सुपरिचित वरिष्ठ कवि।अद्यतन कविता संग्रह ‘ईश्वर एक अनाड़ी फोटोग्राफर है’।
मैं जाऊंगा
मैं जाऊंगा अपने प्रिय घोंसले पर फिर
उस पहाड़ी इलाके में, वर्षा के घर में
सुंदरता के उस संसार में फिर
मैं मैदानों में हो गया बोर
मैं जाऊंगा पहाड़ी वन प्रदेशों उपत्यकाओं में
हरीतिमा के उस संसार में
धूप की गरमाहट और शीतल छाया में
और सुमधुर संगीत की उस भूमि में
मैं गंजे मैदानों में गंजे प्रदेशों में रहते उकता गया
रहते रहते प्रचंड गर्मी में, लू में
खराब हवा में, प्रदूषण में
मैं जाऊंगा, जाऊंगा अपने प्रिय घोंसले पर फिर-
खेत चांदनी, हरे हरे वनों और उपत्यकाओं में फिर
वहां कुछ भी सख्त नहीं
कुछ भी तय नहीं कि ऐसे ही करना होगा
किसी की देखभाल का, चौकीदारी का
कोई बोझ नहीं
किसी पर नहीं करने वाला थानेदारी
और नियम कायदे नहीं
मानना जबर्दस्ती के फिजूल से नहीं
कोई जात पांत नहीं, कोई भेदभाव नहीं,
कोई धार्मिक रीतिरिवाज और रूढ़ियां नहीं
वहां केवल प्यार का कानून है
और वैस्य सच्चा धर्म
जिसमें किसी को किसी से डरने की जरूरत नहीं
वहां सीमाहीन पहाड़ फैले हैं दूर तक
घने वन-पहाड़ियों को गले लगाते हर समय
पहाड़ियां ऐसी जैसे सांड हो धीमे-धीमे जाते
अपने नथुने क्षितिज की ओर उठाए
चोटियां पर्वतों की चूम-चूम लेती आसमानों को
उन एकांत कोनों गहराइयों में
जहां नहीं पहुंचती सूर्य की किरणें कभी
बहादुर पर्वतों के शिखर
रोक लेते बादलों की आवाजाही
उस पवित्र शीतल हवा में
घुला रहता गाते पंछियों का संगीत पेड़ों में
क्या मुझे भाग जाना चाहिए
वनों की इस दिव्य सुंदरता की ओर
वहां गाते पंछी सब तरह के-
कोयल, तोते, मैना और मुर्गे देते बांग
वहां उगते कमल, कुमुदिनी, गुलाब, मोंगरे
और जूही की कली
वन लताएं कई तरह की
आंखें जानतीं नहीं और कुछ भी देखना
सिवा आसमान की नीतियां
और धरती की हरीतिमा
वहां जैसे स्वर्ग ही उतर आया है
और पूरा प्रदेश जैसे साक्षात स्वर्ग है…
वन इतने घने कि दिन में भी अंधेरा छा जाता है
शेर की दहाड़, भालू की चिंघाड़
जंगली उल्लू की कर्कश ध्वनि
कई तरह के पशु पक्षी निर्बाध विचरण करते
हिरण, भैंसे, बारहसिंघे, बकरी, कुत्ते, लोमड़ी खरगोश, सारंगा, बकरा, घड़ियाल
सांप, नेवले और चूहे
मेरे लिए नहीं ये केवल नाम
बल्कि, अपनी अपनी तरह के सब शूरवीर हैं
यहां की लोककथाओं में बसते अनेक राजा महाराजा
रानियां, अप्सराएं, देवी-देवता
लोक देवता लोकनायक
कथाएं उनकी कुछ सच्ची कुछ झूठी
कुछ हुए वास्तव में कुछ केवल किंवदंती में
बचपन से सुनी अब तक सुनता उनकी
सैंकड़ों अनुभवों वाली, सैंकड़ों परिकल्पनाएं
इतनी रोचक कि उनका मूल मतलब ही भूल जाता
उछलते झरनों के हरे किनारे पर
हिरण चर रहा हरी घास
और पास ही के काई भरे कोने में
बगुला खड़ा एक पैर पर ध्यान लगाता
एकदम सफेद
भरी दोपहरी में वहां
जब वन सोते गहरी नींद में चुपचाप
जब आदमी, दिनभर थककर
धूप में करके काम लौटते घर
गाएं जड़ें फैलाए
घने बरगद की अंधेरी छाया में ऊंघती
कुछ ग्वाले बांसुरी बजाते
और जानवरों के कान खड़े कर देते
पहाड़ों ने कर दिया है कवि का माथा ऊंचा
और उसके हृदय में जोश भर दिया है
आसमान तक जाने का
और आसमान से भी पार जाने का
हाथियों के जैसे बादल तैरते, भागते चक्कर लगाते
धमाचौकड़ी मचाते
तरह-तरह के रूपांकार वाले बादल
अपने को रखते पृथ्वी और स्वर्ग के बीच
वे नीले आसमान को छिपा लेते
यहां सुमधुर हवा बदल जाती तूफान में कभी जब
चुप, खामोश, ध्यान लगाते पेड़ बन जाते
चीखते चिल्लाते प्रेत
विनम्र और हिंसक की बन जाती जोड़ी
वे हो जाते एक साथ
जैसे फूलों के साथ कांटे
गहरी घाटी भी उछल-उछलकर जाती चूमने आकाश
वहां जंगली नदी तुंगा आंखों को भली लगती
बांस वन उसके किनारों पर
हवाएं करते ठंडी हवा झूला देते
यहां नहीं बहतीं, उफनतीं मगर मंथर गति से
कितनी छोटी लगती हैं नदियां
पहाड़ों के विशाल मैदान में
घटाएं अपनी काली जुल्फें
चैत्र की शाम के चेहरे पर
डाल देतीं, बिखरे बालों वाला
दहाड़ मारकर आता तूफान
अपनी बिजली की तलवार चमकाता
शुरुआती मानसून का काला दैत्य
चिंघाड़े मारता आता क्षितिज से
धरती देती जन्म हरे-हरे नर्म नाजुक पौधों को
जैसे उसके बाल खड़े हो गए हों
जैसे ही पहली नर्म बारिश भिगोती
धरती के मन प्राण
कॉफी के धुले बगीचे से नहाकर निकलते
और इंद्र के बागीचे जैसे लगते
घाटी की ढलानों पर, उपत्यकाओं में
और पहाड़ की चोटी पर
जहां तक जाती है नजर
कॉफी के फूल, मक्खन की तरह
चांदी की तरह चमकते
आसमान की नीलिमा संसार की पवित्रता जैसे
किसी जन्मजात शाप से हो मुक्त
कॉफी बागीचे में आ पहुंची है
उनके फूलों को खिलाती
आंखें चमकती खुश-खुश और हृदय होता आनंदित
दूधिया फूलों की नदी में
वहां उन सफेद मोतियों की वर्षा में
अमृत स्नान हो या अमृत प्राण
आत्मा की मधुमक्खी
खींचती शहद फूलों जैसी स्मृतियों से।
संपर्क : जी–४०२, सिविटेक संपृत्ति, सेक्टर ७७, नोएडा–२०१३०१ मो.९९५३३२०७२१