स्नातकोत्तर हिंदी विभाग, शांति प्रसाद जैन महाविद्यालय, सासाराम में प्रोफेसर।भाषा का समाजशास्त्रऔर भारत में नाग परिवार की भाषाएं’, ‘हिंदी की लंबी कविताओं का आलोचनापक्षआलोचना की पुस्तकें।भोजपुरी हिंदी इंग्लिश लोक शब्दकोशका संपादन।बिहार सरकार के डॉ. ग्रियर्सन पुरस्कार से सम्मानित।

पिछले कुछ दशकों से हिंदी साहित्य में स्त्री – विमर्श खूब फूला, फला और समृद्ध हुआ है, पर पुरुष वर्चस्ववादी हिंदी भाषा, व्याकरण तथा शब्दकोश के आईने में इसकी चर्चा अपेक्षाकृत कम हुई है।यह भी होनी चाहिए।हिंदी में ‘स्त्री’ स्वतंत्र शब्द है। ‘नारी’ परतंत्र है। ‘नर’ में स्त्री प्रत्यय जोड़ने से ‘नारी’ शब्द निर्मित होता है। ‘स्त्री’ शब्द किसी ‘स्त्रा’ शब्द का मुखापेक्षी नहीं है।शायद इसीलिए हिंदी विमर्शकारों ने ‘नारी-विमर्श’ की जगह ‘स्त्री-विमर्श’ को चुना है।हिंदी व्याकरण का यह नियम है कि पुरुषवाची शब्दों में स्त्री प्रत्यय जोड़ देने से वे स्त्रीवादी शब्द हो जाया करेंगे-—जैसे लड़का = लड़की, बालक = बालिका, माली = मालिन, देवर = देवरानी आदि।तात्पर्य यह है कि हिंदी व्याकरण में पुंलिंग शब्दों को मूल और स्त्रीलिंग शब्दों को व्युत्पन्न समझा जाता है।जाहिर है कि हिंदी में व्युत्पन्न शब्द एक प्रकार से गौण अथवा दोयम दर्जे के शब्द हैं।इससे हिंदी व्याकरण का पुरुष मानसिकता से रचे होने का प्रमाण मिलता है।हिंदी के कुछेक शब्दों यथा मौसी = मौसा, बहन = बहनोई आदि को छोड़कर प्रायः स्त्रीलिंग शब्दों का निर्माण ऐसे ही पुरुषवाची शब्दों में स्त्री प्रत्यय जोड़ देने से हुआ करता है (हिंदी भाषा की शब्द- संरचना, डॉ. भोलानाथ तिवारी)।

हिंदी में स्त्री प्रत्यय की अवधारणा है।इसीलिए इसमें ‘कुतिया’ से ‘कुत्ता’ अथवा ‘घोड़ी’ से ‘घोड़ा’ का निर्माण नहीं होता है अपितु ‘कुत्ता’ से ‘कुतिया’ तथा ‘घोड़ा’ से ‘घोड़ी’ शब्द बनते हैं।पर भारत की वे भाषाएँ जो स्त्री प्रत्यय नहीं, बल्कि ‘लिंग प्रत्यय’ की अवधारणा में विश्वास करती हैं, उनमें ‘कुत्ता’ से ‘कुतिया’ अथवा ‘घोड़ा’ से ‘घोड़ी’ बनाने के लिए अलग-अलग स्वतंत्र प्रत्यय हैं, जिन्हें ‘लिंग प्रत्यय’ कहते हैं।ऐसी भाषाओं में ‘स्त्री प्रत्यय’ नहीं, बल्कि ‘लिंग प्रत्यय’ हुआ करता है।नागालैंड तथा मणिपुर में बोली जानेवाली अनेक भाषाओं (अंगामी, लोथा, कुकी, कोन्यक, लियांगमाइ आदि) से इसे समझा जा सकता है।मिसाल के तौर पर लियांगमाइ भाषा को लें।इसमें पुंलिंग और स्त्रीलिंग बनाने के लिए अलग-अलग प्रत्यय हुआ करते हैं।इस भाषा में ‘कुत्ता’ और ‘कुतिया’ दोनों को ‘तथी’ कहा जाता है।यदि सिर्फ ‘कुत्ता’ कहना है तो उसमें पुंलिंग प्रत्यय ‘ची’ जुड़ जाएगा और यदि सिर्फ ‘कुतिया’ कहना है तो उसमें स्त्री प्रत्यय ‘पुइ’ जुड़ जाएगा, तब ‘कुत्ता’ के लिए शब्द होगा ‘तथिची’ और ‘कुतिया’ के लिए शब्द होगा ‘तथिपुइ’। (लियांगमाइ व्याकरण की रूपरेखा, ब्रजबिहारी कुमार, नागालैंड भाषा परिषद, कोहिमा, पृ. ६ ) कहना न होगा कि ऐसी भाषाओं में स्त्रीलिंग और पुंलिंग दोनों प्रकार के शब्द समानता के धरातल पर खड़े हैं।इनमें कोई भी शब्द एक-दूसरे का गुलाम नहीं है।पर हिंदी में स्त्री प्रत्यय जोड़कर बनाए जानेवाले सभी स्त्रीवाची शब्द पुरुषवाची शब्दों के गुलाम हैं और ऐसा पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता के कारण हुआ है।

