कहानियों, कविताओं और आलोचना की 15 पुस्तकें प्रकाशित। संप्रति एक बैंक में कार्यरत।

मंजुला की फ्रेम जड़ी एक गुना एक आकार के फोटो को मैंने बाहर निकाला। यह मंजुला का बहुत सुंदर फोटो था और उसके चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान थी। मैंने रूमाल से फोटो पर जमी गर्द झाड़ी।

छोटे भाई ने कहा- ‘तरीके से रोज फोटो भी नहीं पोछ सकते भौजी की। काम हो न हो, व्यस्तता बहुत रहती है तुम्हारी।’ उसके स्वर में उलाहना थी। शायद वह कोई कड़ी बात कहना चाहता था, लेकिन इस मौके का खयाल कर इतने पर ही रुक गया। लाओ मुझे दो, इतनी धूल जम गई है…

छोटा भाई मुझे ‘तुम’ कहता है, ‘आप’ नहीं। हमारी उम्र में बमुश्किल दो साल का अंतर है।

फोटो उसने मेरे हाथ से जबरन ले ली और भीतर से एक साफ कपड़ा मंगाने के लिए अनन्या को आवाज दी। अनन्या सभी बच्चों के साथ ताश खेलने में लगी थी। वह घर की सबसे बड़ी लड़की है। संभवत: इसीलिए हम सभी की लाडली भी। वह सबकी जरूरतें समझती है।

एक बहुरंगी साफ सूती कपड़ा थमाकर वह तेजी से वापस भागी। उसकी चाल बाकी है। ताश का खेल निर्णायक मोड़ पर आ गया है। छोटे ने कपड़े को झाड़ा और तरीके से फ्रेम के कांच को साफ करने लगा।

मैंने गंभीर स्वर में कहा- ‘डर है, अगर रोज अच्छे से साफ करूंगा, तो कहीं जिंदा होकर फोटो से बाहर न निकल आए।’

छोटे ने बुरा-सा मुंह बनाया- ‘बड़े भैया को बताता हूँ कि तुम मंजुला भौजी के लिए कैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हो।’

बड़े भैया से हम सभी कुछ डरते हैं। कम से कम लिहाज तो करते ही हैं। फिर भी मैं जोर से हँसा।

अनन्या तब तक चाय लेकर आ गई।

‘तूने बनाई है बेटा…?’ – मैंने उत्साह दिखाया।

‘नहीं, बनाई तो बड़ी मां ने है…’

‘तो बेटा… दो ब्रेड की स्लाइस भी ले आ, बड़ी मां से मांगकर। सुन जरा, बटर अच्छे से लगाना।’

‘सुन लीजिए, बड़ी मां ने कहा है कि पूजा के बाद ही मुंह में अन्न डाल सकेंगे…’ अनन्या ने फरमान जारी करने वाले भाव में कहा।

‘ये तो गलत है बेटा’, अनुनय भरे स्वर में मैं बोला- ‘तुम लोग तो अभी बर्गर खा रहे थे, वह अन्न नहीं है? हाय…’

‘बच्चों के लिए नियम नहीं है। बच्चे कोई पूजा में नहीं बैठ रहे… उन्हें अलाउड है। बड़ों को पूजा के बाद ही मिलेगा…’

‘यह तो अनीति है बेटा…’ मैंने मायूसी दिखाते हुए कहा।

‘हां चाचू… गलत तो है…’ कुछ धीमी हो गई अनन्या की आवाज… ‘चुपके से एक बर्गर ला दूं?’

‘न… नहीं’, मैं सकपकाकर बोला, ‘तेरी बड़ी मां को पता चल गया तो चाय भी छीन लेगी।’

अनन्या के जाते ही छोटा भाई भड़क गयाभौजी के लिए तुम एक दिन भी कष्ट मत सहना, बरसी के दिन भी नहीं

अरे, मंजुला को पता है कि मैं भूख से छटपटा जाता हूँ। और ऐसा कौनसा नियम है कि चाय तो पी सकते हैं, लेकिन खा नहीं सकते!

यह भौजी की खुशी के लिए है’ – कुढ़कर बोला छोटा भाई।

अरे, ऐसी कौन पत्नी हुई है, जिसे पति को भूखा देखकर खुशी मिले।

अजय भैया बाहर से सामान लेकर आ गए। चप्पल दरवाजे पर उतारकर तेज कदमों से भीतर आ गए। एक प्लास्टिक की कुर्सी खींचकर चुप बैठ गए हैं। कौन सी सोच में गुम हैं, पता नहीं। मानो सबसे ज्यादा आज वही दुखी हैं। शायद होंगे भी। सामान बाहर सरला भाभी को थमा दिया है। दोना, पत्तल, अगरबत्ती, पूजा की कुछ अन्य सामग्री और कागज के डिस्पोसेबल ग्लास। हमेशा जल्दी में रहते हैं। ये रख लो, वो उठा लो। चलो दरी बिछा दो, चलो चटाई हटा दो। अपने काम में डूबे रहते हैं, घर में क्या चल रहा है उससे ज्यादा मतलब नहीं उन्हें।

