वरिष्ठ आदिवासी कथाकार। कलासंस्कृति की 14 किताबें और बाल साहित्य की 13 किताबें प्रकाशित। संप्रति अंग्रेजी की व्याख्याता।  कई पुरस्कारों से सम्मानित।

 ‘कब से बंधे हो?’

‘182 साल हो लिए।“

‘ठीक से बोलो!’

‘आठ कम दो सौ साल।’

‘क्या बकवास है, मरे नहीं अब तक?’

‘मैं जिंदा कहां हूँ साहेब?’

‘अच्छा’

‘मैं तो उसी दिन मर गया था जिस दिन मुझे सांकलों से बांध दिया गया था।’

‘तुम क्या बच्चे हो जिसे बांध दिया गया था?’

‘हव साहेब, आजादी के बहुत साल पहले की बात है, मैं उस समय बच्चा ही था।’

‘रुको, पूरा वाकया आराम से बताओ!’

चिरपावंड और बिल्लोरी गांव की सीमाएं एक-दूसरे से लगी हुई थीं। सालवन बस्तर भी अंग्रेजों की आवाजाही से अछूता नहीं रह पाया।

आखिर यह घटना एक सौ बयासी साल पहले की जो है!

फिरंगियों के लिए यह सालवान, दंडकारण्य किसी स्वर्ग से कम नहीं था। उन्मुक्तता, निश्छल, अनावृत, बस्तरिया सौंदर्य तो उनके आकर्षण का मुख्य केंद्र था ही साथ ही यहां के जनमानस का भोलापन, उनकी शोषण और फूट डालो नीति के फलने-फूलने के लिए अति उर्वरा भूमि भी साबित हुए। इस भूमि में दबे विद्रोह के बीजों को भला फिरंगी आंखें कहां देख पाईं? 

सालवन हमेशा कहता रहा है, ‘मुझे जानना हो तो मेरे भीतर आना होगा और मेरे जैसे ही बनना होगा।’

यही तो श्रमस्वेद विहीन, उजली फिरंगी त्वचा और स्थानीय धूप में नहाए, श्रम में पक कर कुंदन-सी हो गई त्वचा के बीच भेद था। यह त्वचा और  इस पर छिछलती पसीने की बूंदें ऐसी लगती थीं जैसे कि किसी देवपात्र में तुलसी दल मिश्रित जल छलक रहा हो।

इन्हीं दो गांवों की सीमा पर मीनारकद ऊंचा, स्तंभ (वाचिंग टॉवर) बनाया गया था। इसी से पूरे बस्तर, दंडकारण्य के वन परिक्षेत्र की निगरानी फिरंगियों द्वारा की जाती थी।

बचपन से ही ‘चितली’ इस ढांचे को देखते आई थी। दूर से इसके ऊपरी हिस्से में जलती रोशनी उसे दिख जाया करती थी। इसके ऊपरी हिस्से में जाने कौन-सी रोशनी रात में जलती रहती थी। चितली मन ही मन सोचा करती थी कि आखिर इतने ऊपर से पूरा बस्तर कैसा दिखता होगा?

चितली की देह साल वृक्ष-सी सुतवां, चिकनी, नरम त्वचा। इस त्वचा पर पानी, पसीने की बूंदें मात्र कुछ क्षण रुकने के लिए गिड़गिड़ाती रहतीं, चिरौरी करती थीं। पर कहां, पानी की बूंदें तो मोंगरी मछली की देह पर जिस तरह छिछलती थीं ठीक वैसे ही चितली की देह पर फिसलती जाती थीं। उसके माथे, ठुड्डी, कानों के लोर, गर्दन, पीठ, बांह, कमर, टखनों, एड़ियों पर मोरपंखिया गोदनों के टप्पों से गुजरती पानी की बूंदें। सारी की सारी पनीली बूंदें इन ‘मोहनी गोदनों’ की सोहबत में क्षण भर के लिए नीली-नीली दिखतीं पर जैसे ही आगे बढ़ने का हुक्म पानी की रवानी दे जातीं वैसे ही इन्हें आगे बढ़ना पड़ता। तब ये मन मसोस कर पानी के रंग में वापस आ जातीं। यह क्षण भर का मेल रंगों की अदला-बदली गजब का तिलिस्म रच जातीं। इन्हीं से तो निखरता है बस्तर का देहाती निश्छल, लापरवाह सौंदर्य…

पानी का रंग भला कभी अपना मूल स्वरूप बदलता है क्या? ऐसे ही चितली जंगल के किसी कोने में, बस्तर के किसी गांव में ही क्यूं न चली जाए इसकी अपनी तासीर, भोलापन, अक्खड़पन, देहातीपन का रंग उसके व्यक्तित्व से कभी भी नहीं छूटता। इन सारे तेवरों को अपनी अंटी में गठियाए वह जंगल में मीलों चला करती थी।

चितली इसी टॉवर के आस-पास के जंगलों से वनोपज इकट्ठा करने आया करती थी, पर जब से गांव में ‘बांह भरिया’ रस्म की मुनादी हुई थी तब से उसका मन अनमना रहने लगा था। ऊपर से फिरकी की चरक-चरक प्रश्नों से उसका मन खिन्न हो गया था।

फिरकी ने टोही सवाल दागा, ‘कहां जा रही हो?’

