वरिष्ठ लेखिका। कहानी और कला-संस्कृति की 14 पुस्तकें प्रकाशित। अंग्रेजी की व्याख्याता। कई पुरस्कारों से सम्मानित।
अबूझमाड़ का वह गांव। सागौन, साल, शीशम के पेड़। दस कोस दूर झोपड़ियां, जहां छत से आसमान झांकता हो। पहाड़ों की ओट से धूप, नदी, तालाब, पोखर, सारे पड़ोसी हों। इसलिए बात भी करनी हो तो पुकारते हुए जोर से कहना पड़ता है।
सेवती थी ही निपट बस्तरिया! कसा शरीर, घुटने के ऊपर देहाती साड़ी, कंधे पर गांठ साड़ी का बोझ उठाए हुए। सिर पर खोपा, ठुड्डी पर गोदने के टांपे। पांवों में बिना पनही के मीलों चलने के कारण मुरुम के आलते से रचे पैर। घर का काम करना, गप्पा (बांस की टोकनी) लेकर जंगल जाना, महुआ बीनना, दोना, पत्तल सीना और बस्तर के जंगल में चप्पे-चप्पे से चिन्हारी करना, बातें करना। यही सेवती की दिनचर्या थी।
पर इस ‘अबूझमाड़’ को तथाकथित बूझने के खातिर आश्रम क्या बना यह बात गांव को हैरानी से भर रही थी। गांव के लेका-लेकियों (लड़के/लड़कियों) को अक्षरों से माथा पच्ची करनी पड़ रही थी।
कहां दिन भर खेत, खलिहान, जंगल, पोखरों में घूमने वाले श्रमतपा अबूझमाड़ियों को इन आश्रमों में अक्षरतपा होना पड़ रहा था। सारा गांव ‘अहलि’ ही था। हवाओं के हरकारे आते, पत्तों का संदेशा लाते। धूप की पाठशाला में छांव के पहाड़े पढ़ते। जीवन में बीजगणित लोहे के जूते पहने खट-खट करता। मौसम के पंचाग में पास-फेल की घोषणा होती। जीवन ‘एक कक्षा’ ऊपर चढ़ती जाती, नई जिजीविषा के पाठ्यक्रम के साथ।
सेवती जैसी अनेक लेका, लेकियों का दाखिला भी इन्हीं आश्रमों के स्कूल में हो गया था। पर घर पहुंचते ही सेवती सब कुछ फेंक कर अपने पुराने कलेवर में लौट आती। सिर में खोपा, होंठो पर कोई बस्तरिया गीत।
सेवती को महकू फूटी आंख भी नहीं सुहाता था। वह उसे गंधरू ही कहती थी। दूसरे गांव का था। उसके गांव में अपने चाचा के यहां रहने आया था। बारहवीं के बाद जाने कहां गया था कि फिर आंगा देव की तरह प्रकट हो गया।
दूसरा घंटा बजते ही महारानी लक्ष्मी बाई स्कूल, डिमरापाल की लड़कियों का सघन झुंड मुर्गी के दबड़े से निकली ‘कुकरी जात्रा’ की तरह बड़े फाटक के गेट पर उतर आया। गेट बजने लगा- किरकोंय-किरीच, किरकोंय-किरीच। एक दूसरे से ठेगला-मस्की, रन-बन महुआ की बंद पंखुड़ियों-सी फुसफुसाती, मटियाली कमीज और सफेद सलवार वाली लेकियां। सेवती भीड़ में ठेगला- मस्की (धक्का-मुक्की) करके जगह बना कर धैर्य से आगे बढ़ रही थी। कुछ दूर के बाद यह भीड़ खत्म हुई। अब लेकियां इधर-उधर बगर गई थीं। कुछ आमरस, कोई सूखलो-बोईर (सूखी बेर), कोई नूनचरहा (नमक वाली आम की फांक) के ऊपर झपा जा रही थीं। कुछ लाल लब्बड़ (रबड़) की लच्छेदार चूड़ियों के मोल-भाव पूछ रही थीं। ये प्लास्टिक की लच्छेदार चूड़ियां एक सिरे से चालू होकर अंत तक पूरी कलाई को भर देती थीं। जैसे कि टेसू कर फूल ऊपर से नीचे तक की पत्तियों तक लकलक-दकदक भर देता है। तो कुछ सिर झुका कर अपने पास-फेल की संभावनाएं टटोल रही थीं। वे जीवन के सारे नफा-नुकसान का हिसाब आज ही कर लेना चाह रही थीं। जीवन का बीजगणित क्या इतना आसान होता है? यह कच्ची उमर क्या एक ही इम्तहान से परवान चढ़ती है?
सेवती को घर पहुंचने की जल्दी थी। कल आखिरी परचा था। सोचकर उसका मन महुआ-महुआ हुआ जा रहा था। उसका बस चले तो सारी कक्षाओं के अक्षरों को काड़ी लगा तिनका कर पत्तों में सी देती। और घर की छत में खोंस देती। परचे को लेकर मन कुदलइय्या मार रहा था। परचे की तैयारी में कितने दिनों से जंगल नहीं गई थी। ना ही सरगी, तालाब, पोखरों से बातें की थीं। पेड़, जंगल सब हवा के मार्फत खबर भिजवा-भिजवा कर थक गए थे।
सेवती, देखो नवजात सेमल आया है। कटहल के पेड़ ने धींगा मस्ती की है। देखा, किस सागौन पर मरकत हरापन छाया है। टेसू कैसे गदरा गई है। यह सब छूट गया था। आखिर अबूझमाड़ की गोंडी में पेपर होता तो बताती कि अव्वल आना किसको कहते हैं। उपसर्ग आगे लगा कर जोश के साथ खुद को परचे के लिए तैयार करना तालाब की सीधी सपाट चढ़ाई करके पानी भरने जैसा दुरूह काम था। क्या पता? उत्तीर्ण के आगे ‘अनु’ उपसर्ग न लग जाए!