बड़े भैया भी तैयार होकर आ गए हैं। उन्होंने इस्तरी किया हुआ कुर्ता-पायजामा पहना है। उनके हाथ में आज का अखबार है। वे खड़े होकर बुक-शेल्फ में रखी मेरी किताबें देखने लगे। उन्होंने सूचना दी – ‘मंजुला के बारे में तुम जो भी बोल रहे हो, वह भीतर सुनाई पड़ रहा है। तुम्हारी भाभी अभी सुनाएगी कसकर। उसने सुन लिया है।’

मैं चिहुंक गया।

‘अरे, मैं कौन सा मुर्गा खाने या पिक्चर जाने की बात कर रहा हूँ’, मैंने कहा। इस बार अपेक्षाकृत धीमे स्वर में कहा, लेकिन भाभी ने वह भी सुन लिया।

‘उलटा-सीधा मत कहिए सुजोय जी…’

‘अरे भाभी, यही लोग मुझे उकसा रहे हैं…’

बड़ी भाभी की अंदर से गुस्से में कुछ बोलने की आवाज आई, पर मैंने बात पलटा दी – ‘अब तो एक साल हो गया न अजय भैया। तो आप लोग कह रहे थे कि साल भर कोई शादी-ब्याह नहीं… अनन्या की शादी अब करेंगे न?’

‘चाहते तो हैं सुजोय, लेकिन कमाल हैं आजकल के बच्चे। अनन्या तैयार ही नहीं है शादी के लिए। समय कितना बदल गया। अब तो हम भी जोर नहीं देते। आजकल की पीढ़ी ही अलग है। शादी नहीं, बच्चे नहीं। पढ़ाई-लिखाई और करियर… बस!’

‘सत्ताईस पूरा कर लेगी इस अक्तूबर में… अभी ध्यान नहीं देंगे तो देर हो जाएगी…’ मैंने सचमुच चिंता व्यक्त की।

तमतमाई हुई अनन्या कमरे के दरवाजे पर खड़ी हो गई। पीली लॉन्ग स्कर्ट और सफेद टॉप में बीस-बाईस साल से अधिक नहीं लग रही। बिलकुल गुड़िया जैसी- ‘नहीं करनी है मुझे शादी… समझ लीजिए।’ खूब गुस्से में बोल रही है। तमतमाकर। चेहरा लाल हो गया है। आंखें और बड़ी हो गई हैं।

‘अगर सलमान खान बोले, तब भी नहीं…?’ मैंने स्वर को अत्यधिक गंभीर बनाने की कोशिश की। मुझे पता है वह सलमान की फैन है।

‘चाचू…’  जोर से बोली अनन्या। इस एक शब्द में सारा गुस्सा बंधा हुआ था। पैर भी पटके उसने। हालांकि यह गुस्सा… गुस्सा कम, गुस्से का प्रदर्शन अधिक है। मशक्कत का काम। गुस्सा भी दिखाना है, हँसी भी रोकनी है।

बड़ी भाभी की आवाज आई- ‘कैसा हमारा घर है…? श्राद्ध के दिन भी मटन, मुर्गा, सिनेमा, शादी की बात चल रही है…’

‘ओ भाभी… पूजा क्यों नहीं कराती जल्दी… भूख लगी है सबको कि नहीं… भूखा आदमी और कैसे बात करेगा… अब मैं भी शेर होने लगा।’

मंजुला के देहांत को आज पूरा एक साल हो गया है। पूरा घर इकट्ठा हुआ है। हम सभी भाई और उनका परिवार। कल से ही सब आ गए हैं। बड़े भैया और बड़ी भाभी, अजय भैया और सरला भाभी। छोटा भाई और उसकी पत्नी। सबके बच्चे भी हैं। गिनकर दो – दो। कुल मिलाकर आठ। अजय भैया की बेटी कहती है कि अभी शादी नहीं करनी है। मतलब यह अनन्या के विचार हैं।

बड़े भैया के आने पर मैं उठकर खड़ा हो गया। उनके लिए कुर्सी खाली कर दी। बगल के दीवान पर भी बैठने की जगह है। कमरा बड़ा है। तब तक सौम्या और आदी खाने की मेज के सेट की दो कुर्सियां हाथों में उठाए कमरे में आ गए। डायनिंग चेयर। कल से भीड़भाड़ में दोनों बच्चों को शायद मां की याद भी नहीं आई होगी। वैसे भी अठारह साल की सौम्या समझदार है और चार साल छोटे भाई आदी को सहजता से समझा लेती है। कल से बच्चों ने घर में धमा-चौकड़ी मचाई हुई है। मां को गए एक साल हो गया है। समय मरहम का काम भी करता है। फिर भरा-पूरा परिवार है तो दुख-तकलीफ को घर में ठिकाना बनाने के लिए जगह कम मिलती है।

बड़े भैया बैंक से रिटायर हुए हैं। पांच साल पहले। उनके बाद मंझले अजय भैया। एक स्थानीय कंपनी में अकाउंटेन्ट हैं। उन्होंने बताया है कि कंपनी में उनका आखिरी साल है। मैं बैंगलोर में आईटी फर्म में हूँ। अपना मकान बना लिया है। जयनगर इलाके में। छोटा भाई सरकारी उपक्रम में है। सब मेरे यहां बैंगलोर में आज जमा हुए हैं और एक-दो दिन में चले भी जाएंगे। सिर्फ अजय भैया अभी रुकेंगे कुछ दिन।

बड़े भैया बोले – ‘बच्चों को जोर देना मुश्किल है। पार्थ भी तीस का हो जाएगा। वह भी शादी नहीं करना चाहता अभी… करियर को लेकर इतने सजग हैं बच्चे।’

मैंने आवाज थोड़ी नीची की – ‘लेकिन प्रकृति के भी तो कुछ नियम होते हैं। प्रकृति तो अपना काम समय पर करती है। हमारे समय में बाईस-तेईस साल बहुत ज्यादा हो जाते थे। नहीं?’