‘जंगल।’

‘काय काजे?’

‘रुख मन के दखबा काजे।’

(पेड़ों को देखने के लिए)

‘उसको क्या देखना?’

चितली चुप रही। वह बहुत छोटी थी तब से बाबा के साथ जंगलों का फेरा लगाती आ रही थी। अब जंगल की मसें भी भींगने लगी थीं। गाछ गबरू होकर पेड़ बन गए थे।

उसका गांव ‘बिल्लोरी’ कोई साधारण गांव नहीं था। बस्तर के पिचहत्तर दिवसीय बस्तर दशहरा के रथ के लिए लकड़ी इसी गांव के जंगलों से चुनी जाती थी। उसकी बाड़ी का वह पेड़ चितली को जाने इतना क्यूं भाता था? बचपन से ही वह इस पेड़ को देखते आ रही थी। जंगल के पेड़ों से भी उसकी चिन्हारी थी। घर की बाड़ी का पेड़ अब बड़ा हो गया था। उसके तनों की मछरियां हवाओं के साथ फड़कती थीं। छाल  के पुष्ट और तेज धूप में त्वचा से रीसते पसीने की तरह इनके तनों से गोंद भी छलकता था। मौसम की पाठशाला में जंगल के सारे पेड़ पढ़ाई करते हैं और इनके ककहरे का अभ्यास पत्तियों की स्लेट पर लिखा जाता था। जिसे हवा हरकारा बन कर एक जंगल से दूसरे जंगल बांचता फिरता था।

बस्तर दशहरे की तैयारियां इसी तरह से सैकड़ों गांव में चल रही थी। रथ और इसके पहिए बनाने के लिए लकड़ी किसी खास पेड़ से ही ली जाती थी। उसके लिए पेड़ों की खोज गांव-गांव में की जाती थी। पिछले छह सौ सालों से यह रस्म निर्बाध रूप से निभाई जाती रही है।

बिल्लोरी गांव में भी पंचायत बुलाई गई थी। इमली के पेड़ के नीचे आयोजित पंचायत में लोग जुट चुके थे। पेड़ की खोज की रस्म की मुनादी की जा रही थी। बाजा-गाजा, मांदर, तुरही, ढोल, तुड़बुड़ी, मोहरी जैसे वाद्य यंत्रों के साथ टोलियां गांव-गांव घूम कर पेड़ खोजने का अनुष्ठान करतीं। जब यह बाजा बजता तो चितली कांप जाती।

‘हे आंगा देव, फिर पेड़ कटेंगे, फिर एक पेड़ कम हो जाएगा।’

वह मन ही मन मनौती मांग रही थी। ‘हे देव, मेरे घर की बाड़ी के पेड़, मेरे गांव के जंगल के पेड़ों पर इन खोजी टोलियों की नजर ना पड़े।’

आज जब वह मुंह में दातुन दबाए, गोदने के टप्पे वाले पांवों से जिनमें ‘पायड़ी’ अरझी हुई थी, से जंगल नाप रही होती तभी साथ-साथ अपनी बांहों का घेरा बना कर वह कुछ चुनिंदा पेड़ों को भी नापती जा रही थी। जैसे-जैसे पेड़ उसकी बांहों की परिधि में आ जाते वैसे-वैसे उसकी मायूसी बढ़ती जाती।

‘रथ बनाने के लिए ऐसे पेड़ों को चयनित किया जाता जो चितली (अनुसूचित जाति) के समाज की कुंआरी लड़की की भुजाओं के वृत्त के भीतर आ जाएं। इन्हीं पेड़ों को अनुष्ठान के बाद काट कर फिर इनसे ही रथ और रथ के पहिए बनाए जाएंगे।’

यही सोच-सोचकर उसका कलेजा मुंह को आ रहा था।

यथा शक्ति, यथा गति वह इन पेड़ों को छुपाने के लिए जंगली बागड़, झाड़, झंखड़ों को इकट्ठा किए जा रही थी।

पर दूर से ही कोई उसे एकटक निहार रहा था।

भूरी आंखें, सुनहरे बाल, वृषभ स्कंधा, गोरी चमड़ी, घुटनों के ऊपर धोती। उसकी बांहों की फड़कती हुई मछरियां, उसके सिर के साफे में कौए के पंख खुंचे हुए।

उधर से आवाज आई, ‘क्या कर रही हो लेकी?’

जंगल में कोई बदहवास होकर झाड़-झंखड़ इकट्ठा करे तो सामने वाले को आश्चर्य तो होगा ही न!

बस्तर के ये जंगल तो अपने आश्रितों के लिए सुकून से भरे ‘ठीहे’ हुआ करती हैं। इनके सान्निध्य में बेचैनी, बदहवासी का भला क्या काम?

