जन्म 7 अगस्त 1935। महात्मा गांधी के पोते और जाने–माने जीवनीकार, लेखक और इतिहासकार। 1990-92 तक राज्यसभा के सदस्य।
गांधी के जीवन का अध्येता होने के नाते मैं आपको उनके जीवन के उन पहलुओं से अवगत कराना चाहता हूँ जिसे शायद आप नहीं जानते। हम गांधी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जानते हैं जो अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनते थे और उसी के अनुरूप कार्य करते थे। परंतु मैं आपको उस गांधी से परिचित कराना चाहता हूँ जो डेटा या सामान्य जानकारियाँ भी इकट्ठा करते थे और उसके आधार पर निर्णय लिया करते थे, केवल अंतरात्मा की आवाज पर नहीं।
हम उस गांधी को जानते हैं जो धूलभरी जमीन पर खूब पैदल चला करते थे और जिन्होंने दांडी मार्च किया था। हमें याद है जवाहरलाल नेहरू ने गांधी के बारे में एक दिलचस्प टिप्पणी की थी जब वे 1930 में नमक सत्याग्रह के समय अहमदाबाद से चलकर सागर तट तक पहुंचे थे। नेहरू ने लिखा था-आज एक तीर्थयात्री अपनी एक लंबी यात्रा पर निकल पड़ा है। उसके हाथ में एक लाठी है और वह धूलभरी गुजरात की सड़कों पर आगे बढ़ता जा रहा है। उसका लक्ष्य स्पष्ट है और उसके विश्वस्त अनुयायी उसके पीछे चले जा रहे हैं।
गांधी के इस स्वरूप को अनेक स्थलों पर पैदल यात्री गांधी के रूप में मूर्तिमान किया गया है। लेकिन गांधी केवल एक पैदल यात्री नहीं थे, वे एक समुद्र-यात्री भी थे, इसकी ओर कम लोगों का ध्यान गया है। उन्होंने कई समुद्री यात्राएँ की थीं। गांधी एक कर्मयोगी या कर्मवीर पुरुष थे, यह प्रायः सभी जानते हैं। पर गांधी एक महान शब्द-साधक थे, यह कम लोग जानते हैं।
एक गांधी वह भी थे, जो अ-स्वाद में विश्वास करते थे, अर्थात किसी भी चीज में स्वाद की खोज नहीं करते थे। क्योंकि यह साबरमती आश्रम के ग्यारह व्रतों में एक था। इसी प्रकार उन्हें हमेशा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में चित्रित किया जाता है जो इंद्रिय सुख के प्रति उदासीन था। परंतु केवल यही सच नहीं है। गांधी संगीतप्रिय थे। उन्हें संगीत से गहरा लगाव था। हमें गांधी के परिग्रही जीवन के बारे में पता है, परंतु गांधी में जीवन के प्रति तथा इंद्रिय सुखों के प्रति गहरा अनुराग भी था।
नमक अभियान की गहराई में जाएँ तो पता चलता है कि गांधी जी को ठोस तथ्यों में भी रुचि थी, केवल सहज वृत्ति या हृदय की आवाज में ही नहीं। जिस समय सविनय अवज्ञा की योजना बनाई गई थी, पूरा देश यह जानने के लिए उत्सुक था कि आखिर गांधी किस मुद्दे पर सरकार की अवज्ञा करने जा रहे हैं। लोग बेचैनी से यह जानना चाहते थे कि आखिर गांधी करना क्या चाहते हैं। टैगोर साबरमती आश्रम में गए और गांधी जी से पूछा कि आप क्या करने वाले हैं? इसपर गांधी जी ने कहा था कि मुझे खुद नहीं मालूम। मैं बहुत सोच रहा हूँ, लेकिन मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। तभी उन्हें एक प्रेरणा मिली कि यह नमक मार्च हो सकता है।
हालांकि इस प्रेरणा के पीछे एक सुव्यवस्थित परियोजना कार्य कर रही थी। उन्होंने नमक मार्च के रास्ते में पड़ने वाले सभी गांवों के लोगों को पत्र लिखा और उनसे कुछ जानकारियाँ मांगी- जैसे गांव में कितने लोग रहते हैं? उनमें महिलाएँ कितनी हैं, पुरुष कितने हैं, हिंदू कितने हैं, मुसलमान कितने हैं, ईसाई कितने हैं, पारसी कितने हैं, आदि? (यह मजेदार तथ्य है कि उन्होंने 1930 में ही पुरुषों की तुलना में महिलाओं को वरीयता देते हुए उनकी संख्या पहले पूछी थी।) फिर उन्होंने पूछा, गांव