छोटा भाई बोला प्रकृति समय और स्थिति के अनुसार नियम बदलती है। अब देख लो, पहले इतनी गर्मी नहीं पड़ती थी। अब पैंतालीस छियालीस डिग्री रहती है। हम तो जब नौकरी लगी थी, मतलब हमारी पचीसछब्बीस की उम्र में पुणे गए थेतब अप्रैलमई के महीने में बिना पंखे के रहते थे। था ही नहीं घर में पंखा। और उसकी जरूरत भी कभी महसूस हुई हो, याद नहीं आता। अब तो फरवरी में ही कूलरएसी की जरूरत पड़ जाती है। तो आदमी स्थिति के हिसाब से कर लेता है।

‘बात चल रही है शादी की, उम्र की। तुम उदाहरण दे रहे हो ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का…’

छोटा भाई सकपकाया, फिर बोला – ‘यही तो… यही तो तुम समझ नहीं रहे हो। यह स्थिति के अनुसार अनुकूलन की बात है और विवाह की उम्र पर भी लागू होता है। यह कुछ-कुछ डार्विन के ‘सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट’ के नजदीक है…’

‘बाप रे चाचू… इतना बड़ा-बड़ा थ्योरी क्यों सुना रहे हैं?’ पार्थ आंखें फाड़कर पूछ रहा है। वह किसी काम से भीतर घुसा है – ‘आजकल तो कोर्स से भी हटा रहे हैं डार्विन को। बहुत टफ है।’

‘तेरे ही कारण सुना रहा हूँ यह थ्योरी। इस सबके पीछे तू ही है।’

‘पहले पीढ़ा ले जाने दीजिए, मां मंगा रही है। कलश जो रखना है। और बर्बाद होने के लिए शादी करना ही ज़रूरी नहीं है, प्राइम इलेवेन पर सट्टा लगाकर या वाट्सएप के रिसर्च बेस्ड मैसेज पढ़कर भी बर्बाद हुआ जा सकता है।’

बड़े भैया ने बुरा सा मुंह बनाया। मैंने बड़ी मुश्किल से गंभीर बने रहने की कोशिश की।

पार्थ पीढ़ा लेकर ऐसे बाहर निकला है, मानो किसी जाल में फंसने से बच गया।

‘पार्थ को शादी क्यों नहीं करनी?’ मैंने बड़े भैया से पूछा। यह पूछना कुरेदने जैसा था। दरअसल इस विषय पर पहले भी कई बार बात हो चुकी है। एक बार तो बड़े भैया ने यह भी कह दिया था कि हम तो बच्चों को दोस्त जैसा ट्रीट करते हैं, हम बच्चों की जोर-जबरदस्ती शादी कराने वाले लोग थोड़े ही हैं।

चश्मा आंखों से उतारकर बड़े भैया कुर्ते से साफ करने लगे। असहज होने पर बड़े भैया चश्मा साफ करने लगते हैं और अजय भैया दांतों से नाखून काटने लगते हैं।

बड़े भैया ने कहा – ‘पार्थ कहता है कि फैमिली की जिम्मेदारियां क्यों उठाई जाएं। कहता है अभी पूरी तरह सेटल नहीं हुआ।’ उनका स्वर अनमना है।

‘अच्छा-ख़ासा है। एमबीए किया है, वह भी टॉप कॉलेज से। कुछ समय भर की बात है, नौकरी मिलनी ही है। फिर घर में भी पैसे की ऐसी कोई तकलीफ़ तो है नहीं। हैं?  जिम्मेदारी कैसी?  सेटल मतलब क्या??’

‘उसी से क्यों नहीं पूछते? नहीं करनी शादी, बस नहीं करनी…’

‘पूछना तो पड़ेगा ही’, मैंने कहा, ‘कब तक प्रश्नों से कन्नी काट कर निकलेंगे।’

‘तुम्हें आज ही का दिन मिला है…’ उलाहना भरे स्वर में अजय भैया ने कहा।

‘हम सब एक साथ मिलते कहां हैं। अच्छा तो है, सब इकट्ठा हुए हैं, तो सभी जरूरी बातें की जानी चाहिए।’

‘और वह ज़रूरी बात है… शादी-ब्याह?’