उनकी छांव तले तो किस्से, कहानियां, अनकही बातें, अजपे-जाप, हँसी-ठिठोली, खिलंदड़ी  वाली बेलें उगती हैं। जिनके सहारे बस्तरिया अपनी जिजीविषा का पाठ पढ़ते हैं।

उसकी आवाज से अपने काम में व्यवधान पाकर चितली ने खिन्न होकर जवाब दिया।

‘तुके काय आय?’

(तुझसे मतलब?)

‘मैं कुछ मदद करूं!’

चितली को क्या चाहिए था। उसे तो मनमांगी मुराद मिल गई।

‘बांह भरिया’ पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उसे सब मंजूर था और वैसे भी एक अकेली जान भला कितना झाड़-झंखड़ समेट पाती?

उसने उचटती नजरों से उसकी ओर देखा। वह अपनी दरांती, हंसिया निकाल कर फटाफट आगड़-बागड़ झाड़ियों को काट कर चितली के कहे अनुसार रखते जा रहा था। आखिरकार उसे इतना तो समझ में आ ही गया था कि पेड़ों के कटने का दुख किसी अकेले का नहीं है, यह सबका साझा दुख है।

चितली भी उसकी की गई मदद को लेकर अनुग्रहित थी सो उसने पूछ ही लिया, ‘कौन से गांव के हो?’

‘उस पार गांव का हूँ।’

‘तो फिर इस ओर कैसे?’

उसने कहा, ‘हमारे गांव में भी मुनादी हुई है, औजार बनाने का आदेश दिया गया है। हंसिया, कुल्हाड़ी, दरांती तो बन गया है। बस इन पर मूंठ लगानी बाकी है, वही लेने जंगल आया था।’

‘अच्छा, तो तुम लोहरा (लोहे का काम करने वाले) हो क्या?’

‘हां।’

अब तो इनकी मुलाकातें जंगल में अक्सर होने लगी थीं। वह गिरी हुई टहनियों को छांटछांट कर ऐसे तराशता जैसे कि किसी डांग कांदा (जंगली कंद) को तिखूर को तराश रहा हो। चितली को उसका गोरा रंग, भूरे बाल अजीबसे लगते। उसे लगता था कि यह हमारे समाज का सालद्वीप का नहीं है।

पेड़ों के मार्फत दोनों के बीच अजनबीपन कुछ कम होने लगी थी। जानपहचान पर बेतकल्लुफी के शब्दों का कलेवर पहन कर मन के भाव भी चलने लगे थे वे भी उन पगडंडियों पर, जो साझे सखदुख की ओर जाती थीं।

दोनों चलते-चलते उसी टॉवर के पास आ पहुंचे थे। वहीं उसके नीचे सुस्ताने के लिए दोनों बैठ गए।

‘लोहरा’ अपनी बनाई हुई चीजें उसे दिखा रहा था। कड़री, चाकू, हंसिया, दरांती और न जाने क्या-क्या?

चितली एक कड़री (चाकू) को उलटने-पुलटने लगी। तभी उसकी धार से कच्च से ऊंगली की त्वचा कट गई। ‘आया गो…’ (मां-रे)।

‘अरे देख कर, कहा था न मत छू।’

‘खुब्ब धार आसे!’

चितली, ‘हव बहुत तेज धार है!’

‘हां, बिलकुल तेरी जुबान की तरह।’

चितली ने उसकी ओर घूर कर देखा। उसने लोहरा से पूछा, ‘मैं उसे रख लूं?’

‘हां, मैंने तेरे लिए ही बनाया है, जंगल में बाड़ काटती रहती है न।’

 यह नेह की कैसी कंटीली, दुधारी, तेज चिन्हारी थी जिसमें इतनी धार थी कि इससे मन के अचीन्हे जालें भी कट जाएं। उसी चाकू को लेकर चितली ने झूठ-मूठ लोहरा की ओर बढ़ाया।

लोहरा, ‘अरे! क्या कर रही है, पगली हो गई है क्या?’

वह आगे-आगे दौड़ने लगा पीछे-पीछे चितली…।

‘लोहरा’ हँसते-हँसते दौड़ रहा था और उसी टॉवर की सिढ़ियां चढ़ने लगा। आज वहां गश्त के लिए कोई नहीं था, वैसे भी गश्त के लिए रात को ही कोई आता है।

चितली लोहरा का पीछा करते-करते ऊपर की ओर चढ़ती जा रही थी। यह चढ़ाव जीवन भर साथ निभाने के वायदों की सिढ़ियों पर चढ़ने वाला सफरिया, राहगुजरिया चढ़ाव था। दोनों अब हांफ रहे थे। चढ़ते-चढ़ते उस मीनार के ऊपर जब दोनों पहुंचे, तो चितली को ऐसा लगा जैसे वह किसी नई दुनिया में आ गई है।

मनचाहे साथी के स्नेहिल, भरोसेमंद साथ के संग प्रकाशस्तंभ के अंतिम छोर से पूरे सालद्वीप को जी भर कर निहारने लगी।

