युवा लेखक। खुदीराम बोस सेंट्रल कॉलेज में अध्यापन।

साहित्य अपने अनुभवों और विचारों को अभिव्यक्तकरने का सबसे सशक्त रचनात्मक माध्यम है। सदियों से रचनाकारों ने आत्माभिव्यक्ति, सामाजिक परिवर्तन, सांस्कृतिक संरक्षण, शिक्षा, मनोरंजन आदि के उद्देश्य से साहित्यिक सृजन किया है। बदलते देश और परिस्थितियों के आधार पर उसमें विलक्षण आधुनिक विषयों का समावेश भी हुआ है। लेकिन हाल के दशकों से समाज के मूल्यों और सौंदर्यबोध में जो गिरावट आई है उसके कारण साहित्य के सामने चुनौतियां बढ़ गई हैं।

वर्तमान डिजिटल और तेजी से अत्याधुनिक होती दुनिया में साहित्य की जरूरत को लेकर सवाल उठना शुरू हो गया है। लोग धीरे-धीरे मशीन बनते जा रहे हैं। उनमें बुद्धिमत्ता है, लेकिन भावप्रवणता नहीं है। इसका प्रभाव पढ़ने-लिखने की संस्कृति पर भी पड़ा है। कई महानगरों और एलीट वर्गों में साहित्य पढ़ने और सांस्कृतिक समारोहों में सहभागिता के प्रति विकर्षण आया है। अब नौजवान मुख्यतः मोबाइल और इंटरनेट की गिरफ्त में हैं। उन्हें अपनी सांस्कृतिक विरासत और सामाजिकता से प्रायः मतलब नहीं है।

कहा जा सकता है कि यह दौर डिजिटलाइजेशन के अतिवाद का है। स्तरहीन सामग्री का ढेर है, जो कम बड़ी समस्या नहीं है। डिजिटल माध्यम से गंभीर सामग्री पढ़ने वाले पाठकों की संख्या बहुत कम है। आजकल के पाठक काफी सिलेक्टिव और जल्दबाज हैं। परिणामतः उपन्यास जैसी विधाओं की लोकप्रियता में भी गिरावट आ रही है।

आज दो तरह की बातें ज्यादा चिंताजनक हैं- झूठ और भ्रम का अति प्रचार और संवादहीनता। पहली स्थिति तब आती है, जब व्यक्ति अपने विवेक के स्थान पर दूसरों के मत से ज्यादा संचालित होने लगता है। संवादहीनता के साथ-साथ व्यक्तिवाद बढ़ जाता है। साहित्य में यह गुण है कि वह दुनिया को बेहतर तरीके से परखने की समझ विकसित करता है। वह मनुष्य को स्वार्थ के संकुचित दायरे से ऊपर उठाकर व्यापक मूल्यबोध से जोड़ता है। आज कई लोग अकेलेपन से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नवंबर 2023 में अकेलेपन को ‘वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता’ घोषित किया है। इससे निपटने के लिए कुछ लोग कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उपकरणों का उपयोग कर रहे हैं। इसका अर्थ है लोग संवाद करना चाहते हैं परंतु उन्हें जरूरत है उचित माध्यम की। इस दृष्टि से सोचा जाए तो साहित्य अकेलेपन का सच्चा साथी है, बल्कि वह व्यक्ति को संपूर्ण सृष्टि से जोड़ता है।

यह परिचर्चा बदलते परिदृश्य में साहित्य की जरूरत और प्रासंगिकता को स्पष्ट करने में सहायक हो सकती है। इसमें लेखकों ने यही कोशिश की है।

सवाल

(1)हाल के दशकों तक साहित्य की जरूरत महसूस की जा रही थी, पर किन वजहों से आज साहित्य हाशिए के भी बाहर है?
(2)किस तरह के लोग आज साहित्य की जरूरत बिलकुल महसूस नहीं करते और क्यों? किस तरह के लोग आज भी उसके महत्व को समझते हैं?
(3)महानगरों में साहित्य पढ़ने की प्रवृत्ति में ह्रास क्यों आया? साहित्य के प्रति लोगों में फिर से आकर्षण पैदा करने के क्या उपाय हैं?
(4)आज साहित्य की कौन सी विधाएं संकट से गुजर रही हैं और इस घटना को आप किस दृष्टि से देखते हैं? आज किस विधा में लिखी रचनाएं ज्यादा पढ़ी जाती हैं और क्यों?
(5)जिस युग में लिटररी फेस्टिवल बढ़े हैं, उसी युग में साहित्य क्यों विस्थापित होता जा रहा है? क्या साहित्य की प्रासंगिकता अब समाप्त हो गई है?

 

 

अरुण कमल
वरिष्ठ हिंदी कवि। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित। अद्यतन कविता संग्रह रंगसाज की रसोई

 

साहित्य महत्तम मानव मूल्यों का संवाहक है

(1)आज भी साहित्य हाशिए के बाहर नहीं है जैसा कि आप कह रहे हैं। कुछ ज्ञान-प्रणालियां ऐसी होती हैं जो थोड़े से लोगों के बीच सीमित रहती हैं, जैसे दर्शन, गणित या शुद्ध विज्ञान। साहित्य उनकी तरह तो नहीं है, लेकिन इसका दायरा भी सीमित ही रहा है। कथा, कथेतर का दायरा और पहुंच ज्यादा है। कविता कम लोग पढ़ते हैं। कम से कम सौ साल से तो यही हालत है। आज भी साहित्य का एक अगोचर किंतु समर्पित पाठक वर्ग है। पाठ्यक्रम को छोड़ दें तो शायद मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद या निराला को अपने सुख के लिए पढ़नेवाले कम ही होंगे। लेकिन मेरी इच्छा है कि हर आदमी तक कविता तथा साहित्य पहुंचे और हर आदमी पढ़े। कविता से प्रेम का मतलब है स्वार्थ से ऊपर उठना और धन तथा सत्ता के प्रति हिकारत की भावना।

1975 तक भारत का मध्यम वर्ग हिंदी साहित्य पढ़ता रहा। अंग्रेजी और विदेशी साहित्य भी पढ़ता था। फिर उसने हिंदी या भारतीय भाषाओं को छोड़कर भारत में उत्पादित उस अंग्रेजी साहित्य को अपना लिया जो उसके मन में किसी क्षोभ, संघर्ष या ग्लानि का भाव नहीं जगाए तथा जो उन्हीं की जिंदगी को महिमामंडित करे। तब सारी हिंदी लोकप्रिय पत्रिकाएं बंद कर दी गईं। छोटी अव्यावसायिक साहित्य पत्रिकाएं आईं। साहित्य का गंभीर, प्रतिरोधी, आलोचनात्मक स्वर न हुकूमत को पसंद था न पूंजीपतियों को। ऐसे साहित्य का छपना और बंटना आज भी मुश्किल है। क्या किसी अखबार के पहले पन्ने पर आपने कोई कविता देखी? क्या किसी चैनल ने कभी कोई कविता सुनाई? जो कुछ सवाल करे, ‘न’ कहे और परेशान करे, उसे जनता तक पहुंचने न दो!

(2)जो लोग मौज मस्ती में गर्क हैं, जो भौतिक सुखों तक ही सोचते हैं, स्वार्थी हैं, वे साहित्य नहीं पढ़ते। क्योंकि साहित्य उनके जीवन मूल्यों को धिक्कारता है। वे वैसा ही लेखन या फिल्में चाहेंगे जो उन्हीं को अच्छा कहे। साहित्य आपको अपने से बाहर ले जाता है, दूसरे से जोड़ता है। और तब सबका दुख अपना लगता है। यह भी हो सकता है कि जो आज किसी मजबूरी में सही जीवन नहीं जी रहे हैं, वे भी साहित्य पढ़ें अगर उनमें बेहतर बनने की इच्छा हो।

साहित्य सबके लिए है। उस भाषा को बोलने वाले हर व्यक्ति के लिए। यहां कोई रोक-छेंक नहीं हो सकता। साहित्य को वे सब लोग महत्वपूर्ण मानते हैं जो अपनी भाषा से प्रेम करते हैं, जो हर आदमी, हर जीव, हर तृण से प्रेम करते हैं। और इस जीवन को बेहतर बनाना चाहते हैं, जो परिवर्तनकामी हैं। लेकिन साहित्य का आनंद वही ले सकते हैं जिन्होंने साहित्य पढ़कर शुभ रुचि विकसित कर ली है।

(3)महानगरों में भी लोग पढ़ते हैं। किताब की दुकानें ज्यादातर शहरों में ही हैं। इनमें गांव-शहर का भेद नहीं है। लेकिन किताब खरीदने के लिए कुछ पैसा चाहिए, पढ़ने के लिए खाली समय या अवकाश चाहिए। जो स्त्रियां दिन में सोलह घंटे खटती हैं, वे कला या कविता का आनंद ठीक से नहीं ले सकतीं। साहित्य के प्रति आकर्षण बढ़े, इसके लिए सबसे जरूरी है कि आदमी को पर्याप्त फुर्सत मिले, किताबें मिलें और पढ़कर आपस में बातचीत हो।

(4)कोई भी विधा संकट में नहीं है। सबसे अधिक पाठक उपन्यास तथा कथेतर लेखन के हैं। कविता बहुत कम लोग पढ़ते हैं। फिर भी कविता पढ़ी जाती है। छपती है। बिकती है। सबसे ज्यादा संस्मरण, आत्मकथा, जीवनी या नुस्खों वाली किताबें पढ़ी जाती हैं क्योंकि वे प्राय: सुगम होती हैं। पढ़ने या समझने में ज्यादा जोर नहीं पड़ता। गंभीर फिल्में भी कम ही देखी जाती हैं। शास्त्रीय संगीत के भी सुननेवाले कम हैं। लेकिन श्रेष्ठ कविता धीरे-धीरे समाज की आत्मा में पेबस्त होती जाती है। जो आज बेस्टसेलर है वह कल कूड़ेदान की शोभा बन जाता है। जिसे आज इक्का-दुक्का जानते-मानते हैं वह कल कंठाभरण बन जाता है, क्योंकि वह महत्तम मानव मूल्यों का संवाहक है और सुंदर है। सौंदर्य ही मनुष्यता को बचाएगा, दॉस्तॉव्स्की ने कहा था।

(5)लिटरेरी फेस्टिवल का मतलब अकसर साहित्य नहीं है। वह साहित्य के प्रतिरोधी स्वभाव को दबा कर उसको खरीद फरोख्त की वस्तु में बदलना चाहता है। वह श्रेष्ठ और हीन के अंतर को ख़त्म करता है, ग्लैमर और चाक्यचिक्य को ऊंचा दर्जा देता है, जहां शोहरत और पैसा शासन करता है। यह श्रेष्ठ साहित्य का उत्सव नहीं है। यह व्यापारी मॉल है।

 

7 मैत्री शांति भवन, बी एम दास रोड, पटना800004 मो.9931443866

 

 

विष्णु नागर
वरिष्ठ हिंदी कवि और गद्यकार। ‘नवभारत टाइम्स’ सहित कई प्रमुख पत्रिकाओं में संपादकीय दायित्व का निर्वाह। ‘रात-दिन’ और ‘ईश्वर की कहानियाँ’ विशेष रूप से चर्चित।

 

मध्यवर्ग में सांस्कृतिक निरक्षरता बढ़ रही है

पता नहीं दशकों पहले साहित्य की जरूरत आज से  कितनी अधिक महसूस की जा रही थी। वैसे हिंदी का साहित्य साधारणतया हिंदी समाज में उपेक्षित ही रहा है। मुक्तिबोध इसके उदाहरण थे ही, निराला भी इसके कम छोटे उदाहरण नहीं थे। रामविलास शर्मा बताते हैं कि उन्हें महाकवि बनाने का दावा करनेवाले एक प्रकाशक ने सख्त जरूरत पड़ने पर भी उन्हें दस रुपए तक नहीं दिए। प्रकाशक तब लेखकों से उनकी किताब का कापीराइट खरीद लेते थे, जिससे मिली रकम निराला जैसे कवि-लेखक के महीने भर के खर्च के लिए भी पर्याप्त नहीं होती थी। इससे कहीं अधिक आधे महीने परीक्षा की कापियां जांचकर अध्यापक कमा लेते थे (यह स्थिति आज भी है)। निराला को बार-बार अपने प्रकाशक बदलने पड़े थे क्योंकि किसी प्रकाशक का व्यवहार उनके साथ संतोषप्रद नहीं रहा।