‘नहीं है?’ मैंने कुढ़कर कहा- ‘दोनों बच्चे बाड़ की तरह बढ़ रहे हैं… अभी तक इनके लिए कुछ सोचा ही नहीं गया है। कमाल है।’

‘सोचा गया है। कई बार बात भी हुई है।’ बड़े भैया सफाई देने वाले अंदाज में बोले- ‘हां, पार्थ करियर को लेकर बहुत गंभीर है…’

‘गनीमत है, आप यह नहीं कह रहे कि शादी-ब्याह सब भगवान के हाथ है और भगवान ही जोड़ियां बनाता है…’ मैंने कहा।

‘वैसे ये भी सही है’, अजय भैया जल्दी से बोले, ‘जब होना हो तो सब रास्ते निकल आते हैं, स्थितियां बन जाती हैं…’

‘तो फिर हम लोग हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहें? समय आने पर सब अपने आप हो ही जाएगा…’

‘सुजोय, ये नहीं कह रहा मैं। मेरा कहना है कि कोशिश करें, लेकिन फसल तो ऋतु आने पर ही होगी…’

‘ऋतु आ गई है’, मैंने कहा… ‘और अब पार्थ से बात करनी चाहिए, अनन्या को समझाना चाहिए।’

थोड़े से बहसमुबाहिसे के बाद दोनों बच्चे भीतर आ गए। घर के सभी बच्चे बड़े सहज हैं, जिसके लिए अंग्रेजी में शब्द है फ्रेंडली। कोई औपचारिकता नहीं। कोई संकोच नहीं। कोई दिखावा नहीं। एक सीमा तक किसी का कोई लिहाज भी नहीं। बड़ों से कोई संवाद हो तो घर के सारे बच्चे समानधर्मा और एक तरफ हो जाते हैं। यही मुश्किल है।

पार्थ भीतर जमीन पर बिछी पीले किनारों वाली मोटी लाल दरी पर मजे से बैठ गया है।

‘चाचू, अनन्या का अनन्या से पूछ लें, अपना तो मैं स्पष्ट कर देता हूँ कि आई एम टोटली अगेंस्ट दि मैरिज सिस्टम। विवाह प्रथा पर मेरा कोई विश्वास ही नहीं। झंझट मोल लेना ही नहीं मुझे।’ पार्थ मुझसे संबोधित था।

वह इतने सपाट लहजे में दो-टूक बात कर रहा था कि हम सभी सकपका गए। अजय भैया कुछ नाखुश दिखे।

‘बेटा…’ मैंने कहा… ‘हमारा परिवार इतना समझदार है… हम लोग इतने विवेकसंपन्न हैं कि बच्चों से ऐसे विषयों पर भी खुलकर बात कर लेते हैं… बहुत जगह तो, मैं जानता हूँ, ऐसे प्रश्नों पर बच्चों की मार-कुटाई की नौबत आ जाती है। कितने घरों में तो बच्चों को पता भी नहीं चलता और शादी तय कर दी जाती है…’

अब अनन्या भी भीतर आकर ज़मीन पर चुक्का-मुक्का होकर बैठ गई है।

‘चाचू… अब वह जमाना नहीं रहा। समय बदल गया है। लड़कियां आत्मनिर्भर हैं। अब लड़की आर्थिक रूप से किसी सहारे की मोहताज नहीं…’

‘ए चुप कर अन्नू… बड़े भैया के सामने इतना बात कर रही है। सब चीज में बढ़-चढ़कर बोला मत कर…’ अजय भैया अनन्या को डांट रहे हैं।

‘पापा… चुप कराने से क्या होगा, मैं फैशन डिज़ाइनिंग में पीजी कर रही हूँ। मल्टीनेशनल कंपनियां बुला रही हैं मुझे। मुझे किसी आश्रय की ज़रूरत नहीं जीवन में।’ अनन्या के स्वर में आत्मविश्वास है।

‘अरे हां अनन्या…’ छोटे भाई ने उत्साह से कहा- ‘तो बेटा, तू ऐसा कर… तू किसी को सहारा देने के लिए उससे शादी कर ले… कैसी बढ़िया बात…’

अनन्या की बड़ी-बड़ी चमकीली आंखों में भरपूर नाराजगी है।

‘अरे भाई, मैं कह रहा हूँ कि शादी करनी है। तुम लोग कह रहे हो कि आत्मनिर्भर हैं… बड़ी कंपनी में काम मिल जाएगा… अरे, कोई तुक है, कोई संगति है।’ मैंने कहा।

अनन्या किंचित ऊंची आवाज में बोल रही है- ‘करियर मेरे लिए बहुत इंपॉर्टेंट है। करियर को लेकर समझौता नहीं। शादी करूंगी तो मेरे करियर पर असर पड़ेगा।’

‘बेटा, शादी तो खुद एक करियर है… हम लोगों ने शादी की तो क्या हमारा करियर चौपट हो गया?’ मैंने खुले में रखे बताशे की ओर बढ़ते एक काले मोटे चींटे को गोल किए हुए अखबार से दूर करते हुए कहा।

चींटे को देखकर अनन्या चौकन्नी हो गई है। कहीं चींटा उसकी ओर न बढ़े। चींटे से उसे बहुत डर लगता है। वह सावधान की स्थिति में आ जाती है। कुछ भी करे, उसकी नज़र चींटे पर बनी रहती है। चींटा दिमाग में घुसा रहता है।

‘पहले की बात और थी चाचू। तब लड़के कमाते थे, लड़कियां घर का काम संभालती थीं। अब दोनों को काम करना है। दोनों को ऑफिस जाना है। दोनों को प्रमोशन लेना है…’