में अछूतों की संख्या कितनी है और उनमें से कितने पढ़-लिख रहे हैं? उनका तीसरा प्रश्न था, गांव के स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में लड़कों और लड़कियों की संख्या कितनी है? यद्यपि इस मार्च से पूरे देश में अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत होने वाली थी, परंतु वे उन सभी गांवों से उक्त सूचनाएं प्राप्त करना चाहते थे, जहां से वे गुजरने वाले थे। उनका चौथा प्रश्न था, गांव में पशुओं की संख्या कितनी है? चरखे कितने हैं, खादी पहनने वाले लोग कितने हैं? वे यह भी जानना चाहते थे कि जमीन का लगान कितना है? गांव में चारागाह कितने हैं? गांव के लोगों में नमक की खपत कितनी है? इन तथ्यों से हमें गांधी में एक समाज वैज्ञानिक की झलक मिलती है।
ऐसा ही उदाहरण बहुत बाद में तब मिलता है, जब वे नोआखाली पदयात्रा कर रहे थे। यह पदयात्रा 1946 के मार्च में प्रारंभ हुई थी और 1947 तक जारी रही। यहाँ भी उन्होंने अपने रास्ते में पड़ने वाले गांवों के बारे में जानकारी मांगी थी। उस समय उनके साथ उनकी 16 वर्षीय पोती थी और दुभाषिया के रूप में मानव विज्ञानी निर्मल कुमार बोस थे, जो पूर्वी बंगाल में लोगों के साथ उनका संबंध स्थापित करने में मदद कर रहे थे।
मनु ने धर्म, जाति, व्यवसाय के आधार पर वर्गीकृत प्रत्येक गांव की आबादी का लेखाजोखा दिया। इससे पता चलता है कि गांधी न केवल अपने अंतर्ज्ञान पर, अपितु सूचनाओं पर भी भरोसा करते थे।
1896 के अंत में गांधी अपने परिवार और कुछ अन्य सदस्यों को साउथ अफ्रीका ले गए। यह यात्रा कौरलैंड और नादर नामक दो जहाजों पर डरबन के लिए हुई थी। नेटाल तट पर पहुँचने से चार दिन पहले एक भयंकर तूफान से जहाज का सामना हुआ। हालांकि कौरलैंड के कप्तान ने आश्वासन दिया कि उनका जहाज हर मौसम का सामना करने में सक्षम है, पर तूफान की भयंकरता को देखते हुए प्रत्येक यात्री भय से बेहाल था। जहाज बुरी तरह कांप रहा था। प्रति मिनट ऐसी टकराहटें और आवाजें आ रही थीं जो जहाज के टूटने का भय पैदा कर रही थीं। सभी लोगों के होंठों पर प्रार्थना के शब्द थे। हर आदमी अपनी-अपनी भाषा और अपने-अपने तरीके से ईश्वर की आराधना कर रहा था। कप्तान भी लगातार प्रार्थना किए जा रहा था। प्रत्येक जबान पर एक ही पुकार थी कि ईश्वर ही हमारा एकमात्र संबल है।
कहा जा सकता है कि आगे चलकर गांधी के नेतृत्व में जो बहु-धार्मिक प्रार्थनाएं होती थीं, उनका उत्स वही तूफान था। गांधी ने देखा था कि हिंदू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी और पारसी सभी विभिन्न भाषाओं में अपनी प्रार्थना कर रहे थे और सभी अपना संदेश ईश्वर के एक ही पते पर भेज रहे थे। एक कुशल समुद्र-यात्री के रूप में गांधी हर घंटे कप्तान से यात्रियों की रिपोर्ट ले रहे थे और उन्हें शांत करने की कोशिश कर रहे थे। 24 घंटे के बाद तूफान थम गया, लेकिन आगे एक अलग तरीके का तूफान उनका इंतजार कर रहा था। यह एक ऐसी घटना है जिसके बारे में बहुत लोगों को जानकारी है। डरबन पोर्ट पर गोरों की एक विशाल भीड़ थी जो गांधी को दक्षिण अफ्रीका में उतरने नहीं देना चाहती थी। उनमें से कुछ लोग गांधी को पीट-पीट कर मार डालना चाहते थे। उस समय उन लोगों ने एक तरह से गांधी को लगभग मार ही डाला था।