जैसा कि कहा गया है, हिंदी में पुंलिंग शब्दों को मूल तथा उससे निर्मित स्त्रीलिंग शब्दों को व्युत्पन्न अथवा दोयम दर्जे का शब्द समझा जाता है।यही कारण है कि ‘बाल’ का स्त्रीलिंग ‘बाला’ होगा, पर ‘बाल’ से जितने शब्द निर्मित होंगे, उतने ‘बाला’ से नहीं बनेंगे।वजह यह कि ‘बाला’ (बच्ची अथवा लड़की के अर्थ में) स्वयं ‘बाल’ (बच्चा अथवा लड़का के अर्थ में) से व्युत्पन्न शब्द है।मिसाल के तौर पर हिंदी में ‘बाल’ से निर्मित कुछेक शब्दों को देखा जा सकता है यथा बाल-काल, बाल-क्रीड़ा, बाल-गृह, बाल-बुद्धि, बाल-रोग, बाल-साहित्य आदि।पर हिंदी में बाला साहित्य अथवा बाला रोग जैसे शब्दों का प्रचलन नहीं है।इसलिए कि मूल शब्दों में जनने की क्षमता अधिक होती है, जबकि व्युत्पन्न शब्दों में कम होती है।स्त्री भले ही ‘जननी’ कही जाती है, पर पुंलिंग से बने स्त्रीलिंग शब्दों में शब्दों को जनने की क्षमता कम होती है।

दरअसल भाषा में स्त्रीलिंग और पुंलिंग का भेद बाद का है।उससे पहले मानव और मानवेतर जैसा भेद किया जाता था।द्रविड़ तथा नाग भाषाओं में इस तरह का भेद अब भी एक सीमा तक प्रचलित है।पहले द्रविड़ भाषाओं में संज्ञाओं का मूल विभाजन मानव और मानवेतर समुदायों में था।मानवसमुदाय के अंतर्गत स्त्रीलिंग और पुंलिंग का भेद बाद का है।