मैं समझाने वाले भाव में बोलापरस्पर समझ की जरूरत है बस। लोग शादी कर ही रहे हैं। सुखी भी हैं बहुत से। क्योंकि एकदूसरे की ज़रूरतों के साथ एडजस्ट करते हैं। मिलकर चलेंगे तो दोनों ऑफिस जाएंगे। साथ देंगे एकदूसरे कातो दोनों प्रमोशन पाएंगे। पहले से ज्यादा तरक्की करेंगे।अब मैंने बात को हल्का करते हुए कहाअगर शादी नहीं करेगी, तो तुझे चींटे और छिपकली से कौन बचाएगा

ठीक कह रहे हैं चाचू आपपार्थ ने जल्दी से कहाकम से कम इसे तो शादी कर लेनी चाहिएछिपकली से प्रोटेक्शन के लिए।

अनन्या ने बगल में धरी प्लास्टिक की थैलियों का बंडल पूरी ताकत से खींचकर पार्थ को दे मारा है- ‘तुम बाहर चलो पार्थ भैया, अभी सब मिलकर तुम्हें बताते हैं।’

‘मैंने क्या किया है? तेरे भले के लिए बोल रहा हूँ’, पार्थ आश्चर्य का प्रदर्शन करते हुए बोला।

‘तुम मेरी चिंता क्यों कर रहे हो। इतने इन्नोसेंट हो तुम? तुम कर लो शादी। तुम्हें ठीक करने के लिए कोई चाहिए भी।’

‘दस मिनट में पूजा शुरू करेंगे। सुन लीजिए सब लोग’, बड़ी भाभी की आवाज दूर से भीतर आई है। गूंजती हुई सी। किचेन और डाइनिंग स्पेस इस कमरे से सटा हुआ है।

‘चलो भाई, अब खाने को मिलेगा कुछ।’

‘पूजा की बात हो रही है’ -अजय भैया कुढ़कर बोले।

‘एक ही बात है। पूजा के बाद ही तो खाना मिलेगा।’

मैंने दोनों बच्चों की तरफ देखा- ‘तुम दोनों के पास अब दस मिनट हैं। ये दस मिनट तुम लोगों से कोई नहीं छीन सकता। अपने सारे तर्क और अपनी सारी दलीलें रख दो’ – मैं किसी फिल्म के नायक के से अंदाज में बोल रहा था।

अजय भैया ने मुंह बिचकाया- ‘बच्चों के साथ तुम भी बच्चे बन जाते हो।’

‘हां, भाई पार्थ’ – मैंने अजय भैया की बात पर ध्यान दिए बिना कहा- ‘तो क्यों नहीं करनी तुम्हें शादी… क्यों भला…?’

बड़े भैया ने कहा- ‘हां बेटा, हमने बताया नहीं, पर अब हम लोग तुम्हारे लिए लड़की देख रहे हैं। रतलाम से अभी एक रिश्ता आया है, ठीक लगते हैं लोग। अपनी तरफ के हैं…’

‘पापा, मैंने कहा तो है कि मुझे शादी, बच्चे ये सब जिम्मेदारियां नहीं संभालनी।’

‘क्यों नही संभालनी?’ अजय भैया भड़ककर बोले, ‘तुम्हें क्या एलओसी पर जाकर दुश्मन के सैनिकों को खदेड़ना है? हां नहीं तो!’

मैंने जल्दी से कहा- ‘और तो और सैनिकों को खदेड़ने वाले भी शादी करते हैं भाई…’

पार्थ ने बुरा सा मुंह बनाया। ‘बड़ी वाहियात बात है – शादी करो… बच्चे हो जाएं। फिर उनके लिए जीवन भर लगे रहो। फैमिली ऑब्लिगेशन्स। उसी में जीना, उसी में मरना। इससे तो अच्छा अनाथ बच्चों की मदद करने वाला एक एनजीओ ज्वाइन कर लिया जाए। अच्छा… लड़कियों की तो और मुसीबत है। मां बनकर अपना स्वास्थ्य और फिगर दोनों खराब करती है लड़की। कितने दिनों तक अपने हिसाब से जी नहीं सकती। छुट्टी और घूमने से लेकर सारी योजनाएं बच्चे को केंद्र में रखकर बनाई जाती हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारते हैं लोग। शादी क्यों करते हैं, बच्चे क्यों पैदा करते हैं…’

मैं किंचित गंभीर हुआ।

‘बड़ी-बड़ी मॉडेल और हीरोइनें भी मां बनती हैं’ अजय भैया बोले – ‘अपना ध्यान उचित रूप से रखा जाए, तो सब ठीक रहता है। सामान्य मामलों में बहुत आत्म-केंद्रित होना ठीक नहीं। सुविधापरस्त होने को आधुनिकता से जोड़ना भी ठीक नहीं। और अभी तो विवाह की बात चल रही है, बच्चे की बात कहां से आई…’

मैंने बात काटकर कहाअब देखो बेटा, कल मिंटी आई है इतने दिनों बाद। है न, कितना मज़ा आयामिंटी छोटे भाई की बेटी है। दस साल की है। घर की सबसे छोटी सदस्यतो घर में शरीफा रखा था। बड़ा सा और पका हुआ। गहरा धुला हरा। मुझे बहुत पसंद है शरीफा। मैं बस खाने ही वाला था। मिंटी सर पर खड़ी हो गई। शरीफा देखकर मुंह में पानी आ गया उसके। एक ही था। मैंने उसे दे दिया। एकएक बीज चूसकर पूरा शरीफा खा गई। आधे घंटे तक मजे लेकर खाती रही। तो मुझे इतनी खुशी हुई और इतना मजा आया कि मैं बता नहीं सकता।

‘आपको मजा आया?’ अनन्या ने पूछा। उसकी आंखों में आश्चर्य है।

‘हां बेटा, और इसी सुख के लिए तो परिवार चाहिए…’

‘कि आपका शरीफा कोई दूसरा खा जाए?’

