपजाऊपन की चुनौतियों का भी उल्लेख कर रहे थे। ‘देश की बात’ नामक लेख से लगभग सात साल पहले वे 1907 में भी ‘संपत्ति का वितरण’ नामक टिप्पणी में यह बता चुके थे कि अब गवर्नमेंट ही गोया जमींदार में बदल गई है और एक ओर तो किसानों का घर, द्वार, बैल, बधिया बिकते जा रहे हैं, तो दूसरी ओर उसका खजाना बढ़ता जा रहा है। इसी लेख में उन्होंने कृषि में अनुर्वरता का भी जिक्र कर इसे भी कृषकों के शोषण के साथ जोड़कर देखा था। उन्होंने बताया था कि किसान अपनी जमीन को उपजाऊ बनाने का प्रयास नहीं करता, जिससे अन्न की कमी बनी रहती है। किसान इसलिए मजबूरन ऐसा करता है, क्योंकि उपज बढ़ने पर लगान भी बढ़ा दिया जाता है तथा किसानों को कोई लाभ नहीं होता है। यानी अधिक उपज के बावजूद किसान की यदि गरीबी नहीं मिटती को वह कृषि भी पूरे मन से नहीं कर पाता है।
भारतीय समाज में महाजन-सूदखोर, जमींदार और अंग्रेजी राज का बड़ा जटिल गठबंधन कायम हो गया था जो किसानों के शोषण के बल पर अपनी शक्ति में वृद्धि करता था। द्विवेदी जी ने अपने लेखों, टिप्पणियों तथा संपत्तिशास्त्र नामक पुस्तक में इन तीनों वर्गों के समाजविरोधी चरित्र का पर्दाफाश किया है। जिस जमींदार व्यवस्था का अंत स्वतंत्रता प्राप्त के बाद होना था, उसके पक्ष में कई दशक पहले ही द्विवेदी जैसे लेखक अपनी साहित्यिक पत्रकारिता के माध्यम से चेतना उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने अंग्रेजी राज में कृषियोग्य भूमि के स्वामित्व की समस्या पर प्रकाश डाला तथा ‘संपत्तिशास्त्र’ पुस्तक में स्पष्ट रूप से लिखा- ‘प्रजा के हितचिंतकों की राय है कि इस देश की जमीन प्रजा की है। न राजा की है, न जमींदार की। जो जमीन जिस काश्तकार के कब्जे में चली आती है, उसे उसकी मौरूसी जायदाद समझना चाहिए।’
403, सुमित टॉवर, ओेक्स हाइट्स, सेक्टर-86, फरीदाबाद, हरियाणा-121002 मो.9711312374
अमरनाथ |
‘सरस्वती’ का उदार और जनतांत्रिक दृष्टिकोण भविष्य का पाथेय बना
(1) महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी नवजागरण के प्रमुख स्तंभ हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी नवजागरण का तीसरा चरण ‘द्विवेदी युग’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने साहित्य को ‘ज्ञानराशि का संचित कोश’ कहा है। भाषा के परिमार्जन से लेकर कवियों को प्रशिक्षण देने तक का ऐतिहासिक कार्य एक साहित्यिक पत्रिका कैसे कर सकती है यह उनके संपादन में निकलने वाली ‘सरस्वती’ से समझा जा सकता है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘संपत्तिशास्त्र’ में ब्रिटिश शासन-नीति का खुलकर विरोध किया। खड़ीबोली हिंदी को परिमार्जित करके उसे कविता की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने कहा कि हिंदी के कवियों का कर्तव्य है कि वे लोगों की रुचि को ध्यान में रखकर अपनी कविताएं ऐसी सहज और मनोहर रचें कि साधारण पढ़े-लिखे लोगों में भी पुरानी कविताओं के साथ-साथ नई कविताएं पढ़ने का अनुराग उत्पन्न हो जाए।
(2) कुछ लोग मानते हैं कि छायावाद, द्विवेदी युग की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ आंदोलन है। मैं इससे सहमत नहीं हूँ। दरअसल छायावाद, द्विवेदी युग का ही विकास है। छायावाद की पृष्ठभूमि द्विवेदी युग में ही तैयार हुई थी। छायावादी कविता में जो राष्ट्रीय चेतना दिखाई देती है उसकी पृष्ठभूमि 1857 के आंदोलन से ही तैयार होने लगी थी और द्विवेदी युग में पुष्ट हुई। ‘संपत्तिशास्त्र’ में ही नहीं, ‘सरस्वती’ में भी समय-समय पर आचार्य द्विवेदी ने अंग्रेजी राज की नीतियों की तीखी आलोचना की है। द्विवेदी युग में हिंदी भाषा के परिमार्जन का जो काम हुआ उससे छायावाद की काव्य-भाषा को ताकत मिली। नारी के प्रति छायावाद का जो नवीन दृष्टिकोण है उसकी पृष्ठभूमि भी द्विवेदी युग में ही तैयार हुई।