‘देख, यहां से तू अपने और मेरे गांव को भी देख सकती है।’

बादल के टुकड़े चितली के चेहरे से टकराने लगे। जूड़ा, खोपा खुल गया और इसमें अरझे महुआ के फूल गिरने ही वाले थे कि लोहरा ने उन्हें लपकर अपनी अंजुरी में समेट लिया। चितली ने लोहरा की भूरी आंखों की ओर देखा जिनमें सिर्फ और सिर्फ विश्वास का रंग ही उसे नजर आ रहा था।

लोहरा ने अपनी बनाई कड़री चितली की कमर में खोंच दी। मानों वह कह रहा हो, ‘मेरा विश्वास हमेशा तेरे साथ रहेगा। अपनी अस्मिता, अपना स्वाभिमान बचाने के लिए जब भी जरूरत पड़े, इसका प्रयोग कर ही लेना! इसमें मेरा हुनर मेरे विश्वास की धार है।’

‘आजमा लेना कभी!’

जाने यह क्षणिक सान्निध्य किस बात की ओर इशारा कर रहे थे? अजीब-सा तिलस्म पसरा था।  अपने ही सालवन को निहारना, अपने ही देहाती सपनों को साकार होते देखना, वह भी अपनी ही भूमि पर अपने ही जंगल, अपनी ही जमीन पर…।

सांझ की गठरी में सूरज समाने लगा था। चितली लोहरा का हाथ पकड़े धीरे-धीरे सिढ़ियों से उतर रही थी…

यह सफर कभी खत्म ही न हो, चलता ही रहे…

जैसे कि पिछले छह सौ सालों से बस्तर दशहरा चलता आया था…

शहरिया लोगों की आवाजाही गांव में बढ़ती जा रही थी। शहरिया घाघपन और गंवइय्या भोलेपन के बीच का कैसा व्युतक्रमानुपात था जहां एक की आवक से दूसरे में कमी हो रही है।

गांव का सरपंच भी अब शहरिया लोगों के साथ फटफटी में घूमता नजर आ रहा था। गांव की इमली के पेड़ के नीचे कल फिर पंचायत बुलाई गई थी।

सारे लोग उकड़ू बैठे थे पर उन शहरिया लोगों के लिए कुर्सी का इंतजाम किया गया था।

आखिर यह शहर, गांवों पर आश्रित होकर भी कुर्सी में बैठ जाता है और गांव हमेशा जमीन पर उकड़ू ही बैठता रहता है। आखिर कब तक?

पंचायत में आज ‘बांह भरिया’ (पेड़ नापने का उत्सव) की घोषणा होनी थी। इस रस्म को निभाने के लिए विशेष अनुसूचित जाति की कन्या का चयन भी किया जाना था। चयनित लेकी (लड़की) को बाजा, गाजा के साथ पेड़ों के पास लाया जाएगा फिर उस लेकी की बांहों की परिधि से पेड़ का नाप-जोख फिर चयनित पेड़ का कटोत्सव उत्सव मनाया जाएगा।

गांव के मुखिया की इच्छाएं अब गांव के छप्परों से परे शहरिया बहुमंजिला छतों की तरह फैलती जा रही थी। चितली पर उसकी लंपट नजरें भी इसी इच्छा की दूसरी कड़ी थी जिसे वह किसी भी हालत में पूरा करना चाहता था।

गांव के भरी पंचायत में भी वह उसे लगातार घूरे जा रहा था। चितली सकपका गई उसने स्थानीय लुंगी से अपना चेहरा ढांप लिया। उसी भीड़ में आज लोहरा लेका भी खड़ा था। लोहरा लड़के का गोरा रंग, भूरे बाल उसे पूरी भीड़ में सबसे बेमेल बनाते थे।

फिरकी ने उन दोनों को जंगल में, मेले-मड़ई में भी बाते करते देखा था। लोहरा की नजरें भीड़ में चितली को ढूढ़ रही थीं। वह तो उससे मिलने, बस उसे देखने के लिए उसके गांव आया था। फिरकी ने अपने ककनी वाले हाथ हिलाते हुए अजीब से इशारे वाली मुद्रा से इधर से उधर हो रही थी। पर मजाल है कि लोहरा की नजरें एक क्षण के लिए भी उसकी ओर घूम जाएं।

लोहरा का गोरा रंग न जाने क्यूं फिरकी को इतना लुभा रहा था कि वह कैसे भी करके उसका ध्यान अपनी ओर खींचना चाह रही थी। भला कभी कलुषित मन के वासना वाले चुंबक में इतनी ताकत होती है कि वह निश्छल नेह को अपनी ओर आकर्षित कर ले! बल्कि यहां तो घोर प्रतिकर्षण होता है। जब उसने देखा कि लोहरा लेका की नजरें चितली से टकराई और उसके गालों के अनार दहक उठे। पर ईर्ष्या, जलन की आग में फिरकी नख से शीश तक झुलस गई।

कोतवाल ने कहा, ‘हम पिछले कई दिनों से रुख (वृक्ष) ढूंढ़ रहे हैं, पर उस गांव में तो दिखाई नहीं दिया बांह भरिया पेड़!’