कल के बाद तो खूब आंख मूंदकर सरई रुख (पेड़) के नीचे पड़ी रहेगी। कोई पुकारेगा तो भी ओगाय (चुप) रहेगी। साइकिल स्टैंड में पहुंचकर उसने जगह पहचान कर अपनी साइकिल निकाली, जिसमें बैंगनी टोकनी अरझी थी। यह टोकनी साइकिल की भीड़ में दूर से दिख जाया करती थी। जैसे जंगल में पलाश आग के समान दहकते हों। एक हल्की सी धकड़ पर भसरंग से एक के ऊपर एक साइकिल गिरती जाती है। पहरे पर बैठी सोनारिन दूर से ही टोंटा फाड़ कोसने लगती।
धंगड़ी हो तुम मन के बाग धरे! (लड़कियो, तुमको शेर खा जाए)
सेवती थोड़ी दूर आगे साल पेड़ के नीचे सुस्ताती और सोनारिन की ओर देखकर सोचती। बैठी-बिठाई चौकीदारनी का साफा मिल गया है और इधर देखो बारह किलास पढ़ने में ही जीव छूटा जा रहा है।
घपचियाई-सी गर्मी, उमस में उसने अपना उजला चेहरा अपने दुपट्टे से रगड़ कर पोंछा तो चेहरा ललछौंवा टेसू हो गया। दनादन चोटी खोली, बालों का खोपा बनाया। साइकिल के केरियर में दबी बरकी (साड़ी) लपेटी, कांधों पर गांठ बांधी। अहा कितना आराम! सामने धूल भरी पगडंडियों पर किनारे उगे मस्त मौला रुख के नीचे धूल में सने पिला (बच्चे) तेतर (इमली) बीन रहे थे। अगर उसे भी केंवरी तेतर मिल जाती तो सफर का मजा ही कुछ और होता! पिछले साल जैसा मौसम होता तो केंवरी तेतर चुचरते गांव तक का रास्ता यूं ही कट जाता।
मगर इन दिनों सेवती अपना गंवइय्यापन भूली-सी है। घर से बाहर पांव रखते ही हर समय धड़धड़ी मची रहती है, मानो एक जोड़ी आंखें उसे लगातार घूरे जा रही हों। यह ख्याल आते ही उसने अपना खोपा ठीक किया। कांधे पर साड़ी के गठान को कसा। चारों ओर नजर डाली और ओगाय हो गई। स्टैंड की ओर साइकिल ठेलती ‘कनेर’ पास आ गई थी।
-कसन होली तूचो कागज पुरान? (कैसा गया परचा?) कनेर ने पूछा
-जसन तूचो होली! (जैसा तेरा!)
-जैसा जाना था चला गया। मुझे कौन सा मास्टरनी बनना है? हम तो भैय्या मस्त बिहाव करेंगे! कनेर ताली बजाकर हँसने लगी।
दोनों डिमरापाल से मोरटपाल गांव की धूल भरी पगडंडियों पर साइकिल ओड़गोड़ने (खींचने) लगी। आखिर घर तो मोरटपाल गांव में है न! डिमरापाल आश्रम के दोनों ओर घनी अमरइय्या है। आस-पास टपरी, ठेले और पेड़ों की डालों पर पुरानी साड़ियों को अरझा कर बनी टपरीनुमा दुकानें। इन्हीं के आसपास के गांवों में लेका मन (लड़कों) के ठीहे, जो अभी-अभी जुवान हुए हैं। उनकी अभी-अभी मसें भीगी हैं। और कुछ की भीग चुकी हैं। नया-नया इश्क? जैसे कोई गांव नया-नया शहर बनने के लिए मरा जा रहा हो! और बन गया हो कस्बा। कुछ लेका-लेकी परचे के बहाने अपने-अपने जाख (सामान) बोहड़ा (वापस) रहे थे। पेन, विद्यापत्त जो परीक्षा भर अभिमंत्रित हो।
सेवती की आंखों में सोनारू का चेहरा सरईपत्ता-सा डोलने लगा। उसकी बातें याद करते गाल चिम्मनायल (एकदम) लाल हो जाती है। कल वह सोनार पाल जाएगी। वह दीदी के घर घन-घन (बार-बार) बहाना करके आएगा। कभी वह नानी असलन पिला (छोटे बच्चे) के कान में कुछ बोलेगा और पिला बेगम-बेगम पुकारेगा। भाटो (जीजा) भी उसका नाम ले-लेकर चिढ़ाएंगे। सोनारू…. सोनारू…
सेवती इसी चिरिक-चारक (उधेड़बुन) में साइकिल को पैडल मारकर फुसफुसाई।
कनेर बोली सेवती हांदे गंधरु…! (वो देखो गंधरू)!
महुआ के खिले फूल-सा सेवती का चेहरा अचानक ओसक (पिचक) गया।
कोन बाटे (किधर)?
सेवती आंख बंद करके बड़बड़ाई- गिद्ध जैसा मंडराते रहता है।
कनेर हँसी दबाकर कहने लगी- कोन जाने उसको देख कर ही तेरे सारे काज संगरते हैं?
-उसको देखे मोचो पनही (मेरी जूती)! हां कैसे तेरी साइकिल को टोकनी में ककवा (कंधा) बंधा रूमाल छोड़ गया था?