छायावाद से द्विवेदी जी के संबंध का अनुमान छायावाद के प्रतिनिधि कवि निराला के उस शब्द-चित्र से किया जा सकता है जिसे उन्होंने ‘सुधा’ के जुलाई 1933 के अंक में लिखा था। दरअसल 1933 में हिंदी साहित्य सम्मेलन तथा इंडियन प्रेस के सहयोग से इलाहाबाद में द्विवेदी मेला का आयोजन हुआ था। इस सम्मेलन में देश भर से बड़ी संख्या में लेखक शामिल हुए थे। निराला ने ‘आचार्य अमर रहे’ शीर्षक से इस सम्मेलन पर जो टिप्पणी की थी, उसका अंश है, ‘उस दिन उनका प्रयाग में कैसा अभूतपूर्व स्वागत हुआ था। देश के कोने- कोने से राष्ट्रभाषा के पुजारी, अपने इष्टदेव के चरणों में श्रद्धा के स्नेहमय फूल चढ़ाने के लिए, उनकी एक झलक से अपने जीवन को सफल बनाने के लिए उमड़ पड़े थे… सहस्रों साहित्यसेवियों के बीच में वह भोले-भाले दंभहीन, विनयशील महापुरुष हीरे की तरह चमक रहे थे। वह हिंदी भाषा के प्रकांड पंडित हैं। हिंदी भाषा के सर्वश्रेष्ठ संपादक, समालोचक और लेखक हैं। हिंदी भाषा कैसे लिखी जाती है, यह उन्होंने लिखकर दिखा दिया। पत्र का संपादन कैसे किया जाता है यह उन्होंने स्वयं संपादन करके बता दिया, समालोचना क्या वस्तु है, यह उन्होंने अपनी समालोचनाओं द्वारा व्यक्त कर दिया।
वह आधुनिक हिंदी के निर्माता हैं। विधाता हैं। सर्वस्व हैं। वह राष्ट्रभाषा हिंदी के मूर्तिमान स्वरूप हैं। उन्हें लोग आचार्य कहते हैं। वह सचमुच आचार्य हैं… वह तो अपने को राष्ट्रभाषा का विनम्र सेवक बतलाते हैं, राष्ट्रभाषा उन्हें अपना निर्माता कहकर पुकारती है…. हम दोनों ही के उपासक हैं। राष्ट्रभाषा हमें प्राणों से भी प्यारी है, आचार्य भी हमें उतने ही प्रिय हैं।’ उल्लेखनीय है, आचार्य द्विवेदी ने निराला की मशहूर कविता ‘जूही की कली’ को ‘सरस्वती’ में छापने से मना कर दिया था।
प्रेमचंद के कथा साहित्य में किसानों के प्रति जिस आत्मीयतापूर्ण चित्रण के दृश्य अंकित हैं उसका संबंध द्विवेदी जी के ‘संपत्तिशास्त्र’ से है।
1933 में प्रेमचंद ने द्विवेदी जी पर ‘हंस’ का दो अंकों में विशेषांक निकाला। 1933 के अप्रैल अंक के संपादकीय में प्रेमचंद लिखते हैं, ‘आज हम जो कुछ भी हैं, उन्हीं के बनाए हुए हैं। यदि पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी न होते तो बेचारी हिंदी कोसों पीछे होती-समुन्नति की इस सीमा तक आने का इसे अवसर ही न मिलता। उन्होंने हमारे लिए पथ भी बनाया और पथ-प्रदर्शक का भी काम किया।’
मई, 1933 के संपादकीय में प्रेमचंद ने लिखा, ‘द्विवेदी जी का जीवन, साहित्य, साधना और तप का जीवन है…. सरस्वती की फाइल उठाकर द्विवेदी जी की संपादकीय टिप्पणियां देखिए, विविध ज्ञान का भंडार हैं। ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर द्विवेदी जी ने न लिखा हो। गहरे से गहरे तात्विक विवेचन और साधारण से साधारण दंतकथाएं तक आपको उनमें मिलेंगी, और आप उस व्यक्ति के ज्ञान-विस्तार पर चकित हो जाएंगे। और यह काम किसी विद्या और ज्ञान के केंद्र में बैठकर नहीं, एक गांव की एकांत कुटिया में होता था, साहित्य की वह छटा उसी कुटिया से निकलकर, हिंदी संसार को आलोकित कर देती थी।’
