संस्कृतिकर्मी एवं बैसवारा पी. जी. कॉलेज, लालगंज में एसोसिएट प्रोफेसर। पुस्तक ‘जनवादी दृष्टि परंपरा तथा भैरव प्रसाद गुप्त के उपन्यास’ (आलोचना)।
‘बहादुर लड़की उ़र्फ औरत का प्यार’ ग्रेट गुलाब थियेटर कंपनी की बहुत ही मशहूर नौटंकी रही है। यह लेख ‘बहादुर लड़की’ शब्द सिर्फ बहादुराना भाव और साहस मात्र की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह द्विवेदी युग की एक आम स्त्री के नौटंकी के क्षेत्र में अपने विशिष्ट गायन, नृत्य के साथ-साथ नौटंकी के संचालन, प्रबंधन को पुरुष-वर्चस्व से मुक्त करने और सफलतापूर्वक संचालित करने के इतिहास को भी बता रहा है। इस स्त्री ने प्रेम, स्वतंत्रता, राष्ट्रीयता, धर्मनिरपेक्षता, जैसे मूल्यों को धार दिया, स्त्री को पारंपरिक खांचे से बाहर निकाल कर पुरुष वर्चस्व के एकाधिकार को चुनौती दी।
अब सवाल उठता है कि वह स्त्री कौन थी? हम ‘गुलबिया- गुलाबो-गुलाब जान-गुलाब बाई की बात कर रहे हैं। संबोधन के क्रम पर ध्यान दिया जाए तो गुलबिया से गुलाब बाई होना एक संघर्षरत, कर्मठ स्त्री का विकास क्रम है। वही गुलाब जिसने भारतीय लोकरंग ‘नौटंकी’ के मंच, नेपथ्य और दर्शकों के मन पर काबिज होकर रंगमंच को समृद्ध किया, स्वतंत्र स्त्री कलाकार की नई परंपरा को स्थापित किया। और, जिनकी बनाई राह पर चलकर कई स्त्री कलाकारों ने अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई।
एक महत्वपूर्ण घटना का जिक्र किए बगैर लोकरंग की इस नायिका के चरित्र को समझना मुश्किल होगा। देश में भारत छोड़ो आंदोलन (1942) अपने चरम पर था, ऐसे समय देश का कोना-कोना सुलग रहा था। कानपुर में त्रिमोहन लाल की मशहूर नौटंकी कंपनी द्वारा ‘बहादुर लड़की उर्फ औरत का प्यार’ के मंचन के समय मंच पर फूल बेचने वाली लड़की की भूमिका में एक हिंदुस्तानी लड़की जब अंग्रेज़ का अभिनय करने वाले पात्र को जोरदार थप्पड़ मारती है, तो दर्शकों में जबर्दस्त तालियां बजती हैं और अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगने लग जाते हैं। आनन-फानन में अंग्रेजों ने इस प्रदर्शन को बंद करवा दिया, जिससे जनता और पुलिस के बीच मुठभेड़ हुई। यह बहादुर नायिका कोई और नहीं गुलाब बाई थी। उन्हें 24 घंटे के भीतर शहर छोड़ने का फरमान जारी हुआ।
कहना न होगा कि गुलाब पहली स्त्री कलाकार थी जिन्होंने नौटंकी में सशक्त स्त्री के कथा वाचन, गायन और चिंतन को अभूतपूर्व ढंग से आगे बढ़ाया। जहां पहले नौटंकी में पुरुष कलाकार स्त्री वेश में नाच-गाना और प्रेम-प्रसंग आदि को अभिनीत करते थे, वहीं गुलाब बाई ने इन्ही के साथ काम करते हुए स्त्री को वीरांगना, शक्तिशाली और सक्रिय सांस्कृतिक कार्यकर्ता आदि के रूप में भी मजबूती से स्थापित किया। यही