रामविलास जी ने निराला के जीवित रहते 1945 में ‘निराला जी और हिंदी प्रकाशक’ शीर्षक लेख में क्षुब्ध होकर कहा है, ‘निराला जी के साथ (प्रकाशकों द्वारा) जो व्यवहार किया गया, वह लेखकों के शोषण की जीती-जागती मिसाल है।’ उस समय जो लेखक केवल लेखन पर जीवित था, उसने कष्ट ही कष्ट भोगे। तब साहित्य की जरूरत कितनी महसूस की जा रही थी, उसका यह भी एक उदाहरण है। एक खास समय के प्रकाशकों का अपने लेखकों से व्यवहार इस बात का प्रमाण है कि उस समाज में साहित्य की कितनी जरूरत महसूस की जा रही है।

फिर भी शायद यह सच हो कि तब शायद आज की अपेक्षा साहित्य अधिक पढ़ा जाता होगा। इसका कारण यह लगता है कि जो मध्य वर्ग पढ़ने में दिलचस्पी लेता था, उसके पास तब अतिरिक्त समय अधिक था क्योंकि आज जैसी तब आपाधापी नहीं थी और अपने को व्यस्त रखने के दूसरे विकल्प भी कम थे। उस दौर में कुछ मनोरंजक और गंभीर पत्रिकाएं हिंदी में उपलब्ध थीं। उनका घर में होना तब सम्मानजनक माना जाता था। हिंदी की पुस्तकें होना और पढ़ना तब तक हिंदी समाज में हीनता का सूचक नहीं बना था। अब तो मध्यवर्गीय बच्चे तक यही मानते हैं कि हिंदी आगे चलकर उनके किसी काम नहीं आनेवाली है। उसका चलताऊ ज्ञान होना काफी है।

अपनी किशोरावस्था को याद करता हूँ तो तब गुलशन नंदा जैसे रोमेंटिक उपन्यासकार तथा ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश कंबोज जैसे जासूसी उपन्यासकार (संभवतः प्रेमचंद को छोड़कर) ही अधिक पढ़े जाते थे, गंभीर लेखक कम। कवि सम्मेलनों की दशा आज से बेहतर थी, मगर तब भी भवानी प्रसाद मिश्र जैसे कवियों को हूट होते देखा गया है। आज से कोई चार दशक पहले हिंदी के वरिष्ठ और भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित नरेश मेहता को और उनके साथ आए चंद्रकांत देवताले की कविताओं को सुनने के लिए कालेज के छात्र कतई उत्सुक नहीं थे। वे जानते भी नहीं थे कि ये कौन हैं!

स्कूलों-कालेजों में तब भी साहित्य इतने बेढंगे ढंग से पढ़ाया जाता था कि साहित्य के 99 प्रतिशत विद्यार्थी बाद में साहित्य से विमुख हो जाते थे। मेरे कस्बे में नागार्जुन और नरेश मेहता जैसे लेखक आते थे तो बीस-तीस लोगों से अधिक को जोड़ना संभव नहीं था। हां बच्चन, नीरज, काका हाथरसी कवि सम्मेलनों के कारण उस समय के बड़े नाम थे। इनका अपना बाजार था। जिसका बाजार नहीं था, जिसने इसमें रुचि नहीं ली, वह किनारे था।

कहने का अर्थ यह है कि वह भी हिंदी साहित्य का कोई स्वर्णयुग नहीं था। हां, यह सही है कि उसी वातावरण में  कस्बाई युवकों-युवतियों को साहित्य के आरंभिक साहित्यिक संस्कार मिले। वैसे इस विपरीत समय में भी बाद की पीढ़ियों में ऐसी ही छोटी जगहों से आज बहुलांश लेखक-कवि आ रहे हैं।

एक सचाई यह है कि आज मध्यवर्ग का बहुत विस्तार हुआ है, साक्षरता बढ़ी है। मगर दिलचस्प यह है कि उसी अनुपात में मध्य वर्ग में सांस्कृतिक निरक्षरता बढ़ी है। मध्यवर्ग का वह हिस्सा जो कभी सामाजिक राजनीतिक रूप से जागरूक था, आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी करता था, किसानों-मजदूरों के साथ खड़ा होता था, आज इससे विमुख हो चुका है। हम सब अपनी-अपनी कैद में सुखी हैं। मुक्ति अकेले में नहीं मिलती की जगह मुक्ति अकेले में ही मिलती है, यह हम सक्रिय रूप से मानने लगे हैं, भले ही कोई लेखक-कवि वामपंथी होने का दावा क्यों न करे।

उधर आज जो मध्यवर्गीय शास्त्रीय संगीत सुनता है या शास्त्रीय नृत्य या आधुनिक नाटक देखता है, वह साहित्यिक पाठकों से बड़ा होते हुए भी आबादी का बहुत छोटा हिस्सा है, जबकि आज घर बैठे भी कंप्यूटर की स्क्रीन पर या मोबाइल पर कला और साहित्य का बड़ा संसार उपलब्ध है। हिंदी साहित्य की बात करें तो गूगल पर ‘कविता कोश’ और ‘गद्य कोश’ पर साहित्य की विपुल सामग्री उपलब्ध है, जिसे मुफ्त में पढ़ा जा सकता है, शेयर किया जा सकता है पर मालूम नहीं, उसका कितना लाभ लिया जा रहा है। इसके अलावा हिंदवी के ‘संगत’ कार्यक्रम में हिंदी के लेखकों-कवियों के अस्सी से अधिक साक्षात्कार आ चुके हैं और इन साक्षात्कारों में से बहुतों को दस-दस, पंद्रह-पंद्रह हजार लोगों ने देखा है।

हिंदी में इस बीच प्रकाशकों की संख्या काफी बढ़ी है। जो कभी छोटे प्रकाशक थे, आज बड़े – बहुत बड़े प्रकाशक बन चुके हैं। ईबुक्स आदि रूपों में भी  साहित्य उपलब्ध है। अमेज़न आदि आनलाइन प्लेटफार्मों से किताबों की खरीद अब आसान है। कुछ बड़े प्रकाशक पहले एकमुश्त सरकारी खरीद के लिए पैसों से भरा बैग सरकारी अधिकारियों को थमा आते थे, मगर अपने पाठकों को बमुश्किल दस प्रतिशत की छूट देते थे। लेकिन आज प्रकाशक अपने पाठकों को पच्चीस-तीस फीसदी तक छूट देने को राजी हैं। इस पूरी सकारात्मकता का हिंदी के साहित्य और साहित्यकारों की पहुंच पर कितना प्रभाव पड़ा है, यह कहना कठिन है। ऊपर से इसका बहुत असर नहीं दिखता मगर इस प्रभाव का सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यांकन होना चाहिए, ताकि ठोस रूप से कुछ पता चले।

उपभोक्ता संस्कृति ने पाठकों को साहित्य से कितनी दूर किया है या फेसबुक आदि सोशल मीडिया का कितना और किस तरह का सकारात्मक-नकारात्मक प्रभाव पाठकों और खुद लेखकों पर डाला है, इसका भी कायदे से अध्ययन आवश्यक है। इस तरह के काम हमारे यहां शोध का विषय नहीं बन पाते!

मेरी समझ है कि अभी भी महानगरों और बहुत से प्रदेशों की राजधानियों में विशेषकर साहित्य पढ़ने और लिखनेवाले काफी हैं तथा साहित्यिक गतिविधियां भी हैं। दिल्ली देश की राजधानी है। यहां इस तरह की गतिविधियां काफी होती हैं मगर आसपास के नोएडा, गाजियाबाद या फरीदाबाद जैसे बड़े नगरों में इस दृष्टि से उजाड़ है। यह स्थिति सुखद नहीं है, मगर स्थिति लगभग हर जगह यही है।

साहित्य में दिलचस्पी पैदा करने के कुछ प्रयास व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर हुए हैं, हो रहे हैं। जैसे दिल्ली में साल में एक बार तीन दिनों का रेख्ता संस्था का बड़ा कार्यक्रम होता है। उसमें विशेष रूप से युवा हजारों की संख्या में आते हैं। वहां ऐसी जबरदस्त भीड़ होती है कि तिल रखने की जगह नहीं मिलती। वहां मेले-ठेले का वातावरण होता है। सुननेवाले इतने अधिक होते हैं कि अनेक बार बैठकर आसानी से किसी लेखक को देखना- सुनना कठिन हो जाता है। ‘हिंदवी’ का वार्षिक कार्यक्रम इतना बड़ा नहीं है, मगर किसी भी और साहित्यिक कार्यक्रम से अधिक लोग उसमें आते हैं। रजा न्यास की भी नियमित साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां दिल्ली और अन्यत्र होती हैं। इनमें देशभर के लेखकों-कलाकारों को एक जगह देखने-सुनने का मौका मिलता है। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल और इंडिया टुडे जैसे साहित्य उत्सवों में भी लोगों का तांता लगा रहता है, मगर त्रासदी यह है कि इस तरह के कार्यक्रमों ने साहित्य के नियमित पाठक और श्रोता कम पैदा किए हैं, साहित्य जगत में स्टार संस्कृति को अधिक बढ़ावा दिया है। इन जगहों पर श्रोता आता है और फिर सालभर के लिए कहीं बिला जाता है। वह लगातार संस्कारित नहीं होता।

विश्वविद्यालयों और कालेजों की साहित्य के प्रचार-प्रसार में बड़ी भूमिका हो सकती थी, मगर दिल्ली तक में इसे लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखता। लेखक संघ भी पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में निष्क्रिय हुए हैं या बहुत कम सक्रिय रह गए हैं। महिलाओं, युवाओं, छात्रों आदि के संगठन यह काम कर सकते थे, मगर खुद इनकी हालत आज संतोषजनक नहीं है। प्रकाशक आगे बढ़कर यह काम कर सकते थे मगर करते नहीं।

विश्व पुस्तक मेले की गहमागहमी में ऐसे कार्यक्रम थोक भाव में आयोजित किए जाते हैं, मगर उस वातावरण में ऐसे कार्यक्रम मात्र औपचारिक बनकर रह जाते हैं। इससे इतर अपने प्रकाशन से छपी किताबों पर होनेवाले कार्यक्रम में भी आने का समय अक्सर प्रकाशक नहीं निकाल पाते। वे स्वयं ऐसे कार्यक्रम करें, यह बहुत कम होता है और अकसर साहित्येतर कारणों से होता है।

दिल्ली में पुस्तक और पाठक के बीच रिश्ता बनाने के कुछ काम हर वर्ष होनेवाला विश्व पुस्तक मेला भी करता है, जिसका लेखकों, पाठकों और प्रकाशकों को बेसब्री से इंतजार रहता है।

हिंदी प्रदेशों में मोहल्ले-मोहल्ले या कालोनी-कालोनी में पुस्तकालय स्थापित करने की पहल नहीं की गई। सरकारें और अन्य संस्थाएं पुरस्कार तो ढेरों देती हैं, मगर पाठकों और साहित्य के बीच पुल बनाने का काम नियमित रूप से नहीं करतीं। एक समय ऐसी पहल मध्य प्रदेश साहित्य परिषद ने की थी, जो अब खत्म है। अमेरिका जैसे घनघोर पूंजीवादी देश में मोहल्ला लाइब्रेरियों का संजाल बिछा है, मगर यहां नहीं है। पढ़े-लिखे समझे जानेवाले लोगों की हाउसिंग सोसायटियों के पदाधिकारी भी पढ़ने-लिखने संबंधी या भारत या दुनिया की बेहतरीन फिल्म दिखाने जैसी पहल करने में कोई दिलचस्पी नहीं लेते। सामान्य लोगों तक पहुंच बनाने की बात अब पूरी तरह भुलाई जा चुकी है।

साहित्य की विधाओं के संकट को विधा विशेष में कम काम होने की दृष्टि से देखें तो नाटक, निबंध आदि संकट में नजर आते हैं, मगर जिस व्यंग्य विधा में भरपूर से भी भरपूर लिखा जा रहा है,वह भी संकट में है। परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी के बाद इस क्षेत्र में प्रतिभाओं का विस्फोट नहीं हुआ है। किसी गंभीर लेखक में व्यंग्य लेखन की प्रतिभा हो तो भी वह आज व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान बनाना नहीं चाहता, जबकि स्थितियां नए किस्म के व्यंग्य के इस समय बेहद अनुकूल हैं। वैसे जिन विधाओं में खूब लिखा और छापा जा रहा है,क्या वे भी निरापद हैं, संकट के एहसास से बहुत दूर हैं?