निराला और प्रेमचंद के उक्त उद्धरण द्विवेदी जी से उनके संबंध को उजागर करने के लिए पर्याप्त हैं।
(3) हिंदी समाज जाति और वर्ण के बंधन में जकड़ा हुआ था। गरीबी और बदहाली चरम पर थी। भारत गुलाम था ही। किसानों की दशा बेहद दयनीय थी। इने-गिने लोग ही शिक्षित हो पाते थे। ‘संपत्तिशास्त्र’ में उन्होंने अंग्रेजों की दुर्नीतियों की कलई खोलकर रख दी है। इतना ही नहीं, अपनी ‘सरस्वती’ में ही सबसे पहले द्विवेदी जी ने 1914 में पटना के हीरा डोम की भोजपुरी कविता ‘अछूत की शिकायत’ प्रकाशित की थी। कविता व्यंग्य के स्वर में हैं, ‘हमनी के रातदिन दुखवा भोगत बानीं / हमनी के सहेबे से बिनती सुनाइबि हमनी के दुख भगवनओ न देख ता जे/हमनीके कबले कलेसवा उठाइबि’
हिंदी दलित कविता में संभवत: यह प्राचीनतम हो। इससे द्विवेदी जी के उदार और जनतांत्रिक दृटिकोण का अनुमान किया जा सकता है।
आचार्य द्विवेदी ने भारत में अंग्रेजी राज की दशा, भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की समस्या, भारतीय भाषाओं के बीच संपर्क भाषा की समस्या, हिंदी-उर्दू संबंध, हिंदी तथा जनजातीय भाषाओं के संबंध आदि पर विस्तार से विचार किया है। ये सभी उस समय की ज्वलंत समस्याएं थीं।
(4) सैद्धांतिक दृष्टि से द्विवेदी जी रसवादी आलोचक माने जाएंगे, किंतु उनका रसवाद लोकहित की भावना से मर्यादित है। रसवाद की यही परंपरा आगे चलकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल में अपनी पराकाष्ठा तक पहुंच गई है। उनकी आलोचना शैली सैद्धांतिक है और व्यावहारिक भी। ‘रसज्ञ रंजन’ और ‘नाट्यशास्त्र’ जैसी कृतियों में उनकी सैद्धांतिक आलोचना देखी जा सकती है। द्विवेदी जी के ठीक पहले जब कविता का विषय सीमित हुआ करता था, राजे-महाराजे उसके विषय होते थे, वह शृंगार और कलात्मकता के भीतर सिमटकर रह गई थी, आचार्य द्विवेदी ने घोषित किया कि चींटी से लेकर हाथी तक और भिक्षुक से लेकर राजा तक कविता का विषय बन सकता है। उनका कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता शीर्षक लेख पढ़कर ही मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ जैसा महाकाव्य लिखा। गुप्त जी उन्हें अपना गुरु मानते थे। उन्होंने कहा भी है, ‘करते तुलसीदास भी कैसे मानस नाद/ महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद।’
द्विवेदी जी की दृष्टि लोकोन्मुखी है। ‘कविता का भविष्य’ नामक अपने एक महत्वपूर्ण निबंध में उन्होंने कहा है, ‘भविष्य का लक्ष्य इधर ही होगा। अभी तक वह मिट्टी में सने हुए किसानों और कारखाने से निकले हुए मैले मजदूरों को अपने काव्यों का नायक बनाना नहीं चाहता था। वह राज-स्तुति, वीर-गाथा, अथवा प्रकृति-वर्णन में ही लीन रहता था, परंतु अब वह क्षुद्रों की भी महत्ता देखेगा और तभी जगत का रहस्य सबको विदित होगा। जगत का रहस्य क्या है? इस पर एक ने कहा है कि असाधारणता में यह रहस्य नहीं है। जो साधारण है, वही रहस्यमय है, वही अनंत सौंदर्य से युक्त है। इसी सौंदर्य को स्पष्ट कर देना भविष्य के कवियों का काम होगा।’
हिंदी आलोचना को द्विवेदी जी ने नया रूप दिया है। साहित्य से रूढ़िवाद को हटाने के लिए उन्होंने रीतिविरोधी अभियान चलाया। उन्होंने भक्त कवियों और नायिकाभेद लिखने वाले रीतिवादी कवियों को एक दूसरे से अलग किया। उनके अनुसार सूर और तुलसी के साथ देव और मतिराम का नाम लिखना भी अनुचित है।
‘भारत भारती’ की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘यह सोते हुए को जगाने वाला, भूले हुए को ठीक राह पर लाने वाला, निरुद्योगियों को उद्योगशील बनाने वाला, आत्म-विस्मृतों को पूर्व-स्मृति दिलाने वाला, निरुत्साहितों को उत्साहित करने वाला तथा उदासीनों के हृदय में उत्तेजना उत्पन्न करने वाला है।’