‘मतलब यह कि…

‘ऐसा सुख आपको ही मुबारक हो चाचू…’ पार्थ बोला- ‘मिंटी अगर मेरा शरीफा खा जाएगी और वह भी मजे लेकर, मुझे दिखा-दिखाकर… तो मैं पेट में हाथ डालकर निकाल लूंगा…’

बड़े भैया चिढ़कर बोले- ‘तो कहीं कुछ संवेदना है कि नहीं, तेरी छोटी बहन है वह और दस साल की भी नहीं…’

‘ये तो छोटी बात है, चाचू। मुझे तो ये बताइए कि किसी से शादी करो, साथ रहो और फिर उसे कुछ हो जाए… तो फिर वह दुख लेकर जीते रहो… आपकी तरह, जैसे आप रह रहे हैं।’

मानो निर्विध्न चलता हुआ जहाज अचानक हिमखंड से टकरा गया हो। हम सभी चिहुंक गए।

‘क्या कहा?’ छोटे भाई ने कठोर स्वर में कहा। ‘नहीं, पार्थ ऐसा नहीं कह सकता। वह घर का समझदार लड़का है।’

‘क्या बोल रहा है पार्थ?’ अजय भैया जोर से बोले।

‘भकलोल है पूरा’, अनन्या बोली।

‘ठीक पूछ रहा हूं चाचू। आपका शरीफा मिंटी खा गई। इसमें भी आपको सुख है। ये तो बात समझ में आती है। यह तो बड़ी स्वाभाविक बात है। अब बताइए, अब चाची से…’ एक क्षण को ठिठका पार्थ, वह मंजुला के लिए कह रहा था… ‘चाची से आपने मैरिज नहीं की होती, तो आपको ये दिन थोड़े ही देखना पड़ता। तो मेरी समझ में नहीं आता कि बिना मतलब एक संबंध क्यों गढ़ा जाए, जिसके कारण हमें दुखी रहना पड़े। कितनी तकलीफ़ से दो साल गुजारे चाची ने, किसी से छिपा है’ -पार्थ की आवाज मानो किसी गहरे कुएं से आ रही थी- ‘आज ही के दिन पिछले बरस मर गई बिचारी मेरी चाची। अब ये दुख तो रहा न आपके साथ। हम सबके साथ। कि इसमें भी कोई सुख है। नहीं, बताइए आप कि इसमें भी कोई सुख है क्या?’

एक क्षण को सब चुप रहे। पागल हो गया है क्या पार्थ। कैसी बेतुकी बातें कर रहा है।

‘इसे तो हम समझदार समझते थे’, बड़े भैया जैसे किसी मंत्र के श्राप से बाहर आए- ‘कुछ समझ ही नहीं इसे। जो मन में आ रहा है, कह रहा है… तभी न मैं कह रहा था इस अवसर पर ये सब बातें मत करो।’

‘तू बाहर चल, एमबीए कर लिया है तो सिर चढ़ गया है तेरा। सारी दुनिया की बुद्धि तेरे में ही है’ -बड़ी भाभी कमरे के दरवाजे पर आ खड़ी हुई है। गुस्से में हैं और चेहरे पर पसीने की बूंदें हैं। उसके हाथ में कोई बरतन है या फिर दीया लगाने वाली समई – ‘ऐसे करते हैं बात बड़ों से। वे तेरी चिंता कर रहे हैं न? और तू उन्हें ही उल्टा-सीधा सुना रहा है… माफी मांग चाचू से…’

‘क्या बोल रही हो भाभी, क्यों बिना मतलब डांट रही हो उसको?’ मैंने बात को संभालते हुए कहा।

‘मैंने किया क्या है ममा’, पार्थ भारी आवाज में बोला- ‘मैं तो बस इतना कह रहा हॅूं कि संबंध बढ़ाएंगे तो तकलीफें बढ़ेंगी। ‘ना हसबैंड न वाइफ, हैप्पी हैप्पी लाइफ’। जब खोने को कुछ होगा ही नहीं, तो दुख कैसा और कैसा सुख।’

‘है बेटा, खोने का भी एक सुख है। समय तुम्हें बताएगा। अलौकिक सुख…’ मैंने कहा।

पार्थ ने कुछ अजीब नजरों से मुझे देखा।

देख बेटा, पार्थ, सुनमंजू से मेरा विवाह हुआ। इतने साल तक हम एकदूसरे के सुखदुख से जुड़े रहे।’ – मैं गंभीर हो गया था हमने एकदूसरे की जरूरतों का ध्यान रखा। एकदूसरे की पसंद को तरजीह दी। खूब लड़े झगड़े भी। रूठमनौव्वल भी हुई। सौम्या और आदी भी हमारे लिए उपहार की तरह हैं। इतने बरसों की संचित इतनी सुखद स्मृतियां हैं। सघन और ठोस सुख। खुशी का एक पूरा समंदर है, पूरी जिंदगी जिसमें डूबतेउबरते बिताई जा सकती है। सारा जीवन इन सुखों का स्वाद ले सकते हैं। तुम विदा की बात करते हो, विदा का दुख तो बस एक दिन का है

