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एली महंती वरिष्ठ ओडिया कवयित्री। कविता में स्त्री स्वाभिमान को लेकर अपनी बुलंद आवाज के लिए सुपरिचित। एक कविता संकलन प्रकाशित। |
राधू मिश्र अनुवादक और व्यंग्यकार। ओडिशा साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित। अनुवाद की सात पुस्तकें प्रकाशित। |
नीली कमीज
सारे रंग जलाने के बाद भी
रंग बदलता नहीं राख का
जो रंग था
ग्यारह साल के बच्चे द्वारा दी गई
मुखाग्नि से जले उसके पिता की राख का
वही तो था अंगीठी में जल कर
राख बने तिनकों का
कागज के टुकड़े, फटे जूते
सूखी टहनियां और नीली कमीज की
राख का रंग भी वही था
बेटा राख में टटोल रहा था
बाप का सारांश
राख में से झांक रहा था
एक संबंध का अवशेष
रोज स्कूल से लाने वाले बापू
दिवाली में जूते पहन कर उसे
पटाखा जलाता देखकर झिड़कियां देते
सर्दी में स्वेटर और मोजा पहनाते
रविवार की सुबह बाजार में
सब्जियों की पहचान कराते
‘कल तेरे लिए ला दूंगा ज्यामिति का नया डिब्बा’
ऐसा कहने वाले बापू को वह ढूंढ़ रहा था
अपनी कोमल हथेली की मुट्ठी भर राख में
छाती के बटन के पास सूख चुके
बूंद भर पसीने के
दाग को छुपाती वह नीली कमीज…
‘अनवांटेड सेवेंटी टू’ की ‘यूज्ड स्ट्रैप’ को
जेब में सहेज कर रखी वह नीली कमीज
जल जाने के बाद भी
राख के रंग को बदल नहीं पाई
बल्कि आंखों के लिए टटोलने को
छोड़ गई एक और दाग
राख का रंग था
बिलकुल राख-सा।
पुरुष तो एक शब्द है
कहो सम्राट
एक लाख रानियों के होते
तुझे फिर क्यों जरूरत पड़ती है
एक लौंडी की?
रानी
जूड़े में पारिजात खोंसती
आंखों में काजल
गले में मुक्ता का हार लेती
होंठों में वैसे भी
महुए का नशा है
रात के सन्नाटे में रानी हँस पड़ती
हार जाने की ग्लानि से
क्या निर्वस्त्र होने की कला
सभी लोग जानते भी हैं
जिसे तू छुप-छुप कर ढूंढ़ता है
सिर्फ वही जानती है
खुली आंखों में कैसे
पुरुष को छुआ जा सकता है
किस अंदाज में लगानी होती है आग
चक्रवात की आंधी में
किस तरह दारुण उद्दामता को
जख्म की तरह सहेज कर रखा जाता है
कोमलांग में
उसकी देह की आरण्यक गंध
और वक्ष का काला तिल
तुझे बार-बार खींच लेता
और तू अभिसार रचता
एक लाख रानियों का अहंकार लेकर!
वह हर पल सहेज कर रखती
अपनी मायावी हँसी को
होंठों पर द्राक्षा रस
जांघों में अंधेरे का
चिरंतन आदिम रास
तेरे पागलपन को
रात भर संभाल कर रखती
और तेरे शून्य पुरुषाकार को
लौटा देती भोर के उजाले में
धो-पोंछ कर, बड़ी ही श्रद्धा से
अगले दिन
एक लाख रानियों वाला सम्राट
फिर हँसने लगता है।
स्त्रीमेध
एक दिन सती
इतिहास से निकल कर
तुम्हारी देह में बस जाती
तुम्हें दिखाती
बंद कर सारे दरवाजे
कैसे उसके लिए खुली रखी गई थी
एक जलती हुई चिता
किस तरह उस भयानक आग में
कूद जाने के बाद सांसें रोककर
महसूस करती थी वह
नरम त्वचा की पहली परत से
आग के आहिस्ते से अंदर भेदने की यंत्रणा
सिझता रहता था मांस
शिरा से लहू की चड़-चड़ आवाज के साथ
हड्डियों की जोड़ों से रिसने लगी थी
कैसे बचपन से दौड़ाती आई
अकूत ऊर्जा
स्थिर हो जाता सब कुछ,
घंटनाद और जयकारे के उदघोष में
व्याकुल अंतिम चीख भी कहीं खो जाती
क्या कोई मरती भी है
अपनी खुशी से?
बंद करो इतिहास की किताबें
आंखें खोल कर देखो
इस सदी की उदास नारियों को
जिनके लिए सती दाह कानून लाकर
तुम ईश्वर बने हो
जरा कहो तो आंखें छूकर
क्या तुम्हें दिखाई नहीं देते
उनके गालों के गड्ढे
उनकी देह का रंग
उनकी मुस्कान
उनकी खुशियों का राज
तुम तो सड़क के फटे पुराने बोरे को भी
ले आते हो पांवपोश बनाने
वह तो ऐसे भी एक जीती जागती स्त्री है
राममोहन राय के बाद के इतिहास में
ऐसा कोई मुंहजला पन्ना नहीं है
जिस पर लिखा जा सके
राख हो चुके एक शरीर के नाम पर
किसी के जीते जी दहकते रहने की
बर्बर कहानी
‘उसके लिए तो हर आंख एक चिता है!’
संपर्क :
एली महांति, बाघरा रोड, वार्ड नं : 19, पोस्ट : बारिपदा, जि : मयूरभंज, ओडिशा-757001/ मो. 9439378390
राधू मिश्र, 303, पर्ल हाईटस, पानपोष, राउरकेला – 769004, ओडिशा, मो. 9178549549