(5)‘सरस्वती’ पत्रिका का संपादक बनने के बाद द्विवेदी जी ने अपने लिए चार सिद्धांत बनाए और जीवन भर उसपर कायम रहे। वे चार सिद्धांत हैं- वक्त की पाबंदी, रिश्वत से परहेज, ईमानदारी से कार्य और ज्ञान वृद्धि हेतु सतत प्रयास। जनवरी 1903 से दिसंबर 1920 तक उन्होंने ‘सरस्वती’ का संपादन किया। उन्होंने साहित्य के क्षेत्र को व्यापक बनाते हुए ‘सरस्वती’ में कला, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र आदि सभी विषयों को समेटा। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की विद्रूपताओं को उजागर करते हुए उन्होंने नस्लवाद, दास-प्रथा जैसी वैश्विक समस्याओं की कड़ी आलोचना की है। मार्च 1908 की ‘सरस्वती’ में उन्होंने ‘गुलामों का व्यापार’ शीर्षक लेख लिखा, जिसमें वे लिखते हैं, ‘ईश्वर की दृष्टि में सब मनुष्य- काले और गोरे समान और स्वतंत्र हैं। तथापि अमेरिकन लोगों ने लगभग सौ वर्ष तक नीग्रो जाति के काले मनुष्यों की स्वाधीनता कबूल न की। वे लोग नीग्रो जाति के लोगों को मनुष्य के बदले अपना माल समझते थे।’
(6) द्विवेदी जी किसानों की समस्या को लेकर हमेशा चिंतित रहते थे। अपने निबंध ‘कविता का भविष्य’, जो 1920 में छपा था, उन्होंने कविता के भविष्य को किसानों और मजदूरों की ओर ही संकेत किया था। 1934 में वे अपनी ‘सरस्वती’ में ‘देश की भक्ति’ शीर्षक से टिप्पणी करते हैं, ‘हर साल जो यह कांग्रेस होती है उसने आज तक किसानों पर अपनी कितनी भक्ति प्रकट की है? उसके किए हुए प्रस्तावों में कितने प्रस्ताव ऐसे हैं जिनसे किसानों को लाभ पहुंचने की संभावना है।’
वे खेती की भूमि की उर्वरा-शक्ति की सीमा का अतिक्रमण करने के पक्ष में नहीं थे। निस्संदेह किसानों की समस्याएं द्विवेदी जी की प्रमुख चिंताओं में शामिल थी।
ई ई, 164/402, सेक्टर-2, सार्टलेक सिटी, कोलकाता-700091 मो.9433009898/ ई-मेल :amarnath&cu@gmail&com
विनोद तिवारी |
हिंदी के हित का अभिमान वह
हिंदी प्रदेश में भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके सहयोगी रचनाकारों ने जो नवजागरणकालीन चेतना और वातावरण तैयार किया, उस हिंदी नवजागरण की साम्राज्यवाद-विरोधी जातीय सांस्कृतिक-चेतना के निर्माण में महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान अन्यतम है। वे कवि, समालोचक, अनुवादक, निबंधकार, भाषाविद के साथ-साथ अर्थशास्त्र, विज्ञान, इतिहास, पुरातत्व, खगोलशास्त्र, धर्मशास्त्र आदि में गहरी रुचि रखने वाले गहन-गंभीर अध्येता थे। स्वाध्याय से उन्होंने बहुत कुछ सीखा था। संस्कृत, हिंदी, उर्दू, मराठी, बांग्ला, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं से उनका संवाद था। बहुविध ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन और अनुभव के द्वारा आचार्य द्विवेदी ने हिंदी भाषा और साहित्य को एक आधुनिक अनुशासन दिया। हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति उनकी चिंता और उसको सक्षम बनाने के लिए उनकी जो मेहनत, लगन और तैयारी दिखती है वह प्रशंसनीय है।
आचार्य द्विवेदी का जीवन स्वावलंबन और स्वाभिमान का जीवन था। न दैन्यं न पलायनम् उनके जीवन का सिद्धांत वाक्य था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म 9 मई 1864 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के दौलतपुर गांव में हुआ था। बिंदकी रेलवे स्टेशन से उतरकर गंगा पार करके उनके गांव दौलतपुर जाना होता था। इनके पिता का नाम रामसहाय द्विवेदी था। द्विवेदी जी के पिता ईस्ट इंडिया कंपनी की एक पलटन में सिपाही थे। उनका वेतन दस रुपये प्रति माह था।