नहीं, उन्होंने जाति और धर्म के खिलाफ अंतरजातीय और अंतरधार्मिक प्रेम कथा की सेकुलर संरचना को नौटंकी का अहम हिस्सा बनाया। पूर्व-आधुनिक रंगमंच पर इस बहादुर लड़की के क्रांतिकारी योगदान पर अपनी-अपनी तरह से बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया है। लेकिन उसमें क्रियाशील राजनीतिक अर्थशास्त्र को स्त्री के योगदान की दृष्टि से कम ही देखा जा सका है।
अगर इतिहास की ओर निगाह डालें तो पहले ‘उपरूपक’ और ‘संगीत’ की विधाएं मसलन स्वांग, लावनी और अन्य पारंपरिक लोक पदावलियां अपनी निरंतरता में आमजन के साथ प्रवहमान रहती थीं। 19-20वीं सदी तक आते-आते ‘नौटंकी’ के रूप में वे समूचे उत्तर भारत में छा जाती हैं। इसका प्रारंभिक रूप ‘स्वांग’ 15वीं सदी के कबीर की ‘साखी’ में भी उपस्थित है।
कालांतर में यह हाथरस-फर्रूखाबाद-कानपुर-लखनऊ-बनारस आदि को अपना केंद्र बनाती हुई बीसवीं सदी तक आते-आते जमाने की ताल से ताल मिलाते हुए सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से अपने को परिवर्तित करती है।
कैथरीन हेंसन के शब्दों में ‘इसने दर्शकों के आधुनिक मूल्यों और रुचियों को आत्मसात किया और मंच पर नए और पुराने के बीच के द्वंद्व को अभिव्यक्त किया।’ इस रोशनी में देखा जाए तो नौटंकी पौराणिक, नाथ-योगी संप्रदाय, और लोक आदि से संबंधित कथाओं को आधार बनाने के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रमों को भी मंचित कर रही थी। नौटंकी की यह यात्रा लावणी, नवीन बिलास, सांगीत रानी नौटंकी का, सांगीत पुरनमल का, कौमी दिलेर, सांगीत नौटंकी, इंदल हरन, जुल्मी डायर उर्फ जालियाँ वाला बाग, बहादुर लड़की उर्फ औरत का प्यार, प्रह्लाद का सत्यव्रत, सुल्ताना डाकू, भगत सिंह आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से आगे बढ़ी।
यह गौरतलब है कि इस लंबी यात्रा में मंच से नेपथ्य तक मल्ल, रावत, रंगा, गोपीचंद, उस्ताद इंदरमन, नथाराम गोड़, दीपचंद, त्रिलोकी नाथ, श्रीकृष्ण पहलवान जैसी नौटंकियों में पुरुष कार्यकर्ताओं का ही बोलबाला था। पुरुष ही स्त्री की भूमिका भी निभाते थे। उत्तरी भारत की सामंती चौकसी और ब्राह्मणवादी दांव-पेंच स्त्री के लिए कोई जगह बनने ही नहीं दे रहा था। स्वयं भारतेंदु के समय बनारस नौटंकी के एक अहम केंद्र के रूप में स्थापित हो चुका था। उन्होंने नौटंकी जैसी पारंपरिक और लोकप्रिय रंग विधा के लिए ‘भ्रष्ट’ शब्द का प्रयोग करते हुए न सिर्फ इसे नजरअंदाज किया, बल्कि एक तरह से इसे खारिज भी कर दिया। (भारतेन्दु हरिश्चंद्र (1883),‘नाटक अथवा दृश्य काव्य’, भारतेन्दु समग्र-संपादक-हेमंत शर्मा, हिन्दी प्रचारक संस्थान,वाराणसी) यहां तक कि इस लोकरंग परंपरा की लोकप्रियता को नकारते हुए ‘भद्रजनोचित उपक्रम’ (सुरेश सलिल (2000), कानपुरी नौटंकी, रंग प्रसंग-5,संपादक-प्रयाग शुक्ल) के रूप में नाटकों के सृजन और मंचन पर जोर दिया गया।