इतने में फिरकी लपक कर जोर से बोल पड़ी,  ‘गोटेक रुख आसे।’ (एक पेड़ है!)

यह सुनते ही चितली थरथरा गई। वह समझ चुकी थी कि फिरकी का इशारा उसकी बाड़ी के पेड़ की ओर ही है। डबडबाई आंखों से उसने लोहरा की ओर देखा। उसकी आंखों में उसे आश्वासन वाला भाव दिखा, मानो उसकी आंखें कह रही हों, ‘तुम परेशान मत होओ, मैं कुछ न कुछ करता हूँ।’

लोगों की भीड़ जयकारा लगाते हुए बाजे-गाजे के साथ चितली के घर की बाड़ी की ओर बढ़ने लगी। अनुमान लगाने के लिए पेड़ को पहले फिरकी की बांहों से नपवाया जाएगा।

‘जो लेकी!’ (चल लड़की)

रूंआंसी चितली भारी मन से उस पेड़ की ओर देखने लगी। कुटिल मुस्कान के साथ फिरकी आगे बढ़ी और उसने अपनी बांहों को गोल करके घेरा बनाया। वह पेड़ भी उस कपटी फिरकी की बांहों में आने से कतरा रहे थे। फिरकी ने अपना बायां हाथ तने के एक ओर किया फिर दाएं हाथ से बाएं हाथ को पकड़ने की कोशिश करने लगी। इधर चितली की सांस अटकी जा रही थी।

‘हे आंगा देव! रक्षा करो मेरे वृक्ष की।’

फिरकी ने पूरा जोर लगाया, एड़ियों को ऊंचा किया, अपनी आंतों को पिचका लिया। आखिर उसे किसी भी कीमत पर चितली और लोहरा के नेह के बंधन में विघ्न डालना ही था।

 पेड़ का तना उसकी बांहों के घेरे में आ ही गया! इधर चितली पस्त होकर जमीन पर बैठ गई।

ढम… ढम…. ढम- ‘यह पेड़ बांह भरिया रस्म के लिए ठीक है। कल अनुष्ठान पूरा होने पर इसे काटा जाएगा।’

चितली रो पड़ी। यही एक पेड़ तो उसके सुख-दुख का साथी रहा है। लोहरा-लेका द्वारा दिए गए प्रणय निवेदन की चिन्हारी ककवा (कंघे) को भी तो उसने इसकी डालियों में अरझा कर रखा था। बाबा के जाने के बाद उनकी अस्थियां भी तो इसी में अर्झी थी, इस आशा के साथ कि जब पूरे समाज को ‘बोकरा-भात’ का न्यौता देने लायक रुपए इकट्ठेे होंगे तब वह इन अस्थियों को  विसर्जित करेगी। पर सब व्यर्थ है।

‘अब तो इस पेड़ को काट ही दिया जाएगा!’

जाते-जाते फिरकी अपनी कुटिल मुस्कान उसकी ओर तेजाब की तरह उछाल गई जिससे उसके मन में फफोले पड़ गए। अचानक ठंडी रुई की फाहों जैसी मुलायम आवाज आई, ‘तू चिंता मत कर। प्रधान सिरहा के सामने जब इसका दोबारा नाप-जोख होगा तभी तो इस पेड़ को काटा जाएगा न!’

आज की रात चितली के लिए बहुत भारी थी। उसे ऐसा लग रहा था जैसे कि उस पेड़ को नहीं, बल्कि उसे ही मृत्युदंड दिया जाएगा!

अचानक उसे लगा कि बाहर बाड़ी के पास कोई है। उसने किवाड़ खोल कर देखा तो सामने लोहरा अपने औजारों के साथ खड़ा था। उसने चितली को चुप रहने का इशारा किया। रात के अंधेरे में लोहरा उस पेड़ के तने को बड़ी नरमाई से छोलने लगा।

‘यह कैसा जीवनदान था जहां पेड़ की प्राणों की रक्षा के लिए उसके तने की छाल को खुरचा जा रहा था।’

कैसे भी करके यह पेड़ सुतवां हो जाए और कल फिरकी की बांहों की नाप में आने से बच जाए! चितली बस इतना ही चाह रही थी, पर इस शल्य चिकित्सा का कोई भी अवशेष सुबूत पेड़ के आस-पास न छूटे, इसलिए वह बिना आवाज किए धीरे-धीरे चिल्फा, छाल, तने की लकड़ी के बारीक छिलकों को उठाने लगी।

उसे ऐसा लग रहा था कि सुबह कभी न हो। बांह भरनी रस्म कल फिर से होगी।

उदास बैठी चितली का मन आज बेहद अनमना था। यह कैसा रिवाज है, अपने ही घर-बाड़ी के पेड़, जो उसके लिए संतान की तरह थे, उसकी नुमाइश ढोल, नगाड़ों, तुरही के साथ होगा फिर इसका कटोत्सव होगा।