द्विवेदी जी ने उल्लेख किया है की 1857 के ग़दर में पिता जी की पलटन बागी हो गई। पलटन उस समय होशियारपुर में थी। अंग्रेज सेना ने अधिकांश सिपाहियों को तोपों से बांध कर उड़ा दिया, जो बच निकले वे बच गए। उनके पिता भी वहां से बच निकले। उन्होंने सतलज की वेगवती धारा में अपने को अर्पित कर दिया। दो दिन बाद बेहोशी की हालत में सैकड़ों कोस दूर आगे की तरफ कहीं वे किनारे लगे। होश आने पर किसी तरह अपने को जिंदा रखा। साधु वेश में कई महीने बाद वे घर आए। घर पर कुछ दिन रहकर, वे घर से उसी वेश में निकल पड़े। इधर-उधर भटकते हुए वे कुछ दिनों के बाद बंबई पहुंच गए और बल्ल्भ संप्रदाय के एक गोस्वामी जी के यहां नौकर हो गए।
महावीर प्रसाद द्विवेदी मैट्रिक तक ही पढ़ पाए थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव के ही मदरसे में हुई थी। मदरसे में वे उर्दू और घर पर संस्कृत पढ़ते थे। बाद में उन्होंने रेलवे की नौकरी की। रेलवे में रहते हुए ही झांसी से उन्होंने सरस्वती का संपादन जनवरी 1903 ईस्वी में शुरू किया, परंतु एक साल के अंदर ही अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए रेलवे की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और रेलवे की नौकरी छोड़कर महज 23 रुपये की (20 रुपये वेतन और 3 रुपये डाकखर्च) ‘सरस्वती’ संपादक की नौकरी स्वीकार की और झांसी छोड़कर जूही (कानपुर) में अपने दोस्त बाबू सीताराम के यहां आकर रहने लगे। अब जूही ही उस समय के साहित्य के शास्ता का स्थायी निवास हो गया।
‘सरस्वती’ और महावीर प्रसाद द्विवेदी दोनों एक दूसरे के पर्याय हो गए थे। भारतेंदु जिस हिंदी को ‘नई चाल में ढलने लायक’ बनाना चाहते थे उसे आचार्य द्विवेदी ने अनथक प्रयत्न के द्वारा संभव और सक्षम किया। साहित्य, समाज, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, धर्म, दर्शन, विज्ञान इन सभी विषयों पर ख़ुद लिखा, अनुवाद किया और लोगों से भी लिखवाया। ‘सरस्वती’ इसका सबल प्रमाण है। सही मायने में वे हिंदी को आधुनिक बनाने वाले पहले ‘युग निर्माता’ आचार्य हैं। उन्हें ‘आचार्य’ की पदवी ठीक ही दी गई है।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जिस तरह समय की जरूरत के अनुसार हिंदी को ज्ञान-विज्ञान से युक्त साहित्य से परिचित कराया, उसी तरह वे हिंदी साहित्य की वर्तमान दशा और स्थिति को भी सुधारने का कठिन प्रयास कर रहे थे। वे एक ओर जहां रीतिवादी भाव और रचना-रीति का विरोध कर रहे थे वहीं दूसरी ओर ब्रजभाषा की जगह हिंदी खड़ी बोली को कविता की भाषा बनाए जाने की लड़ाई लड़ रहे थे।
वे लिखते हैं- ‘साहित्य ऐसा होना चाहिए जिसके आकलन से बहुदर्शिता बढ़े, बुद्धि की तीव्रता प्राप्त हो, हृदय में एक प्रकार की संजीवनी शक्ति की धारा बहने लगे, मनोवेग परिष्कृत हो जाएं और आत्मगौरव की उद्भावना होकर वह पराकाष्ठा पर पहुंच जाए। …साहित्य की जितनी शाखाएं हैं- ज्ञानार्जन के जितने साधन हैं- सभी को अपनी भाषा में सुलभ कर देने की चेष्टा करनी चाहिए। आचार्य द्विवेदी ने स्वयं यह बीड़ा उठाया। उन्होंने अपने परिश्रम से प्रचुर मात्रा में अनुवाद कर, ज्ञान-विज्ञान संबंधी स्रोत-सामग्रियों के आधार पर लेख लिखकर स्वयं ऐसा किया। जॉन बेकन के प्रसिद्ध निबंधों का अनुवाद – बेकन-विचार-रत्नावली, हर्बर्ट स्पेंसर के ‘एज्युकेशन’ का ‘शिक्षा’ के नाम से अनुवाद, जॉन स्टुअर्ट मिल के ‘ऑन लिबर्टी’ का ‘स्वाधीनता’ के नाम से अनुवाद जर्मन लेखक लुई कोने की जर्मन पुस्तक के अंग्रेज़ी अनुवाद का हिंदी में ‘जल चिकित्सा’ के नाम से अनुवाद आदि इसके उदहारण हैं।
