चर्चित कवि। संप्रति बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर में सहायक प्राध्यापक। अभीअभी जनमा है कवि’, ‘चाँद में अटकी पतंगऔर दिव्य कैदखाने में’ (कविता संग्रह)मल्लू मठफोड़वा’ (उपन्यास), ‘रचना और रचनाकार’ (आलोचना)कसौटी’ (अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका) के विशेष संपादनसहयोगी।

तुम्हारे बच्चे जीवित रहें

इस निस्तब्ध रात में
कोई बच्चा रो रहा है
मेरे सीने पर
सिर पटक रहा
पछुआ के सूखे स्तनों से चिपका
उसका विलाप

कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा
कहीं मुझे भ्रम तो नहीं हो रहा
अक्सर बिल्लियां भी रोती हैं
बच्चों की तरह

अब तो बाजार में
ऐसा हॉर्न मिलने लगा है
जिसे बजाओ
तो सुनाई पड़ता है
बच्चे का बिलखना

ऐसा भी भ्रम
मत रचो हत्यारो
मत करो ऐसे अनर्थ की ईजाद
कि कहीं कोई बच्चा रोए
तो आदमी सोचे
किसी ने हॉर्न बजाया होगा

दादी कहती थी
अकाल मरे हुए बच्चे
रोते हैं रात के अंधेरे में
उनकी आत्माएं खोजती हैं
मां का आंचल

क्या तुम्हें सुनाई देती हैं
मरे हुए बच्चों की आवाजें
जिन्हें रोगों धमाकों आपदाओं ने मारा
हमने मारा
जन्म से पहले
और जन्म के बाद
हम हवस के मारों ने मारा जिन बच्चों को
जिनके खिलने से शरद, खिलखिलाने से वसंत
क्या तुम्हें सुनाई देती हैं
मरे हुए बच्चों की आवाजें
सुनो
रात की गहरी निस्तब्धता में
धीरे बहुत धीरे
तुम्हें सुनाई देगा उनका बिलखना
कभी गुजरो
उनकी गंड़ातियों के पास से
तुम्हारी देह सिहर उठेगी

ऐसे भी बच्चे
जिनकी मौत को
मिट्टी भी नसीब न हो सकी
वे फिरकियों की तरह नाच रहे थे
फुग्गों की तरह
आसमान में उड़ने को बेताब
जब उनके लिए आया मौत का सैलाब
वे सुबह के मलबे में शाम की रोटी तलाश रहे थे
जब उनपर बम गिराए गए
जब उनके घरों में आग लगाई गई
वे सोए थे खरगोश-टोपी पहने हुए
अपने ही आकार के तकियों की ओट में
जब आग बुझी
उनमें और तकियों में फर्क करना मुश्किल था
वे इतने अबोध थे
कि अपने जन्म लेने तक को नहीं जानते थे
और मरते वक्त
उन्हें बोध नहीं था
कि मर रहे हैं

वे कभी नहीं जान पाएंगे
ममता के उजड़ चुके नीड़ का अभाव
पेड़ जानते हैं
जिनकी मंजरियां झंझा में झड़ गई हैं
जिनके लिए वसंत
अब सिर्फ धूल है
और सारा ऋतुचक्र
चिलचिलाती मरीचिका
वे नदियां जानती हैं
जिनका जल सूख गया है
जिनकी गोद में हैं अब केवल
भंसी हुई नावें
और टूटी पतवारें

वे मांएं जानती हैं
जिनके सपनों में आते हैं
उनके मरे हुए बच्चे
जिन्हें गोद में लेकर
वे छाती से लगा भी नहीं पातीं
बस पागल की तरह
वे अपने प्राणपखेरुओं को
पकड़ने दौड़ती हैं
और अचानक
रात की निस्तब्धता में
सायरन की तरह गूंजता है
उनका चीत्कार

भीड़
और भगदड़ में बिछड़े बच्चे
फसादों में लापता बच्चे
कभी लौट भी आते हैं
कोई लौट आता है बरसों बाद
अपने बचपन की पगडंडियों को पहचानता हुआ
अपने मृत होने की मान्यता को
झूठ साबित करता हुआ
कहता है मैं अमुक शहर में था
भूल गया था घर का रास्ता
इतने साल
मैंने कहां-कहां खोजा, कितनी खाक छानी
मेरी धुंधली याद में
बस तेरा चेहरा था अम्मा

इतना जहर पीकर भी
मैं कभी नहीं भूला
तेरे आंचल की गंध
मैं तेरा ही बच्चा हूँ अम्मा
मेरे बाएं कंधे पर तिल है
तू जानती है न अम्मा
तेरी दाईं कलाई पर गोदना है
उस पर लिखा है बाबू का नाम
मुझे याद है अम्मा
ठगों
और तस्करों के चंगुल में फंसे बच्चे
कभी लौट भी आते हैं
पर तुम मर भी जाओ तो नहीं लौटते
मरे हुए बच्चे

तुम्हारे बच्चे जीवित रहें दोस्त
दुआ है
जब वे रोएं
तुम उन्हें सीने से लगा लो!