‘बीमारी से जब मंजू जूझ रही थी, तब भी मिठास भरे और प्यार भरे इतने अनमोल क्षण हमने बिताए। कुछ बंधनों में तो हम जन्म के साथ ही बंधे होते हैं। उन पर हमारा बस नहीं। पर मैं उन बंधनों की बात कर रहा हॅूं, जो हम अपनी इच्छा और अपने विवेक से निर्मित करते हैं और जिनसे तुम बचने की बात कर रहे हो।

‘जब हमारा विवाह हुआ न, तो हमारे पास पैसे नहीं हुआ करते थे अधिक। तब जरूरतें भी नहीं थीं अधिक। हम ठेले पर पानीपुरी खाते थे। संडे को मॉल नहीं, सब्जी मंडी जाते थे। लैम्ब्रेटा स्कूटर पर भर थैला साग-सब्जी लेकर लौटते समय मंजू मुझे मटर छील-छीलकर देते जाती थी। कभी-कभी छिलका छीलकर संतरे के फांक खिलाती थी। मतलब क्या-क्या बताऊं। दो रुपये के टिकट लेकर फिल्म देखने जाते थे। हँसी आती है सोचकर कि हम कोई बच्चे तो थे नहीं, फिर भी चिड़ियाघर जाने पर भी इतना मजा आता था और ज्यादा हूक उठी तो सर्कस देखने घुस जाते थे। किसी खुशी के अवसर पर रात को खाने के बाद पचास पैसे वाली थ्री-इन-वन आईस-क्रीम।

‘लेकिन ये सब सतही बातें हैं… रोज ऑफिस की तकलीफें शेयर करने, हँसने-रोने और हर दूसरे दिन अपनी तबीयत का बवाल मचाने के लिए मंजू ही तो थी। पेट तो मेरा तब भी हर दूसरे दिन फूल जाता था। स्टोमक ब्लॉटिंग। छोटी-छोटी चीजें हम एक-दूसरे से पूछते थे। वह पूछती थी कि आपके ऑफिस आना है तो साड़ी पहनूं या सलवार-सूट, वेणी लगा लूं क्या। ऐसी चीजें भी थीं, जिनके बारे में दुनिया में किसी और से नहीं पूछ सकते थे… अम्मा-बाबूजी से भी नहीं, भाइयों से भी नहीं, उसके लिए भी हम दोनों परस्पर एक-दूसरे के लिए उपलब्ध थे।’

मेरे बोलने का क्रम गड़बड़ा गया था और उत्तेजना के कारण संगति भी नहीं थी- ‘मैं अपनी बात कर रहा हूँ, अन्यथा यह सुख लड़का-लड़की दोनों पर समान रूप से लागू होता है। लिखने-पढ़ने और रचनात्मक चीजों में उसका सपोर्ट भी अमूल्य निधि है मेरे लिए… अमूल्य निधि। बहुत मुश्किल से रकम जुटाकर हारमोनियम दिलाया था मैंने उसे। वह जो अब भी ड्राइंग-रूम में रखा है। वैसे वह भी हारमोनियम पर सरगम सिखाती थी मुझे। मैंने भी स्कूटी चलाना सिखाया था। कंप्यूटर चलाना भी। क्या-क्या बताऊं और कितना कुछ बताऊं। इतना सब है कि मैं उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। और इसी के कारण तो दुनिया चल रही है।’

‘तो उसे खोने का सुख भी अलौकिक है, क्योंकि उसके खोने के साथ ही वे स्मृतियां स्थायी रूप से मन पर अंकित हो गई हैं। चौवालीस की उम्र में मैंने मंजू को खो दिया। अब उसकी उम्र नहीं बढ़ेगी। जब मैं सौ का हो जाऊंगा, तो भी वह चौवालीस की ही रहेगी। मेरे साथ रहेगी। जीवन भर। उसकी उपस्थिति तो बनी ही हुई है। आज कोई मुझे दो जिंदगियां जीने का विकल्प दे – बिना मंजुला के दायित्व-विहीन, जिम्मेदारी से परे जीवन या फिर मंजू के साथ ऐसी जिंदगी, जिसमें मुझे पता रहेगा कि चौवालीस के बाद मंजुला खो जाएगी, तो मुझे यह मंजुला के कुछ समय के साथ वाली जिंदगी ही स्वीकार्य होगी। कोई विकल्प ही नहीं। कोई दूसरा विचार ही नहीं।’

बड़ी भाभी के फूट-फूट कर रोने से मेरी तंद्रा टूटी।

‘अरे, क्या हुआ…?’ मैंने कुछ असहज होकर कहा… ‘आखिर हुआ क्या?’

