किसी गांव के घर का टूटता दरवाजा और गोबर लिपे घर की धीरे-धीरे दरकती दीवार और उसपर बैठे इक्का-दुक्का कबूतर, छत पर टूटी हुई खपड़ैलें, गांव की सुनसान लंबी गलियां, जो चुपचाप चौराहों में जाकर विलीन हो जाती हैं, एक लंबा जीवन जी चुकने के बाद धीमे-धीमे खंडहर में बदलता हुआ घर, जहां दीवार के टेके से एक निसरनी रखी हुई है, घर की ध्वस्त होती हुई दीवारें, गलियों में पसरे हुए एकांत से संगत करती हुई, निर्धूप दोपहर। अवसाद में डूबे हुए पहाड़, जो आसमान की ओर अपने वितान में, कब रात के ठंडे नीले अंधेरे में गुम हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। एक गुलाबी सूर्यास्त का आसमान, जो अपने आसमानीपन को छोड़ कर पिघलता हुआ नदी से जा मिला है।

ये वे दृश्य हैं, जो मई के महीने के दूसरे हफ्ते में मुंबई की प्रतिष्ठित जहांगीर आर्ट गैलरी में आने वाले किसी भी आगंतुक की आंख के सामने से गुज़रते हैं। गहन अवसाद की किसी ठंडी विलंबित लय के आंतरिक अनुशासन से ये दृश्य, मूलतः कथाकार-चित्रकार प्रभु जोशी की एक्रेलिक और जलरंग में रची गई चित्रकृतियाँ हैं। गांवों से शहर में विस्थापित हुए लोगों की त्रासदियों को अपनी कहानियों की विषयवस्तु बनाने वाले कथाकार- चित्रकार प्रभु जोशी, इन चित्रों में उन पीछे छूटे हुए गांवों को रचते हैं जिनके बाशिंदे, एक मुकम्मल कल की तलाश में शहरों की ओर कूच कर चुके हैं। उनकी स्मृतियों में कहीं भीतर दबी हुई चीजें जब कागज पर आकार ग्रहण करती हैं तो कहीं-न-कहीं उनके साथ ‘अवसाद का आस्वाद’ भी उन चित्रों में आ जाता है।

मई 2021 में, कोरोना की दूसरी लहर में काल कवलित हुए प्रभु जोशी की इन चित्रकृतियों को जहांगीर आर्ट गैलरी में प्रदर्शित करने का अवसर था, उनकी पुण्यतिथि पर उनके सम्मान में, ‘प्रभु जोशी: द फाइनल एक्जीबिशन’ शीर्षक से आयोजित उनकी कलाकृतियों का एक रेट्रोस्पेक्टिव।

एक कला यात्रा, जिसकी शुरुआत जून 1990 में मुंबई की प्रतिष्ठित जहांगीर आर्ट गैलरी के ऑडिटोरियम हॉल से हुई, जब कथाकार चित्रकार प्रभु जोशी ने मुंबई में अपने चित्रों की पहली एकल प्रदर्शनी लगाईं थी, चलते हुए फिर उसी मुकाम पर पहुंची, जहां से वह शुरू हुई थी। लेकिन, यात्रा के इस पड़ाव में इस बार सिर्फ एक ही बात की कमी थी, वह थी स्वयं कलाकार की अनुपस्थिति और इसी कारण से यह उनकी जहाँगीर आर्ट गैलरी में लगने वाली अंतिम एकल प्रदर्शनी भी थी।

प्रभु जोशी, जिन्होंने कभी चित्रकला की कोई औपचारिक शिक्षा-दीक्षा नहीं ली थी, ने तैलरंगों से चित्रकारी करते हुए अपनी कला यात्रा प्रारंभ की थी। तैलरंगों में सिद्धहस्त होने के बाद उन्हाेंंने जलरंगों में काम करना शुरू किया और इस माध्यम में अपनी कला, अपनी कलादृष्टि और चित्र बनाने की विशिष्ट शैली विकसित की, जिसमें उनके बनाए चित्रों में ब्रश का इस्तेमाल कम से कम होता है, जलरंगों का नैसर्गिक बहाव ही चित्र की रचना करता है।