-ककवा में बाघ उकेरा गया है मतलब वह बाघ गोत्र का है और तू सिंहनी।
-ओगाय रह। (चुप रह)।
कनेर पट-पट फुटु-फुटले असन (मशरूम उगने सा) बोलती गई।
-रूमाल, ककवे का मतलब समझती है ना? या फिर ग्यारह किलास पढ़ने के बाद तू मोरटपालिया नहीं रहेगी या फिर वो माड़पालिया नहीं रहेगा? रूमाल-ककवे का लेनदेन समझती है ना?
-सेवती बोली- हां! तू जा ना उस जुरुलो रुख (वृद्ध पेड़) से तेरा कांडाबारा (बिहाव) हो जाएगा। बंधे तो रहते हैं उस पर रंग-बिरंगे रूमाल और इनको बेचने वाला बैठा रहता है कुकुरमुंहा…। बड़े शान से तो इतरा-इतरा कर तूने रूमाल लिया था। अब बोल!
कनेर कहां हार मानने वाली थी?
-हां-हां क्यों नहीं! हमको कोई शहरिया थोड़े ही चाहिए जो फटफटी में गली-गली घुमाता फिरे।
सेवती का मन नंदी चो पूरा (बाढ़) की तरह उफन रहा था। वह खुद हैरान थी। ऐसा भाव किसी के लिए नहीं आया था पहले। अभी दोपहर ही थी, पर अचानक से धूल भरी हवाएँ चलने लगीं। अंधड़ की आशंका थी। वह आती ही थी, बौर से लदे आम के पेड़ों से उसकी दुश्मनी जो थी! ये अंधड़ जब तक आम के सारे बौर को जमीन की धूल से सान नहीं लेती, तब तक इस अंधड़ और आम के बौरों का कलडब (लड़ाई) तो खत्म होने से रहा।
बारिश, आंधी आ रही है। हवा पांवजोरी कर रही है, तो पैडल कैसे तेज चलेगी! पर सेवती को दूसरी चिंता खाए जा रही थी- कनेर, देख तो गंधरू आ रहा है क्या?
-तू ही देख ले ना।
-उसका चेहरा देखकर तो मुझे लाड़ आने लगा है, कनेर हँसी। कनेर को चिढ़ाने में ही मजा आता था- इतना भी घिनघिन नहीं है। इतने बड़े बालों का साफा है उसके सिर पर।
सेवती, वो धंगड़ा ‘बस्तर नरेश’ बनकर जहां पाए वहां अपने लंगर-लश्कर के साथ घूमता रहता है। तालाब किनारे बैठकर बीड़ी, सल्फी पीता है। और रात दिन पान चगलता है। हर नाट-परब में पूरी रात नाचता है। कनेर अपनी रौ में कहती गई।
-कांही बले होये। (कुछ भी हो) पूरा मोरटपाल उसके आने से बिलवा गुड़ की महक सा गमक रहा है। माड़पाल से आया है मुखिया के गन्ने के खेत की रखवाली भी कर रहा है। देखा है सबने! सेवती ने चिढ़कर जवाब दिया।
-दिन रात सल्फी पीता है।
-तो कौन नही पीता? यह कोई नशा थोड़े ना है, यह तो बस्तर बीयर है।
कनेर कहने लगी, तेरे घर में भी दस पेड़ हैं सल्फी के शहरियों की फटफटी भी आती है सल्फी लेने। फेर चेगली महादेव के देब (भयंकर गुस्सा)।
सेवती को आग लग गई!
-तू क्यूं उसकी बाट (ओर) से बात करती है?
-तो तू क्यूं उससे कलड़ब (लड़ाई) करती है?
-कभी तुझे कुछ कहता है क्या?
सेवती चुप हो गई। सेवती को सिखाया गया था कि भीतर की बात बाहर वालों को नहीं बताई जाती।
-बोड़ा निकला नहीं कि पूरे जंगल को खबर हो गई। इसलिए ककवा बंधा रूमाल वाला किस्सा सेवती ने मन में दबा लिया।
-ज्यादा डगराने (खोजी बनने) की कोशिश मत कर। बोलता नहीं तो क्या हुआ? घनघन घूरता है।
सेवती को चिढ़ते देख कनेर को और मजा आ रहा था।
-अच्छा वह सोनारू, वही तेरी दीदी के गांव का? जब वह घूरता है तो कैसा लगता है? बस्तर के गोंचा-तिहार में कैसे तेरे आगे-पीछे होकर फन्नस हुआ (पका कटहल वाला) दोना पकड़ा रहा था।
-चुप्प। कहां वो, कहां ये? आगे किरकोंय- कीरिच मत करना मेरे साथ समझी!
