युवा कवि।अद्यतन कविता–संग्रह ‘मुस्कान क्षण भर’ और गद्य–संग्रह ‘आखिर कैसी हिंदी चाहते हैं हम?’ संप्रति भारतीय रिज़र्व बैंक मुंबई में प्रबंधक (राजभाषा)।
इंतजार
दीवार की दरार से
फूटती हैं जड़ें हरियाली की
चट्टान से फूटता है सोता
वक्त की बेरुखी से
शुष्क हुआ हृदय पसीजता है
पथराई आंखों से भी
लुढ़क पड़ती हैं बूंदें
एक बार जमीन
भींग जाए बस…।
संशय
जब मोबाइल नहीं था
भरोसा कितना मजबूत था
कि हफ्ता-दस दिन बाद भी
सकुशल पहुंच जाने की ख़बर
पहुंचा जाता था पोस्टकार्ड
हमारा भरोसा बना रहता था
अब प्लैटफॉर्म पहुंचते न पहुंचते
बीस बार कॉल आ चुका होता है
पहुंचे कि नहीं पहुंचे
बहुत ट्रैफिक तो नहीं है?
कनफर्म बर्थ हो तब भी
तुम्हारा वाला बर्थ ही मिला न?
बगल वाला आदमी
ठीक-ठाक तो लग रहा?
पहले कितने इत्मीनान और
आनंद से गुजरता था
अब संशय में कटता है पूरा सफर!
लोग
तब कहीं गोली चलती थी
तो पूरा शहर सहम जाता था
कई दिनों तक देह में रहती थी झुरझुरी
कहीं किसी की अनचीन्ही लाश मिल जाती थी
तो हफ्तों एक मुंह से दूसरे मुंह तक
फुसफुसाता रहता था पूरा शहर
अब अखबार में छपी ऐसी खबरों को
पूरा पढ़ता भी नहीं कोई
इस गली में गोलियां चल रही होती हैं
उस गली से काम पर निकल जाते हैं लोग!
भूल सुधार
बेटा-बेटा बोलने की
सदियों पुरानी आदत पड़ी थी
एक दिन नन्ही बेटी ने टोका-
पापा, ये बेटा-बेटा
क्या करते रहते हो
बेटा नहीं,
बेटी हूँ मैं!
संपर्क :जे–२/४०६, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास, गोकुलधाम, गोरेगांव (पूर्व), मुंबई–४०००६३ मो.९४२९६०८१५९
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति