वरिष्ठ रचनाकार।लगभग ३० पुस्तकें प्रकाशित।अद्यतन पुस्तक ‘नवगीत : विचार और संवेदना’।
सब्जी वाली औरत
सब्जी वाली औरत
सब्जी में अपनी अपेक्षाएं और उपेक्षाएं बेचती है
बेचती है इच्छाएं आकांक्षाएं नींद सपने
सब्जी बाजार में
सब्जी बेचने वाली औरत का चेहरा
धीरे-धीरे सब्जी में उतर आता है
जो बैंगन में बैंगनी
टमाटर में लाल गोभी में सफेद
मेथी पालक में हरा होता है
होता है तिक्त मिर्च में
सब्जी में कामगारों और सब्जी वाली का
खून पसीना बहता और बिकता है
सब्जी में लोग अपना स्वाद खरीदते हैं
तौलते हैं तराजू पर बाजार का चरित्र चेहरा
सब्जी वाली सब्जी में
अपनी हँसी खुशी और चरित्र बेचती है
और उदासी निराशा हताशा
बासी सब्जी में बचाकर सुरक्षित रखती है
सब्जी में सब्जी वाली की घर की चिंताएं होती हैं
वह अभावों की फटी साड़ी
रात के अंधेरे में सिलती है
और भूख का चूल्हा जलाकर
पति की आक्रोशी आशंकाएं
वक्त की हांडी में खदबदाती है
सब्जी में
सब्जी वाल के चरित्र की साड़ी में आशंकाएं
छिपी होती हैं
जिन्हें वह चुपचाप सब्जी के साथ बेचती है
तमाम लोग सब्जी के साथ
सब्जीवाली का रूप सौंदर्य चरित्र खरीदते हैं
सब्जी बाजार में
सब्जी वाली समाज संस्कृति के बाजार का
चरित्र और आचरण नापती
और तराजू पर तौलती है
सब्जी के साथ
सब्जीवाली की इच्छाएं आकांक्षाएं
संभावनाएं काटी और छौंथ की
भोजन की थाली में स्वाद के साथ
परोसी और खाई जाती है
समाज संस्कृति और देश के
सब्जी बाजार में
सब्जी वाली उपस्थित होकर भी
अनुपस्थित होती है
वह ऊपर से हँसती है और अंदर से रोती है।
संपर्क : ई–८/७३, भरत नगर (शाहपुरा), अरेरा कॉलोनी, भोपाल–४६२०३९ मो.९८२६५५९९८९