कनेर ताड़ गई। नंदी चो पूरा चेगली (पानी सिर से ऊपर है)।
-हां ठीक है बाबा। मैं तो ठेगला-मस्की (मजाक) कर रही थी। गंधरू है ही नहीं।
-तूके बाघ धरे। (तूझे शेर खा जाए)।
परचा होने तक वनोपज इकट्ठा न कर पाने का मलाल था। सेवती ने सोचा कि वापसी में कुछ बोड़ा फुटु महुआ इकट्ठा करके ही घर वापस जाएगी।
-मैं जा रही हूँ, तू आती रहना।
सेवती साइकिल किनारे खड़ी कर, परिचित पेड़ पर अरझा कर रखे गए गप्पा (बड़ी टोकनी) को रखकर पगडंडी के रास्ते बहुत दूर निकल गई।
मन खिंडिक जुरली (शांत हुआ), तो कनेर का खयाल आया। वह नहीं दिखी। घर पहुंच कर अगली मड़ई की तैयारी करनी थी। पिटपिटिया बारिश हो रही थी जो सेवती को झिमिर झिमिर भीगो रही थी। अगर जंगल में और थोड़ी देर रुकी तो घर पहुंचने में शाम हो जाएगी।
तेज धूप के बाद जब बारिश होती है तभी सरई रुख के नीचे से बोड़ा (कंद) फूटता है। मड़ई में इसे बेच कर अच्छे दाम मिल जाएंगे। इसी लालच में वह उलझ गई। बोड़ा इतनी आसानी से मिलता है क्या? धरती को असह्य प्रसव पीड़ा झेलनी होती है ! तब जाकर यह गर्भ से बाहर आता है। वह भी सेवती जैसे दक्ष कुशल ‘नैसर्गिक सर्जन’ बस्तर–बालाओं की सर्जरी से। ये कडरी (चाकू) से जमीन को इतनी नफासत से कुरेदते हैं कि नवजात बोड़ा को खरोंच तक ना लगे। नवजात गर्भनाल से लिपटा होता है और ये बोड़ा गर्भ–माटी से सने होते हैं।
जरा जल्दी झटपट चलेगी और ढलान से सरपट उतरेगी तो घर जल्दी पहुंच जाएगी। यह सोच कर उसने अपने कदम चिरिक-चारक (झटपट) बढ़ा दिए। अगर कोई नौसिखिया इन रास्तों से उतरेगा तो लुढ़क ही जाएगा। यह तो बस्तर का जनमानस है जो जंगल के चप्पे-चप्पे रास्तों पर बखूबी चल लेते हैं। इनके पैरों में कभी ना छूटे ऐसा मुरुम का ‘ललवा आलता’ ही इस बात का प्रमाण है। बारिश से उपजा कीचड़ था। पगडंडियों पर पैर जमाना कठिन हो रहा था। गांव पहुंच रास्ते के दोनों ओर गन्ने के मीनारकद फसल लहलहा रहे थे।
सेवती जरा सा आशंकित हो चली। आसपास कोई नहीं था। और गन्ने की मीनारकद फसल के बीच कोई हो तो भी दिखाई नहीं देगा। वह खुद को कोस रही थी कि क्यों कनेर का साथ छोड़ आई। बारिश में लगभग वह भीग चुकी थी। सरईपाना को अपने सिर पर रख कर बचने का असफल प्रयास करने लगी। खोपे (जूड़े) में खोंचे रंगीन फीतों से भी पानी रीस रहा था। पूरी काया, चेहरा बारिश से धुल चुका था। बस गोदने के टापे ढुड्डी नाक पर लकलका रहे थे। ये गोदने के टप्पे मानो बारिश से भीगे जंगल में जुगनुओं की तरह चमक रहे हों।
सेवती हारकर खेत के पास मचान के नीचे रुक गई। मचान के पटाव में तुमा (लौकी का पात्र), पिुड़या, छत्तोड़ी (बांस की छतरी) अरझी थी। और एक तरफ टूटिल रच-रच करती निसेनी (चारपायी)। जिसमें इतने झोल थे कि वह लेटने वाले व्यक्ति के मास के फूंदड़े बना दे। सेवती के खोपे से पानी चू रहा था। गप्पा भी भीग चुका था। बरकी (साड़ी) को निचोड़ कर फटकारा फिर सीने पर फैलाकर निसेनी में बैठ गई।
अचानक आहट-सी महसूस हुई। जैसे ठीक उसके पीछे कोई खड़ा हो। एक झटके से पीछे पलटी। गंधरू दोनों हाथो को कांख में दबाए खड़ा था। छह फुटिया कद, बांह की मछरियां, फड़कती हुई मचल रही थी। धूप में रहने के कारण तांबई त्वचा। पूरे चेहरे पर पानी की बूंद। ऐसा लग रहा था मानो किसी देवपात्र में तुलसी मिश्रित जल हो। गंधरू उसको टकटकी लगाए देख रहा था। उसके कानों में मोहरी बाजा-सा बजने लगा। गंधरू आगे बढ़कर सेवती के पास आ गया। उसके नाम अनुरूप उसकी सांसों में सल्फी की हल्की सी गंध थी।
सेवती के पांवों की हालत ऐसी थी जैसे कि असंख्य चापड़ा (चिटियों) से भरा दोना किसी ने उलट दिया हो। अकेली इस बियाबान में अकेली निसेनी पर एक नशेड़ी के करीब…। वह बुलक कर निकलना चाह रही थी कि गंधरू ने हाथ बढ़ाकर रास्ता रोक लिया।
-मोचा ककवा-रूमाल चो जवाब देस। (मेरे ककवा-रूमाल का जवाब दे)
-मेरा रास्ता छोड़।
-गोटेक दांव मोचो नांव धर महकू। (एक बार मेरा नाम पुकार महकू)
-नी धरुआंय! (नहीं बोलूंगी) तुई मोके गधरुच्च लागू आस! (तू मुझे बदबूदार ही लगता है।) गंधरू… गंध, सुगंध से दूर… गंधरू… रु. झापड़ा। (जुल्फों वाला)
-कडरी मारुन टांगरी होंयले। (चाकू से सिर मुंडा लूं तब!)
-तो भी नहीं! तुई मतवार आस। (तू पियक्कड़ है।)।
-नाट, परब, जात्रा में भी पीना छोड़ दूं तब!
-तू निठल्ला है।
-गन्ने की खेतों की रखवाली वाला काम बढ़ा दूं तब। पूरे बस्तर में मेरे से बढ़िया दमदार ईमानदार रखवाला कौन है? बता दे मुझ माडपालिया के टक्कर का है क्या कोई?
सेवती बोली- टुड़बुड़ी बाजा, मोहरी बजा कर मुनादी करवाऊं क्या? कि तुई मोके फूटे आंईख नी भाऊआस। (मुझे फूटी आंख भी नहीं सुहाता)
गंधरू ने अपनी आंखें सेवती के चेहरे पर गड़ा दी।
-तुई मोहनी डार देलीस लेकी! (तूने मोहनी डाल दिया है लड़की!) तुके देखबा काजे मन करुआय। (तुझे देखने का मन करता है।)
-काय काजे (क्यों?) मैं काय सरग-तारा आसें। (क्या मैं स्वर्ग की अप्सरा हूँ?)