‘तुम तो उन्माद में प्रलाप कर रहे हो। पूछते हो हुआ क्या।’ छोटे भाई ने कुछ उत्तेजित स्वर में कहा।

बड़े भैया ने चश्मा उतार लिया था और कुर्ते के किनारे से शीशे को साफ करते हुए एकटक मुझे देख रहे थे। अजय भैया बाएं हाथ की तर्जनी का नाखून कुतर रहे थे। पता नहीं, इस हल्ले-गुल्ले में कब सारे बच्चे कमरे में घुस आए थे और बाएं कोने में गोला बनाकर बैठ चुके थे। फिलवक्त सभी हैरानी से मुझे ताक रहे थे। सिर्फ अनन्या बिलकुल मेरे सामने आ गई थी। मेरे दोनों हाथ पकड़कर वह खड़ी हो गई। लगा जैसे कुछ कहना चाहती है, पर चुप लगा गई।

अचानक बोलता है पार्थ- ‘लेकिन आप तो स्मृतियों में जीने को ही सुख समझ बैठे हैं चाचू…’  आवाज सपाट है और चुनौती जैसा कुछ है पार्थ के स्वर में।

स्मृतियों में जीने का क्या अर्थ हुआ? कोई जीवन से दूर जाकर यादों में तो गुम नहीं हो गया हूं। ये स्मृतियां तो मुझे मजबूत बनाती हैं। मेरी ताकत हैं’, मैंने अब कुछ संभलकर कहामैं कोई बाल बिखराकर, मुड़ेतुड़ेमिचुड़े कपड़ों में बिस्तर पर लेट नहीं गया हूँ। बीमार नहीं पड़ गया हूँ। एकांत में नहीं चला गया हूँ। शराब पीकर नाले में नहीं पड़ा हूँ। जंगल में नहीं फिर रहा हूँ’, मैंने दृढ़ता से कहाये स्मृतियां मुझे नई ऊर्जा देती हैं। उत्साह का संचार करती हैं। सकारात्मक बनाती हैं। मंजुला ने कहा था हारमोनियम सीख लेना, तो मैंने क्लास भी लगाई है। अलंकार से शुरू किया। राग बिलावल पूरा किया। आरोह, अवरोह, पकड़ सब सीखा और इतने दिनों से रोज रियाज भी कर रहा हूँ।

‘दो दिन रियाज मत करना’, छोटा भाई स्वर में अतिरिक्त चिंता उड़ेलकर बोला, ‘हमारे लिए न सही, बच्चों के लिए कुछ करुणा बची रहे…’

‘पापा, स्कूटर पर आप छीलने वाला फल क्यों खाते थे… अंगूर, सेब क्यों नहीं खाते थे?’ -सौम्या ने सहज भाव में पूछा।

‘ठीक बोल रही है सौम्या’, छोटा भाई बोला- ‘जीवन को जान-बूझकर कठिन बनाना इसी को कहते हैं… चलते स्कूटर पर संतरा छीलने का कोई मतलब है। आदमी न भी गिरे, तो संतरा गिरने का डर तो है ही।’

मैं बिफरा- ‘मेरी जो मर्जी होती थी वह खाता था, तुमसे पूछकर नहीं खाता था।’

‘चलो, हो गई सब बात। अब पूजा करके मुंह जुठाओ सब लोग…’ बड़ी भाभी अब संयत होकर बोली।

पार्थ सामान्य हो गया है। उसका स्वर सहज है अब- ‘चाचू, आपसे अलग से बात करूंगा। रतलाम वाली लड़की के बारे में क्या बात करूं, उसे तो जानता तक नहीं मैं? हां, लेकिन… लेकिन मेरे कॉलेज में एक लड़की है, मतलब मेरी बैचमेट ही है -नव्या। समझदार है… अच्छी लड़की है। दिल्ली की है। उसके पिता लॉयर हैं। तो उसके बारे में … आपसे अलग से बात करूंगा।’

‘ऐं…? पार्थ भैया…?’  अचानक अनन्या मेरा हाथ छोड़कर तेज आवाज में बोली, भारी आश्चर्य है उसके स्वर में और आंखों में भी- ‘ऐसे तो बड़े शरीफ बनकर दिखाते हो…!’

‘चुप रह… तुझसे बात नहीं कर रहा मैं…’ पार्थ आंखें निकालकर बोला, ‘हम सिर्फ दोस्त भर हैं और सिर्फ अपने सबजेक्ट्स पर डिस्कस करते हैं…’

‘तो क्या सब्जेक्ट्स में यह भी रहता है कि उसके पिता लॉयर हैं…?’

दोनों की लड़ाई फिर शुरू हो गई थी।

‘अमूल्य निधि क्या होता है पापा, अभी जो आप कह रहे थे।’ सौम्या ने मासूमियत से पूछा।

मुझे हँसी आ गई।

‘चलो भाभी, कुछ खाने को दो… मंजुला के कारण भूखे रहने में तो कोई सुख नहीं है।’

बात सहज ही कही गई थी पर बड़ी भाभी ने आंखें तरेरकर देखा।

‘आप लोग बढ़िए’, मैंने जल्दी से कहा- ‘मैं जरा हाथ धोकर आया।

सब उठे। मैं वाशरूम की ओर बढ़ा।

इतनी बातें याद करने के बाद एक बार रोना तो बनता है।

संपर्क सूत्र : उप महाप्रबंधक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र , प्रधान कार्यालय, यशोमंगल, एफ. सी रोड, शिवाजीनगर, पुणे – 411005 मो.9604641228