बलिया के उनके प्रसिद्ध भाषण के समय (1884) भारतेंदु के दो नाटकों ‘सत्य हरिश्चंद्र’ और ‘नील देवी’ का मंचन किया गया था। दर्शकों के रूप में बलिया का अभिजात वर्ग, रईस, कलक्टर डी.टी.राबर्ट्स, कुछ अंग्रेज़ अधिकारी और अंग्रेज़ मेम ही उपस्थित थे। जबकि नौटंकी के आम दर्शक जन वहां मौजूद ही नहीं थे। अभिनय के लिए मंच पर पुरुष ही पुरुष थे। नाटक की स्क्रिप्ट में स्त्री का चरित्र रहते हुए भी मंच, नेपथ्य और दर्शक के स्थान से अनुपस्थित थी वह। देखा जाए तो एक प्रकार से हिंदी नाटक का जन्म ही स्त्री विहीनता से होता है, जो संस्कृत और यूरोपीय रंगमंच के सूत्रों पर केंद्रीभूत हो, आभिजात्य वर्ग की रुचि के मनोरंजन के साधनों में बदल रहा था। दूसरी ओर नौटंकी व्यापक लोकरंग परंपरा में अपनी जड़ें जमा चुकी थी, परंतु अभी इसका क्रांतिकारी इतिहास लिखा जाना शेष था।
गुलाब बाई का जन्म बेहद पिछड़े दलित परिवार में हुआ था। उसकी परंपरा में ही गायन, वादन और नृत्य अंतर्निहित था। बचपन से ही गुलाब को नौटंकी के प्रति इस तरह का आकर्षण था कि मात्र 12 वर्ष की उम्र में ही तत्कालीन नौटंकी कम्पनी के सरसंचालक त्रिमोहन की कंपनी में भर्ती हो गई। गजब की आवाज़, अपूर्व सुंदरी, अभिनय रग-रग में बसा हुआ- यह थी गुलाब। इस समय अवध में ब्रिटिश राज के साथ-साथ जमींदारी और ताल्लुकेदारी की शोषण व्यवस्था चरम पर थी। नेपथ्य से समाज तक सामंती शक्तियों के साथ-साथ नवजागरण के अगुआ दस्ता ‘आर्य समाज’ का भी दबाव था कि स्त्री मंच पर न रहे। लेकिन नौटंकी ने इसका विरोध किया और महिला को मंच पर उतारा। यह औपनिवेशिक युग के हिंदी समाज में स्त्री का एक क्रांतिकारी कदम था।
कन्नौज के निकट एक गांव में 1930 के दशक में एक नौटंकी ‘राजा हरिश्चंद्र’ खेली जा रही है। सारा गांव इकट्ठा है। पंद्रह वर्षीय गुलाब जान मंडली की एकमात्र लड़की है जिन्हें देखने के लिए लोग आतुर हैं। नायिका गुलाब रानी तारामती बनकर जब दर्द भरा गीत गाती है, दर्शकों में उदासी की लहर दौड़ जाती है। अपने बेटे रोहताश्व की लाश पर जब वह विलाप करती है, सबकी आंखों से आंसू टपकने लगते हैं। (दीप्ति प्रिया महरोत्रा (2010), नौटंकी की मल्लिका गुलाब बाई) गुलाब कुछ ही वर्षों में आसमान की ऊंचाइयों में उड़ान भरने लगी । लोग उन्हें नौटंकी की पटरानी कहते थे। आम दर्शकों की प्रिय गुलाब सभ्रांत वर्ग के सुसंस्कृत दर्शकों की भी लाडली बनी। उनके द्वारा अभिनीत नौटंकियों की एक लंबी फेहरिश्त है, मसलन, इंदल हरण, अमर सिंह राठौर, दहीवाली, लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, हीर-रांझा, भगत सिंह, वीरांगना-वीरमती, बहादुर लड़की उर्फ औरत का प्यार, ‘तीन बेटियां उर्फ दहलीज के पार’, आदि-आदि। उम्दा गायकी में तो उनका कोई सानी नही था। गुलाब तो नौटंकी कला के साथ एक रूप, एक रस हो गई थी। लगातार अपनी सृजनात्मक शक्तियों को पालते-पोसते निखर रही थी।