वस्तुतः आचार्य द्विवेदी नवजागरण कालीन सामाजिक और वैज्ञानिक नवीन-चेतना को हिंदी में यथासंभव निर्मित करने वाले सुधी आचार्य हैं। उन्होंने तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक दुरवस्था को दूर करने के लिए किसानों, मजदूरों और स्त्रियों की दशा को लेकर महत्वपूर्ण लेख लिखे और ‘सरस्वती’ में लगातार इन विषयों पर लेख प्रकाशित किए। ‘देश की बात’, ‘भारत वर्ष का क़र्ज़’, ‘किसानों का संगठन’, ‘स्त्रियों का सामाजिक जीवन’, ‘रोजगारी स्त्रियां’, ‘स्त्रियों के राजनैतिक अधिकार’, ‘स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन’, ‘गुजरातियों की स्त्री शिक्षा’, ‘जापान की स्त्रियां’, ‘स्त्रियां और संगीत’ आदि लेख इसके उदाहरण हैं।
‘सम्पत्तिशास्त्र’ उनकी आर्थिक चिंताओं की पुस्तक है। रामविलास शर्मा ने ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ में उनके इस पक्ष पर विस्तार से चर्चा की है। इसी पुस्तक में वे द्विवेदी जी के लेख ‘देश की बात’ का जिक्र करते हुए लिखते हैं – ‘इसमें उन्होंने सुधारवादियों की देशभक्ति की कड़ी आलोचना की है। देशहित और देशप्रेम, स्वदेशी और स्वदेश-प्रेम के गीत गाए जाते हैं, पुस्तकें लिखी जाती हैं पर यह देश है क्या जिसकी हित साधने की बात कही जाती है? यहां के गांव और कस्बे पहाड़ और नदियां, मंदिर और मस्जिद ही तो देश नहीं हैं। देश का मतलब है देश में रहने वाले आदमी। इस देश में किस तरह के आदमी रहते हैं? छह फीसदी व्यवसायी हैं, तेरह फीसदी वकील, डाक्टर, मास्टर, डिप्टी कलेक्टर, वेश्याएं, पुलिस और पलटन के जवान और अनिश्चित पेशे वाले लोग हैं। ग्यारह फीसदी उद्योग धंधा करने वाले लोग हैं। बाकी 70 फीसदी किसान हैं। इसलिए देशभक्ति का मतलब हुआ किसानों की सेवा।’ अपने उक्त निबंध में द्विवेदी जी कांग्रेस के सालाना जलसे की भी कड़ी आलोचना करते हैं। उनकी मान्यता है कि इस तरह के जलसों में बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी होती हैं पर इस देश के किसानों और मजदूरों की सुनने वाला कोई नहीं है।
‘सम्पत्तिशास्त्र’ में वे रेलवे, डाकघरों आदि में काम करने वाले कारीगरों और मजदूरों की हड़तालों पर लिखते हैं। आचार्य द्विवेदी की सामाजिक-उन्नति संबंधी सोच का एक महत्वपूर्ण पक्ष है स्त्री संबंधी उनका दृष्टिकोण।
वे स्त्री-पुरुष समानता के प्रबल समर्थक थे, समाज और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वे स्त्रियों की सक्रिय उपस्थिति और भागीदारी देखना चाहते थे। उन्होंने भारतीय नवजागरण में सक्रिय स्त्रियों- ताराबाई शिंदे, रखमाबाई, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, पंडिता गोदावरीबाई आदि के महत्व को रेखांकित किया है। अपने लेख ‘स्त्रियों के राजनैतिक अधिकार’ में वे भारतीय स्त्रियों के लिए भी योरोपीय स्त्रियों के समान अधिकार दिए जाने की बात उठाते हैं।
