पत्रकारिता से शुरुआत करने के बाद उत्तर प्रदेश राज्य के बिक्रीकर विभाग में नौकरी। वर्तमान में जी एस टी डिपार्टमेंट में राज्य कर अधिकारी के पद पर कार्यरत। कला, संगीत में विशेष रुचि।
औरतें ही बचाएंगी सृष्टि को
(चित्रकार ईशिता चौधरी की पेंटिंग देखकर)
प्रदूषण से अपने कुरूप होते चेहरे से
सहमा था आसमान
कांप रही थी धरती
कि इस दमघोटू माहौल में
सृष्टि का क्या होगा?
सब मास्क लगा
बचा रहे थे खुद को
अचानक चिड़िया का
एक घोंसला
पेड़ से गिरा
उसके पांच नवजात
सड़क के किनारे बेघर पड़े थे
अपने मास्क की परवाह छोड़
एक स्त्री दौड़ कर आई
और अपनी गोद में भर लिया पांचों को
बहुत दिनों के बाद
धरती मंद मंद मुस्काई
मां ही जानती है ममता को
पांचों को अपने अंक में भरकर
घर ले जाती हुई स्त्री ने पृथ्वी को आश्वस्त किया
तेरे पुत्र रावण, कंस, दुर्योधन बन
बार बार जन्मते रहेंगे मां
तेरी बेटियां, ये लड़कियां, ये औरतें
ही बचाएंगी सृष्टि को।
दलित
मां के गर्भ में था
दलित था
धरती पर जन्मा
साठ साल जिया
दलित ही रहा
एक दिन हाड़मास के गुब्बारे से
निकल गई हवा
मरा, मरकर भी दलित ही रहा
अब
मिट्टी के कणों में हूँ शामिल
उन कणों में जिनमें
तुम्हारे पुरखों के कण भी हैं शामिल
अछूत हो जाएंगे तुम्हारे पुरखे
अपने पुरखों को अछूत होने से बचाओ
तुम्हारे बस में हो तो
अपने पुरखों के कण
मेरे कणों से अलग करके दिखाओ।
बरगद
चार कंधों पर थे पिता
और
सांत्वना के सैकड़ों कंधे
मेरे साथ
पर मैं अकेला
निपट अकेला
घने पेड़ की छाया में हर कोई
रहना चाहता है
पिता तो बरगद थे।
मां का दीपदिपाना
बरसों पहले
तमाम तरह की बीमारियों ने
मां
से इश्क किया था
पर मां दीपदिपाती रही
मां
का दीपदिपाना
अब नहीं रहा
पिता जो नहीं रहे।
प्रतीक्षाएं
एक दिन लौटूंगा
जरूर
पर लौटने से पहले
यह जानना जरूरी होगा मेरे लिए
कि मेरे लौटने की प्रतीक्षाएं
बची भी हैं कि नहीं।
बेईमान
दुनिया
उन्हें ही बेईमान लगती है
जिनके अपनों ने
ही लूटा हो कभी।
मां
सुबह से शाम तक
काम करते-करते
थका मांदा
लौटता हूँ घर
पिता पूछते -क्या कमाया?
पत्नी पूछती- क्या बचाया?
बच्चे पूछते- क्या लाया?
एक मां है जो कभी नहीं पूछती
क्या कमाया, क्या बचाया, क्या लाया
मां स़िर्फ पूछती है
तूने कुछ खाया?
हाथ पांव धो
खाता हूँ जब खाना
मां निहारती है मुझे
मानो कुंभ नहा रही हो
सत्तावन का होने को हूँ मैं
पर
मां अभी तक नर्सरी में समझती है मुझे
नर्सरी में रहूंगा मैं
जब तक रहेगी मां।
नौकरी के सैंतीस साल
हमने समझाया था
आदमी हैं हम
और आदमी है वह
जीवन के कुल जमा
37 साल मुग़ालते में रहे
अब समझ आई
आदमी है वह
हम तो
बस उसके खिलौने हैं।
संभावनाएं
चारों तरफ़ लाशें
बिछी थीं
खून ही खून
जो मारे गए थे
उनकी बेवा और बच्चे दहाड़ मारकर
रो रहे थे
रिपोर्टर
घटनास्थल से रिपोर्टिंग कर रहे थे
फ़ोटोग्राफ़र तस्वीर क्लिक कर रहे थे
कवि कविताएं रच रहे थे
चित्रकार पेंटिंग कर रहे थे
शाम को क्लब में
रिपोर्टर, फ़ोटोग्राफ़र, कवि, चित्रकार
शराब के जाम टकरा
अपने-अपने काम पर
इस वर्ष के पुरस्कार
की संभावनाएं तलाश रहे थे
मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता
इस सार्वभौमिक सत्य के साथ
कड़ाही चिकन और नान खा रहे थे।
संपर्क :फलैट नंबर 29बी, जी ब्लाक, कंचनजंघा अपार्टमेंट, सेक्टर-53, नोएडा मो. 9891062000
कविताएं बहुत अच्छी लगी।
आदरणीय शर्मा जी औरतें ही बचाएंगी सृष्टि को, दलित, मां और मां का दिपदिपाना कविताएं बहुत ही संवेदनशील तथा भाव प्रवण है। दलित कविता को बहुत ही तार्किक अंदाज में प्रस्तुत किया गया है। आज के उपभोक्तावादी समाज में केवल मंा ही है जो अपने पुत्र के सहज मन को समझ सकती है।
अनुराग आग्नेय 9450379003
बेहतरीन कविताएँ।