सेवानिवृत्त चीफ़ इंजीनियर।मराठी में अनूदित कविताओं का संग्रह ‘धरेचे सुख’ प्रकाशित।
मृत्यु से पूर्व
हुसैन के दौड़ते घोड़े रुक गए हैं
गुम हो गई मोनालिसा की मुस्कान
लास्ट सपर में ईसा मसीह
ठिठक गए हैं उठाते-उठाते ब्रेड जुडास के साथ
नदियों का बहाव थम गया है
सूर्य निढ़ाल हो गया है अपना ताप खोकर
समुद्र एकदम शांत
ध्वनियां जम गई हैं
पृथ्वी घूम नहीं रही है
हवा ठहरी हुई है गहरे दुख में
पेड़ों की टहनियां
फूल पत्ते तक नहीं हिल रहे हैं
चलते लोग सड़कों पर खड़े रह गए हैं
पक्षी आसमान में उड़ते उड़ते फ्रीज़
सब कुछ स्थिर हो गया अपनी जगह
यह वह दृश्य है
जब एक आदमी दुनिया छोड़ रहा है
मरते हुए आदमी की आंखों में
ऐसी ही दर्ज होती है दुनिया!
अब जब मृत्यु निकट है-१
अब जब मृत्यु निकट है
मुझे चलना होगा और अधिक
पूरी करनी होंगी अधूरी यात्राएं
जिन्हें पिता की उंगली पकड़ कर शुरू किया था
पूरी करनी होगी अपनी हँसी
जो रुक गई थी आयु के उत्तरार्ध में कारणवश
पूरा करना होगा अपना विलाप
जिसे दबाकर रखा अब तक
भुगतनी होंगी शरीर की तमाम यातनाएं
जो अब तक स्थगित होती आईं
अब जब मृत्यु निकट है
संवारना होगा अपना घरौंदा एक बार और
संजोनी होंगी उसमें
शैशव से अब तक की स्मृतियां करीने से
ताकि बना रहूँ अपनों की यादों में
अब जब मृत्यु निकट है
पुनर्पाठ करना होगा पूरे जीवनवृत्तांत का
लिखना होगा अंतिम अध्याय
जो तमाम दुखों के बाद भी सुखांत हो
अब जब मृत्यु निकट है
तब मुझे लोगों से और दुनिया से
करना होगा और अधिक प्यार
दुख के बिस्तर पर पड़े-पड़े
यूं ही तो नहीं कर सकता मृत्यु की प्रतीक्षा
अब जब मृत्यु निकट है
तो मुझे लड़नी होगी
मनुष्यता के लिए अपनी अंतिम लड़ाई!
अब जब मृत्यु निकट है-२
रंगमंच पर जीवन के अंतिम दृश्य
मैं खाली कुर्सियों के सामने मंचित करना चाहता हूँ
जब कोई सामने नहीं होगा
तब मैं अपने में पूरी तरह डूबकर
अपने जीवन का सबसे श्रेष्ठ अभिनय करूंगा
और सुनूंगा सन्नाटे में गूंजती
खाली कुर्सियों की आवाज
गहन सघन वनों में वृक्षों लतिकाओं को
विहगों पक्षियों को
सुनाना चाहता हूँ अपनी अंतिम कविताएं
कलावंतों के लिए नहीं
सुदूर निर्जन पर्वत श्रृंखलाओं की
शिलाओं के लिए
उनपर गढ़ना चाहता हूँ भित्ति चित्र
अंतिम दिनों में
जब कोई नहीं पुकारेगा मेरा नाम
मैं दूर किसी नीली घाटी में जाऊंगा
पुकारूंगा जी भर अपने को
घाटी
मेरे साथ दोहराएगी मेरा नाम!
अंतिम दिन
एक दिन आएगा
जब मैं तुम्हारे जूड़े में
फूल नहीं खोंस पाऊंगा
एक दिन आएगा
जब बाहर जाते हुए
गली के मोड़ से
तुम्हें पलट कर देखना भूल जाऊंगा
एक दिन आएगा
जब मैं तुम्हारे साथ चलते-चलते
अचानक कहीं खो जाऊंगा
एक दिन आएगा
जब मैं तुमसे प्रेम व्यक्त नहीं कर पाऊंगा
टकटकी बांधे
उदास नजरों से देखता रहूंगा बस
एक दिन आएगा
जब मुझे लगेगा
और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवाय
एक दिन आएगा
जब में विस्मृति में डूबे कृष्ण की तरह
तुमसे पूछूंगा
कहीं तुम राधा तो नहीं
एक दिन आएगा
आना है ऐसा भी एक दिन
वह दिन
मेरे अंतिम दिनों का
अंतिम दिन होगा।
संपर्क : २०३, विजया नगर एक्सटेंशन, चेतकपुरी के पास, ग्वालियर, म.प्रपिन–४७४००९ मो.०९८२६३१४४५१
राजहंस सेठ जी आपकी ये कविताएँ बहुत अच्छी हैं। जहां आजकल लंबे गद्य में कविताएँ लिखी जा रहीं हैं, वहां आपके द्वारा अपनाए मध्यम मार्ग में भावों की अनूठी और दार्शनिक अभिव्यक्ति से युक्त है। ‘वागर्थ’ को आभार इन कविताओं को आम पाठक तक पहुंचाने हेतु और अशेष शुभकामनाएं।