गुलाब एक सशक्त स्त्री चरित्र के रूप में उभरी। अपनी शर्तों पर जिंदगी जीना और आजीवन कला कर्म के प्रति निष्ठावान बने रहना गुलाब की पहली और आखिरी पहचान थी। उस समय नौटंकी में औरतों के प्रवेश को लेकर तनातनी का माहौल था। जहां त्रिमोहन लाल इस क्षेत्र में गुलाब के माध्यम से औरतों को अवसर दे रहे थे, वहीं श्रीकृष्ण पहलवान जैसे धुरंधर आजीवन इसके खिलाफ रहे। परंतु गुलाब रुकने वाली हस्ती कहां थी, वह लीक तोड़ते हुए चल पड़ी। उसके जीवन में तीन-तीन बार प्रेम हुआ। चंदर जैसे अमीर और धोखेबाज सेठ ने अपने प्रेमजाल में फांसकर, सुख-सुविधाओं से भरे सोने के पिंजरे में गुलाब को कैद कर लिया। वफ़ा और एकांत प्रेम के लिए तरसती गुलाब अंततः सबकुछ छोड़कर खाली हाथ अपने बच्चे के साथ कानपुर लौट आई और एक छोटे से कमरे में अपनी बहनों के साथ रहकर नए सिरे से नौटंकी में काम शुरू किया। ‘गुलाब ने अपने से वादा किया कि नौटंकी की दुनिया वे फिर कभी नहीं छोड़ेंगी, जब तक सांस रहेगी, नौटंकी में जिएंगी। उनका मूल, उनकी जड़ इस काम में थी, किसी मर्द या किसी संबंध-शादी के वास्ते वे इस दुनिया से अलग नहीं रहेंगी। दूसरा रिश्ता बना सकती हैं-और क्यों न बनाएं? तब भी वे इस काम में ही रची-बसी रहेंगी। (दीप्ति प्रिया महरोत्रा (2010), नौटंकी की मल्लिका गुलाब बाई) यह एक स्त्री का पुरुषसत्तात्मक परंपरा के खिलाफ स्वतंत्रता और कला के लिए विवेकपूर्ण निर्णय था। यह सच्चे अर्थों में स्त्री की आधुनिकता थी।
फिर गुलाब के जीवन में कलाकार साथी राजा मास्टर आए और नियति ने उन्हें जल्द ही छीन लिया। जिंदगी की त्रासद मार झेलती गुलाब टूट-टूट्कर जुड़ती रही। तभी बलवीर सिंह जैसे शुद्ध व्यावसायिक मिजाज के पुरुष ने गुलाब के जीवन में हस्तक्षेप किया। यह गौरतलब है कि ये सभी पुरुष विवाहित और बाल-बच्चेदार थे, और गुलाब ने कहीं भी इनके व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप न करते हुए प्रेम किया। उसने अविवाहित रहकर खुलेआम बच्चे पैदा किए। अकेले दम पर उन्हें पाला-पोसा। और इनसे मिलने वाली हर बेवफाई का डट कर मुकाबला किया। उन्होंने कहा ‘हमने तो अपनी लड़कियों से कह दिया है, किसी के आसरे मत रहो, आएंगे तो आएंगे, नहीं तो अपने पांव तो सलामत हैं…’(वही)