 

34, नवभारत टाइम्स अपार्टमेंट, मयूर विहार, फेज1, दिल्ली110091  मो. 9810892198

 

 

अवधेश प्रधान
प्रसिद्ध समालोचक। पूर्व प्रोफेसर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय। अद्यतन पुस्तक परंपरा की पहचान

 

साहित्य की जरूरत मनुष्य को है पशुओं को नहीं

(1)विश्व पूंजीवाद के विकास की प्रक्रिया में उदारीकरण, भूमंडलीकरण का दौर आया। देश में इसी के साथ नई आर्थिक नीति आई, नई शिक्षानीति आई। इन नीतियों को लागू करने के लिए नई प्रतिभाएं लग गईं जिनकी दृष्टि में शिक्षा, संस्कृति का मूल्यांकन करने की एक ही कसौटी थी- पैसा। विश्वविद्यालयों में शिक्षाविदों, संस्कृतिविदों के बजाय तकनीकीविदों का वर्चस्व बढ़ा। शैक्षिक परिसर में विभिन्न ज्ञानानुशासनों का मूल्यांकन इसी कसौटी पर होने लगा- कौन ज्ञानानुशासन अधिक से अधिक पैसा कमाता है। प्रबंधन, इंजीनियरिंग, मेडिकल साइंस के आगे मानविकी फीकी पड़ गई। अप्लाइड साइंस (प्रयुक्त विज्ञान) के आगे मौलिक विज्ञान का आकर्षण कम हो गया। सामाजिक विज्ञान में अर्थशास्त्र की तूती बोलने लगी, क्योंकि व्यवहार में राजनीति अर्थनीति के मातहत आ गई।

ऐसे दौर में साहित्य, कला, सौंदर्यबोध के अन्य क्षेत्रों- कंठ संगीत, वाद्य संगीत, नृत्य, दृश्यकला (चित्र, मूर्ति आदि) की हैसियत घटती चली गई। बाजार की लहर ने संगीत को भी न छोड़ा- ध्रुपद अब लुप्तप्राय होता जा रहा है। दृश्य कला में विज्ञापन आदि का महत्व बढ़ रहा है।

टाटा-बिड़ला-जैन ग्रुप ने अपनी साहित्यिक पत्रिकाएं एक-एक कर बंद कर दीं। ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘कादंबिनी’ ही नहीं, ‘नंदन’ और ‘पराग’ तक की जलती मशालें बुझा दी गईं। पहले बनारस में भी बांग्ला के ‘देश’ और ‘अमृत’ जैसे पत्र मिल जाते थे। अब उनकी यादें भर हैं। बुद्धिमान सेठों ने, साहित्य छाप कर जो पूंजी ‘बर्बाद’ हो रही थी, उसे मुनाफा वाले व्यवसाय में लगाना बेहतर समझा। बनारस  क्या, समूचे हिंदी जगत का सिरमौर था- दैनिक अखबार ‘आज’। उसके साप्ताहिक अंकों में राहुल सांकृत्यायन, संपूर्णानंद, आचार्य नरेंद्रदेव, सीताराम चतुर्वेदी, बलदेव उपाध्याय, उग्र, निराला, त्रिलोचन, नामवर सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह जैसे पुराने-नए लेखों की रचनाएं छपती थीं। उसमें बच्चों के लिए एक पन्ना होता था- बाल क्लब। उसमें पहली बार नाम छपा देखकर बेहद खुशी होती थी। उसमें विवेकी राय ‘मनबोध मास्टर की डायरी’ नाम का कालम लिखते थे तो ‘चतुरी चाचा की चिट्ठी’ भोजपुरी में छपती थी। लोग उन्हें पढ़ने के लिए हफ्ता भर इंतजार करते थे। उसके पाठक गांवों में और कस्बों में भी बहुत थे। वह और उसके जैसे अखबार बेमौत मार दिए गए।

स्थानीय अखबारों से लेकर दिल्ली और बंबई की साहित्यिक पत्रिकाओं तक ने समूचे हिंदी प्रदेश में साहित्यिक रुचि के विकास में बड़ा योगदान किया था। अब अखबारों में एक तो समाचार ही कम रहता है, साहित्य साप्ताहिक पन्नों से भी गायम हो गया। ‘हिंदुस्तान’ अखबार अपना साप्ताहिक परिशिष्ट सिने तारिकाओं की नंगी-अधनंगी तस्वीरों और चटपटी खबरों से भरता है। नाम मात्र को इधर ‘कादंबिनी’ के दशकों पुराने अंकों से लेकर कहानी, लेख, कविता के नमूने थोड़ा-थोड़ा परोस रहा है।

स्कूलों की बालसभा में हफ्ते में एक दिन बच्चों को कविता, कहानी सुनाने को तैयार किया जाता था। तहसील, जिला और कमिश्नरी स्तर पर अंत्याक्षरी प्रतियोगिता होती थी जिसमें तुलसीदास के केवट प्रसंग, सुरसा प्रसंग, समुद्र लांघन प्रसंग आदि के छंद होते थे। सूरदास और मीरा के पद, कबीर, रहीम के दोहे, गिरधर की कुंडलियां, मैथिलीशरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, नवीन, दिनकर, बच्चन, प्रसाद और महादेवी की कविताएं बच्चे सुनाते थे। ‘हल्दीघाटी’, ‘आंसू’, ‘भारत-भारती’, ‘जयद्रथ वध’ और ‘रश्मिरथी’ में पारंगत टोलियां प्राय: जीत जाती थीं। रसखान के पचीस-तीस सवैये बच्चे याद कर डालते थे और मंच पर झूमकर सुनाते थे। ऐसी प्रतियोगिताएं खत्म हो गईं। स्कूलों-कॉलेजों में पुस्तकालय थे जिनसे किताबें लेकर बच्चे प्रेमचंद, सुदर्शन, रवींद्रनाथ, तोल्स्तोय आदि की कहानियां और गांधी, विवेकानंद, भगत सिंह आदि की जीवनियां पढ़ते थे। पुस्तकालय खत्म हो गए। पढ़ने की संस्कृति मर गई। शहर तो शहर, देहातों में भी अंग्रेजी स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह उग गए हैं। अब तो बच्चों को टिट-बिट करते देखकर मां-बाप खुश होते हैं!

(2)जो रात-दिन निन्यानबे के फेर में पड़े रहते हैं, जो जैसे-तैसे-कैसे भी लाख को करोड़, करोड़ को अरब, अरब को खरब बनाने में लगे रहते हैं, अर्थ और काम की अनंत लिप्सा ने जिनको परनाले के कीड़ों से भी अधिक दयनीय बना दिया है, लूट-हिंसा-हत्या ने जिन्हें मनुष्य ही नहीं रहने दिया, जो मनुष्य के वेश में पुच्छ-विषाणहीन पशु के जीवन में आनंद लेने लगे हैं उनको साहित्य की आवश्यकता बिलकुल नहीं महसूस होती। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने सुप्रसिद्ध निबंध ‘कविता क्या है’ के अंत में लिखा था कि ‘अंत:प्रकृति में मनुष्यता को समय-समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी। जानवरों को इसकी आवश्यकता नहीं।’

नवजागरण के दौर में भारतेंदु और प्रेमधन जैसे कुलीन परिवारों  के सुसंस्कृत व्यक्तियों ने हिंदी जाति की चेतना के परिष्कार के लिए नए साहित्य की रचना की। रवींद्रनाथ भी कुलीन संभ्रांत परिवार में जनमे-पले-बढ़े थे। हर नगर में कुछ कुलीन परिवार थे, जिनमें साहित्य और कला का ऊंचा संस्कार था। काशी में राम कृष्ण दास ने भारत कला भवन की स्थापना की थी और प्रयाग में ब्रजमोहन व्यास ने इलाहाबाद कला संग्रहालय की। आज के अंबानी-अडानी साहित्य-संस्कृति के विकास के लिए एक धेला नहीं खर्च करते। तब के राजनेता भी लिखते-पढ़ते थे, साहित्य के प्रति लगाव था उनमें। अब ले-देकर शशि थरूर और जयराम रमेश जैसे एक-दो दिखाई देते हैं। काश ये लोग अपनी जनता के लिए अपनी भाषा में लिखते!

बाकी नगर के सभागृह, गांव के प्रधान-सरपंच से लेकर विधायक और सांसद तक की छोटी-बड़ी चुनावी लड़वैये हैं या फिर इन पदों पर अधिकार करके भूमि-भवन-कार-हथियार ‘इत्यादि’ की विस्तार-साधना के सिद्ध-साधक हैं। बड़े अधिकारियों का मुख्य भाग यही सब करता है- नियम कानून को अपने अनुकूल बनाकर ‘सुसंस्कृत’ ढंग से। जो अपवाद हैं, वे अपवाद ही हैं। क्या वामपंथ, क्या दक्षिणपंथ- सबमें साहित्य का पढ़ना-लिखना कम होता जा रहा है। ऐसे माहौल में तरह-तरह के ‘बाबाओं’, ‘गुरुओं’, ‘आचार्यों’ और करामाती ढोंगियों की बन आती है। धर्म, दर्शन, अध्यात्म के गंभीर अध्ययन-मनन, नई जिज्ञासा, प्रश्नोत्तर और साधना के स्थान पर सिद्धि, चमत्कार, करामात, जादू, टोटका, अंधविश्वास और कूपमंडूकता का बोलबाला होता गया है। इसके सबसे बुरे शिकार हैं जनसाधारण।

इस युग में कुसंस्कृत जनमानस को कबीर, सूर, मीरा, तुलसीदास, रैदास, गुरुनानक के भजनों के बजाय बाबाओं की चमत्कार-कथाएं अच्छी लगती हैं। जनसाधारण में प्रेमचंद का कथा साहित्य तो दूर, आल्हा-सोरठी बृजभार-नायक बनिजारा- चनैनी और लोरकी का भी लोप हो गया है। कुछ टीवी ने बर्बाद किया, बाकी मोबाइल ने।

एक छोटा वर्ग है सच्चे साहित्य-प्रेमियों का जो पुराना और नया, देशी और विदेशी साहित्य अब भी पढ़ता है और उसमें रमता है। जिन्होंने अपने बचपन में स्कूलों-कॉलेजों में साहित्य के आस्वादन का आनंद प्राप्त किया, वे चाहते हैं कि वह आनंद उनके बच्चों को भी मिले, लेकिन अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा ने उसका रास्ता बंद कर दिया। जब से दलित, स्त्री और आदिवासी समुदाय में एक नई चेतना की जागृति आई है तब से साहित्य की सामग्री, रचनाकार और पाठक- हर स्तर पर साहित्य की दुनिया में एक नया वातावरण तैयार हुआ है। इस परिघटना ने न केवल साहित्य बल्कि शिक्षा और समाज में भी एक व्यापक और रचनात्मक प्रभाव की सृष्टि की है।

(3)सबसे बड़ा कारण है पैसा, जीवन के हर क्षेत्र में पैसे का बढ़ता महत्व, पैसे को जीवन का सार-सर्वस्व मान लेने की प्रवृत्ति। चाहे जैसे भी अधिक से अधिक धन और भोग-सामग्री संचित करने की होड़ में महानगर का आदमी बाहर से समृद्ध और भीतर से दरिद्र होता गया है। भवन ऊँचे से ऊँचे होते गए हैं, आदमी छोटे से छोटे। भूखे को खिलाकर खाने का, प्यासे की प्यास मिटा कर पीने का आनंद खो गया है। घर से लेकर फिल्मों तक में गाना घटता गया, शोर बढ़ता गया। कलह-कोलाहल में ‘हृदय की बात’ कौन सुने?