नवजागरणकालीन अन्य चिंतकों और सुधारकों की तरह द्विवेदी जी की भी स्पष्ट मान्यता थी कि जब तक भारतीय स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती तब तक समाज आगे नहीं बढ़ सकता। उस समय स्त्री-शिक्षा के विरोध में दिए जा रहे कुतर्कों को खंडित करते हुए सन् 1914 ईस्वी में स्त्री शिक्षा के समर्थन में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन’। इस लेख का आरंभ करते हुए वे लिखते हैं- ‘बड़े शोक की बात है, आजकल भी ऐसे लोग विद्यमान हैं जो स्त्रियों को पढ़ाना उनके और गृह-सुख के नाश का कारण समझते हैं। और, लोग भी ऐसे वैसे नहीं, सुशिक्षित लोग – ऐसे लोग जिन्होंने बड़े-बडे स्कूलों और शायद कालेजों में भी शिक्षा पाई है, जो धर्मशास्त्र और संस्कृत के ग्रंथ साहित्य से परिचय रखते हैं, और जिनका पेशा कुशिक्षितों को शिक्षित करना, कुमार्गगामियों को सुमार्गगामी बनाना और अधार्मिकों को धर्मतत्व समझाना है।’
वे अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे। कालांतर में अपने घर (दौलतपुर) में उन्होंने अपनी पत्नी की एक प्रतिमा स्थापित की। इस प्रतिमा के अगल-बगल देवी सरस्वती और देवी लक्ष्मी की प्रतिमा बनवाई। गांव वालों के बहुत विरोध करने पर भी उन्होंने एक न सुनी। उन्होंने सार्वजनिक विरोध करने पर उस कक्ष में ताला लगा दिया और कहा कि, यह सार्वजनिक पूजा के लिए नहीं है। केवल वही उस मंदिर में पूजा कर सकते हैं। रामविलास शर्मा ने उनके इस साहस पर लिखा है – ‘द्विवेदी जी उच्छृंखल नहीं थे पर क्रांतिकारी थे। पत्नी का मंदिर बनवाने से लेकर रीतिवाद का विरोध करने तक वह साहित्य और समाज की रूढ़ियों से सर्वत्र टकराते हुए दिखाई देते हैं।’
1903 से लेकर 1920 तक उन्होंने सरस्वती का संपादन किया। ‘सरस्वती’ को अपने युग की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका बनाया। उनके इस प्रयत्न के चलते ‘सरस्वती’ को ‘ज्ञान की पत्रिका’ और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के गद्य को ‘हिंदी साहित्य का ज्ञानकांड’ कहा गया। रामविलास शर्मा ने द्विवेदी जी के ज्ञान संबंधी लेखन का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘द्विवेदी जी ने समाजशास्त्र और इतिहास के बारे में जो कुछ लिखा है, उससे समाज विज्ञान और इतिहास लेखन के विज्ञान की नवीन रूपरेखाएं निश्चित होती हैं। इसी दृष्टिकोण से उन्होंने भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का नवीन मूल्यांकन किया। एक ओर उन्होंने इस देश के प्राचीन दर्शन, विज्ञान, साहित्य तथा संस्कृति के अन्य अंगों पर हमें गर्व करना सिखाया, एशिया के सांस्कृतिक मानचित्र में भारत के गौरवपूर्ण स्थान पर ध्यान केंद्रित किया, दूसरी ओर उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक रूढ़ियों का तीव्र खंडन किया, और उस विवेक-परंपरा का उल्लेख सहानुभूतिपूर्वक किया, जिसका संबंध चार्वाक और बृहस्पति से जोड़ा जाता है। अध्यात्मवादी मान्यताओं, धर्मशास्त्रों की स्थापनाओं को उन्होंने नई विवेक दृष्टि से परखना सिखाया।’
आज अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों और मीडिया का जो हाल है, जिस तरह का समर्पण है, संपादक नामक संस्था का जो क्षरण हुआ है, उसमें द्विवेदी जी जैसे संपादकों की याद स्वाभाविक है। आचार्य द्विवेदी के एक परिचित मित्र हरिभाऊ उपाध्याय ने प्रसंगतः एक घटना का जिक्र किया है – ‘एक दफा एक पीएच.डी. महोदय ने एक लेख लिखकर भेजा। उन दिनों बी.ए. और एम.ए. वालों के लेखों के लिए भी संपादकों को बड़ा प्रयत्न करना पड़ता था। पीएच.डी. कर लेने वाले तो कम से कम मेरी दृष्टि में देवताओं के समान थे। लेख के साथ पत्र में पीएच.डी. महोदय ने लिखा कि, ‘इसके संशोधन में आप कृपा करके कोई उर्दू शब्द न डालें।’ द्विवेदी जी ने बिना विलंब उनका लेख लौटा दिया और लिख दिया कि, ‘संपादन में मैं किसी की कोई शर्त स्वीकार नहीं कर सकता।’