धीमे और मद्धिम रंगों में चित्रित, प्रदर्शनी में प्रदर्शित इन चित्रों की बारीकियों को देखते हुए यह एहसास होने लगता है कि प्रभु जोशी परत-दर-परत रचते हैं। धूसर और मटमैले रंग, सीधे-सीधे आंखों पर हमला नहीं बोलते हैं, बल्कि दर्शक की चेतना में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए धीमे-धीमे जगह बनाते हैं। बोल्ड कलर्स का प्रयोग अगर कहीं है भी तो वह एक ‘टिपके’ की तरह ही है जो अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ एक टिप्पणी के रूप में उपस्थित है। श्यामल दत्ता रे और अमेरिकी लैंडस्केप चित्रकार थॉमस मोरान से प्रभावित होने वाले प्रभु जोशी की चित्रकृतियों में उपकरणीय उठा-पटक के बदले रंगों की संवेदनशील समझ, उनपर अद्भुत नियंत्रण और उनकी सामर्थ्य प्रखरता से उभर कर आती है।

ये चित्र बिखरते घरों के बाहरी रूप को ही नहीं दर्शाते हैं, बल्कि भीतर तक जाते हुए, दर्शक को उन घरों में वास करने वाले जीवन की भी एक झलक दिखाते हैं। ऐसा बिखरता हुआ जीवन, जो  घर के बाहर दिखाए दृश्य से भिन्न नहीं है। जीवन जीने की विवशता और निरर्थकता को दर्शाते हुए खंडहरों के चित्रों से देर तक आंख मिलाना कठिन जान पड़ता है।

प्रभु जोशी के जलरंगों की शैली की एक विशेषता यह भी है कि चित्रों में जो स़फेद दिखता है, वह स़फेद रंग नहीं है, बल्कि छूटा हुआ स़फेद कागज़ है। जैसे रंग ने ही जीवन और रचने की निरर्थकता स्वीकारते हुए आगे बहना स्थगित करके, सूखने की अपनी नियति को स्वीकार कर लिया हो। जगह-जगह छूटा हुआ कागज़, चित्र को एक अधूरेपन से भरता है। यह अधूरापन दर्शक के मानस में अपनी पूर्णता प्राप्त करता है। इसीलिए हर दर्शक उनके जलरंगों को अपने भीतर पुनर्सृजित करता है और हर दर्शक के लिए वह कृति, एक कलाकार की कृति न होकर उसकी स्वयं की कृति हो जाती है।

अपने जीवन के उत्तरार्ध में प्रभु जोशी ने, एक नए माध्यम में काम करने की चुनौती के रूप में, जलरंग छोड़ कर, एक्रेलिक रंगों में काम करना शुरू कर दिया था। अपने जलरंगों में चित्रित अवसाद के विपरीत, एक्रेलिक रंगों में चित्रित इन बाद के चित्रों में गौरैया, कबूतर और दूसरे पक्षी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। प्रभु जोशी ने यूरप के डच मास्टर पेंटर्स को श्रद्धांजलि देते हुए ‘स्टिल लाइफ’ के चित्रों की भी एक शृंखला बनाई है।

प्रभु जोशी की तकरीबन तैंतीस वर्षों तक चलने वाली कला यात्रा के अंतिम पड़ाव के रूप में, 9 मई से 15 मई तक जहाँगीर आर्ट गैलरी में हफ्ते भर चलने वाली इस अंतिक प्रदर्शनी को देखकर प्रख्यात कलाविद और अंग्रेज़ी के कवि प्रीतिश नंदी, फिल्मकार मुज़फ्फर अली, बॉम्बे आर्ट सोसाइटी के अध्यक्ष राजेंद्र पाटिल, कलाविद अनुराग कानोरिया आदि के साथ-साथ मुंबई के अन्य कला पारखियों और कलाविदों ने विस्थापन के कारण सुनसान हुए गांवों के अवसाद को जलरंगों में उतारने वाले इस चित्रकार को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।