1942 का दौर गुलाब के जीवन के साथ-साथ नौटंकी के इतिहास में एक क्रांतिकारी मोड़ लाता है। जब गुलाब बाई यह निर्णय लेती है कि अब वह किसी भी पुरुष माफिया के मातहत काम नहीं करेगी। और, फिर जन्म हुआ ‘द ग्रेट गुलाब एंड थियेटर कंपनी’ का। यह कोई मामूली बात न थी। नौटंकी क्षेत्र में पुरुष मालिकाना के एकाधिकार क्षेत्र में पहला स्त्री कदम की धमक थी। गुलाब एक इतिहास रच रही थी। खुद की कंपनी स्थापित करने के पीछे एक बहुत ही मार्मिक और रोचक कहानी है।
एक बार अपनी बहन की दवा कराने के लिए गुलाब ने पंडित त्रिमोहन से सौ रुपये की राशि इस शर्त पर मांगी की तनख्वाह में उसे समायोजित कर लीजिएगा। लेकिन त्रिमोहन ने राशि देने से साफ इनकार कर दिया, जबकि गुलाब देख रही थी कि उसके काम के कारण कंपनी को अच्छी आमदनी हो रही है। इस दुख के समय भी उसे पैसे नहीं मिल रहे हैं! दरअसल उस समय नौटंकी कंपनियां कुछ प्राइवेट मालिकों के हाथों में थीं। मालिक कलाकारों का शोषण करते थे। एक प्रकार से ये मालिक नौटंकी माफिया थे। उन्हीं में से एक प्रमुख नाम पंडित त्रिमोहन लाल का भी था। इनके खिलाफ जाकर एक स्त्री का खुद की कंपनी बनाना अपने आप में उन पुरुष माफियायों के विरुद्ध एक स्त्री-विद्रोह ही था।
मुझे लगता है कि उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में लोक नृत्य को छोड़कर अन्य किसी भी नाट्य विधा की तुलना में स्त्री का वजूद नौटंकी में ही मजबूती के साथ मुखरित हुआ है, क्योंकि नौटंकी का समस्त संचालन, प्रबंधन और सृजन पुरुष सत्ता के हाथों से निकाल कर ‘गुलाब बाई’ (वही) जैसी सशक्त स्त्री ने अपने हाथों में ले लिया और सफलता पूर्वक संचालन करने का उदाहरण प्रस्तुत किया। यह हिंदुस्तान की किसी भी भाषा और क्षेत्र में पहली सांस्कृतिक घटना थी। अन्य भारतीय भाषाओं में स्त्री मंच पर अभिनय या नृत्य के लिए आई जरूर, लेकिन समस्त निर्णय और आर्थिक संचालन किसी न किसी रूप में पुरुषों के ही हाथ में रहा। यूं कहें कि स्त्री पुरुष सत्ता के अंकुश में एक कठपुतली भर थी।
बांग्ला जात्रा की नटी विनोदनी एक अहम कलाकार थी जिसने अपनी अभिनय प्रतिभा और सौंदर्य से बांग्ला नाटक-जात्रा को जीवंत बनाए रखा, परंतु उनकी स्थिति पुरुष संचालित दायरे के भीतर ही थी। दस वर्ष काम करने के बाद मंच को उन्होंने हमेशा के लिए अलविदा कह दिया और भद्रलोक की अंधेरी दुनिया में विलुप्त हो गईं। लेकिन गुलाब बाई पुरुष-वर्चस्व को सिर्फ चुनौती ही नहीं देतीं, उसे तोड़ती भी हैं, और सफलतापूर्वक मंच से नेपथ्य तक सूत्रधार और मुख्तार बनी रहती हैं। गुलाब बाई नौटंकी के पुराने रूप के साथ गांव, शहर, मेला-ठेला में घूमते हुए उस समय आगे बढ़ी जब स्त्री के लिए कोई जगह नहीं थी। ऐसी परिस्थिति में एक स्त्री का सक्रियता के साथ आना-जाना कितना खतरनाक था, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