1906 में गांधी जी की आयु 37 वर्ष हो चुकी थी। उस समय वे ‘इंडियन ओपिनियन’ नामक एक पत्रिका का संपादन कर रहे थे। वे सत्याग्रह की अपनी अवधारणा को तैयार करने में लगे हुए थे। जून और जुलाई 1906 में तथाकथित जुलु युद्ध के दौरान एक एंबुलेंस कर्मचारी के रूप में जुलु देश में घूमते हुए गांधी हिंसक संघर्ष का कोई विकल्प खोज रहे थे। उस खूबसूरत इलाके में, जो उस समय खून से लथपथ था, उन्होंने कुछ व्यक्तिगत निर्णय लिए। और वहीं पर सत्याग्रह की अवधारणा जन्म हुआ।
वह 11 सितंबर 1906 का दिन था, जब जोहान्सबर्ग में आयोजित एक बैठक में पहली बार सत्याग्रह को औपचारिक रूप से समर्थन प्राप्त हुआ था। यह महीना और दिन नोट करने योग्य है। उस बैठक के बाद गांधी इंग्लैंड गए और ब्रिटिश नेताओं के सामने मांग रखी कि वे भारतीयों के साथ मनुष्योचित व्यवहार करें।
गांधी ने 12 साल तक अपनी जन्मभूमि नहीं देखी थी। लंदन में कानून की पढ़ाई करने के लिए जाने से पहले ही उनके पिता की मृत्यु हो गई थी और कानून की पढ़ाई पूरी कर लौटने से कुछ समय पहले उनकी मां की मृत्यु हो गई थी। 1914 के अंत तक उनके दो भाइयों की भी मृत्यु हो चुकी थी। गांधी जब भारत लौट रहे थे तो उनका उद्देश्य केवल अपने जन्मस्थान पोरबंदर लौटना नहीं था या राजकोट लौटना नहीं था, जहाँ उनका परिवार रहता था। बल्कि गांधी उस भारत-भूमि की ओर लौट रहे थे जो उनकी कर्मभूमि या संघर्षभूमि बनने जा रही थी।
दक्षिण अफ्रीका में रहने के दौरान गांधी को अलग-अलग भाषा बोलने वाले और भारत के विभिन्न हिस्सों से आए भारतीयों के साथ काम करने का मौका मिला था। उनकी दृष्टि में यह पूरे भारत का एक लघु रूप था। गांधी उस समय के उन अन्य नेताओं से अलग थे, जो खुद को अपने क्षेत्रों के शक्तिशाली नेता मानते थे। गांधी पूरे भारत को अपनी संघर्षभूमि मानते थे। इसी सोच के साथ वे अरबिया पर सवार होकर भारत आए थे कि पूरी भारतभूमि उनका संघर्ष क्षेत्र बनेगी, संपूर्ण भारत ही उनका घर होगा, और वहां रहने वाले सभी लोग उनके अपने लोग होंगे। अरबिया पर यात्रा के दौरान उन्होंने बांग्ला सीखने की कोशिश की। इस समय तक उनके बच्चे कलकत्ता पहुँच चुके थे और टैगोर के शांतिनिकेतन भी जा चुके थे। गांधी भी जल्द ही शांतिनिकेतन जाने वाले थे। इसलिए बांग्ला सीखना चाहते थे।
कस्तूरबा और गांधी अपनी समुद्री यात्रा का आनंद ले रहे थे, हालांकि दोनों में से कोई भी बहुत स्वस्थ नहीं था और मौसम या तो ठंडा था या तूफानी। इस यात्रा के दौरान कस्तूरबा अपनी शादी के बाद पहली बार अपने पति के साथ पूरी तरह से अकेली थीं। यह एकमात्र यात्रा थी, वह चाहे सड़क से हो, रेल से हो या जहाज से या किसी और तरीके से, जहाँ मोहनदास और कस्तूरबा एक साथ यात्रा कर रहे थे, जिसमें और कोई नहीं था। उनके बच्चे पहले ही चले गए थे। उनके साथ जहाज पर उनका कोई सहकर्मी भी नहीं था। हालाँकि, दोनों को कल्लेनबाक की याद आ रही थी, जो जर्मन मूल के यहूदी वास्तुकार थे। उसने दक्षिण अफ्रीका में गांधी की बहुत मदद की थी। गांधी परिवार के साथ वह भारत आना चाहता था। लेकिन उसी समय विश्व युद्ध शुरू हुआ था। भारत की ब्रिटिश सरकार ने कल्लेनबाक को वीजा देने से इनकार कर दिया था। गांधी ने जहाज से उन्हें लिखा, ‘हमारी खुशी तब पूरी होती जब आप साथ होते। हम बराबर आपकी चर्चा करते हैं।’
यद्यपि कल्लेनबाक की उपस्थिति से उनकी खुशी बढ़ जाती, पर गांधी और कस्तूरबा एक दूसरे के साथ एकाकी होने पर बहुत खुश थे। लेकिन गांधी यह भी जानते थे कि वह एक महत्वपूर्ण मिशन पर थे, जिसके लिए उनके पास योजनाएं और रणनीतियां थीं। इसलिए वे किसी भी बड़ी योजना और अनिश्चित भविष्य वाले व्यक्ति की तरह चिंतित थे।
गांधी की अंतिम समुद्री यात्रा तब हुई, जब वे 1931 में ‘राजपूताना’ जहाज से लंदन में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारत से इंग्लैंड गए थे। उस यात्रा में उनके साथ कई लोग थे : उनके सचिव महादेव देसाई, उनके दूसरे सचिव प्यारेलाल, उनके बेटे (और मेरे पिता) देवदास गांधी, उनके मित्र और समर्थक घनश्याम दास बिड़ला, और उनकी ब्रिटिश सहयोगी 39 वर्षीय मेडेलीन स्लेड, जिसे मीरा बेन के नाम से पुकारा जाता था।
चूंकि मीरा बेन के पिता ब्रिटिश साम्राज्य की नौसेना में एक महत्वपूर्ण एडमिरल थे, इसलिए मीरा समुद्र और जहाजों से अच्छी तरह परिचित थीं। उनका मानना था कि ‘राजपूताना’ के सभी यात्रियों में गांधी सर्वश्रेष्ठ थे।
गांधी जब 19 वर्ष के थे तो वे नृत्य करना सीखना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने लंदन में ट्यूटर रखा और उससे नृत्य सीखा। इसी प्रकार वे अच्छा वायलिन वादक बनना चाहते थे। लेकिन उन्होंने तय किया कि यह एक ऐसा कौशल है जिसे भारत वापस आने पर ही सीखा जा सकता है। लंदन में उन्होंने फ्रेंच भाषा सीखने तथा वक्तृता कला का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ट्यूटर रखा।
1907 में जब गांधी की उम्र 37 वर्ष की थी तो उन्हें दक्षिण अफ्रीका में कुछ उन भारतीय सहयोगियों के साथ विवाद का सामना करना पड़ा, जिनका मानना था कि उन्होंने शासक स्मट्स के साथ समझौता किया था और भारतीय पक्ष का नुकसान किया था। उन लोगों ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला किया और मीर आलम और उनके दोस्तों ने जोहान्सबर्ग में गांधी बुरी तरह पीटा, जिससे वे बेहोश हो गए। इसी तरह उन्हें अफ्रीका की जेल में भी मारा-पीटा गया। अतः गांधी को बहु-नस्लीय हमलों का शिकार होने का एक तरह से अभ्यास था। हमले के बाद जोसेफ डोक नामक एक ब्रिटिश व्यक्ति गांधी को जोहान्सबर्ग के बाहर अपने घर ले गया, जहाँ होश में आने पर गांधी ने निर्देश जारी किए कि उनके हमलावरों पर मुकदमा न चलाया जाए।
1922 में गांधी की उम्र 52 वर्ष की थी। उस समय वे पूना की यरवदा जेल में थे। उन्होंने दर्जनों किताबें पढ़ीं। उनके सेल में कोई लैंप नहीं था, इसलिए उन्हें दिन में पढ़ना पड़ता था। वे दिन में छह घंटे पढ़ते और चार घंटे कताई करते।
गांधी को ताश खेलने का भी शौक था। भोर और सूर्यास्त के समय वह प्रार्थना करते थे और भजन गाते थे। मुहम्मद अली के घर में जब गांधी उपवास कर रहे थे तो उनके पास कई लोग थे। उनमें स्वामी श्रद्धानंद, मोतीलाल नेहरू, चित्तरंजन दास, सी. राजगोपालाचारी और मेजबान- मुहम्मद अली। उनके बड़े भाई शौकत अली- हकीम अजमल खान, डॉ. अंसारी, मौलाना आजाद और दो अंग्रेज सी.एफ. एंड्रूज तथा कलकत्ता के बिशप फॉस वेस्टकॉट शामिल थे।
गांधी को एक वीतरागी व्यक्ति के रूप में जाना जाता है, लेकिन उन्होंने कई अवसरों पर लगाव भी दिखाया। 1888 में जब मोहनदास इंग्लैंड में अध्ययन के लिए तीन साल के लिए जा रहे थे तो वे अपनी पत्नी कस्तूरबा, कुछ महीने के बेटे हरिलाल, अपनी माँ पुतलीबाई और अन्य रिश्तेदारों से बिछुड़ते हुए काफी दुखी थे। इसी प्रकार 1893 में जब वे अपने परिवार को छोड़कर दक्षिण अफ्रीका जा रहे थे, तो उन्हें अपनी पत्नी से अलग होना बड़ा कष्टदायी लगा था। वे पत्नी से अलग नहीं होना चाहते थे।