अपना अपना स्वार्थ साधते-साधते, मैं-मैं मेरा-मेरा करते-करते सबसे मिलने की, अपनों से बात करने की, अपने मन से ही बतियाने की, ‘अपनी खबर’ लेने की चाह खत्म हो गई। अपनी आत्मा को विश्व से एक करने की न इच्छा रह गई, न शक्ति। साहित्य के आईने में झांककर देखने से बचने लगे, कहीं अपने-आप से मुलाकात न हो जाए! उसमें प्रतिबिंबित दुख के चेहरे सारा मजा किरकिरा न कर दें! इससे अच्छा है, पोर्न फिल्में देखना, भद्दे और गंदे मजाक बुनना! हास्य कवि-सम्मेलनों का चलन नई महानगरीय अभिरुचि की देन है। हास्य के आलंबन हुआ करते थे पेटू, कंजूस, पाखंडी, ढोंगी, पिछड़ी सोच वाले व्यक्ति। हास्य के नए विषय हो गए सीधी-सादी पत्नी, मेहनती मजदूर, भोला-भाला किसान, बेरोजगार नौजवान। मजबूरी का नाम महात्मा गांधी- यह मुहावरा इसी संस्कृति की देन है। सदी का सबसे बड़ा नायक मजाक का विषय हो गया। लुच्चई को स्मार्टनेस कहा जाने लगा और सादगी को बेवकूफी। किसी जमाने में मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंश राय बच्चन और दिनकर राज्यसभा की शोभा बढ़ाते थे। अब कोई पार्टी साहित्यकारों को अपना प्रतिनिधि नहीं मानती। अब फिल्म और क्रिकेट के सेलिब्रिटी जनता के प्रतिनिधि हैं। अपराधियों और माफियाओं की खूब इज्जत है!

मुहल्ले-मुहल्ले में छोटी-बड़ी गोष्ठियां हों- साप्ताहिक या पाक्षिक या मासिक। पुस्तकालयों का जाल तैयार किया जाय- क्लबों की तरह। नौजवानों को जोड़ने पर विशेष जोर दिया जाय। कविता-पाठ, कहानी-पाठ, कभी-कभी निबंध, चर्चा-परिचर्चा। समय-समय पर नाटक-नुक्कड़ नाटक। शहर में आगंतुक साहित्यकारों को बुलाकर उनका रचना-पाठ हो हर आयोजन में पुस्तकों-पत्रिकाओं की स्टाल भी लगे। बच्चों के कंठस्वर में पुराने-नए कवियों की कविताएं, गीत और ग़ज़लें सुनने-सुनाने की प्रतियोगिता हो। सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन (कोलकाता) की तरह शहर-शहर में हिंदी मेलों का आयोजन छोटी-छोयी पुस्तिकाओं में रचना-संकलन तैयार करके सस्ती दर पर किशोर-किशोरियों में खरीदने-बेचने-बांटने का सिलसिला चले। स्कलों-कालेजों-विश्वविद्यालयों में जो गोष्ठियां, सेमिनार आदि होते हैं उनमें शाल, मोमेंटो वगैरह की जगह साहित्य की पुस्तकें उपहारस्वरूप देने का चलन हो!

मध्यवर्ग का एक हिस्सा ऐसा है जो अब भी पढ़ने का शौक रखता है। दिल्ली, कोलकाता, पटना, बनारस, लखनऊ, जयपुर आदि के पुस्तक मेलों में इनकी भीड़ उमड़ती है। किताबें आज भी बहुत बिकती हैं। कोई प्रकाशक घाटे में नहीं है। कोरोना में दवाओं के बाद सबसे अधिक किताबें बिकीं। हिंदी में, अन्य भाषाओं की अपेक्षा, किताबें बहुत महंगी हैं। बाल साहित्य पहले से ही हिंदी में कम रहा है। सोवियत संघ के विघटन के बाद वहाँ की किताबें छपना-बिकना बंद हो गईं। इनकी बहुत जरूरत है। इनका बहुत बड़ा बाजार है। पुरानी बोधकथाओं से लेकर प्रेमचंद, तोल्सतोय, रवींद्रनाथ आदि की कहानियों की छोटी-छोटी किताबें निकालनी चाहिए। हमारे लेखक संगठन सांस्कृतिक नवजागरण का यह सिलसिला देहातों-कस्बों तक ले जाएँ।

(4)पुरानी विधाओं में महाकाव्य आज के साहित्य-प्रवाह से बहुत दूर जा पड़ा है। उपन्यास ने उसकी जगह ले ली है। खंड काव्य के प्रयोग नए कवियों में कुंवर नारायण ने किए- ‘आत्मजयी’, ‘वाजश्रवा के बहाने’ और ‘कुमारजीव’ में। चंपू काव्य का प्रयोग ‘यशोधरा’ तक सीमित रह गया। अंग्रेजी की देखादेखी अज्ञेय, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती आदि ने काव्य-नाटक लिखे। वह सिलसिला अब रुका पड़ा है। कभी एकांकी की धूम थी, लेकिन वह भी जल्दी ही ठंडा पड़ गया। गद्य काव्य भी नकेनवादी काव्य-प्रयोग की तरह बीते दिनों की चीज हो गई। अकविता, अकहानी के दौर के प्रयोग भी साठोत्तरी लघु पत्रिकाओं की फाइलों में बंद हो गए। हाइकू और मिनी कविता से अधिक दीर्घजीवी तो दोहा साबित हुआ। सानेट की रचना त्रिलोचन के साथ ही चली गई। उनके प्रभाव में नामवर जी, केदारनाथ सिंह, आनंद भैरव शाही आदि ने कुछ  सानेट लिखे, और बस।

सबसे अधिक लक्षणीय है ललित निबंधों के निर्बन्ध प्रवाह का रुक जाना। भारतेंदु युग में स्वच्छ चेतना की अभिव्यक्ति नाटकों से भी पहले निर्बंध में हुई, जिसकी पराकाष्ठा बालमुकुंद गुप्त के गद्य में देखने को मिली थी। फिर द्विवेदी युग में गुलेरीजी, पूर्ण सिंह, सियाराम शरण गुप्त आदि ने इस कला में विशिष्ट यागेदान किया। हजारी प्रसाद द्विवेदी से निबंध की एक विशेष कलम उपजती है, जिसमें विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, शिवप्रसाद सिेंह, कृष्णबिहारी मिश्र आदि ने रंग-रंग के फूल-पत्ते उगाए। यह एक जीवंत विधा थी, लेकिन सौ-सवा सौ वर्ष के बाद बीसवीं सदी के अंतिम दशक में इसकी गति मंद होते होते बंद हो गई। भावुकता की अधिकता, भाव और शैली का दुहराव, युग की रुचि और मांग के मुकाबले पिछड़ जाना- कारण जो हो।

पिछड़े वर्ग के आरक्षण के मुद्दे ने सामाजिक न्याय के प्रश्न को सबसे ऊपर कर दिया। दलित और पिछड़ी जातियों, स्त्रियों और आदिवासियों की मुक्ति का जो स्वर उठा उसमें सत्य का बल था। उसने समूचे समाज को हिला कर रख दिया। उसकी उपेक्षा संभव न थी- न राजनीति में, न साहित्य में। दलित, पिछड़ावर्ग, स्त्री और आदिवासी समूह से नए-नए लेखकों का आना एक बड़ी साहित्यिक परिघटना थी। उसकी अभिव्यक्ति सबसे अधिक आत्मकथाओं में हुई या आत्मकथात्मक उपन्यासों में। इनके प्रति जो ललक उस समय पैदा हुई, वह आज तक बनी हुई है और बढ़ती जा रही है। सामाजिक मुक्ति की नई चेतना ने एक नया विशाल पाठक वर्ग तैयार किया, जिसे रचनात्मक साहित्य के साथ साथ वैचारिक साहित्य की भी जरूरत महसूस हो रही थी, इसीलिए ललाई पेरियार की रचनावली आते ही हाथों-हाथ बिक गई। स्त्री-लेखन और आदिवासी साहित्य के प्रति भी जबर्दस्त आकर्षण है। संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत के अलावा अरुंधती राय, अमिताभ घोष, रामचंद्र गुहा जैसे अंग्रेजी लेखों की किताबों के हिंदी अनुवाद लोग चाव से पढ़ते हैं। चेतन भगत और अमीश त्रिपाठी के उपन्यासों को भी मूल और हिंदी अनुवाद में पढ़ने वाले बहुत हैं। पर्यावरण पर अनुपम मिश्र और शेखर पाठक की किताबों का अपना आकर्षण है। आलोचना पढ़ने वालों में रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह अब भी लोकप्रिय हैं। भारतीय नवजागरण और हिंदी नवजागरण के प्रति हिंदी के छात्रों-अध्यापकों में जानने-सुनने-समझने का उत्साह समान रूप से सबमें दिखाई देता है।

(5)जब धर्म के जयकारे के साथ तलवारें और त्रिशूल चमकाते हुए जुलूस निकलते हैं, जब गाड़ियाँ रोक-रोक कर धार्मिक उत्सव के लिए लट्ठधारी चंदे वसूल करते हैं, धार्मिक  उत्सवों में खूब डीजे बजा-बजा कर फिल्मी धुनों पर नाच-नाच कर भक्ति का प्रदर्शन किया जाता है तब धर्म विस्थापित होता है। शांति की जगह अशांति, सौमनस्य की जगह वैमनस्य, करुणा की जगह क्रोध, अहिंसा की जगह हिंसा का बोलबाला होता है। उसी प्रकार लिटररी फेस्टिवल सच्चे साहित्यिक अनुराग के बजाय प्रदर्शन की उपज हैं। भीतर के अंधकार का अट्टहास!