एक बार एक सज्जन ने स्वदेशी शक्कर की कुछ थैलियां द्विवेदी जी को भेंट कीं। उनका गर्भित आशय यह था कि द्विवेदी जी उनके संबंध में सरस्वती में कुछ लिख दें। कुछ दिनों के बाद फिर वे सज्जन आए और उन थैलियों की याद दिलाई तो अपनी अलमारी की ओर हाथ उठाकर द्विवेदी जी ने कहा- ‘तुम्हारी थैलियां जस की तस रखी हुई हैं। सरस्वती इस तरह के किसी व्यापार का साधन नहीं बन सकती’। अपनी मृत्यु से पहले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अपने कर्म-जीवन से संबंध रखने वाले सभी कागज़-पत्र, साहित्य और चिट्ठियां नागरी प्रचारिणी सभा, काशी में मोहर कर रख गए थे और आज्ञा थी कि वे सब उनकी मृत्यु के बाद ही खोले जाएं।
व्याकरणाचार्य कामताप्रसाद गुरु ने एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखा है – उनकी मृत्यु के बाद कागज-पत्र खोले जा रहे थे और सभा के दायित्वपूर्ण कर्मचारी उन सब कागजों की सूची बना रहे थे। कौतूहलवश, उस समय एक पत्र पढ़ा गया। उससे ज्ञात हुआ कि ‘सरस्वती’ में एक राजवंश का एक सचित्र परिचय छपा था, जिसके कारण उस राजवंश के एक कुमार ने पंडित जी को पुरस्कृत करने की इच्छा प्रकट की। किंतु महावीर प्रसाद द्विवेदी ने विनीत भाव से उक्त राजकुमार को लिखा – ‘सरस्वती के संपादन में अपना कर्तव्य समझकर मैंने यह किया। मैं पुरस्कार का अधिकारी भी नहीं हूँ। परंतु यदि आप इस बात से संतुष्ट होकर पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो ‘सरस्वती’ को दे सकते हैं, सरस्वती संपादक को नहीं’।
कदाचित यह सत्य है कि कोई अकेला व्यक्ति किसी को बनाता या निर्मित नहीं करता। युगधर्म को प्रभावित करने वाले व्यक्तियों के द्वारा जो प्रभामंडल बन जाता है, उस परिवेश और वातावरण का प्रभाव रचनाकारों पर अवश्य पड़ता है। हिंदी में कविता, कथा और आलोचना के क्षेत्र में जिन तीन महत्वपूर्ण लेखकों, मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद और आचार्य रामचंद्र शुक्ल को जो द्विवदी युगीन परिवेश और वातावरण मिला, उसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता।
प्रेमचंद ने खुद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के इस अवदान को देखते हुए ‘हंस’ के क्रमशः दो अंकों (अप्रैल और मई, 1933) का नियोजन ‘द्विवेदी विशेषांक’ के रूप में किया है। अप्रैल, 1933 के संपादकीय में वे लिखते हैं- ‘आज हम जो कुछ भी हैं उन्हीं के बनाए हुए हैं। यदि पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी न होते तो बेचारी हिंदी कोसों पीछे होती- समुन्नति की इस सीमा तक आने का उसे अवसर ही नहीं मिलता। उन्होंने हमारे लिए पथ भी बनाया और पथ-प्रदर्शक का काम भी किया। …हमारे लिए उन्होंने वह तपस्या की है, जो हिंदी साहित्य की दुनिया में बेजोड़ ही कही जाएगी। किसी ने हमारे लिए इतना नहीं किया जितना उन्होंने। वे हिंदी के सरल सुंदर रूप के उन्नायक बने, हिंदी साहित्य में विश्व-साहित्य के उत्तमोत्तम उपकरणों का उन्होंने समावेश किया, दर्जनों कवि, लेखक और संपादक बनाए। जिसमें कुछ प्रतिभा देखी उसी को अपना लिया और उसके द्वारा मातृभाषा की सच्ची सेवा कराई। हिंदी के लिए उन्होंने अपना तन, मन, धन सब कुछ अर्पित कर दिया। हमारी उपस्थित उपलब्धि उन्हीं के त्याग का परिणाम है।’
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