-नहीं, तू मेरे लिए पूरी भुंई (पृथ्वी) है।
भावुकतावश गंधरू की आवाज लरजने लगी। जैसे तीरथगढ़ की जलधारा हल्की सी रुकावट के बाद पूरे वेग से बहने-झरने को आतुर हो। गंधरू ने सेवती के हाथों में पुनः ककवा-रूमाल रख याचक की तरह देखा। कसकर हाथों को पकड़ लिया- मैं तेरी पसंद के सब काम करूंगा! तुझे रानी बनाकर रखूंगा!
-ओहो! माड़पाल का राजा! घर में नी आय परसा पाना, तुरही बजाऊन रानी के आना! घर में दोना-पत्तल नहीं है और तुरही (वाद्ययंत्र) बजा कर रानी लाएगा!
सेवती ने खुद को दूर किया। पथरा कचाड़े असन (पत्थर पटकने से) सख्त लहजे में कहा- दूर हट…।
अपनी जान का दुश्मन खुद मत बना! बाबा को पता चलेगा तो चामड़ा छोल देंगे! मोरटपालिया जो हैं। बोटी-बोटी काटकर सुक्सी (सूखी मछली) जैसे डामर की सड़क पर सुखा देंगे।
-नहीं छोड़ूंगा, जा बता दे! मैं नहीं डरता!
खुद को छुड़वाने के चक्कर में सेवती का खोपा खुल गया और उसके बाल उसके चेहरे पर बगर गए। कीचड़ भरी भुंई में पैर फिसलने से ही गिरती सेवती को थामने के प्रयास में दोनों कीचड़ में गुत्थम गुत्था होकर लुढ़क पड़े। एक रंग के हो गए दोनों। कीचड़ से सनी एक जैसी दोनों की देह। सेवती की देह से झरती कीचड़ टप–टप गंधरू की देह तक।
आवेश एक ही क्षण का था। दूसरे ही क्षण होश में आते ही गंधरू माफी मांगने लगा। सेवती की थरथरी बंध गई। महुआ के फूल-सा चेहरा अब टेसू-सा दहकने लगा। अपमान की पीड़ा ततैया काटे सरीखे से जलन दे रही थी। अप्रत्याशित घटना के अतिरेक में उसकी आंखों से पानी झरने लगा। आग बरसने लगी।
-दुर्र-र्र… लेका…. थूकती हूँ तुझ पर
और सच में सेवती ने घृणा से, हताशा से उपजे भाव से उस पर थूक दिया। सल्फी रुख (सल्फी पेड़) के तने के समान सेवती की पिंडलिया थामकर गंधरू रूंधे स्वर में गिड़गिड़ाया।
-मारू आस आले मारून देस! (मारना है तो मार दे।)
सेवती ने अपने पैर से जोर से धक्का दिया, दूर… र्र… तुई नानी लोकटी के छाता के दावलीस। (तू ने मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ा!)
गंधरू को वैसे ही छोड़कर सेवती चली गई पैर पटकते-पटकते…।
महीनों से संत्रास में थी सेवती। अब वह बोड़ा फूटला असन (कंद निकलने जैसा)। बाहर आ गया था। अब तो नंदी चो पूरा चेगली। (बाढ़ का पानी सिर दे ऊपर आ गया)
अब अगर यह घुटन नहीं निकली तो तन पाकलो करेला (पका करेले सा) सा चटक नहीं जाएगा?
उसे शहर जाना है। कितने सुंदर-सुंदर कपड़े, बेलाऊज (ब्लाऊज) मिलते हैं। शहर के घर मोटेल, फटफटी, कितने सुंदर। यह सब उसे चाहिए। लेकिन बिना गलती के एक। खरधूसरा के कारण आया-बाबा उसकी खुशियां नोंच लेंगे। गए साल से उसके बिहाव की बात चल रही थी। नारायणपुर के घोटुल में उसे चेलकीन के रूप में भेजे जाने की तैयारी चल रही थी। वहां सोनारू भी चेलक रहेगा। फिर घोटुल परंपरा के अनुसार कड़े सामाजिक प्रशिक्षण के बाद उनका बिहाव हो जाएगा। फिर वह घोटुल की परधान चेलकीन बना दी जाएगी आजीवन। उसके शहर जाने का सपना धरा का धरा रह जाएगा। उसके पास कडरी (चाकू) होता तो वह उसी क्षण गंधरू का टोडरा (गला) काट देती।
बदहवासी में घर पहुंच कर गप्पा जमीन पर पटका, बेवजह बत्तख को दौड़ाया। गाछ से बात नहीं की और निसेनी में गिर कर गागने (रोने) लगी।
-काय होला काये काजे गागसीस?(क्या हुआ)। बाबा बीड़ी सुलगा रहे थे। बीड़ी नीचे गिर पड़ी। सेवती का रूदन कलेजा ऊछर रहा था। बाबा आए। -किसी ने कुछ कहा तुमसे? बस एक बार उसका नाम बता दे!
सेवती दिलासा पाकर जोर-जोर से रोने लगी। बोली- सोनारू के घर वालों को हां बोल दो।
सब हैरान। कलीच्च तो सेवती झगड़ी थी कि नहीं जाना है घोटुल। नहीं बनना है चेलकीन। अगर ससुराल भेजा तो माटी कीरिया (धरती कसम)! कभी इस गांव में नहीं आऊंगी।
कब तक टीस सहती! सेवती गोदना गोदने से उपजे दर्द-सा वाकया उसके मन में आजीवन गोदने के टप्पे-सा अंकित हो रहा था। मरने के बाद भी छाप देह से छूटेगी नहीं। परलोक तक जाएगी!