वह रो पड़ी… जैसे-जैसे बाजा, मोहरी की आवाज पास आने लगी, उसने अपने कानों पर हाथ धर दिया।

प्रधान सिरहा सल्फी के नशे में झूमता आ रहा था। बांह भरिया रस्म के लिए चुनी गई कुंवारी कन्या को थामे फिरकी विजयी चाल, कुटिल मुस्कान के साथ आगे बढ़ती जा रही थी। होम, धूप, फूल का छिड़काव, मां दंतेश्वरी का जयकारा…

कन्या के गले, हाथ, माथे पर भभूत उसके  खुले हुए केश। पेड़ पर सल्फी की बूंदें छिड़क कर कन्या को आगे बढ़ाया गया।

पर यह क्या? पेड़ घेरे में आ तो गया था पर बांहों और पेड़ के बीच खाली जगह बच रही थी।

सिरहा चिल्लाया, ‘ऐ कसन होली?’(कैसे हो गया?)

प्रधान सिरहा चीखने लगा, ‘कौन-कौन आया था नाप लेने?’

‘हमलोग आए थे, साथ मैं भी थी।’

‘क्या इसी खंडित वृक्ष से देव के रथ के चक्के बनेंगे?’

फिरकी पर तो आसमान फट पड़ा। वह जोर से चिल्लाकर कहने लगी, ‘जरूर इस चितली ने कुछ किया होगा। इसके घर की तलाशी ली जाए!’

फिर क्या था, भीड़ चितली को धक्का दे कर आगे बढ़ी और चितली के घर के पटाव के ऊपर से चिल्फा (तने की खुरचन) वाली टोकनी लाकर पूरी भीड़ के सामने पटक दिया गया।

‘ये देखो इसकी करस्तानी। इसी ने पेड़ को छोला है। देव के कार्य में इसने विघ्न डाला है।’

फिर क्या था, दो लोग आगे बढ़े और उन्होंने चितली को बालों से पकड़ कर घसीटा। उन्मादी भीड़, सल्फी के नशे में झूमते लोग…

चितली चुप रही…!

‘बोल, क्यूं किया तूने ऐसा?’

जमीन पर घसीट कर उसकी बेदम पिटाई की गई। इस विभत्स कांड की अगुवाई फिरकी कर रही थी।

‘ऐसी सजा दो इसको कि गांव का कोई भी आदमी देव के अनुष्ठान में बाधा डालने की जुर्रत न कर सके।’

चितली का चित्त सुन्न पड़ चुका था। सिर से लहू की धार बह रही थी अर्ध बेहोशी मूर्छा से उसकी आंखें मुंदी जा रही थीं।

‘अब यह बात उस अंग्रेज आफिसर तक जाएगी!’

फिरकी ने अपने हाथों में पहने ककनी को मटकामटका कर कहना शुरू किया, ‘इसके साथ जरूर वह लोहरा लेका शामिल रहा होगा, क्योंकि इस गांव में तो एक भी लोहार नहीं रहते और इतनी सफाई से पेड़ों की छाल उतारने का काम तो कोई लोहार ही कर सकता है!

पूरा गांव समर्थन में मुंडी हिलाने लगा। इस घटना के बाद बिल्लोरी और चिरपावंड गांव की सीमा पर बाड़ लगा दी गई थी और एक बड़ेसे फाटक को जड़ दिया गया था। अब इसी फाटक से ही होकर एक गांव के लोग दूसरे गांव में प्रवेश कर सकेंगे।

पूरा गांव जानता था कि बस्तर के इस गांव में उस पंड़रा (गोरा) आफिसर की ड्यूटी लगी है। उसकी बग्गी को पूरा गांव औचक-भौचक होकर कई बार देख चुका था।

खड़बिच्च-खड़बिच्च घोड़ों की टापों की आवाज आने लगी। अंग्रेज ऑफिसर की बग्गी जब उस बिल्लोरी गांव में आकर रुकी, तब पूरा गांव सांस रोक कर खड़ा हो गया। सफेद चमड़ी, गोरा मुख, भूरे बाल, और तो और, आंखों की पुतलियां भी भूरी!

 न जाने कितनी संकर संतानों का जन्म (अंग्रेज और आदिवासी) सालद्वीप में हो चुका था?

अंग्रेज ऑफिस ‘जेम्स स्कावाड’ की नियुक्ति बस्तर दशहरे के लिए वन की लकड़ियों को सही समय पर शहर पहुंचाने के लिए की गई थी। आखिर वह बस्तर दशहरा पिछले छह सौ वर्षों से मनाया जा रहा है।

ऑफिसर…. ‘ऐ बुलाओ उस लड़की को!’

मुरझाए, पस्त कदमों वाली चितली को धाकियाते सबके सामने लाया गया।

‘ऐ लड़की, ये सिरहा क्या बोलता है?’

सिरहा, ‘साहब इसी ने काम बिगाड़ा है?’