बनारस के लिटररी फेस्टिवल में देखा- एक पद्मश्री दुखी थे : आने-जाने का भाड़ा भी नहीं दिया, जब तक हाल खाली न हुआ बाहर खड़े-खड़े इंतजार कराया, पता नहीं कैसे उल्लू के पट्ठों के बीच पांच-पांच मिनट बोल कर चले आना पड़ा।

मेरा निजी अनुभव : एक बहुत अच्छे काव्य पाठ और उसपर सार्थक चर्चा के बाद एक हंसोड़ फेसबुकिया लेखक को बुला लिया गया। वह भद्दे जोक सुनाने लगा। काव्य-पाठ का सारा प्रभाव नष्ट हो गया। बाहर निकला तो ढोल-तासा के शोर के बीच एक फिल्मी सेलिब्रिटी आई। ढोल वाले चले गए, वे बेचारी अकेली बाहर खड़ी इंतजार करती रहीं- कोई आए तो बुलाकर हॉल में ले जाए! पता नहीं, किस हाल में जाना है! सरकारी कार्यक्रम जैसा सब कुछ मशीनी, बनावटी, औपचारिक! केवल धूम-धाम, चमक-दमक, शोर और दिखावा। पता नहीं, इसे लोग लिटररी फेस्टिवल क्यों कहते हैं! इसकी तुलना में हमारी साहित्यिक गोष्ठियाँ कहीं अधिक सार्थक और सुरुचिपूर्ण होती हैं। इन ‘महा-महोत्सवों’ के अर्थशास्त्र-समाजशास्त्र की रचना ऐसी है जिसमें साहित्य-संस्कृति के प्रति प्रेम और सम्मान की गुंजाइश ही नहीं है। हमारे लेखक-संगठन मिलकर इसका तोड़ निकाल सकते हैं। प्रो. कलबुर्गी की हत्या के विरोध में तमाम लेखकों ने राष्ट्रीय सम्मान लौटाने का जो अभियान चलाया था,उससे समाज में उनके प्रतिरोधी स्वर का एक नैतिक प्रभाव पड़ा था। पर लेखकों की कौन सुनता है! उस समय सांप्रदायिक फासीवादी हुड़दंगियों ने लेखकों को चुन-चुनकर गालियां दीं। उनको साहित्य की क्या जरूरत? साहित्य की जरूरत मनुष्य को है, जानवरों को नहीं।

 

एन 1/6552, शिव प्रसाद गुप्त कालोनी, सामने घाट, नगवा, वाराणसी221005 मो.8400925082

 

 

संजय कुंदन
प्रसिद्ध कहानीकार। अद्यतन कहानी संग्रह श्यामलाल का अकेलापन’, उपन्यास तीन ताल। वाम प्रकाशन, नई दिल्ली में संपादक।

 

साहित्य कम हुआ है पर समाज से गायब नहीं

(1)स्पष्ट नहीं है कि यह सवाल पूरी दुनिया के संदर्भ में है या भारत को लेकर या हिंदी साहित्य को लेकर। मैं अपना जवाब हिंदी साहित्य और हिंदी भाषी समाज पर केंद्रित करूंगा। हिंदी साहित्य आज एक छोटे से तबके तक सीमित रह गया है। कुछ ही लोग लिखते हैं, पढ़ते हैं और उसपर बात करते हैं। समाज में एक छोटा सा क्लब है साहित्यप्रेमियों का। यह स्थिति नब्बे के दशक से खासतौर से बनना शुरू हुई, लेकिन पिछले एक दशक में इसमें तेजी आई है।

बाजार के बढ़ते दखल और सूचना क्रांति के प्रसार ने साहित्य पर गहरा असर डाला है। बाजार ने जीवन मूल्यों के साथ सांस्कृतिक अभिरुचि को बदला है। हमारे सोचने और देखने को प्रभावित किया है। जब टीवी नहीं था, लोग अखबार-पत्रिकाएं और किताबें पढ़ते थे। गांव-गांव में पुस्तकालय थे। तब सांस्कृतिक भूख मिटाने या मनोरंजन का एक बड़ा जरिया साहित्य था। टीवी एक आधुनिक तकनीक था, तो स्वाभाविक ही था कि उसने लोगों को खींचा। शुरू-शुरू में टीवी पर स्तरीय साहित्यिक रचनाएं दिखाई जाती थीं, पर उदारीकरण और मुक्त बाजार के आते ही इस माध्यम पर बाजार का कब्जा हो गया और देखते-देखते मनोरंजन का स्वरूप बदल गया। साहित्यिक विषयवस्तु की जगह वे चीजें परोसी जाने लगीं, जो बाजार के अनुकूल थीं। बाजार की ताकत अभूतपूर्व रूप से बढ़ी और मनोरंजन चैनल घर-घर पहुंच गए, जिन्होंने दर्शकों को उपभोक्ता में बदल दिया।

प्रिंट मीडिया पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। चूंकि कई न्यूज चैनल आ गए थे तो अखबारों पर दबाव बढ़ने लगा। उनके सामने बाजार में टिके रहने की चुनौती पैदा हुई। माना जाने लगा कि दर्शकों को हल्की चीजें ही चाहिए। बाजार से लाभान्वित कुछ बौद्धिकों ने यह प्रचारित करना शुरू कर दिया कि आम जनता को साहित्य से कोई मतलब नहीं रह गया है। इस तरह अखबारों से साहित्य को देशनिकाला मिला। व्यावसायिक दबाव में साहित्यिक पत्रिकाएं भी बंद होने लगीं। इस तरह लोगों को गंभीर साहित्य से दूर किया गया और उनमें बाजार द्वारा प्रस्तुत हल्के मनोरंजन की आदत पैदा की गई। एक मूल्य की तरह यह स्थापित किया गया कि गंभीरता, वैचारिकता वगैरह कोई अच्छी चीज नहीं है। यह एक छोटे से वर्ग का शगल है।

उदारीकरण से सामाजिक जीवन में बड़ा परिवर्तन आया। सरकारी नौकरियां कम हो रही थीं, निजीकरण बढ़ रहा था। छोटे शहरों से बड़े शहरों में पलायन बढ़ रहा था, काम के घंटे बढ़ रहे थे जिससे एक व्यक्ति के जीवन में अवकाश भी कम हो रहा था। रोजी-रोटी की आपाधापी में साहित्य के लिए जगह कम होती जा रही थी। अब पढ़ने का अर्थ नौकरी, कैरियर के लिए पढ़ना रह गया था। पहले स्कूल-कॉलेजों में साहित्यकारों की जयंतियां, काव्य प्रतियोगिताएं या अन्य समारोह हुआ करते थे, जिससे छात्रों में साहित्य के प्रति अभिरुचि जाग्रत होती थी, लेकिन वहां का माहौल भी बदल गया है। चूंकि उपयोगितावाद हावी है, इसलिए साहित्य से प्रत्यक्ष और तत्काल लाभ न मिलने की वजह से उसे दरकिनार कर दिया गया है। हमारा दिमाग़ बनी-बनाई चीजों को स्वीकार करने का आदी हो गया है। यानी जो सर्वसुलभ है, वही चाहिए।

सोशल मीडिया ने इस प्रक्रिया को और गति दी है। अब हर आदमी एक छोटे से द्वीप में रह रहा है। उसने अपने को ही एक प्रदर्शनकारी वस्तु और अपने जीवन को एक इवेंट में बदल डाला है और उसी में खोया हुआ एक आत्मतुष्ट दुनिया में जी रहा है। वह खुद ही नायक है, खुद ही रचना है और अपने को ही देख रहा है, दिखा रहा है। ऐसा नहीं है कि उसे नहीं पता कि साहित्य किस चिड़िया का नाम है। स्कूल में पढ़े गए पोएम की स्मृति लेकर वह कुछ रच भी रहा है, लेकिन किसी और को नहीं पढ़ता। उसे नहीं मालूम कि साहित्य वहीं तक सीमित नहीं है, जो उसने स्कूलों में पढ़ा है।

(2)गरीब तबके के पास पहले भी साहित्य पढ़ने का अवकाश नहीं था, लेकिन वह अपनी लोकसंस्कृति से किसी न किसी रूप में जुड़ा रहता था। आज उसके हाथ में भी मोबाइल है। उसके जरिए जो कुछ उसे पहुंचाया जा रहा है, वह उसी में डूब गया है। दूसरी तरफ़ मध्यवर्ग, जो साहित्य का असल पाठक वर्ग रहा है, इससे दूर होता जा रहा है। उसे अब साहित्य की आवश्यकता महसूस नहीं होती। लेकिन यह भी सच है कि मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजी में शिफ्ट कर गया है। चूंकि उसकी शिक्षा और रोजी-रोजगार की भाषा अंग्रेजी है, तो वह साहित्य भी अंग्रेजी का पढ़ता है। बाजार ने अंग्रेजी साहित्य को ग्लैमराइज भी किया है।

फिर प्रश्न है, कि हिंदी साहित्य पढ़-लिख कौन रहा है? मध्यवर्ग का ही एक तबका यह काम कर रहा है। ये वे लोग हैं, जिन्हें किसी न किसी रूप में साहित्य विरासत में मिला है। या तो घर में कोई लेखक या हिंदी का अध्यापक हो या कोई बुद्धिजीवी। या किसी को ऐसे किसी लेखक-विद्वान का सान्निध्य मिला हो या उसपर कॉलेज-यूनिवर्सिटी के सांस्कृतिक-राजनीतिक माहौल का असर हुआ हो। बहुत से लोग सोशल मीडिया पर साहित्य की उपस्थिति देखकर लेखन में उतरे हैं। उनमें से कुछ के लिए यह एक फैशन है। बहुतों के लिए साहित्य सोशलाइजिंग का एक ज़रिया है, मतलब संपर्क और रुतबा बनाने का एक माध्यम।

पिछले कुछ समय में हिंदी प्रदेशों में पिछड़े-दलित और आदिवासियों की नई पीढ़ी सामने आई है, जिसके भीतर साहित्य लिखने-पढ़ने की एक भूख है। इनमें से कई ऐसे हैं जो अपने परिवार के पहले स्नात्तक या परा स्नात्तक हैं। ये साहित्य को बदलाव के एक माध्यम के रूप में देखते हैं। वे सब, जिनका एक वैचारिक सरोकार है, साहित्य की आवश्यकता को महसूस करते हैं।

(3)महानगरों में भौगोलिक दूरी, कामकाज की आपाधापी और समय के अभाव ने साहित्य के लिए अवकाश बचने नहीं दिया है। दूसरी बात है कि उपभोक्तावाद का ज्यादा असर महानगरों में है। वहां सामूहिकता का लोप हो गया है। छोटे शहरों में कुछ पुराने मूल्य बचे हुए हैं। साहित्य और साहित्यकारों के प्रति सम्मान उनमें से एक है। आज अनेक अखबारों के दिल्ली संस्करण में साहित्य नहीं छपता, लेकिन उन्हीं अखबारों के लखनऊ, पटना, जयपुर आदि संस्करणों में साहित्य को जगह मिलती है!

साहित्य के प्रति आकर्षण बढ़ाने का कोई निश्चित फार्मूला नहीं हो सकता। इसका संबंध सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से है। जब समाज में कोई बड़ी हलचल होती है, आंदोलन होते हैं, तो साहित्य और कला को उत्प्रेरण मिलता है। इस मामले में देखें तो एक सन्नाटा दिखता है। फिर भी लेखक संगठन कुछ प्रयास कर सकते हैं। वे स्कूलों-कॉलेजों में आयोजन करें। जहां जो लेखक और साहित्यप्रेमी हैं, वे अपने घर-मोहल्ले या सोसाइटियों में आयोजन करें और इसमें नई पीढ़ी को शामिल करें। अलग-अलग विधाओं के लोग मिलकर काम करें। जैसे नाट्य संस्थाएं अपने कलाकारों के बीच काव्यपाठ करवाएं। लेखक संगठन अभिनेताओं से काव्य आवृत्ति या कहानी पाठ करवाएं।

(4)आज एकांकी, निबंध, ललित निबंध, रिपोर्ताज, यात्रा वृत्तांत, डायरी, भेंटवार्ता, रेखाचित्र जैसी विधाएं कमजोर पड़ी हैं। पहले ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘कादंबिनी’ और इस तरह की अन्य पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं को जगह मिलती थी। अखबारों के रविवारीय परिशिष्ट में भी इन विधाओं को जगह मिलती थी। कई बाल पत्रिकाएं छपती थीं, जिनमें एकांकी जैसी विधा को नियमित रूप से जगह मिलती थी। पर अब ये पत्रिकाएं नहीं रहीं तो ये विधाएं कमजोर पड़ गई हैं। इनके संकलन आने बंद हो गए हैं। प्रकाशक इनमें कम रुचि लेने लगे हैं। अब लघु पत्रिकाएं भी बेहद कम रह गई हैं। जो हैं भी, उनके संपादक मुख्यतः कवि और कथाकार हैं, जिनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। फिर उनपर भी बाजार का दबाव है। तो वे ज्यादातर कविता-कहानी या उपन्यास अंश तक सीमित रहते हैं।

आज उपन्यास सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है। इसलिए कि आज के दौर के जटिल यथार्थ को विस्तार के साथ अभिव्यक्त करने की इसमें सबसे ज्यादा गुंजाइश है। यह हर वर्ग के पाठक को सबसे ज्यादा संतुष्टि देता है। इसके ढांचे में समाज के हर वर्ग की आशाएं-आकांक्षाएं और असंख्य प्रसंगों को समेट लिया जाता है। प्रकाशक भी इसे ही ज्यादा प्रमोट कर रहे हैं। वेबसीरीज का दौर आने के बाद लोगों में किसी कथा को उसके पूरे विस्तार में जानने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इसलिए वे उपन्यास पढ़ना चाहते हैं।