1940 के बाद गुलाब बाई एक निर्देशक, अभिनेत्री और कंपनी के मालिक/संचालक के रूप में विषय, थीम, पाठ, अभिनय और कंपनी प्रबंधन आदि को पूरी तरह से पुरुष-वर्चस्व से मुक्त कर देती हैं। इसी के साथ वे स्त्री की सामाजिक परिस्थिति को मूल्यों की सापेक्षता के साथ प्रस्तुत करने के लिए सती प्रथा निषेध, बाल विवाह विरोध, विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा आदि ज्वलंत मुद्दों को नौटंकी का विषय बना कर जोरदार ढंग से मंचित करती हैं। इस प्रकार से गुलाब राजा राममोहन राय, विद्या सागर और अन्य के नवजागरण को नौटंकी के माध्यम से आगे बढ़ाती हैं। ‘तीन बेटियाँ उर्फ दहलीज़ के पार’ की कहानी 1988 के कानपुर में आत्महत्या करने वाली तीन बहनों की सच्ची घटना पर आधारित थी। लेकिन उन्होंने इस मार्मिक घटना को मंचित करते समय सकारात्मक कल्पनाशीलता का परिचय दिया। नौटंकी के मंच पर तीनों में से एक आत्महत्या को चुनती है, दूसरी घर छोड़कर नृत्य-नौटंकी को और तीसरी शादी करके ठगी जाती है। अंततः तीसरी भी दूसरी के पास लौट आती है और दोनों मिलकर अन्य स्त्रियों को साथ लेकर स्वतंत्र रूप से काम करते हुए नौटंकी परंपरा को आगे बढ़ाती हैं। यह एक स्त्री का प्रगतिशील पाठ है। इसमें मक्सिम गोर्की के उपन्यास ‘वे तीन’ के कुछ सूत्रों का अस्पष्ट/अनायास अक्स भी दिखता है।
इस तरह गुलाब बाई ने नौटंकी को उत्तर भारत के मनोरंजन का मुख्य माध्यम बनाने के साथ-साथ समाज की कुरीतियों पर भी प्रश्न खड़े किए और इनके प्रतिवाद का माहौल बनाया। उन्होंने जाति, धर्म, वर्ग और संप्रदाय के बंधनों पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए अपनी टीम के कार्यकर्ताओं का एक सेकुलर उदाहरण प्रस्तुत किया।
जब देश 1947 के विभाजन का सांप्रदायिक दंश झेल रहा था तब नौटंकी कलाकारों में जाति-धर्म की सीमाएं काफी हद तक धूमिल हो चुकी थीं। गुलाब की कंपनी में सबकी रसोई साझी होती थी। ब्राह्मण, दलित, मुस्लिम, कुर्मी, पासी, बेड़िन किसी का भी कोई संस्कारगत भेद इनके काम में बाधा न बनता था। यहां अंतरजातीय और अंतरधार्मिक एकता का स्वरूप स्पष्ट दिखता है। गुलाब बाई अपनी टीम के साथ भारत के विभिन्न अंचलों में घूमती, वहां की संगीत परंपरा और रहन-सहन को एक सूत्र में पिरो कर नौटंकी के मंच पर प्रस्तुत करतीं। इससे नौटंकी की भाषा में हिंदी-उर्दू और आंचलिक लोक भाषाओं तथा उर्दू, पंजाबी, राजस्थानी का मिश्रण हुआ। यह आगे चलकर आमजन की हिंदी का एक बड़ा आधार बनी। गुलाब के माध्यम से नौटंकी सांगीत का लिखित रूप पूरे देश के पाठकों और नौटंकी कार्यकर्ताओं में वितरित हुआ। इससे लोकनाट्य लेखन का पहली बार एक भाषायी नेटवर्क स्थापित हुआ।