चितली की आंखें अपमान और गुस्से से  धधक रही थीं। इस सिरहा की इतनी धौंस कि कल पूरी भीड़ और आज इस फिरंगी को उसके घर पर ला कर खड़ा कर दिया, वह भी रात को!

‘हे आंगा देव, जाने कौन-सा छल उसके साथ किया जाएगा?’

रात के सन्नाटे में लड़खड़ाते हुए ऑफिसर और सिरहा ने चितली के घर के किवाड़, फाटक पर जोर से धक्का दिया। इस आवाज से चितली चौंक पड़ी, जब उसने सामने देखा कि जबरिया उसके सामने वे दोनों घुसे जा रहे थे। वह उनसे बचने के लिए घर की फाटक से बाहर निकालने के लिए तेजी से दौड़ी। पर उसे जबरिया उसके घर के भीतर ढकेल दिया गया।

लड़खड़ाती आवाज, डगमगाते कदमों से ऑफिसर उसकी ओर बढ़ता जा रहा था…

‘अरे, डरो नहीं।’

सिरहा, ‘माह भर तक तो यह पेड़ नाप-जोख में बिलकुल ठीक-ठाक था। दूसरे सरकारी ऑफिसर भी देख कर गए थे। तुम्हारी बाड़ी का ही पेड़ था फिर तुमने पेड़ को खंडित क्यूं किया?’

चितली पंडकी चिरई-सी कांप उठी। होश में रहने वाले व्यक्ति से तो निपटने का साहस वह कर सकती थी। पर यहां तो देसी सल्फी उस फिरंगी के सिर पर चढ़कर उत्पात मचा रही थी तो ऐसे पशु से वह अकेली  कैसे पार पा सकती थी?  वह मन ही मन अपनी बेबसी पर रो पड़ी।

‘स्त्री हो या फिर पेड़ क्या उसको काटने से पहले उसकी मर्जी नहीं पूछी जानी चाहिए?  उसको काटने का निर्णय कोई दूसरा, चाहे सिरहा हो या फिर वह फिरंगी क्यूं करेगा? जब सदियों से वे लोग सालद्वीप, सालवन की बिना अनुमति के एक पत्ता भी नहीं लेते तो फिर फिरंगियों की धौंस क्यूं सहे?’

अफसोस कि उसके गांव के लोग भी इस षडयंत्र में शामिल हो चुके हैं।

‘गैरों से मिले छल से उपजे घाव तो भर ही जाते हैं पर अपनों से मिला घात मन को इतना आहत कर देता है कि प्रतिघात करने की रुचि भी शेष नहीं रहती।’

सालवन का वह नायाब पेड़ आखिर उनकी कुदृष्टि से बचा नहीं रह पाया।

सिरहा उसके घर की  कुंडी बाहर से चढ़ा कर जा चुका था।

‘पीछे हट!’ चितली चीखने लगी, पर कहां वह फिरंगी पशु, मानव के भेष में उसकी ओर बढ़ता ही चला आ रहा था।

‘तुचो पांय, पड़ेंसे!’ (तुम्हारे पांव पड़ती हूँ।)

‘मुझे छोड़ दो।’

वह दौड़ते हुए दरवाजे की ओर बढ़ी, जोर-जोर से किवाड़ पीटने लगी। पर सिरहा तो बाहर की कुंडी लगा कर कब का जा चुका था। आज बस्तर के निश्छल, देहाती, अनावृत्त लापरवाह सौंदर्य की स्वामिनी गिड़गिड़ा रही थी। वह हैरान थी कि इस तरह भी कभी देह पर जबरिया कब्जा जमाया जा सकता है क्या जिस तरह उस पेड़ पर किया जा रहा था। अपनी ही जमीन अपना ही जंगल अपना ही सालद्वीप और इस पर भी फिरंगी का कब्जा करने का कुत्सिक प्रयास।

वह मदद के लिए दरवाजा पीटती जा रही थी। उस ऑफिसर की वहशी हँसी।

अचानक धड़ से दरवाजा खुलने की आवाज आई। आंसू भरी कातर नजरों से उसने सामने देखा तो सामने अपने हाथों में कुल्हाड़ी लिए लोहरा लेका खड़ा था। वह पंडरा ऑफिसर चितली की कलाई पकड़ चुका था।

खून उतरी आंखों से जब उसने बुकबुकाती चिमनी की रोशनी में लोहरा ने उस अंग्रेज का चेहरा देखा तो उसका कलेजा धक से रह गया। यही स्थिति चितली की भी थी।

अरे, यह तो वही है जिसे लोहरा ने अपने गांव में अपने घर के आस-पास कई बार देखा था। हू-ब-हू उसी के जैसा चेहरा! तो क्या… वह… उसी की संकर संतान…?

हे आंगा देव, तभी तो उसका रंग उजला, बाल भूरे… आंखों की बिरौनियां भी भूरी। इसी कारण तो शायद गांव वाले उसे पंडरा लेका (गोरा लड़का) कह कर चिढ़ाते थे।

छी…. ….

आज फिर वही… विदेशिया सीरत…?