आद्य भारोपीय में भी यह अनुमान किया गया है कि उसमें मूलतः दो ही लिंग रहे होंगे: एक ‘सामान्य लिंग’ जिसमें पुंलिंग और स्त्रीलिंग दोनों शामिल होंगे, तथा दूसरा ‘नपुंसक लिंग’।इसकी पुष्टि हित्ताइत भाषा से हो जाती है।हित्ती में केवल दो लिंग हैं: पुंलिंग और नपुंसक लिंग।इसमें स्त्रीलिंग नहीं है (भाषा विज्ञान कोश, डॉ. भोलानाथ तिवारी, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, पृ. ७४३)।जाहिर है कि भाषा का इतिहास इस बात का गवाह है कि स्त्रीलिंग और पुंलिंग का भेद बाद का है।भारत में बोली जानेवाली मुंडावर्ग की भाषाएं भी कुछ ऐसा ही प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।मुंडारी और हो भाषाओं में संज्ञाओं का मूल विभाजन प्राणिवाचक और अप्राणिवाचक है।संथाली में भी प्राणित्व तथा अप्राणित्व के आधार पर लिंगभेद है, पर हिंदी में पुंसत्व-स्त्रीत्व पर आधारित लिंगभेद है।ऐसे प्राणि-अप्राणिवाचक लिंग को ‘जैवलिंग’ कहा जाता है।सिंहली इसका प्रमाण है, जहां प्राणत्व को लेकर प्राणवान तथा प्राणहीन दो लिंग हैं।निश्चित रूप से हिंदी में पुंसत्व-स्त्रीत्व पर आधारित लिंगभेद अत्यंत गहरा है।

हिंदी की भाषा-संरचना में पग-पग पर स्त्रीलिंग और पुंलिंग की पहचान की जा सकती है।क्रियाओं में (जाता/जाती), संबंध प्रत्ययों में (का/की), विशेषणों में (अच्छा/अच्छी), सादृश्य विधायक शब्दों में (जैसा/जैसी) – सभी पर लिंग का असर है।हिंदी में लड़का जाता है, पर लड़की जाती है।लड़की जाता है- ऐसा लिखने – बोलने की मनाही है।पर पूर्वोत्तर में बोली जानेवाली तिब्बती-बर्मी वर्ग की भाषाएं ऐसे लिंगभेद से पीड़ित नहीं हैं (भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. ३१)।पुनः लियांगमाइ भाषा के एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है।इसमें ‘आदमी जाता है’ को ‘म्पिउमाइ तात’ कहा जाता है और ‘औरत जाती है’ को ‘म्पुइमाइ तात’ बोला जाता है।अर्थात स्त्री-पुरुष दोनों के लिए क्रिया ‘तात’ का ही प्रयोग होता है।क्रिया पर पुंसत्व अथवा स्त्रीत्व का कोई प्रभाव नहीं होता है।ऐसा संताली में भी है।वहां भी क्रिया लियांगमाइ की भांति अपरिवर्तित रहती है।छिता ए चाला: काना (छिता जा रही है) और दिनू ए चाला: काना (दिनू जा रहा है) – दोनों में क्रिया रूप ‘चाला: काना’ है अर्थात क्रिया पर पुंसत्व अथवा स्त्रीत्व का कोई प्रभाव नहीं है।इसमें कोई शक नहीं कि बदलते समाज और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ हिंदी भाषा में लिंग विषयक चेतना भी बदल रही है।विश्वविद्यालयों में पढ़नेवाली छात्राएं यही कहती हैं कि हम चाय पीने जा रहे हैं।मनोहर श्याम जोशी की ‘हमलोग’ जैसी धारावाहिक श्रृंखलाओं में एक भी स्त्रीवाची क्रियाएं नहीं हैं।बहन जी आप क्या खाओगे/मैडम जी आप कब चलोगे जैसी क्रियाएं नए भाषायी परिवर्तन के द्योतक हैं।विनोबा भावे ने भी अपनी पुस्तक ‘स्त्री-शक्ति’ में यह विचार दिया है कि भाषा में पुरुषवाची और स्त्रीवाची सभी शब्दों के लिए एक ही क्रियारूप, विशेषणरूप आदि होने चाहिए।

दरअसल हिंदी के नाम शब्दों (संज्ञा आदि) में ही ‘लिंग’ की सत्ता वास्तविक होती है, शेष में (क्रिया, विशेषण आदि) इसे आरोपित किया जाता है।अंग्रेजी में अथवा भारत के नाग – मुंडा वर्ग की भाषाओं में क्रिया, विशेषण आदि शब्दों पर लिंग आरोपित नहीं किए जाते हैं।अंग्रेजी में ‘लड़का‘ के साथ भी ‘गुड’ विशेषण लगेगा और ‘लड़की’ के साथ भी ‘गुड’ विशेषण ही लगेगा।नाग वर्ग की लोथा भाषा में यदि ‘नया’ के लिए ‘एथान’ शब्द है तो ‘नई’ के लिए कोई अलग शब्द नहीं है।प्रत्येक हालत में विशेषण अपरिवर्तित रहेगा।किंतु हिंदी के विशेषण पुंसत्व और स्त्रीत्व को आधार मानकर अपना रूप बदल देते हैं।यहां ‘अच्छा’ का ‘अच्छी’ हो जाएगा और ‘नया’ का ‘नई’ हो जाएगा।जाहिर है कि अच्छा/अच्छी अथवा जाता/जाती जैसे विशेषण-क्रियाओं पर हिंदी में लिंग आरोपित किए जाते हैं।लिंग की वास्तविक सत्ता ‘अच्छा’ अथवा ‘जाना’ में नहीं है।

लड़का अथवा लड़की में पुंसत्वस्त्रीत्व है, पर क्रिया अथवा विशेषण में नहीं है, उसे कृत्रिम रूप से बना दिया जाता है।द सेकेंड सेक्समें सिमोन द बोउआ की स्थापना है कि स्त्री पैदा नहीं होती, स्त्री बना दी जाती है।ऐसे ही हिंदी में क्रिया, विशेषण, संबंध प्रत्यय आदि सभी को स्त्रीलिंग बना दिया जाता है।

पदवीसूचक शब्दों को लिंग-निरपेक्ष अथवा उभयलिंगी कहकर हिंदी के वैयाकरणों ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री, सांसद, सचिव, निदेशक, उपायुक्त, जिलाधीश, अधीक्षक जैसे पदनामों को स्त्रीलिंग-पुंलिंग के दायरे से बाहर रखा है।पर कुछेक पदवीसूचक शब्दों का भी स्त्रीरूप बनाए जाते हैं यथा अध्यक्ष = अध्यक्षा, आचार्य = आचार्या आदि।ऐसे आचार्यों को यदि मौका मिले तो वे प्रधानमंत्राणी, निदेशिका, जिलाधिकारिणी जैसे स्त्री-शब्द गढ़ डालेंगे।यह तो सुखद संयोग है कि ऐसे आचार्यगणों ने भाववाचक संज्ञाओं के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की वरना वे साबित कर डालते कि ‘आचार्यत्व’ तो ‘आचार्य’ में है, पर ‘आचार्यात्व’ का गुण ‘आचार्या’ में है।जिस हिंदी भाषा के रेशे-रेशे में स्त्रीलिंग-पुंलिंग का भाव समाया हुआ है, वहां स्त्रीलिंग ‘अध्यक्षा’ के लिए क्यों नहीं अध्यक्ष होने की क्रिया ‘अध्यक्षाता’ शब्द बनाया गया है।कार्यक्रम की अध्यक्षता कौन करेगा- अध्यक्ष अथवा अध्यक्षा? ‘नायक’ का ‘नायकत्व’ किसमें है-  नायक अथवा नायिका में? क्यों नहीं, हिंदी के आचार्यों ने भाषा के रग-रग में लिंगभेद आरोपित करके ‘नायिकात्व’ शब्द गढ़ लिया? हिंदी के कुछेक पदवीसूचक शब्द ‘पति’ के मेल से बने हैं यथा राष्ट्रपति, कुलाधिपति, कुलपति आदि। ‘पत्नी’ के मेल से कोई भी पदवीसूचक शब्द नहीं हैं।यदि ‘पति’ का अर्थ ‘मालिक’ भी है तो अरबपति, लखपति जैसे शब्द पुरुष मानसिकता की ही देन है।

किशोरीदास वाजपेयी ने स्वतंत्रता और परतंत्रता की कसौटी पर आत्मा तथा परमात्मा का लिंग तय करते हुए लिखा है कि आत्मा तो ईश्वर के अधीन है, स्वतंत्र नहीं है।परमात्मा स्वाधीन है, स्वतंत्र है।स्वतंत्रता की व्यंजना के लिए परमात्मा पुंलिंग में तथा पराधीनता के प्रदर्शन के लिए आत्मा स्त्रीलिंग में है। ‘आत्मा’ परतंत्र है।इसलिए वह स्त्रीलिंग है।फिर ‘महात्मा’ पुंलिंग क्यों है? ‘महात्मा’ पर सिर्फ पुरुषों का कब्जा कैसे है? ‘शक्ति’ स्त्रीलिंग है तो ‘महाशक्ति’ भी स्त्रीलिंग है।फिर ‘आत्मा’ स्त्रीलिंग है तो ‘महात्मा’ पुंलिंग क्यों है? दरअसल हिंदी में कुछेक अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी ‘महा’ युक्त विशेषण/संज्ञाएं पुरुषों के लिए सुरक्षित हैं यथा महामना, महामहिम, महानुभाव, महारथी आदि।यह तो हिंदी वैयाकरणों ने कृपा की है कि ‘महाशय’ का स्त्रीलिंग भी बना डाला है, वह है ‘महाशया’।

महानता या कहें स्वतंत्रता और परतंत्रता की कसौटी पर शब्दों के लिंगनिर्णय के ऐसे नियमकानून और उसकी व्याख्या पुरुष मानसिकता की देन है।यह ठीक वैसे ही है जैसे कोई माताका विलोम पिताकह डाले या लड़कीका विलोम लड़काबता डाले।दरअसल इस तरह के विलोम छद्म हुआ करते हैं।लिंग विलोम का आधार नहीं है।माता और पिता दोनों एकदूसरे के पूरक हैं।इसे विलोम कहना गलत है।

हिंदी में महिला कथाकार, महिला खिलाड़ी, महिला वकील जैसे समास-प्रक्रिया द्वारा निर्मित लिंग-विभेदक शब्दों की भी परंपरा चल पड़ी है।व्यवसाय, पेशा आदि से जुड़े शब्दों में इसका प्रचलन बढ़ा है।अब तो महिला थाना, महिला बैंक आदि भी खुलने लगे हैं।ऐसे लिंग-विभेदक शब्दों की खासियत यह है कि यह स्त्री प्रत्यय की तरह एकतरफा नहीं है, बल्कि ‘पुरुष’ शब्द जोड़कर भी पुंलिंग शब्द बनाए जा रहे हैं जैसे पुरुष खिलाड़ी, पुरुष सदस्य आदि।परंतु यदि वाक्य में पुरुष खिलाड़ी और महिला खिलाड़ी एक साथ आ जाए तो क्रिया का लिंग तुरंत पुरुष के अनुसार हो जाता है।हिंदी में ‘पुरुष खिलाड़ी और महिला खिलाड़ी आ रही हैं’ नहीं होगा, बल्कि ‘पुरुष खिलाड़ी और महिला खिलाड़ी आ रहे हैं’ होगा।कारण वही पुरुष मानसिकता है।यदि हिंदी वाक्य में दो भिन्न लिंगों के कर्ता भी द्वन्द्वसमास के अनुसार प्रयुक्त हों तो भी उनकी क्रिया पुंलिंग होती है।माता-पिता, स्त्री-पुरुष जैसे समस्त पद हिंदी में पुंलिंग होते हैं।जाहिर है कि व्याकरण में कर्ता और क्रिया का ऐसा मेल पुरुषवादी है।

हिंदी सर्वनामों की खासियत यह है कि वे एक ही रूप में स्त्रीलिंग और पुंलिंग दोनों के लिए प्रयुक्त हैं।वह, तुम, मैं आदि सर्वनाम पुरुष के लिए भी आते हैं, महिला के लिए भी।अंग्रेजी में ऐसा नहीं है।वहाँ ही, शी, इट जैसे प्रयोग हैं।पर अंग्रेजी पर्सन की जगह ‘पुरुष’ को स्थापित करके हिंदी व्याकरण ने पुरुष मानसिकता का परिचय दिया है।हिंदी में पुरुषवाचक सर्वनाम की परिभाषा है कि वे पुरुषों के नाम के बदले आते हैं।हिंदी शब्दकोश बताता है कि पुरुष में सिर्फ मानव जाति का नर प्राणी (स्त्री से भिन्न) शामिल है।फिर पुरुषवाचक सर्वनाम में महिलाएं कैसे आएंगी? जाहिर है कि पुरुषवाचक सर्वनाम स्त्री या पुरुष दोनों के नाम के बदले आते हैं, पर हिंदी व्याकरण में उसे पुरुष मानसिकता के कारण ‘पुरुषवाचक’ सर्वनाम कहते हैं।पुनः पुरुषवाचक सर्वनाम में ‘पुरुष’ शब्द जोड़कर हिंदी व्याकरण तीन भेद करता है- उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष एवं अन्य पुरुष।जाहिर है कि हिंदी व्याकरण में सर्वनाम के ऐसे भेद-प्रभेद का नामकरण पुरुष मानसिकता की वजह से हुए हैं।ऐसे भी ‘उत्तम पुरुष’ को घुमाकर ‘पुरुषोत्तम’ कह सकते हैं।भारतीय संस्कृति में ‘पुरुषोत्तम’ हैं जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम (राम), लीला पुरुषोत्तम (कृष्ण) आदि; परंतु ‘स्त्रीयोत्तम’ की अवधारणा नहीं है।

‘पुरुष’ जोड़कर हिंदी व्याकरण में समास का भी एक भेद है।वह है- तत्पुरुष समास।तत्पुरुष समास उसे कहते हैं जिसका अंतिम पद प्रधान हो, वह अंतिम पद स्त्री हो अथवा पुरुष, वह ‘तत्पुरुष’ ही होगा। ‘तत्स्त्री’ पुरुष निर्मित हिंदी व्याकरण में नहीं चलेगा। ‘राजपुत्र’ भी तत्पुरुष है और ‘राजपुत्री’ भी तत्पुरुष है, ‘तत्स्त्री’ कोई नहीं है।हिंदी व्याकरण में ‘व्याधिकरण तत्पुरुष’ के भेदों में पुनः ‘पुरुष’ शब्द जोड़कर ही एक सिलसिला चल पड़ता है- कर्म तत्पुरुष, करण तत्पुरुष, संप्रदान तत्पुरुष आदि।यह तो अच्छा हुआ कि हिंदी वैयाकरणों ने कोई ‘कर्ता तत्पुरुष’ की अवधारणा नहीं दी।पर कारक के प्रसंग में ‘कर्ता’ की अवधारणा है।हिंदी शब्दकोश के अनुसार करनेवाला अथवा रचनेवाला कर्ता है जैसे सृष्टिकर्ता, यज्ञकर्ता आदि।हिंदी आचार्यों ने ‘शोधकर्त्री’ (शोध करनेवाली अथवा रचनेवाली) को प्रचलित कर दिया, पर हिंदी व्याकरण का ‘कर्ता कारक’ वैसे ही रह गया।पुरुष मानसिकता के कारण व्याकरण में क्रिया को करनेवाला और करनेवाली दोनों कर्ता हैं।वचन प्रकरण में भी ‘लोग’ जैसे बहुवचन बोधक शब्दों को जोड़कर हिंदी व्याकरण अपनी पुरुष मानसिकता का परिचय देता है।हिंदी शब्दकोश में ‘लोग’ का अर्थ ‘मनुष्यों का समूह’ है। ‘लोग’ का स्त्रीलिंग ‘लुगाई’ है।पर हिंदी में बहुवचन का रूप ‘लुगाई’ से सिद्ध नहीं होता है। ‘हमलोग’ में सभी शामिल हैं- पुरुष भी, स्त्री भी। ‘हम लुगाई’ जैसे शब्द वचन प्रकरण में नहीं मिलेगा।हिंदी में श्रोता ‘लोग’ ही चलेगा।श्रोता के संग ‘लुगाई’ नहीं चलेगा।कारण कि हिंदी व्याकरण पुरुषों की जययात्रा है।

प्रोफेसर, हिंदी विभाग, शांति प्रसाद जैन महाविद्यालय, सासाराम (बिहार)