(5)यह दिलचस्प है कि जिस दौर में साहित्य का दायरा कम हुआ, साहित्यिक आयोजनों और खासकर लिटरेरी फेस्टिवलों की बाढ़ आई हुई है। इसके पीछे भी बाजार ही है। साहित्य कम हुआ है, लेकिन समाज से गायब नहीं हुआ है, न होगा। यह बात बाजार के नियंता समझते हैं। हर चीज़ से अपना फायदा निचोड़ने की अपनी आदत के कारण ही वे साहित्य को सामने रखकर एक ऐसा पैकेज तैयार करते हैं, जो युवाओं को खींच सके। हिंदी का एक न्यूज चैनल हिंदीभाषी जनता के बीच अपनी स्वीकृति और विश्वसनीयता बढ़ाना चाहता है, इसलिए वह साहित्य का एक मजमा लगाता है। साहित्य के नाम पर फिल्मी कलाकार, गायक और खिलाड़ी बुलाए जाते हैं। इससे हर तरह के युवाओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। फेस्टिवलों के पीछे सोशलाइजिंग भी एक मकसद होता है, जिसकी चर्चा मैंने पहले की है। कई फेस्टिवल के पीछे कोई रसूख वाला व्यक्ति होता है, जो इसके जरिए अपनी साहित्यिक महत्वाकांक्षा भी पूरी करता है और अन्य हित भी साध लेता है।

साहित्य की प्रासंगकिता कभी खत्म नहीं होने वाली है। जो आज इससे जुड़े हैं, वे इसे विरासत के रूप में कुछ और लोगों को सौंप जाएंगे। साहित्य का महत्व संख्या के आधार पर निर्धारित नहीं हो सकता। ठीक है कि साहित्य बहुत कम लोग पढ़ते हैं। सवाल है कि दर्शनशास्त्र कितने लोग पढ़ते हैं? बहुत कम लोग पढ़ते हैं तो क्या दार्शनिक होने बंद हो गए? दर्शन पर किताबें नहीं आ रही हैं? अर्थशास्त्र ही कितने लोग पढ़ते हैं? तो क्या अर्थशास्त्र पर काम बंद हो गया? यह बात विज्ञान पर भी लागू होती है।

एक साहित्यकार का महत्व वैज्ञानिक, दार्शनिक, अर्थशास्त्री और इतिहासकार से जरा भी कम नहीं है। साहित्य का काम अपने समय को दर्ज करना है। साहित्य मनुष्यता की स्मृति को सुरक्षित रखता है और यह काम वह इतिहास से एक क़दम आगे बढ़कर करता है। आखिर क्यों साहित्य को इतिहास का एक प्रमुख स्रोत माना गया है? साहित्य असल में एक विशिष्ट कार्य है, लिखना भी और पढ़ना भी। समाज की सांस्कृतिक अभिरुचि इतनी उन्नत हो जाए कि एक बहुत बड़ा हिस्सा इस विशिष्टता को हासिल कर ले, यह एक आदर्श स्थिति है। अगर किसी समाज में यह स्थिति नहीं आई है, तो इससे साहित्य और साहित्यकारों का महत्व कम नहीं हो जाता।

 

701, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर9, वसुंधरा, गाजियाबाद201012 (उप्र) मो.9910257915

 

 

अच्युतानंद मिश्र
चर्चित युवा कवि तथा लेखक। अद्यतन कविता संग्रह आंख में तिनकाऔर लेखों का संग्रह बाजार के अरण्य में

 

आलोचनाविहीन समाज में साहित्य ही नहीं स्वतंत्र विवेक की संभावना भी कम है 

(1)साहित्य की जरूरत तो हमेशा रही है और रहेगी।  साहित्य का जन्म मनुष्यता के जन्म से जुड़ा है। इसलिए जब तक मनुष्य है इस पृथ्वी पर, साहित्य भी रहेगा। हालांकि यह भी सच्चाई है कि इधर के दशकों में साहित्य की भूमिका बदली है।

साहित्य का संबंध मनुष्य के आत्मजगत से है। आत्म के खोज का माध्यम साहित्य है। इसी आत्म के विस्तार में हम सामाजिकता की निर्मिति को देखते हैं। कह सकते हैं, आत्म की खोज से आत्म के विस्तार तक की दृष्टि ही मनुष्य की सांस्कृतिक यात्रा है, जिसे साहित्य और कलाएं संभव करती है। इसके प्रमाण के तौर पर संसार की विभिन्न भाषाओं में रचे गए आदि ग्रंथों को देखा जा सकता है- चाहे वह सुमेरियन महाकाव्य गिलगमेश की दास्तान हो, होमर रचित ओडीसी या वेदव्यास की महाभारत की कथा हो। इन सबमें आत्म के खोज से आत्म के विस्तार तक की यात्रा मौजूद है।

सरल भाषा में कहें तो कला और साहित्य का अर्थ मनुष्य के लिए अपने होने की व्यापक भूमिका का निर्धारण है। अस्तित्व का प्रश्न भी साहित्य है और अस्तित्व का विस्तार भी साहित्य है। अगर साहित्य आज हाशिए पर भी मौजूद नहीं है तो मनुष्य पहचान के संकट के दौर से गुजर रहा है। वह अस्तित्व के विलुप्त होने के खतरों से जूझ रहा है। मुझे ठीक-ठीक ऐसा नहीं लगता। हां यह जरूर है कि साहित्य के परिवर्तित रूप ने उसे खतरे में ला दिया है और अगर वह इसी दिशा में बढ़ता रहा तो जल्दी ही अस्तित्व के विलुप्त होने के खतरों की तरफ बढ़ता जाएगा।

ऐसा क्यों हो रहा है? अगर हम इस प्रश्न की तह में जाना चाहते हैं, इसकी पड़ताल करना चाहते हैं, मनुष्य होने की जिम्मेदारियों के निर्वहन में इस समस्या को पहचान रहे हैं और इससे जूझना चाहते हैं तो हमें यह जानना होगा कि विगत दशकों में, बल्कि पिछले पचास वर्षों में ऐसा क्या हुआ है कि मनुष्य साहित्य से दूर होता गया है। ऐसे कौन से परिवर्तन हुए हैं, जिसने मनुष्य के अंतर्जगत को या उसकी आत्मगतता को परिवर्तित किया है?

और यहां हम देखते हैं  कि मनुष्य की वैयक्तिक भूमिका, सामाजिक भूमिका में परिवर्तन हो रहा है। वस्तुओं के अपरिमित संसार ने उसे कंठ तक आच्छादित कर रखा है। वह महज उत्पादक और उपभोक्ता भर रह गया है। आज के मनुष्य के जीवन से ऐसे क्षणों की खोज कठिन हो गई जो व्यावसायिक उत्पादन का हिस्सा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में न हो। दुर्भाग्य से साहित्य और कलाएं भी उत्पादन के दायरे में सिमटती जा रही हैं। साहित्य की भूमिका एक सस्ते मनोरंजन के स्तर तक सीमित होती जा रही है। किसी रेस्तरां में खाना और किताब पढ़ने के बीच का अंतर समाप्त हो गया है। सतत उपभोग की प्रवृति ने मनुष्य के अंतर्जगत को बुनियादी अर्थों में परिवर्तित कर दिया है।

(2)साहित्य की जरूरत सभी को है और रहेगी। लेकिन उत्तर-औद्योगिक समाज में मनुष्य के अंतर्जगत को सबसे  बड़ी चुनौती मिलती है। साहित्य का गहरा संबंध हमारे अंतर्जगत से है और उसका विस्तार हमें समाज से, बाह्य संसार से, रोजमर्रा के जीवन व्यापार से जोड़ता है।

आखिर मनुष्य सामाजिक क्यों है? वह भाषिक व्यवहार क्यों करता है? वह प्रेम, करुणा, सहयोग और सामूहिकता के बोध को अपने भीतर कैसे विकसित करता है? इन प्रश्नों का उत्तर हम मनुष्य के साहित्य और कला रूपी सरोकारों के रूप में देखते हैं। जाहिर सी बात है कि यह जो समय है, वह मनुष्य को मनुष्य से, समाज से, रोजमर्रा के जीवन सरोकारों से, काटता है।

यह उत्तरोत्तर विघटन उसके आत्म तक चला जाता है। साहित्य-विहीन मनुष्य वह है जो न सिर्फ समाज से, बाह्य संसार से, रोजमर्रा के जीवन व्यापार और सरोकारों से विरक्त है अपितु स्वयं से भी विरक्त है। इस विरक्ति के मूल में वस्तुओं का अपरिमित संसार है। उपभोग की असीम इच्छा है। यह इच्छा आत्मघाती है, हिंसक है। यह कुछ इस तरह की बात है जैसे मनुष्य अपने विरुद्ध ही एक साजिश में शामिल है।

बकौल रघुवीर सहाय जिस तक भयानक खबर नहीं पहुंची है वह हँस रहा है। यह बोध और संवेदना से विरक्त मनुष्य ही साहित्य की जरूरत को नहीं समझता। वह अपनी हर अनिवार्यता को किसी वस्तु से भर रहा है। वह विकृत हो चुकी लालसा को ही जीवन का उद्देश्य समझ रहा है। उसके पास कोई ऐसा क्षण नहीं बचा, जहां वह आत्म संवाद कर सके। उसकी भाषा ने, संवेदना ने, उसका साथ छोड़ दिया है। हम कह सकते हैं कि साहित्य-विहीन मनुष्य एक पशु में परिणत होता जा रहा है, जहां वह अपनी मानवीय बोध से विमुक्त होता जा रहा है।

(3)महानगर को हम किस रूप में जानें और समझें? क्या वह बस एक विशिष्ट भूभाग भर हैं, भिन्न भगौलिक इकाई? 21 वीं शताब्दी में जब हम महानगर के विषय में कोई बात कहते हैं तो हमें इस प्रश्न पर गंभीरता से और सूक्ष्मता से बात करनी होगी। महानगर का अर्थ है- अकल्पनीय गति और असीमित उपभोग के केंद्र। महानगर वह जगह है, जहां सामाजिकता सामूहिकता और मानवीय संवेदना के पुराने अर्थों और अभिप्रायों को समाप्त कर दिया गया है। ये वे जगहें हैं, जहां मनुष्य के संबंधों में, संस्कृति में, रोजमर्रा के जीवन व्यापार में एक तरह का नवाचार है। व्यावसायिकता और उपभोग इस नवाचार के केंद्र में है। हर तरह के संबंध और व्यवहार का कोई न कोई व्यावसायिक अर्थ मौजूद रहता है। हर तरह की मानवीय क्रिया शिष्ट आचरण के आवरण में लिप्त एक व्यावसायिक क्रिया है। आज जिस व्यवहार को हम व्यावसायिक संबंध कहते हैं- वह मानवीय संबंधों के अंत की पूर्वसूचना है। ऐसे समाज में न सिर्फ पढ़ने, बल्कि मानवीय दायरे के भीतर सारी क्रियाओं का ह्रास हम देख सकते हैं।

महानगर में पढ़ता हुआ, पुस्तकालय जाता हुआ, संगीत में रुचि रखने वाला व्यक्ति हँसी का पात्र है। उसके सगे संबंधी, निकट के लोग, परिजन उसे बेवकूफ मानते हैं। वे उसे निपट मूर्ख या पागल मानते हैं। वह दोस्तोवोस्की के उपन्यास ‘द इडियट’ का नायक प्रिंस है, जिसकी व्यावसायिक महत्ता शून्य है। उनके अनुसार ऐसे व्यक्ति में व्यावहारिक विवेक का विकास अवरुद्ध रह गया है। ऐसे तमाम जगमगाते और चकाचौंध से भरे महानगर मनुष्यता की हड्डियों के ढेर पर खड़े हैं। क्या इस रास्ते आगे बढ़ा जा सकता है? क्या यह एकायामी मनुष्य की परिकल्पना को जन्म नहीं देता?