लोहरा ने झपट कर चितली को खींच कर परे हटाया।

अचानक आ गये लोहरा को देख कर आफिसर बदहवासी से चीखा, ‘ऐ तुम कौन हो, दूर हटो।’

इतना कह कर उसने अपनी दोनाली लोहरा लेका पर तान दी।

वह फिरंगी नशे में अपनी आंखें खोलने की स्थिति में नहीं था। वह कैसे देख पता है अपनी प्रतिकृति को? न जाने कितनी बस्तर बालाओं में उसने यह फिरंगी गुणसूत्र जबरिया प्रतिरोपित कर दी थी।

लोहरा मन से पस्त हो चुका था… उस.. उस अंग्रेज का लहू उसके शरीर में दौड़ रहा था…छी…

लोहरा ने कुल्हाड़ी से उस पर वार करने के लिए अपने कदम आगे बढ़ाए ही थे कि दोनाली से गोली चली। यह गोली लोहरा के सामने आई चितली के कलेजे को पार कर गई। फिर दूसरी गोली चली।

पूरे गांव के चमगादड़ घपचियाने लगे। उन चमगादड़ों ने ही नहीं, बल्कि पूरे गांव ने कई बार ऐसी आवाजें सुनी थी और हर बार इन आवाजों से कभी गांव का एक आदमी तो कभी जंगल का एक जीवनकाल कम हो जाता था!

पर आज उस सालवन में गोली चलने से दो धड़ लहूलुहान होकर गिर पड़े थे। पूरा गांव जानबूझकर नीम बेहोशी में आंखें मूंदे पड़ा रहा। सुबह होते ही पूरे गांव में मसान-सा सन्नाटा पसरा था।

ऑफिसर ने सुबह होते ही सिरहा को हाजिर होने का हुकुम दिया।

‘काम हो गया?’

‘हव सरकार।’

‘किसी को पता तो नहीं चला?’

‘नहीं सरकार।’

‘शाबाश, तुमको हम गांव का कोतवाल बनाते हैं।’

‘जोहार सरकार, आपलोग ही तो हमारे अन्नदाता हैं।’

पूरी रात फिरंगी करवटे बदलता रहा। मंहगी विलायती शराब भी उस पर बेअसर साबित हो रही थी। उसे हर समय यह लगता था कि वही पेड़ उसके सामने आ कर खड़ा हो गया है।

‘सिरहा को बुलाओ!’

‘काय होली सरकार?’

‘किसी से कुछ कहोगे तो नहीं?’

‘नहीं साहेब।’

‘लो तुम भी पी लो अंग्रेजी शराब।’

उकड़ू बैठे सिरहा ने इसे फौरन लपक लिया।

ऑफिसर, ‘मुझे तो लगता है कि यह पेड़ मुझे मारना चाहता है।’

‘हंय, ऐसे कैसे हो सकता है?’

‘सच कह रहा हूँ। कुछ तो उपाय करना पड़ेगा।’

अगले दिन पूरे गांव में मुनादी हो रही थी।

ढम… ढम…. ढम…

‘यह पेड़ अपराधी है, इसके पास न तो कोई  जाएगा न ही कोई इसे छुएगा।’

गांव वाले भोक्क फाड़े सुन रहे थे।

एक ने पूछा, ‘क्यूं?’

‘इसने बस्तर के छह सौ साल पुरानी बस्तर दशहरा की मुख्य रस्म बांह भरनी में विघ्न डाला है। इस कारण इसे जंजीरों से जकड़ा जाएगा!’

फुसफुसाहट-सी पूरे गांव में फैल रही थी…

‘चितली कहां गई, लोहरा लेका कहां गया, किसी को पता नहीं।’

‘अच्छा… बड़ी लंबी कहानी है तुम्हारी!’

‘जी तब से लेकर अब तक, जब तक मैं जीवित रहा, मुझ पर मरकत हरापन रहा, मेरी  जड़ें मूसल-सी रहीं।

मेरे तन पर अब जो पत्ते निकलते थे उनका रंग लहू-सा लाल ही होता था! तब से लेकर आज तक सांकलों से बंधा हूँ, पर अब मेरी देह मुरझा गई है। अब तो मैं ठूंठ ही रह गया हूँ। अपनी ही लाश पर खुद ढोता हुआ पिछले एक सौ बियासी वर्षों से जंजीरों में जकड़ा हुआ हूँ।

सदियां बीत गईं, लोग कहते हैं कि पिछले एक सौ बियासी साल से कैद-ए-मशक्कत काटते हुए पेड़ से अब रोने की आवाजें आती हैं।

कभी-कभी तो इसकी चीत्कार सालद्वीप के एक कोने से दूसरे कोने तक गूंज जाती है।

ये जंजीरें गवाह हैं सालद्वीप, सालवन बस्तर के जल, जंगल, जमीन को हड़पने के विरुद्ध चितली और लोहरा लेका के विद्रोह की।

देखिएगा कभी आप भी उस कैदी को… जो काट रहा है एक सौ बयासी साल कैद-ए-मशक्कत…।

 

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