दक्षिण अफ्रीका में आठ साल के प्रवास काल में उन्होंने पांच साल अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बिताए। अक्टूबर 1901 तक कस्तूरबा ने अपने चारों बच्चों को जन्म दे दिया था। चारों बेटे थे। डरबन में गांधी ने कानून की पढ़ाई की और दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय में जान फूंकी और उनमें अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने का भाव पैदा किया। वहीं उन्होंने नेटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की थी और अच्छे सहयोगी भी बनाए थे।
दक्षिण अफ्रीका के भारतीय समुदाय के लोग उन्हें भारत जाने देना नहीं चाहते थे। उन्होंने गांधी के सामने शर्त रखी कि यदि आवश्यकता हुई तो गांधी वापस लौट आएंगे।
गांधी अपने परिवार सहित अक्टूबर 1901 में भारत के लिए रवाना हुए। कलकत्ता में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अपने पहले सत्र में भाग लिया और वे इंपीरियल काउंसिल के सदस्य गोपाल कृष्ण गोखले के साथ काफी समय तक रहे। गोखले 32 वर्षीय गांधी से बहुत प्रभावित थे और उन्हें एक वकील और सार्वजनिक कार्य दोनों में आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे।
गांधी जी ने अपने पेशे में उम्मीद से कहीं अधिक तरक्की की। वे सांताक्रूज में रहते थे और थोड़ी खुशहाली का जीवन जी रहे थे। हालाँकि गांधी के जीवन में आराम या आनंद के लिए अवकाश नहीं था। दक्षिण अफ्रीका से उनके पास एक केबल आया कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री चैंबरलेन दक्षिण अफ्रीका आने वाले हैं और उस समय गांधी का दक्षिण अफ्रीका में रहना आवश्यक है। शर्त के अनुसार गांधी नवंबर 1902 में फिर से दक्षिण अफ्रीका चले गए। उन्हें उम्मीद थी कि वे कुछ महीनों के बाद वापस आ जाएंगे। इसलिए उन्होंने सांताक्रूज़ हाउस को बरकरार रखा, और कस्तूरबा और अपने बच्चों को 22 वर्षीय भतीजे छगनलाल गांधी की देखभाल में वहीं छोड़ दिया। गांधी को दो साल तक परिवार से अलग रहना पड़ा। हारकर उन्होंने परिवार को वहीं बुला लिया।
गांधी को भारत लौटने में बारह साल से अधिक समय लगा। यह एक ऐसा दौर था जिसमें उन्होंने ब्रह्मचर्य को अपनाया, गरीबी झेली, सत्याग्रह की खोज की, हिंद स्वराज की रचना की और एक बड़े संघर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका के हजारों भारतीयों को संगठित किया। गांधी ने नवंबर 1902 में सांताक्रूज से दक्षिण अफ्रीका के लिए प्रस्थान करते समय लिखा : पत्नी और बच्चों से अलग होना, एक स्थापित जीवन-व्यवस्था का टूटना और निश्चित से अनिश्चित जीवन की ओर जाना, यह सब मेरे लिए पीड़ादायक था, लेकिन मैंने खुद को अनिश्चित जीवन के लिए अभ्यस्त कर लिया था।
हमने गांधी के प्रचलित रूप के अतिरिक्त वह रूप भी देखा है जब वे जीवन के छोटे-छोटे सुखों का आनंद लेते थे। समुद्री यात्रा, संगीत में रस, स्वादिष्ट भोजन, शब्दों की साधना, रेल की प्रथम श्रेणी में यात्रा, सांताक्रूज में एक बढ़िया बंगला और अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जीवन व्यतीत करना उनके जीवन के कम ज्ञात पक्ष हैं। निश्चित रूप से वास्तविक गांधी वह गांधी भी थे जो अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनते थे और भारतवासियों की सेवा में स्वयं को समर्पित कर चुके थे।
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अनुवाद :अवधेश प्रसाद सिंह वरिष्ठ लेखक, भाषाविद और अनुवादक। हाउस नं. 222, सी.ए. ब्लॉक, स्ट्रीट नं. 221, एक्शन एरिया-1, न्यू टाउन, कोलकाता 700156 / मो. 9903213630 |
1 Gandhi’s peace march/ Image :Kanu Gandhi
2 Second roundtable conference Mahatma Gandhi with Madeleine Slade (Mirabehn)/ SS Rajputana Photo by James A. Mills Shutterstock