रोते-कलपते उसने घटना सुना दी। धंगड़ा, राकस सरपंच का भतीजा है तो क्या हुआ?
कोलिया (सियार) निकला। बारिश हुई नहीं कि शादी के लिए मटमटा गया।
बाबा पूछने लगे, तू अकेली जंगल खेत क्यों गई थी? सेवती मरलो असन होली। (मरणासन्न हो गई!)
यहां अपनी बात करने से तो अच्छा था कि चितरकोट में कूद कर जान दे देती!
उधर कोठार में बाबा, आयतू, सोनाघर सलाह हुई। टंकिया (कुल्हाड़ी) ले कर निकल पड़े। आज तो उसको पुज्ज देंगे! (मार देंगे!) हाड़ा-गोड़ा तोड़ देंगे! सेवती कल से तू बाहर नही निकलेगी। गिरे हुए महुआ फूल-सी सेवती चुपचाप पड़ी थी।
आया बड़बड़ा रही थी- पिछले बरिस फागुन मड़ई में घोटुल भेज देते तो ठीक रहता। वहीं रहती चेलकीन बन कर। सोनारू के गांव तक बात पहुंच गई होगी क्या?
अगले दिन एक लेका (लड़का) आकर कहने लगा- सेवती के उताय हाग देवे सोत। (सेवती को वहां बुला रहे हैं।) सरपंच ने बुलवाया है। ये लेका गंधरू के साथ दिखता था।
आया बड़बड़ाई, धंगड़ी लेकी चो काय काम? (जवान लड़की का वहां क्या काम?) जम्माय झन चो सामने। (सबके सामने।)
-पूछा-पूरा होये दे! (सच-झूठ पूछा जाएगा!) लेका जुरलो तोरई असन बोल्ला। (लड़का ऐंठ कर बोला)
सेवती की आंखें रो–रो कर सूज गई थीं। हल्का ताप चढ़ गया था। सरपंच के घर के सामने तेतर सूरज (इमली पेड़) के नीचे भीड़ जुटी थी। सेवती को देख भीड़ में कनबतिया होने लगी। सेवती की आंखें ऊपर नहीं उठीं। उसका क्या कुसूर? उसका मन हुआ कि वह पहाड़ी की चोटी पर आंगा–देव के गुड़ी में जाकर वहीं से केशकाल की घाटी में कूद जाए। दो जन के साथ फेंटा बांधकर सरपंच बाहर आ रहे थे। उसके पीछे दो जने बुरी तरह जख्मी, गंधरु को सहारा दिए खड़े थे।
उस पर नजर पड़ते ही सेवती पर महादेव का देव (आक्रोश) चढ़ने लगा। भीड़ गंधरू की बोटी-बोटी करने को आतुर। गंधरू ठहरा दूसरे गांव का माडपालिया।
-आले होली बे। (बस हो गया)। मार ही डालेंगे क्या? नासमझ है पर अब समझ गया है। फिर ऐसी गलती नहीं करेगा।
सेवती को देव चघला (गुस्सा चढ़ा)- सरपंच इतरो आसे आसे तो तुचो लेकी देऊन देस! (इतना है तो अपनी लड़की दे-दो)
सरपंच को सेवती के बोल बबूल के कांटों से चुभ गए।
-छोटे-बड़े का लिहाज नहीं है? सरपंच ने प्रतिघात किया। सेवती को पास बुलाकर कान में फुसफुसा कर बोले। बिना तेरी रजामंदी के तो गंधरू ऐसा नहीं कर सकता!
-सबको बता क्या हुआ?
सेवती की आवाज भर्रा गई। यह सरपंच का लंपट भतीजा है तो मैं भी मोरटपाल चो लेकी आसे। (मोरटपाल की लड़की हूँ मैं।)
-मेरे साथ जो हुआ वो तो यही बताएगा। सरपंच इसी ताक में था। बजरिया पान होंठो में चगलता सल्फी के सुरूर में इतराता गंधरू से कहने लगा- बता दे सबको क्या हुआ था! जंगल में अकेले तेरे पास सेवती क्या करने गई थी?
गंधरू ने सेवती की ओर देखा और अपना सिर झुका लिया। सेवती मेरे पास नहीं आई थी।
सेवती ने घूरकर सरपंच से कहा- हो गई तसल्ली!
अब सरपंच को कुछ कहते नहीं बना। आंख मूंदकर कहने लगा- जा करेले अपने मन की!
फिर क्या था? रणचंडी बन कर सेवती ने पास से ही तेतर सूटी (इमली की छड़ी) लेकर गंधरू पर ताबड़तोड़ बरसाने लगी। पर गंधरू चुप था। पिटता गया। कोई गुहार नहीं लगाई। पीटते-पीटते सेवती हांफ गई। रोने लगी। गंधरू सचमुच माडपालिया निकला। ये स्वामीभक्त तो होते ही हैं। पर यह सेवती भक्त निकला। उफ्फ तक नहीं की।
बदनतोड़ मार खाने के बाद जो लेका कांपा न था, सेवती को रोते देख उसकी आंखों में पानी भर आया।
सरपंच ने कहा- अभी भी समय है। माफी मांग ले। सेवती को बहन बोल दे!
गंधरू बोला- मैं माफी मांगता हूँ। पर सेवती मेरी बहन नहीं है!