निजी अनुभव के आधार पर यह जोड़ना चाहता हूँ कि दिल्ली जैसे महानगर से लगे नोएडा और गाजियाबाद जैसे अत्याधुनिक उपनगरों में आपको पुस्तक की या पत्र-पत्रिकाओं की एक भी दुकान नहीं मिलेगी। क्या यह नहीं बताता कि इस तथाकथित अत्याधुनिक समाज को पुस्तकों की कोई जरूरत नहीं। अब यह बता सकना बहुत कठिन और एक हद तक सरलीकरण होगा कि आप इसे कैसे रोक सकते हैं। इस संदर्भ में सीधे कोई विकल्प खोजना या सुझाना कुछ ऐसा है, जैसे किसी चलती हुई ट्रेन को रोकने के लिए आप ट्रेन के सामने खड़े होने के विषय में सोचते हैं। जाहिर सी बात है कि यह एक आत्मघाती कदम होगा। इसके विपरीत आपको ट्रेन की गति को कम करने या रास्ते को मोड़ने जैसे विकल्पों पर विचार करना बेहतर होगा।

इसी तर्ज पर हम कह सकते हैं कि महानगर की संस्कृति को बदलने की कोशिशें होनी चाहिए। व्यक्तिगत उपयोग की पूर्ति की जगह सामूहिक उपयोग की संभावनाओं पर विचार करना विकल्प की तरह होगा। पुस्तकालय, कॉफी हाउस की संस्कृति को नए अर्थों और संदर्भों में खोजना होगा। सामाजिकता और सामूहिकता के नए विकल्पों की तलाश करनी होगी। रोजमर्रा के जीवन में ऐसे क्षणों को खोजना होगा, जब हम उत्पादन और उपभोग में शामिल न हों।

(4)साहित्य को व्यवसाय में बदलने की कोशिशें हो रही हैं। पढ़ना और लिखना भी सीधे-सीधे उत्पादन-उपभोग में परिणत हो और वह उद्योग धंधे का रूप अख्तियार कर ले, इस दिशा में बहुत गंभीरता से प्रयत्न किए जा रहे हैं। पिछले दो दशकों में शिक्षा और पुस्तक प्रकाशन में नई पूंजी का प्रवेश तेजी से हुआ है। इस पूंजी ने न सिर्फ साहित्य के स्वरूप को बदला है, बल्कि उसे भी मांग और आपूर्ति के नियमों के अंतर्गत ला दिया है।

साहित्य की गुणवत्ता का निर्धारण, साहित्यिक सामाजिक मूल्य न होकर मांग और आपूर्ति हो चला है। बेस्टसेलर्स को आधार बनाकर लोगों की साहित्यिक अभिरुचि को न सिर्फ बदला जा रहा है अपितु नई साहित्यिक अभिरुचियों का निर्माण भी हो रहा है। हास्य, हिंसा और सेक्स ये नए साहित्यिक मूल्य हो गए हैं। पिछले दो दशकों में जिन पुस्तकों को बेस्टसेलर्स का दर्जा दिया गया है, वे इन्हीं नव-निर्मित साहित्यिक कसौटियों पर खरी उतरती हैं। साहित्य में सर्वेक्षण की नई परंपरा विकसित हुई है।

साहित्य के केंद्र में विषय है, वस्तु नहीं। जब हम साहित्य को वस्तु के रूप में बदलते हैं तो हम विषय-वत्ता को नष्ट करते हैं। साहित्य को संख्या में, आकार में, चिह्न में बदलने की कोशिशें हमेशा होती रही हैं। एक सामान्य सर्वेक्षण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि प्रेमचंद से अधिक पाठक गुलशन नंदा के रहे हैं। क्या इससे यह साबित हो सकता है कि गुलशन नंदा के उपन्यास समाज-संस्कृति और मनुष्य के प्रति गहरी और व्यापक समझ व्यक्त करते हैं? क्या तोलस्तोय और दोस्तोवॉस्की का मूल्यांकन पाठकों की संख्या के आधार पर या अभिरुचि के आधार पर किया जा सकता है?

दरअसल साहित्य को जब हम समाजशास्त्र में या राजनीतिशास्त्र में सीमित या निर्धारित करके  देखने की कोशिश करते हैं तो इस तरह के निष्कर्षों का महत्व बढ़ जाता हैं, लेकिन इन सबके बहाने हम प्रकारांतर से साहित्य की मूल्यवत्ता को ही नकारते हैं। साहित्य अपने मूल रूप में हर तरह की ताकत और वर्चस्व का विरोध करता है।

इस तरह के सर्वेक्षण साहित्य के विषय में गलत निष्कर्ष और भ्रम पैदा कर व्यावसायिकता का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कहना न होगा कि हिंदी साहित्य को भी बाजार में एक बिकाऊ माल के तौर पर प्रस्तुत करने की जोरदार कोशिशें हो रही हैं। साहित्यिक सर्वेक्षण उसी कड़ी का हिस्सा हैं।

पूंजीवाद इस तरह के अंतर्विरोधों के माध्यम से हर वस्तु में मौजूद विषय-वत्ता को नष्ट कर उसे अर्थहीन, अप्रभावी और संख्यात्मक बनाता है। ऐसे में यह प्रश्न बहुत अर्थ नहीं रखता कि कौन-सा साहित्य कम पढ़ा जा रहा है और कौन सा अधिक। इस तरह के प्रश्न और इनके उत्तरों का निर्धारण, साहित्यिक मूल्यों के निषेध से निर्मित होते हैं। साहित्य के पाठक ठीक उसी समय के पाठक नहीं होते। कबीर को या घनानंद को नए संदर्भों में लोग आज पढ़ते हैं। इसलिए साहित्य के संदर्भ में इस तरह के प्रश्न साहित्य की व्यापक और कालजयी भूमिका के नकार को ही इंगित करते हैं।

(5)पिछले प्रश्न के विस्तार के रूप में इसे देखा जा सकता है। लिटरेरी फेस्टिवल साहित्यिक मूल्यों को विस्थापित कर बाजार के मूल्यों को, व्यवसाय के मूल्यों को, उत्पादन और वितरण के मूल्यों को स्थापित करते हैं। ये उत्सव सबसे पहले हमें यह बताते हैं कि साहित्य का कोई गंभीर उद्देश्य नहीं है। वह एक तात्कालिक उत्तेजना और मनोरंजन की वस्तु है।

आए दिन आप इस तरह के किसी फेस्टिवल में समकालीन कवि को किसी हास्य कवि के साथ प्रतिस्पर्धा करते देख सकते हैं। आप देखेंगे कि इस तरह के उत्सवों में एक फूहड़ हास्य का स्वागत तालियों की गड़गड़ाहट से होता है और किसी समकालीन कवि की कविता पर मायूसी बनी रहती है। इसे देख रहा कोई दर्शक या सुन रहा श्रोता इस रूप में ग्रहण करता है कि समकालीन कवि एक पुरानी हो चुकी परंपरा या परिपाटी से जुड़ा है और हास्य कवि लोगों को मनोरंजन की सही खुराक दे सकने में सक्षम है। परिणामस्वरूप वह इसी तरह के फूहड़ और हास्यास्पद चीज को साहित्य मानता है, या मानने लगता है।

आपके अड़ोस-पड़ोस के लोग अगर जान जाएं कि आप कविता लिखते हैं तो उनकी आपसे अपेक्षा रहती है कि आप तत्काल उन्हें कोई चुटकुला या पैरोडी जैसी कोई चीज सुना दें। साहित्यकार के रूप में समाज में आपकी प्रतिष्ठा का अर्थ है कि आप प्रत्यक्ष तौर पर कितना लोगों का मनोरंजन कर सकते हैं। आए दिन संचार चैनलों पर जिन्हें साहित्यकार कहा जाता है या बताया जाता है, वे अमूमन हास्य या पैरोडी करने वाले या स्टैंडिंग कॉमेडी करने वाले लोग होते हैं। कहना न होगा कि आम जन की साहित्यिक अभिरुचि को इस तरह विकृत और नए अर्थों में निर्मित किया जा रहा है। साहित्य का आधार संख्या नहीं हो सकता। हर दौर में फूहड़ और हल्का-फुल्का लिखने रचने वाले लोगों को सुनने पढ़ने वालों की संख्या अधिक रही है, लेकिन उन्हें कभी भी साहित्यकार का दर्जा नहीं मिला। आज यह परिपाटी टूटती हुई नजर आती है। इसके मूल में नव-संचार माध्यम और साहित्यिक परंपराओं में उनकी निर्णायक हो चली भूमिका है।

वर्ष के अंत में सभी पत्रिकाएं या संचार चैनल हमें यह बताते हैं कि कौन सी पुस्तकें महत्वपूर्ण हैं। वे यह भी बताते हैं कि नवें पायदान पर कौन सी पुस्तक है और दूसरे पायदान पर कौन सी पुस्तक। इस तरह के सर्वेक्षणों का मूल आधार क्या है, क्या कभी हम जानने की कोशिश करते हैं? अगर हम ध्यान से देखें तो पढ़ने-लिखने, विचार करने की हमारी स्वतंत्रता को अप्रत्यक्ष तौर पर सूचना माध्यमों द्वारा, लिटरेरी फेस्टिवल द्वारा नियंत्रित और निर्धारित किया जाता है। चयन और अभिरुचि की बहुआयामिता का निषेध रचा जाता है, जो किसी भी समय-समाज के हित में नहीं है।

जैसा मैंने आरंभ में कहा, साहित्य की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी परंतु नए रूपाकारों द्वारा उसे परिवर्तित और परिमार्जित करने की जो कोशिशें हो रही हैं। उसके प्रति हमें और अधिक सचेत होने की जरूरत है। इन माध्यमों के प्रति अधिक आलोचनात्मक और प्रश्नाकुल होने की आवश्यकता है। सच्चा साहित्य हर दौर में सवाल उठाता है। वह हर तरह की सत्ता और ताकत के विरुद्ध खड़ा होता है। वह नियंत्रण की हर कोशिश का पर्दाफाश करता है। जाहिरन आज भी उसकी जरूरत है और पहले के किसी अन्य समय से अधिक जरूरत है।

आज इस बात को गहरे अर्थों में समझने की जरूरत है कि समाज में बढ़ती असहिष्णुता और हिंसा के मूल में आलोचना का नहीं होना केंद्रीय है। आलोचना-विहीन समाज को नियंत्रण में करना आसान है। आलोचना-विहीन समाज में स्वतंत्र विवेक की संभावना पर विराम लग जाता है और साहित्य की संभावना न्यून होती जाती है। इसलिए जरूरी है कि समाज में आलोचनात्मक विवेक विकसित हो। एक आलोचक समाज ही सच्चा साहित्य निर्मित कर सकता है।

 

हिंदी विभाग, श्री शंकराचार्य संस्कृत यूनिवर्सिटी,कलाडी-683574, जिला : अर्नाकुलम, केरल  मो.9213166256

 

 

संजय राय
युवा कवि और आलोचक। संप्रति  सेठ आनंदराम जयपुरिया कॉलेज, कोलकाता में सहायक प्राध्यापक।

 

आखिर कविता और संस्मरण ही क्यों आज अधिक अनुकूल विधाएं हैं

 हमारा समय इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का समय है। लैपटॉप, टैब या मोबाईल अब हर हाथ में है। इंटरनेट हर उस आदमी के ऐक्सेस की वस्तु है जो मोबाईल चला रहा है। वेबसाईट, ब्लॉग तथा वीडियो प्लैटफॉर्म और सोशल मीडिया के सभी प्लैटफॉर्म अब उसकी पहुंच के भीतर हैं। सोशल मीडिया को गाली देना और साथ ही साथ उसका जमकर उपयोग करना हमारे समय का मुख्य चरित्र बन गया है।