गुलाब बाई शानदार गायिका थीं। जब भी वे दादरा, ठुमरी, रसिया आदि गातीं, दर्शकों का हुजूम टूट पड़ता। ‘नदी नारे न जाओ श्याम, पंइयां पड़ूं…’ इनका सर्वाधिक प्रिय गीत था। इसे वह जीवन के अंत समय तक गाती रहीं। उन्होंने अपनी अनूठी गायन शैली और बोलों से इस लोकगीत को प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया था। लोग इस गीत का रचयिता गुलाब बाई को ही समझने लगे थे। जब इस गीत को फिल्म ‘मुझे जीने दो’ में गीतकार के रूप में साहिर लुधियानवी का नाम दिया गया, तब वकीलों और एच एम वी रिकार्डिंग कंपनी के मालिकों ने गुलाब बाई को फिल्म निर्माताओं और साहिर पर मुकदमा दायर करने की सलाह दी। उन्होंने जवाब दिया ‘सब झूठे हैं, जो चाहे अपने नाम लिखवा लें, पर यह गीत किसी का व्यक्तिगत नहीं है। मैंने अपनी मां से सुनकर सीखा था, मां ने और पहले किसी से सुनकर सीखा था। ये तो बिरज के गीत हैं, जाने कितनी पीढ़ियों से, कबसे इसे गाया जाता रहा है। इस पर मुझे कुछ नहीं कहना/करना है।’ यह एक कलाकार की सहज, निश्छल बौद्धिकता के साथ-साथ लोक राग-रंग के प्रति ईमानदारी और समझदारी की अभिव्यक्ति है।
इस प्रकार से देखा जाए तो नौटंकी की उत्पत्ति और विकास के मूल में निहित स्त्रीगाथा को गुलाब बाई ने दर्शक, मंच और नेपथ्य पर ससम्मान स्थान दिया। नौटंकी परंपरा को आत्मसात करते हुए पूर्व आधुनिकता को गति प्रदान की। यही नही, हिंदुस्तानी लोकरंग परंपरा को समृद्ध करते हुए उसे आधुनिकता के मुहाने पर ला खड़ा किया, जहां से आधुनिक हिंदी रंगमंच की यात्रा आरंभ हो सकती थी। स्त्री आम दर्शक का हिस्सा बन सकती थी। परंतु नौटंकी को लेकर भारतेंदु युग से आरंभ पूर्वग्रह प्रसाद, धर्मवीर भारती और मोहन राकेश से होते हुए 1970 के दशक तक संस्कृत और यूरोपीय रंग के व्यामोह में ही अटका रहा। नौटंकी तथा बिदेशिया जैसे नाट्य रूप के साथ पवित्रता/अपवित्रता की भावना में घिर गया। फलतः नाटक विशाल दर्शक समूह से जुड़ न सका। वह अभिजात वर्ग की चौहद्दी में ही सिमटा रह गया। 1940-50 के दशक तक इप्टा की पहलकदमी से लोकरंग में कुछ सुगबुगाहट हुई, लेकिन शुद्ध राजनीतिक नाटक के प्रति आग्रही होने के कारण इनकी भी नौटंकी से दूरी बनी रही, जबकि उस समय गुलाब बाई की कंपनी अपने चरम की ओर बढ़ रही थी। 1970 तक आते-आते हिंदी नाटक जैसे सौ सालों की नींद से जागा। फिर मुद्रा राक्षस, लक्ष्मी नारायण लाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि ने नौटंकी की तर्ज पर नाटक लिखे, इनका मंचन हुआ और नौटंकी की सुगंध से भरे लोकधर्मी नाटकों की बाढ़ आ गई। अपनी अंतिम सांस तक नौटंकी को जीने वाली इस बहादुर लड़की गुलाब बाई के योगदान को आधुनिक लोकरंग परंपरा का इतिहास कभी विस्मृत नहीं होने देगा।
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