सांझ घनी हो गई थी। तय हुआ कि फैसला कल होगा।
कल आमुस की रात थी। आज बारिश होने के बाद बादल साफ थे। चांदनी झर रही थी। पूरे गन्ने के खेत में चांदनी ऐसी बिखरी थी मानो सफेद बरकी (साड़ी) पहन कर खेत चेलकीन बन गया हो। मगर शाम ढलते ही सेवती का मन कलड़व हो रहा था, तालाब में पानी भरते समय जरमन की गंज कैसे बुड़बुड़ करती है! पानी के भीतर जाते हैं, वैसे ही किसी अचीन्हे दुख-द्रव से सेवती का मन तर हुआ जा रहा था।
सेवती ने पेज भी नही पिया। अच्छा नहीं लग रहा है, कह कर सोने की कोशिश करने लगी। गांव में गन्ने के खेतों में विचरते लेका-लेकी के टोलियों के लोकगीत गूंजने लगे- राने जावां राने जांवा हो… गेंदा फूल राने जावां हो…
सारी घटना उसकी आंखों के सामने घूमने लगी। उसका कलाई पकड़ना, रूमाल-ककवा देना, अपनेपन से लबरेज मनुहार, मचलकर उसका पैर थाम लेना। कैसा पागल है? उफ्फ…। शरीर में बिजली-सी दौड़ पड़ी। अब बिछौने पर बने रहना असहनीय हो गया था। घंटों से भूखे-प्यासे गंधरू ने कितनी मार खाई होगी! बिहाने ना जाने उसका क्या हाल होगा। कहीं मर गया तो सारा पाप उस पर लगेगा। पूरे गांव को बकरा भात खिलाना, सल्फी पिलाना, करिया-कुकरी की बलि देना। और न जाने क्या-क्या?
सेवती भीतर के उफान को दबा न सकी तो ओसारे में आ गई। रात की चांदनी में तोरई नार भी लरज-लरज कर सेवती को देखे जा रही थी, कुछ पूछ रही थी। जाने क्या हो गया उसे आधी रात को? चांदनी और बुकबुका उठ्ठी।
अंजोर, कैसा अंजोर? बाहर या भीतर? उसकी हालत से बेखबर पूरा घर सोया पड़ा था। कोठार में पडरू ऊंघ रहे थे। उसके भीतर क्या घट रहा था? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था!
कोई अजपा-जाप करके उसने खोह में रखी चिमनी उठाई और रांधा-खोली (रसोई) में आ गई। तुमा में मड़िया पेज, सुक्सी चिंगड़ी मछली और कडरी (चाकू) कांख में दबा लिया। ऊपर बांस की छप्पर के पटाव में खोंचे गए मुड़े-तुड़े नोट निकाल कर कान में खोंच लिया। दाएं कान में मिरी (मिर्च) खोंस लिया। धड़कते मन से ओसार पार किया। ओसारे की भीत के सहारे तोरई नार अठल-मठल कर रहे थे। उसने चूल्हे में दबे कोयले का दक-दक टुकड़ा छेना (कंडा) में दबा कर रख लिया। क्या पता यह आग वह कंडे के भीतर सहेज रही थी या अपने भीतर?
फाटक की अरझी डोरी खोलते समय हाथ कांप रहे थे। मन पाक लो पन्नसकुआ (पके कटहल) सा हो रहा था! झिंगूर की, पंडकी की आवाज! अगर किसी ने देख लिया तो?
डरते हुए हाथों से खोपे (जूड़े) को टटोला। ककवा (कंधा) खोंचाया है कि नहीं? कमर में रूमाल खोंस कर लंबे पर न बजने वाले डग भरते वह चौराहे पर जा पहुंची।
बड़े बरगद तले गंधरू को पशु बांधने वाले रस्सी से कस कर बांधा गया था। वह आंईख के लिमटून (आंख मूंद कर) पड़ा था। ख़ूनमखून माथे पर रूमाल की पट्टी बंधी थी। होंठ से खून बह रहा था। खून की लाल लकीर उसके वृषभ स्कंधा छाती से नीचे बह रही थी मानो दंतेवाड़ा की शंकनी–डंकनी (नदियां) हों! सेवती ने चिमनी की रोशनी उसके चेहरे पर डाली।
-कौन?
-मैं हूँ। सेवती ने चेहरे से बरकी हटा कर कहा। अपने सामने सेवती को पाकर गंधरू लपझप पलक झपकने लगा। डूबती आवाज में कहा- बीच बेरा मोचो जीव काजे। आसली आस काय। (आधी रात क्या मेरी जान लेने आई है?)
-नहीं।
-तूचो जीव के जीव देबा काजे। (तुम्हारी जान बख़्शने)
-मोचो जीव तो तुई आस! (मेरी जान तो तू है।)
-इतरो मार खायले बले तूचो भूतनी उतरली) (इतना मार खाने के बाद भी भूत नही उतरा है।)
-भूत नी आये गोटेक परेतींन आसे। (भूत नहीं एक परेतिन है।) गंधरू सेवती की आंख में आंख डालकर मुस्कराया।
-एक कोरी (बीस) ने मिलकर मुझे मारा है। एक बार हाथ खोल कर दिखाते। मैं अकेले ही उनसे भिड़ जाता।
-इतरो बल आसे तो काय काजे बस्तर बटालियन छाड़ून परायलीस? (इतना बहादुर था तो बस्तर बटालियन बीच में छोड़कर क्यों भाग आया?)
-मैं तो तेरे लिए जन्मा हूँ। लड़ने के लिए नहीं।
सेवती ओगाय (चुप) रही। फिर पेड़ के पीछे जाकर कड़री से बंधन काटने लगी।
-तेरे को आजाद कर रही हूँ। जा परा… झटके परा… (जा भाग जा… भाग जा…) दुबारा इधर नहीं आना। नहीं तो कडरी से तेरी जान ले लूंगी।
-तुई बले पराऊ आस मोचो संग? (तू भागेगी मेरे साथ?) गंधरू फीकी हँसी हँसा।
-तुई बहिया होलीस लेका। (तू पागल हो गया है लड़का)
-हव तूचो पाछे… (हां तेरे पीछे!) मैं तुझसे सुबह पूछता हूँ तो तू शाम बोलती है!
-तेरे पयरर्रे बात में मैं नहीं पड़ती जा! तेरे साथ मैं क्यूं मटमटाऊं? जा रही हूँ कल। घोटुल चली जाऊंगी!
गंधरू भारी गले से कहने लगा- खिंडिक थेब। (थोड़ा रुक।) आपलो इज्जत धरुन मोचो काजे पेज आनलीज। (अपनी इज्जत दांव में रख मेरे लिए खाना पेज देवे आई हो।)
-तेरी हाय ना लगे इसलिए।
गंधरू गट-गट पेज पीने लगा। पेज सकनाड़ा (गले) से घट-घट छाती तक जा रही थी। पसलियां फड़क रही थीं।
सेवती का मन पिघलने लगा! उसके व्यक्तित्व की पंखुड़ियां खिलने लगीं!
-तूके डर नी लागे? (तुझे डर नहीं लगता?) पेज (तरल) में धतूरा मिला हो तो तू मर जाएगा!
-मैं तो तुझे देखकर रोज मरता हूँ। यह सुनकर सेवती का चेहरा केंवरी फन्नस (नरम कटहल) सा हो गया।
-पता है बिहाने क्या होगा?
-जो भी हो! गंधरू ने तीरथगढ़ की बेफिक्र पानी के अंदाज में उत्तर दिया।
-सुबह अभी दूर है। और अभी तू और तेरा अंजोर मेरे पास है!
-झूठ मत समझ! नड़गा बाजा संग तूंचो जुलूस निकरे दे। (बाजा के साथ तेरा जुलूस निकलेगा!)
-अच्छा है ना तूके नंगदद लागे दे! (अच्छा लगेगा तुझे) जब तेरे घर के सामने से निकलूंगा तब मेरा दिया ककवा (कंधा) तोड़कर मेरे मुंह पर मार देना और रूमाल से मेरा गला घोंट देना।
सेवती झन्ना गई-
जा मर… तू चो उपरे देव चेगली से। (जा मर तेरे ऊपर देव चढ़ा है।)
-उसे कौन उतार सकता है? मोचो भाग-लेखनी तुई मेटे के सकुआस। (मेरे भाग्य का लिखा तू ही मिटा सकती है।) गंधरू ने भारी मन और नम आंखों से कहा।
सेवती का मन लाहुन-लाहुन सरई पाना (नरम सरई पत्ते सा) होने लगा। उसने मुट्ठी में दबा नोट गंधरू की हथेली में रख दिया।
-फागुन मड़ई के बाद मेरा लगिन है। लड़का मेरे मन का है। मैं चेलकीन बनूंगी, ठाठ से रहूंगी। रुपये रख और भाग जा, कहकर सेवती पलटी।
पंडकी चिड़िया को जैसे अचानक तीर आ लगा हो, वैसे ही गंधरू निढाल होकर गिर पड़ा।
-अब निकलेगा मेरा जुलूस, नड़गा बाजा के साथ! उसकी आवाज फटलो बांस (दरकी हुई बांस) सी होने लगी।
-तुचो मुंडी कीरिया। (तेरे सिर की कसम) मैं कहीं नही जाऊंगा। कहीं नही भागूंगा।
सेवती ऐसे चल रही थी, जैसे कोई उसे ढकेल रहा हो। मन और चरण के बीच द्वंद्व। गंधरू उसे बिना किसी उम्मीद के अपलक निहार रहा था। अचानक उसने देखा सेवती वापस पलट रही है। उसके कदम सुस्त… फिर तेज…. और तेज हो गए।
गंधरू के निकट आकर सेवती ने उसका हाथ कसकर अपने हाथ में थाम लिया। दोनों की कलाइयों में रूमाल बांध लिया, जो कभी गंधरू ने दिया था।
-जो कोन बाटे जीबा आय। (चलो कहां चलना है)
सुबह खोजी का खोज मच जाएगा। गंधरू ने बेयकीनी से सेवती को देखा। उसकी धड़कन तेज हो गई। सेवती के दाएं हाथ में ककवा था।
जाने उसे कौन सी मनचाही वस्तु मिल गई हो! जुरलो मुंह जुगनु होली। (उदास चेहरा खिल उठा)। ककवा उसने सेवती के खोपे (जूड़े) मे खोंच दिया। सबेरे पहली मेटाडोर चार बजे आएगी गन्ना लेने। दोनों घोटुल जाने वाले रास्ते पर दौड़ने लगे।
दौड़ते-दौड़ते गंधरू को कुछ याद आया। तूचो हुन शहरिया? (तेरा वो शहरिया?)
शहर जाने का सपना?
सेवती ने कुछ कहा नहीं, लेकिन गंधरू साफ-साफ देख रहा था कि सेवती ने उसके दिए गए ककवे को कसकर अच्छी तरह अपने खोपे में खोंचा है। रूमाल की कसावट हथेलियों पर बढ़ती गई… बढ़ती गई…।
संपर्क सूत्र : 116, सोनिया कुंज, देशबंधु प्रेस के सामने, रायपुर, मो.9301836811
कैशोर्य प्रेम की अप्रतिम कथा है।बस्तर की मिट्टी की गंध है ,बस्तर की बोली और संस्कृति कथा में बहुत शानदार ढंग से गुम्फित है। कहानी के नायक और नायिका के चरित्र सरल और निर्मल है ,यहाँ प्रवाहित होने वाली नदियों की तरह।