उपर्युक्त सभी मीडिया अभिव्यक्ति के लिए मंच मुहैया करा रहे हैं। अब सत्ता के खिलाफ साहित्य लिखकर कोई गिरफ्तार नहीं होता, पर सोशल मीडिया पर सत्ता की खिलाफत कर गिरफ्तारी के तमाम उदाहरण इस बीच हमारे सामने आए हैं। बहरहाल डिजिटल मीडिया अथवा ई-मीडिया ने अभिव्यक्ति को सहज बना दिया है। जिस साहित्य को कभी ढंग का मंच नहीं मिला, वह भी अब डिजिटल मीडिया अथवा ई-मीडिया के दौर में प्रकाश में आ रहा है।

स्पष्ट है कि हाशिए के समाज की आवाजें अब साहित्य की विभिन्न विधाओं में मजबूती से सामने आने लगी हैं। किताब के प्रकाशक नहीं मिल रहे हैं तो डिजिटल मीडिया अथवा ई-मीडिया का सहारा लेकर लोग अपनी बातें रख रहे हैं। इस तरह प्रकाशन और अभिव्यक्ति पर एकाधिकार की प्रवृत्ति को धक्का लगा है। कह सकते हैं प्रिंट मीडिया की तुलना में डिजिटल मीडिया अथवा ई-मीडिया अपनी प्रकृति में अधिक लोकतांत्रिक है।

इसके साथ ही हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि इन सभी प्लैटफॉर्मों पर तथ्य इकट्ठा हो रहे हैं। विश्व बाजार में तथ्यों का कारोबार जोर-शोर से चल रहा है। इन तथ्यों को खरीदने की क्षमता जिनके पास है, सत्ता में वही लोग टिक पा रहे हैं। हमारा समय तथ्यों की खरीद-फरोख्त का गवाह है। डिजिटल मीडिया अब राजनीतिक सत्ताओं को गिराने और बनाने का दमख़म रखती है। जो साहित्य हमारे समय के इस चरित्र को समझते-परखते हुए अपना चरित्र विकसित करेगा, वही साहित्य बचेगा।

हमारे समय की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता है कि वह बहुत तेज गति से बदलता हुआ समय है। पहले के सभी समयों की तुलना में हमारे समय की गति में गुणात्मक वृद्धि हुई है। इस गति ने धैर्य और एकाग्रता जैसी चीजों को नष्ट किया है। जबकि साहित्य धैर्य, एकाग्रता और समय की मांग करता है। इस तरह साहित्य का चरित्र भीषण तेजी से बदलते हुए समय की गति का विरोधाभासी है। साहित्य अपनी तरह इससे जूझ भी रहा है। समय की गति वह नहीं बदल सकता, पर उस गति में बह जाना भी उसे मंजूर नहीं। साहित्य कभी भी अपने समय को नकार कर सार्थक नहीं हो सकता। अपने समय से वह जितना जूझेगा, उसकी सार्थकता उसी अनुपात में साबित होती रहेगी।

बहरहाल साहित्य जिस धैर्य, एकाग्रता और समय की मांग करता है, महानगरीय जीवन शैली में उसी का अभाव होता जा रहा है। इसी वजह से महानगरों में साहित्य पढ़ने की प्रवृत्ति में ह्रास आया है।

टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में आए क्रांतिकारी परिवर्तन, इंटरनेट, सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया ने साहित्य को किस तरह प्रभावित किया है, यह देखना दिलचस्प होगा। इसने साहित्य को पाठकों की बहुसंख्यक आबादी के लिए सहज उपलब्ध करा दिया है। पाठक के पास पढ़ने की सामग्री का अभाव नहीं है। साहित्य की बहुत सारी किताबें अब आसानी से उपलब्ध हैं। सोशल और डिजिटल मीडिया के दौर में पाठकों की संख्या काफी बढ़ी है। यह अलग बात है कि ये पाठक फौरी लेखकों की तरह फौरी पाठक ही हैं। गंभीर लेखकों की तरह गंभीर पाठक अभी भी कम संख्या में हैं। उन्हीं पर साहित्य का भविष्य टिका हुआ है।

हम रील्स के जमाने में जी रहे हैं। साहित्य के प्रति रुचि में ह्रास के कारणों को समझने के लिए रील्स या शॉर्ट्स के चरित्र को समझना जरूरी है। रील्स या शॉर्ट्स ऐसे वीडियो को कहते हैं जो एक मिनट तक के होते हैं, उससे ज्यादा के नहीं। अक्सर ऐसा देखा गया है कि लिंग और उम्र से निरपेक्ष सभी लोग ऐसे वीडियो देखते घंटों बिता देते हैं। रील्स या शॉर्ट्स के साथ एक शब्द अक्सर सुनने में आता है स्क्रॉल। मोबाईल फोन की स्क्रीन पर स्क्रॉल करते हुए शॉर्ट्स या रील्स देखते हुए घंटों बिताना आम बात है। ऐसा क्यों होता है कि लगभग सभी इस निरर्थक काम में घंटों बिता देते हैं?

मजेदार बात यह है कि हर आदमी दूसरे से चिढ़ता है कि वह कितना मोबाईल देखता है और खुद उसी में लगा रहता है। असल में ऐसे छोटे वीडियो हमें एक मिनट के अंदर क्लाइमैक्स तक लेकर चले जाते हैं। जिस क्लाइमैक्स तक पहुंचने के लिए एक पूरी की पूरी साहित्यिक कृति से गुजरना होता है, वहां ये हमें एक मिनट का वीडियो पहुंचा दे रहा है। किसी भी कृति के क्लाइमैक्स तक जाते-जाते मनुष्य के मस्तिष्क में डोपामाइन नामक रसायन का स्राव होता है। यही रसायन आनंद की अनुभूति कराता है!

बहरहाल जिस रसायन के स्राव के लिए पूरी साहित्यिक कृति की जर्नी करनी होती है, रील्स या शॉर्ट्स एक मिनट के अंदर उस रसायन के स्राव और आनंद की अनुभूति का सबब बनते हैं। और इस रसायन का स्राव हर मिनट हर वीडियो के साथ हो रहा होता है। मनुष्य इस प्रक्रिया को दोहराता रहता है और समय को भूल जाता है। यह एक तरह की लत है।

साहित्य के सामने अब यह एक बड़ी चुनौती है कि वह आनंद की अनुभूति तक पहुंचने में लगने वाले समय को कितना कम कर सकता है। जिस तरह हर मनुष्य रील्स या शॉर्ट्स की गिरफ्त में है, साहित्य की उन विधाओं के बचने की संभावना अधिक है, जो कम से कम समय में उस अनुभूति तक मनुष्य को पहुंचा सकें।

साहित्य ऐतिहासिक दस्तावेज, तथ्य अथवा भौतिक वस्तु नहीं है। साहित्य में ये सभी तत्व होते तो हैं, पर तथ्यात्मक प्रामाणिकता की अपेक्षा बहुत अधिक नहीं होती। इसके बजाय कल्पना शक्ति के सहारे इन तथ्यों का उपयोग कर यथार्थ गढ़ना होता है। यथार्थ तक पहुंचने के लिए इन तथ्यों को कल्पना शक्ति द्वारा गूंथना पड़ता है। बड़े उद्देश्यों के लिए ऐतिहासिक दस्तावेजों और तथ्यों से काल्पनिक छेड़-छाड़ साहित्य में मान्य होता है। साहित्य की जो विधा समय की गति और नए उपकरणों के साथ जितना तालमेल बिठा पाती है, उसके बचे रहने की उतनी संभावना बनी रहती है। ऐसा यूँ ही नहीं हुआ कि छोटे-छोटे संस्मरणों की किताबें खूब लिखी और पढ़ी जा रही हैं। कविता ने तो हर युग में अपने को नए ढंग से इजाद किया है। कह सकते हैं, कविता और संस्मरण युगानुकूल विधाएं हैं।

साहित्य किसी भी समाज की सांस्कृतिक अस्मिता का जरूरी पक्ष है। किसी खास समय और समाज का साहित्य उस समय और समाज का सांस्कृतिक उत्पाद भी होता है। अतः वह संस्कृति और उसकी सत्ता-केंद्रिकता भी अपनी तमाम विद्रूपताओं के साथ उस साहित्यिक कृति का हिस्सा होती है। साहित्यकार अपने तई उससे जूझते हुए भी, उससे मुक्त नहीं हो पाता। चूंकि साहित्य किसी खास समय और समाज की सांस्कृतिक रचना या अभिव्यक्ति होता है, अगर पाठक या आलोचक उस कृति में बह नहीं जाए तो वह उस रचना को अपने समय और समाज की सत्ता को सहलाता हुआ पाएगा। जो साहित्य अपने समय और समाज की सत्ता के प्रति जितना आलोचनात्मक होगा, वह उतना ही सार्थक होगा। समाज के दबे-कुचले और हाशिए के जीवन की आवाज बनने वाला साहित्य ही बचेगा। साहित्य दरअसल तमाम विद्रूपताओं और विसंगतियों के बावजूद अपनी संस्कृति के प्रगतिशील तत्वों को बचाने की कवायद का नाम है।

स्पष्ट है कि सत्ता को सहलाने के बजाय सत्ता-संरचनाओं की पहचान, उनकी खिलाफत और संघर्ष तथा जनसंघर्ष की गाथाएं हमारे समय के साहित्य को जमीन दे रही हैं। साहित्य मुख्यतः खाए-अघाए मध्यवर्ग की वस्तु रहा है। मध्यवर्ग के संघर्ष और हाशिए के संघर्ष में फर्क है। मध्यवर्ग के बिल्कुल निचले तबके और हाशिए के संघर्ष की आवाज बनना ही साहित्य को सार्थकता प्रदान करेगा।

हमारे समय में लिट-फेस्ट का चलन बढ़ा है। लिटररी फेस्टिवल अथवा साहित्य उत्सव पूंजी केंद्रित गतिविधियां हैं। चमक-दमक साहित्य उत्सवों की शोभा हो गई है। इसलिए गंभीर साहित्य के बजाय मंचीय या लोकप्रिय साहित्य इन उत्सवों में अधिक जगह घेरते हैं। मंचीय या लोकप्रिय साहित्य से जुड़ने के लिए किसी सांस्कृतिक ट्रेनिंग की जरूरत नहीं पड़ती। उससे तादात्म्य स्थापित करने के लिए मानसिक मशक्कत नहीं करनी पड़ती। उसमें एक हल्कापन होता है। कई बार तो फूहड़ता भी होती है। अपनी तरफ से कोई मानसिक परिश्रम न करना पड़े- ऐसी चीजें देखने-सुनने  का चलन बढ़ा है। ऐसा साहित्य ही बड़े श्रोता और दर्शक समूह को पसंद आ रहा है। ऐसी चीजें ही जनसंख्या के बड़े हिस्से तक पहुंच रही हैं।

इसका एक कारण यह है कि मंचीय या लोकप्रिय साहित्य मुख्यतः गुदगुदाने का काम कर रहा है। न उसमें आलोचनात्मक विवेक है न ही किसी श्रोता या दर्शक में वह कोई आलोचनात्मक विवेक पैदा कर पा रहा है। इसका एक और पहलू है, गंभीर साहित्यकार लिट-फेस्ट के चमक-दमक के आकर्षण में खिंचे चले जा रहे हैं और उसकी चुनौतियों को समझने की कोशिश भी कर रहे हैं।

दरअसल साहित्य भी अब एक प्रॉडक्ट है। वह एक बाजार है जो पूरे विश्व में अन्य सभी चीजों के साथ साहित्य का भी व्यवसाय कर रहा है। साहित्य भी उसके लिए खरीदी-बेचे जानेवाली एक वस्तु भर है। इसलिए साहित्य में व्यक्त संघर्ष भी एक बिकाऊ माल है। इसका एक पहलू यह है कि लेखक भी अब व्यवसायी बन जाने को अभिशप्त है। इस चुनौती को किसी भी लेखक के लिए समझना बहुत जरूरी है।

 

ग्राम व पोस्ट- चांदुआ, जोड़ा पुकुर के नजदीक, काँचरापाड़ा, उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल – 743145 मो.9883468442

संपर्क :​ 75 .टी. घोष रोड, नैहाटी, उत्तर 24 परगना, 743166 मो. 9123011495