सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘पापा! आर यू ओके?’।
वे कुल चार थे।बी.एच.यू. के छात्र।अपने एक साथी की लाश को लेकर वे काशी के हरीशचंद्र घाट से कोई पांच सौ मीटर दूर थे।उन्हें यह आभास होने लगा था कि दिवंगत दोस्त की लाश को गंगा किनारे तक पहुंचाना और उसका अंतिम संस्कार करना एक ऐसी चुनौती थी जिसका सामना करने के लिए वे कभी भी मानसिक रूप से तैयार नहीं थे।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में चारों विभिन्न संकायों के छात्र थे।अपने उस दोस्त के अंतरंग, जो सुबह चार बजे इस दुनिया को अलविदा कह चुका था।उसकी लाश कार की डिक्की में यूं रखी हुई थी जैसे वह कोई लगेज हो।वे चारों गत कई घंटों से उसे किसी दुखांत गाथा की तरह जी रहे थे, जिसकी शायद उन्होंने कल्पना नहीं की थी।
‘कार सड़क के किनारे पार्क कर दो।आगे गाड़ियों की लंबी कतार है।’
वह कोई पुलिसिया हवलदार था जो ट्रैफिक को कंट्रोल कर रहा था।गंगाघाट से कोई चार या पांच सौ मीटर दूर सड़क पर गाड़ियों की कतारें थीं।मानो कोई जाम लगा हो।लेकिन वह जाम नहीं था।हर वाहन में किसी न किसी का शव था और उसके साथ अंतिम विदाई देने वाले उसके परिजन, दोस्त या रिश्तेदार।
उस तपती दुपहरी और भीषण गर्मी में वे अपने दोस्त लक्की की लाश लेकर गंगा घाट से कोई आधा किलोमीटर पीछे ही पहुंच पाए थे।उन चारों को यह जानने में ज्यादा वक्त नहीं लगा कि महामारी के कारण बेशुमार लाशों का गंगा घाट पहुंचने का क्रम जारी था।सब लोग डरे, सहमे, घबराए हुए से अपने-अपने प्रियों के बेमौत मारे जाने की वजह से ग़मजदा थे।हर कोई इस बात को लेकर फिक्रमंद था कि किसी तरह वे लाश को हरीशचंद्र घाट या मणिकर्णिका घाट या निगम के क्रिमेटोरियम तक पहुचा दें और अंतिम संस्कार के बाद वे तनावमुक्त होकर अपने-अपने घर लौट सकें।मगर यह ऐसा दौर था जब अस्पतालों के बाहर या घर पर मरीजों का बड़ी तादाद में मौत के मुंह में समा जाना देश और दुनिया भर में चिंता का विषय बना हुआ था।
आमतौर पर सामान्य दिनों में वाराणसी के हरीशचंद्र घाट व मणिकर्णिका घाट पर अस्सी से सौ शवों की अंत्योष्टि ही हो पाती थी।लोग दूर पार से इसलिए अपने प्रियजनों की लाशें लेकर पहुंचते थे, क्योंकि शास्त्रों के मुताबिक काशी के गंगा तट पर दाह-संस्कार को पवित्र माना जाता है।पूरे देश में शायद यही मोक्ष का एकमात्र स्थल है, जिसके बारे में लोगों की आस्था सदियों से प्रगाढ़ थी।समाज में यह मान्यता भी प्रबल थी कि अगर काशी के गंगा घाट पर दाह संस्कार विधिवत कर दिया जाए तो मनुष्य पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा पा लेता है।आस्था हमेशा अंधविश्वास को पराजित कर देती है।
चारों दोस्तों की एक राय थी कि दो दोस्त हरीशचंद्र घाट पर जाकर वस्तुस्थिति का जायजा लेने का प्रयास करें।लक्की की लाश की अंत्येष्टि की प्रक्रिया में क्या-क्या धार्मिक व सांस्कारिक जरूरतें या औपचारिकताएं होंगी, यह जानना बेहद जरुरी है।बरना वे दस-बारह घंटे तक शायद घाट तक पहुंचने में निष्फल रहें, और शव उस खटारा व टूटी-फूटी मारुति की डिक्की में सड़ता रहे।अगर लाश की बदबू बाहर फैली तो आस पड़ोस, गल्ली, मोहल्ले और सड़क पर आवाजाही में मशगूल लोग उन चारों के खिलाफ हंगामा खड़ा कर सकते हैं।अगर ऐसा हुआ तो भीड़ उनकी मॉव लिंचिंग भी कर सकती है।ऐसी आपात स्थिति में दूर-दूर तक पुलिस की सुरक्षा दूर की ही कौड़ी मानी जाएगी।यूं भी पुलिस तो बेसहारा, मज़लूम और गरीब लोगों पर ही जुल्मो-सितम ढाहती रहती है।मुसीबत के वक्त उससे बचाव या राहत की अपेक्षा करना बेमानी-सा था।
उन चारों में से दो पैदल ही हरीशचंद्र घाट की ओर चल पड़े।कोई विकल्प भी नहीं था, क्योंकि गंगाघाट तक पहुंचने के सभी रास्तों पर लोग अपने प्रियजनों की लाशों के साथ यूं बिछे पड़े थे मानो किसी जुलूस में शामिल होने के लिए आए हों? सोचा, कोई न कोई जुगाड़ फिट कर लक्की की लाश का मान-सम्मान, हिंदू-रीति रिवाज और धार्मिक अनुष्ठान के साथ अंतिम संस्कार करवा कर ही दम लेंगे।साथ ही यह डर भी उन्हें सता रहा था कि कफन, हवन-सामग्री, पिंडदान आदि के लिए पंडितों या पुजारियों की मांग के मुताबिक जिस-जिस सामान की जरूरत होगी, उसे जुटाने में सफल हो पाएंगे या नहीं।धनराशि के नाम पर उन चारों के पास कुल जमा तीन हजार रुपये थे जो उन्होंने काफी याचना, गुहार और लक्की की जिंदादिली का वास्ता देकर चंदे के तौर पर जुटाए थे।दोस्त इस मुगालते में जी रहे थे कि बीएचयू के टैग का सहारा लेकर वे लक्की के दाह संस्कार के लिए डोम, पंडित या पुजारी को नि:शुल्क मंत्रोच्चारण व कर्मकांड के लिए राजी कर लेंगे?
चारों में से दो साथी कार के पास खड़े रहे और लक्की की लाश के पहरेदार बने रहे।शेष दो पैदल ही हरीशचंद्र घाट की ओर रवाना हो गए।इससे पहले कि वे किसी डोम, पंडित या पुजारी से संपर्क साध पाते, एक माफियानुमा या दलाल किस्म के आदमी ने उन दोनों को बीच रास्ते रोक लिया।दाढ़ी, मूंछ में वह किसी हिंदी फिल्म का खलनायक प्रतीत हो रहा था।
‘कहां जा रहे हो मस्ती में दोनों?’
‘गंगा घाट जा रहे हैं भाई साहब।’
‘दिखता नहीं।चारों तरफ लाशें जल रही हैं।सती होना है का?’
‘जी वो बात नहीं।हम अपने दोस्त लक्की की लाश लेकर आए हैं।दाह संस्कार के वास्ते।जल्दी निपट पाते तो ऑनलाइन क्लासेस मिस नहीं होंगे।’
‘हूँ, तो ये बात है।पढ़े-लिखे होकर जानते नहीं, यहां लाश जलाने का डिसिप्लिन है।दस-बारह घंटे के बाद नंबर लग रहा है।तुम लोगों से पहले पचास लाशें जलने का इंतजार कर रही हैं।तुम लोग वीआईपी हो का? प्रधानमंत्री ने भेजा है का तुम्हें?’
‘जी नहीं।हम तो वाराणसी हिंदू यूनिवर्सिटी के स्टूडेंटस हैं।बाकी हमारे दो साथी कार के पास खड़े हैं।चार सौ मीटर पीछे।हमारे दोस्त लक्की की लाश डिक्की में रखी है।हम तो पता करने आए थे कि क्या हम जल्दी फारिग हो सकते हैं?’
इसी दरम्यान मणिकर्णिका घाट का एक कर्मचारी आ धमका, ‘अरे भाई दयाराम।क्यों परेशान कर रहे हो यूनिवर्सिटी के स्टूडेंटन को?’
दलाल एक से दो हो चुके थे।लूट-खूसोट में सौ फीसदी माहिर।
दयाराम द्विवेदी नामक उस व्यक्ति ने मणिकर्णिका घाट के उस अदने दर्जे के कर्मचारी को टोका, जो खुद को वहां का एसिस्टेंट मैनेजर बता रहा था।
‘क्या नाम है तेरा?’
‘दयाशंकर चतुर्वेदी?’
‘मैं दयाराम द्विवेदी और तुम दयाशंकर चतुर्वेदी।यानी मैं दो वेदों का ज्ञानी और तू चार वेदों का प्रकांड पंडित।साले-हरामखोर।मेरी चौहद्दी में मेरे ‘शिकार’ पर हाथ डालने की कोशिश कर रहा है।’
दयाराम द्विवेदी ने दयाशंकर चतुर्वेदी के चकाचक सफेद कुर्ते को उसके गले से यूं पकड़ा मानो उसने हत्या या फिर कोई और संगीन जुर्म कर डाला है, ‘अब जा शातिर की औलाद।दफा हो जा यहां से।वरना खाल खींच के भूसा भरवा दूंगा।क्या तुझे दयाराम द्विवेदी का खौफ नहीं है? मेरे नाम से हरीशचंद्र घाट का हर पुजारी, पंडित डोमराजा के लोग थर-थर कांपते हैं।तू मेरे जजमानों को मणिकर्णिका घाट में खींच कर उनके दोस्त की लाश को क्रीमेटोरियम में जला कर रफा-दफा करना चाहता है।ये लोग मेरे इलाके में आए हैं और यहां का रिंगमास्टर मैं हूँ।दयाराम द्विवेदी, समझे?’
दोनों दोस्त हक्के-बक्के रह गए।माफिया के खेल से वे अनभिज्ञ थे।
‘नार्मल डेथ है या कोरोना पेशेंट है?’ उस राक्षसी प्रवृत्ति के दयाराम ने पूछा।
‘जी वो…’ हकलाते हुए, बमुश्किल उनके गले से निकला, ‘कोरोना से डेथ हुई है।’
‘ओह गॉड? यह तो सीरियस मामला है।तुम्हारी कार के आसपास भीड़ तो नहीं है।कहीं आसपास के लोगों या तुम्हारे दोनों दोस्तों को इंफैक्शन हो गया तो?’
‘जी नहीं।लाश को पीपी किट में बांधा हुआ है।’
‘मृत्यु अस्पताल में हुई?’
‘जी नहीं।होस्टल में’
‘फिर तुम लोगों को कैसे पता है कि वह कोरोना से ही मरा है?’
‘लक्की की रिपोर्ट पॉजिटिव आई थी।हमने बड़ी मशक्कत की।उसे हमारे यूनिवर्सिटी के अस्पताल में बिस्तर मिल जाए।नहीं मिला।पूरे शहर में दो दिन तक भाग दौड़ और जूतियां घिसने के बाद एक सरकारी हॉस्पिटल में बेड मिला।लेकिन वहां आक्सीजन नहीं था।वैंटिलेटर नहीं था।आईसीयू नहीं था।चल बसा बेचारा।’
‘ओह गॉड, वैरी सैड! लेकिन तुम्हें पता नहीं, कोविड पेशेंट को हाथ लगाने से हर कोई हिचकिचाता है।हरीशचंद्र घाट पर कुछ लोग हैं जो पीपी किट पहनकर लाश को कंधा देते हैं और उसकी चिता को अग्नि देने का जानलेवा काम करते हैं, लेकिन उनकी फीस अदा कर पाओगे तुम लोग?’
‘फीस? हम तो यूनिवर्सिटी में अपने कोर्स की फीस मुश्किल से भर पाते हैं।हम चारों गरीब घरों से हैं।लाश को कंधा देने के लिए फीस कैसे दे पाएंगे?’
‘तो इहां सैर-सपाटे के लिए आए हो का? गेट लॉस्ट।मेरा कीमती वक्त क्यों बरबाद किया?’
‘माननीय दयाराम द्विवेदी जी।आप ही हमारे पुजारी, पंडे और पंडित हैं।प्लीज़ हैल्प अस।हम बेवस, लाचार हैं।थोड़े से पैसे हैं हमारे पास, जो हमने अपने साथियों से चंदा इकट्ठा कर जुटाए हैं।
‘देखो, यहां रियायत का कोई भी नियम नहीं है।तुम्हारी कार से लाश को चार सौ मीटर घाट तक लाने का बीस हजार रुपये लगेगा।चार आदमी कंधा देंगे पीपी किट पहन कर।उनकी फीस छह हजार रुपये होगी।चार लोग लाश को उठाएंगे।उसे अर्थी पर सजाएंगे।फूल, नारियल, पिंडदान, हवन, सामग्री, कफन, धूप नैवेद्य से लेकर अर्थी को सजाने के लिए जिस भी समान की जरूरत होगी, उसका खर्च पांच हजार रुपये होंगे।लकड़ी की शॉर्टिज है।सैंकड़ो मील दूर से लकड़ी आ रही है।ब्लैक में मिल रही है।एक लाश को जलाने के लिए दस हजार की लकड़ी लगेगी।कुल खर्चा चालीस से पचास हजार होगा।बेहतर होगा तुम लोग अपने कैंपस में लौट जाओ और चंदे की उगाही करो।जब धन इकट्ठा हो जाए तो गंगा घाट का रुख करना।समझे?’
दोनों के होश हवास उड़ गए।एक महामारी का प्रकोप।न मालूम ये नामुराद वायरस कब उन चारों को ही अपने लपेट में ले ले? उसपर लक्की की लाश की अंत्येष्टि के वास्ते ब्लैकमेलिंग का भयावह जाल?
एक दोस्त ने सलाह दी, ‘यार अब्दुल, ये दयाराम तो पूरा राक्षस है।मिडल मैन।हमें सीधे पुजारी से बात करनी चाहिए।शायद कम में मान जाए।’
‘सरासर गलत।पहले तो वो मानेगा नहीं।उस पर अर्थी को तैयार करने, उसे सजाने संवारने और लकड़ी का प्रबंध कर मुखाग्नि देने का काम मुफ्त नहीं होगा।हमें वापस यूनिवर्सिटी चलना चाहिए और वाइस चांसलर से मिलकर कोई रास्ता निकालना चाहिए।’
‘यार करीम, क्या वीसी हमारी बात सुनेगा? कभी नहीं।उसे इन बातों से क्या लेना देना।हम दोनों मुसलमान और कार के पास खड़े दोस्त हिंदू।जो मरा वह भी हिंदू।कहीं इसी बात को लेकर दंगा-फसाद या हंगामा न हो जाए कि मुसलमान दोस्त एक हिंदू की लाश को हिंदू रीतिरिवाज या शास्त्रों के मुताबिक दाह-संस्कार कैसे करा सकते हैं? क्या तुम भूल गए हो कि एक साल पहले ही संस्कृत साहित्य पढ़ाने के लिए चुने गए प्रोफेसर फिरोज खान का विरोध देशभर में हुआ था।
दोनों दोस्त हताश और निराश होकर कार के पास लौट आए जहां उनके दो दोस्त बेसब्री से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।उन्होंने अपने दोस्तों से हरीशचंद्र घाट का सूरते–हाल बयान किया तो उनके चेहरे पर भी चिंता की लकीरें खिंच आईं।
तुषार ने सुझाव दिया, ‘यार, तुम लोगों ने इलेक्ट्रिक क्रीमेटोरियम के मैनेजर से क्यों पूछताछ नहीं की।वहां तो कोई खर्च नहीं होगा।वह तो कार्पोरेशन के अंडर है न।’
तभी एक पुलिस हवलदार वहां से गुजरा।उन चारों को कार के सहारे टेक लेकर बतियाते देख धमक पड़ा, तुम लोगों को मालूम नहीं, लॉकडाउन है।धारा एक सौ चवालीस भी लागू है।हवाखोरी के लिए निकले हो का घर से? निकालो अपनी ये फटफटिया और दफा हो जाआ इहां से।’
‘जी वो लाइन में लगे हैं चार घंटे से।डेड बॉडी लाए हैं।दाह संस्कार के वास्ते।’
‘डेड बॉडी?’ सिपाही यूं चौंका जैसे उसे करंट लगा हो।
‘जी, वो डिक्की में है।हमारा साथी था।चल बसा।’
‘कोई लफड़ा-बफड़ा तो नहीं है? मर्डर-वर्डर।लड़ाई-झगड़े में मार दिया हो।दिखाओ बॉडी मुझे।’
पुलिस हवलदार यूं तफतीश कर रहा था मानो उन चारों ने सचमुच ही कोई अपराध किया हो।
तुषार ने मोर्चा संभाला, ‘हवलदार साहब।कोरोना से मरा है हमारा दोस्त।अस्पताल का डेथ सर्टिफिकेट भी है हमारे पास।यूनिवर्सिटी हॉस्टल के वार्डन का प्रमाण पत्र भी।चार घंटे से खड़े हैं यहां।हमसे पहले लोग कोई पचास शवों को लेकर लाइन में खड़े हैं।अपनी बारी के इंतजार में हमारा नंबर तो शायद रात तक ही आएगा।या फिर कल सुबह।’
‘मुझे तुम्हारी बातों पर यकीन नहीं हो रहा।दिखाओ बॉडी?’
‘बॉडी तो हम दिखा दें।पर कहीं वाइरस ने आपको लपेटे में ले लिया तो?’
‘तो तुम कैसे ले आए बॉडी? ये काम तो डाक्टरों का है।एंबुलैंस में आती है डेड बॉडी।साथ में चार लोग होते हैं पीपी किट में।तुम्हारा क्या काम है यहां? तुम लोगों को इंफेक्शन हो गया तो आसपास के सारे लोग बेमौत मारे जाएंगे।तुम चारों से तो हॉस्टल में भी खतरा है।लगाओ अपने वार्डन को फोन।कैसे भेज दी उसने लाश? पूछता हूँ सालों से।’
‘प्लीज हमें परेशान न करें।हम पहले से ही अपने दोस्त की मौत के ग़म में डूबे हैं।’ अब्दुल ने कहा, ‘लक्की की मौत हॉस्टल के कमरे में ही हुई है।उसे कोई बिस्तर नहीं मिला।आक्सीजन भी नहीं।वह बच सकता था।लेकिन सरकार, प्रशासन और अस्पतालों की संवेदनहीनता ने हमारे होनहार दोस्त को हमसे छीन लिया।ये उसका आखरी सैमेस्टर था।टॉपर था वो पूरी यूनिवर्सिटी में।’
‘ये कहानियां मुझे मत सुनाओ।खैरियत चाहते हो तो डिक्की खोलो।डेड बॉडी दिखाओ और डेथ-सर्टिफिकेट भी।’
तुषार ने डरते-डरते डिक्की यूं खोली मानो उसमें कोई जहरीला नाग छिपा हो।डिक्की खोलकर दूर भाग खड़ा हुआ।
‘हूँ।ठीक कहते हो तुम लोग।इसे तो तुम लोगों ने पीपी किट में लपेट रखा है।’
‘जी नहीं।प्लास्टिक शीट में।’
‘ठीक है ठीक है।करते रहो इंतजार।सड़ते रहो गर्मी में।धूल धक्कड़ में।कल आएगी तुम लोगों की बारी।और डेड बॉडी ने बदबू छोड़ दी तो एफआईआर करवा दूंगा तुम लोगों के खिलाफ।डेड बॉडी कार की डिक्की में बंद रहेगी और तुम लोग हवालात में।’
‘आप चाहते क्या हैं?’
‘कुछ नहीं।डोम राजा के कारकुनों से सलाह मशविरा करके मैं तुम्हारे दोस्त की बॉडी को जल्दी जलवा सकता हूँ।सभी संस्कार ठीक-ठीक हो जाएंगे।’
‘नेकी और पूछ-पूछ।हवलदार साहब हमारा काम करवा दें तो ताउम्र एहसानमंद रहेंगे हम आपके।’ तुषार ने डिक्की बंद की तो जोर से आवाज हुई।
‘मैं कोई सोशल वर्कर नहीं हूँ।यहां तो खड़े होने के भी पैसे लगते हैं।दो हजार ढीले करो तो अभी डोमराजा को फोन मिलाता हूँ।’
‘दो हजार? नामुमकिन।दाह संस्कार के लिए थोड़े से पैसे जुटा पाए हैं हम।
‘जाहिल, गंवार कहीं के।ये काशी है।आजकल कोरोना नगरी बनी हुई है।यहां तो बात करने के भी पैसे लगते हैं।ले जाओ इसे वापस और बहा दो गंगा में।हरामजादे कहीं के।मेरा कीमती वक्त बरबाद कर डाला।’
हवलदार मूंछों को ताव देता हुआ चंद लम्हों में अलोप हो गया।
हवलदार उनके तनाव में इजाफा कर गया था।अब्दुल ने कहा, ‘इस साले हवलदार की पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करनी चाहिए।तुषार लगा सौ नंबर पर फोन?’
‘यार अब्दुल।ये वक्त खून के घूंट पीने का है।अच्छा वक्त होता तो यूनिवर्सिटी के लड़के मिलकर साले की मॉब लिंचिंग कर डालते।हम बुरे वक्त से गुजर रहे हैं।कहीं कोई सुनवाई नहीं होगी।पुलिस से कोई उम्मीद नहीं है।’
करीम बोला, ‘यार तुषार, तुम राजीव को ले जाओ अपने साथ।मौका देख आओ।हम दोनों जब जलती लाशों के करीब गए थे तो लोग-बाग हमें यूं देख रहे थे जैसे हम कोई आतंकवादी हों।खुदा जाने ये अब्दुल भाई के चेहरे पर क्या लिखा है? तुम अब्दुल मैं करीम।साले ये डोम राजा के लोग दिन-रात लाशें जला-जलाकर खुद भी चलती-फिरती जिंदा लाशों में तब्दील हो चुके हैं।इनका व्यवहार भी माफिया और गुंडों जैसा है।गंगा घाट की सीढ़ियों पर इन्हीं दबंगों का पहरा है।चारों तरफ लाशें ही लाशें हैं और उनके करीब उनके परिजन।सब मृतदेहों से जल्द से जल्द मुक्ति पाने के लिए तड़प रहे हैं।’
जब तुषार और राजीव हरीशचंद्र घाट पहुंचे तो वहां के भयावह द़ृश्य को देखकर दोनों का दिल दहल गया।घाट की सीढ़ियों पर लाशे ही लाशें।मानो वह काशी जैसा पवित्र स्थल न होकर लाशों का शहर हो।चारों ओर जलती हुई चिताएं और उनके इर्द–गिर्द मंडराते डोम राजा के लोग।
चार-पांच लोग एक लाश को घेरे हुए खड़े थे।शायद वह सामान्य मृत्यु थी।उसके साथ दो परिजन भी थे।मोल-भाव जारी था, ‘देखो भइया, हमारे पास पूरा पैकेज है।सब प्रबंध हम करेेंगे।लकड़ी संदल की रहेगी तो दाम दस हजार होगा।ऑडिनेरी लकड़ी के छह हजार रुपये।यूं जलावन की लकड़ी ढूंढे नहीं मिल रही।हम फिर भी कोई न कोई जुगाड़ फिट कर देंगे।साला लकड़ी के टाल वाला ठेकेदार एक नंबर का चोर है।लकड़ी का एक-एक टुकड़ा गोदाम से यूं निकालता है, जैसे वो कोई बेशकीमती एंटीक हो?’
वे दोनों समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें!
‘देखो भइया, ये काम इतना सहज ना है।पहले लाश को गंगा किनारे ले जाना पड़ेगा।स्नान के लिए।फिर उसे सूखने में वक्त लगेगा।फिर चिता सजाई जाएगी।लकड़ी के ठेकेदार से माथापच्ची करनी पड़ेगी।तब जाकर वो लकड़ी देगा।डोम राज के अग्निकुंड से राख आएगी।सबसे बड़ी कीमती चीज तो ‘फलेम’ है।यानी ‘ज्योति’, जिससे लकड़ी को आग लगाई जाएगी, फिर वहीं जली हुई लकड़ी से चिता को अग्नि दी जाएगी।पांच-छह घंटे में कहीं जाकर लाश जलकर आग ठंडी होगी।फिर हम ही अस्थियां खोजकर उन्हें इकट्ठा करेंगे और गंगा में बहाएंगे।पुजारी भी हमारे साथ रहेगा।मंत्रोच्चार होगा।दिवंगत आत्मा को हम ही स्वर्ग भेजते हैं।फिर उसे बार-बार धरती पर जन्म लेने की जरूरत ना है।ई सारे पैकेज के तीस हजार खर्च होंगे।’
लाश के परिजन डोम राजा का भाषण सुनकर भौंचक्के से रह गए।उनका दिल बैठने लगा।
एक परिजन ने हाथ जोड़े, ‘भइया, हमारे पास तो दो हजार रुपये हैं।हम बहुत गरीब हैं।कहां से लाएं पैकेज के लिए इतनी बड़ी रकम?’
‘हमारी जिंदगी लाशों पर ही टिकी है।हमें भी तो पेट लगा है।बाल बच्चे पालने हैं।ये तो भला हो कोरोना महामारी का जो रात–दिन बेहिसाब लाशें गंगा घाट पहुंच रही हैं।मुश्किल से हमारी जिंदगी में खुशियां आई हैं।ले जाओ अपनी लाश को।बहुत गुंजाइश करेंगे तो बीस हजार तो ढीले करने पड़ेंगे ही।
तुषार और राजीव को यकीन हो चुका था कि लक्की का दाह संस्कार नामुमकिन है।घाट तक पहुंचने में उन्हें सारी रात प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।भूखे प्यासे और उस पर दिल-दहला देने वाले दुर्गंध, धुएं और प्रदूषण से लबरेज मंजर को वे भला कैसे बर्दाश्त कर पाएंगे? उन्हें क्या पता, पवित्र कही जाने वाली काशी नरक में बदल चुकी है।उस हवलदार की याद आई जो कितने ही प्रतीक्षारत परिजनों, रिश्तेदारों, दोस्तों, सगे संबंधियों को धमका कर उनसे लूटपाट कर चुका होगा।ऐसे वक्त में तुषार को सुदर्शन फाकिर की गज़ल का वो मिसरा याद आया जो कभी उसने मुंबई की सूरते हाल पर लिखा था और आज यहां काशी के गंगा घाट की सरज़मीं पर कितना मौजूं था, ‘पत्थर के सनम, पत्थर के खुदा, पत्थर के ही इन्सां पाए हैं।तुम शहरे-मौहब्बत कहते हो, हम जान बचाकर आए हैं।’
‘क्या खबर लाए तुम लोग?’
‘न हीं पूछो तो बेहतर।गाड़ी मोड़ो।चलते हैं वापस यूनिवर्सिटी कैंपस।’
‘ऐसे कैसे चलते हैं वापस?’ अब्दुल ने नाराजगी जाहिर की। ‘अरे तू पागल हो गया है क्या।लक्की की लाश को कब तक ढोते रहेंगे सड़कों पर? उसे डिस्पोज़ ऑफ करना तो बेहद जरूरी है।’
‘यार तुषार, हम ये जंग हार चुके हैं।लक्की के लाश के किरिया-करम के चक्कर में कहीं हम लोग ही बेमौत न मारे जाएं।जलती हुई लाशों की दुर्गंध ने काशी को अपनी गिरफ्त में ले रखा है।कब तक सड़ते रहेंगे हम लोग इस नरक में।चारों तरफ से कोरोना की लाशें यहां पहुंच रही हैं।घर-बार लुटाकर, गहने गिरवी रखकर भी गरीब आदमी यहां अपने प्रियजन की लाश को ‘डिगनिटी’ के साथ अंतिम यात्रा पर रवाना नहीं कर पा रहा।दिस इज ए हाइट ऑफ इंसैंसिटिविटी एंड क्रूएलिटी।दुख, तकलीफ पीड़ा के इस डरावने माहौल में कोई मदद का हाथ बढ़ाने के लिए आगे नहीं आ रहा।सरकार, पुलिस, प्रशासन, व्यवस्था सब गूंगे-बहरे होकर हँसते, खेलते, मुस्कराते, चहचहाते आदमी को मिट्टी बनते हुए देख रहे हैं।सहानुभूति, मानवता, सदाशयता, दानिशमंदी ये क्या सब किताबी बातें हैं?
‘यार तुषार, स्टाप दिस नॉनसेंस।क्या ये वक्त तकरीर करने का है।लक्की की लाश को अंतिम यात्रा पर भेजने के लिए हमारे पास कोई भी विकल्प नहीं बचा है।हम ये जंग हार चुके हैं।
सड़क पार एक खोखे पर चाय पीने के बाद चारों कार की ओर लौटे तो रात के दस बज रहे थे।दूर–दूर तक कोई ढाबा नहीं था।
‘यार, वो होस्टल मैस भी बंद होने वाली होगी।भूख-प्यास ने शरीर को निचोड़ कर रख दिया है।
‘परे हट यार।’ करीम बोला, ‘ला गाड़ी की चाबी।वापस मोड़ता हूँ कार।’ उसने तुषार के हाथ से चाबी छीनी और कार को स्टार्ट कर सड़क पर मोड़ा।उसी दिशा में जहां से वे आए थे।
‘यार ये क्या कर रहा है तू।’ तुषार ने करीम को टोका।
‘तुम तीनों चुप रहो।जो मैं सोच रहा हूँ, उसी पर अमल करना होगा।और कोई रास्ता नहीं है।’
उनकी कार एक घंटे की तेज रफ्तार ड्राइव के बाद एक पुराने, जर्जर पुल पर पहुंची।घटाटोप अंधेरा।दूर-दूर तक कोई बाशिंदा नहीं।परिंदे भी अपने-अपने घोंसलों में आराम फरमा रहे थे।
करीम ने गाड़ी रोक कर कहा, ‘उतरो तुम लोग और आसपास पैनी नजर रखो।निकालो लक्की की लाश डिक्की से।पुल के ऊपर से गंगा में फेंकने के अलावा कोई चारा नहीं है।बेहिसाब लाशें यूं ही गिराई-बहाई जा रही है गंगा में।हम लोग क्या अपना घर बेचकर या गिरवी रखकर लक्की को हिंदू परंपरा के मुताबिक रुख़सत करे?’
तुषार ने टोका, ‘देख करीम, यह तरीका ठीक नहीं है।किसी ने देख लिया तो जेल हो जाएगी।कैरियर भी चौपट हो जाएगा।जो वीसी का बच्चा, होस्टल का वार्डन, स्टूडेंट्स यूनियन का प्रेसिडेंट कोई नहीं आएगा हमें बचाने।हमारा किसी ने वीडियो बना लिया तो ये हमारी मॉबलिंचिंग कर हमारी लाशों को भी गंगा में बहा देंगे।
राजीव और अब्दुल ने उसे रोका, ‘देख तुषार, हम बेबस, लाचार हैं।जब हजारों-सैंकड़ों लोग गंगा में शवों को बहा रहे हैं तो हम कौन सा पाप कर रहे हैं? गंगा में मृत देह का मिलन यूं भी पवित्र माना जाता है।मेरा खयाल है, हम कोई गलत काम नहीं कर रहे।श्मशान घाट में डोमराजा के कारिंदों के लिए पाचीस-तीस हजार जुटाने में तो हमें कई महीने लग जाएंगे।क्या तब तक लाश को ‘ममी’ बनाकर हम किसी म्यूजियम में रखें?’
सब की जुबां पर खामोशी का पहरा था।होंठ सिल चुके थे।चारों ने लक्की की लाश को अर्थी के समान कंधों पर उठाया और दूसरे ही क्षण पुल के ऊपर से उसे गंगा में गिरा दिया।जोरदार छपाक के स्वर से फिजा में हल्की सी सिहरन पैदा हुई और घोंसलों में दुबके परिंदों के पर फड़फड़ाए।
वे चारों बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की ओर जाने वाली सड़क पर तेज रफ्तार से कार में लौट रहे थे।मानो वे किसी का कत्ल करके घर लौट रहे हों और पुलिस उनका पीछा कर रही हो।
रात के ठीक बारह बज रहे थे।सभी दोस्तों के चेहरों पर राहत के भाव यूं तैर रहे थे मानों वे कोई ‘पुण्य’ कमा कर लौटे हों?
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