बारिश

बहुत देर से बिजली नहीं आई
नहीं आया टीवी का सिग्नल
वह मिस्त्री भी नहीं आया
जो चढ़ा खंभे पर
बिजली ठीक करने
अगर तुम्हारे लिए बारिश का मतलब
पकौड़े हैं
तो उन अभागों को तुम नहीं जानते
जिनकी टूटी छानियों
और भंसे चूल्हों के बीच
आग एक सपना है

तुम नहीं जानते
जिनकी फसलें डूब जाती हैं
उनके लिए क्या है बारिश का मतलब
वज्रपात में मृत लोगों के परिजन
क्या सोचते हैं
बारिश के बारे में

यही मौसम है जब बाढ़
कितनी सांसों और सपनों को
निगल जाती है
पानी आता दसों दिशाओं से हहाता
हर तरफ से
मृत्यु की विकराल बांहें बढ़ी चली आती हैं
जिस छप्पर को कद्दू की बेल भी
बोझ है
उसपर पनाह लेने वालों से पूछो
बारिश का अर्थ

देर से राहत नहीं आई
वह लड़का भी नहीं आया जो गया बेड़ा लाने
हर तरफ डूबने के दृश्य
नाक तक पहुंचा पानी और पीने को
चुल्लू भर नहीं
लाशें पहचान से परे और संख्या से बाहर
अन्न मवेशी रास्ते लोग सपने उम्मीदें
सबको निगलता
हजार फनों वाला फुफकारता नाग

जिस समय तुम कविताओं में
विरहिनियों का बहता काजल
देख रहे होते हो
उसी समय उठता है चक्रवात
और लापता हो जाती हैं नावें
फटते हैं बादल और बह जाते गांव के गांव

गई हुई बिजली लौट आती है
कुछ देर बाद
लौट आता है सिग्नल

गए हुए लोग
फिर नहीं लौटते!

सारंगिये

ऐसी अकथ कथा
क्यों गाते हो सारंगिये
ऐसा विकल बिछोह गाकर
क्यों हींड़ते हो
सबका कलेजा
मत गाओ सारंगिये

तुम्हारा गान सुनकर
बिलख-बिलख रोती है माई
आंचल से मुंह ढांप
रोती हैं
घर भर की औरतें

अपना महल
क्यों छोड़ आए सारंगिये
पटंबर उतारकर
क्यों धार लिया जोगी का चोला
क्यों छोड़ आए
मैनावती के
आंचल की छाँह
क्यों नहीं फटा तुम्हारा कलेजा
अपनी ही पाटमदेई से
मांगते हुए भिच्छा-
भिच्छा दे-दे, माई!

हरजाई
सारंगी बजाते हो
तो लगता है
कटार से चीरते हो अपना कलेजा

पतझड़ की
इस उचाट दोपहर में
दुख पसरा है चारों ओर
रुत घनघोर
मत गाओ ऐसा गान
जिससे फूटता है रुदन
मत लो ऐसा आलाप
जो उठता है
विलाप की तरह
जाओ सारंगिये
मेरा सोया हुआ विरह
मत जगाओ सारंगिये!

जब मेरी खुदकुशी की वजह लिखी जाए

जब मेरी खुदकुशी की वजह लिखी जाए
तो लिखा जाए कि ठीक से
न मैं संत हो सका न सांसारिक
लोग मुझ पर यकीन करते रहे
जबकि मैं खोता रहा खुद पर यकीन

मैं थाली का बैंगन था
चांदी का लोटा बेपेंदी का
लिखा जाए
मैं शर्मसार था अपने मिथ्याचार पर
अपनी कायरता को कविता से ढंकता हुआ
हो रहा था पुरस्कृत
और अपनी दमक में देख नहीं पा रहा था
मनुष्यता का तिरस्कार

लिखा जाए
दुखियों के देश में धन और धर्म के अश्लील
धारावाहिक दृश्यों के चलते
मैं लंबे समय से यंत्रणा में था
ऐसे नाटक का मूकदर्शक था
जिसके नायक थे खल और विदूषक
बरसों से देखा नहीं था
किसी किसान का चेहरा प्रत्यक्ष
नहीं जान पाया था मेहनतकश जीवन के घट्ठे

लिखा जाए
मैं खो चुका था अपने लोग अपनी भाषा
एक अजनबी देश में एक खोखली भाषा बोलता
महानता के लिए टपकाता लार
दुम हिलाता खटखटाता प्रभुओं के द्वार

मैं भटका हुआ जहाज था
किसी संत का रबाब बाजार में बिकाऊ

लिखा जाए मैं झूठ बोलकर जिंदा था
जिंदा था हत्यारे की विरुदावली गाकर
आंख मूंदकर थूक चाटकर नाक रगड़कर
जिंदा था क्योंकि मार दिया था अपना जमीर
छोड़ दी थी जिद तोड़ दिया था वादा
इतनी हैवानियत के होते भी जिंदा था
शर्मिंदा था

जिन रास्तों पर
मेरी साइकिल के डगमग निशान थे
उन पर पड़े थे बच्चियों के चीथड़े
और मैं झुका था लिंगशेष देवों के आगे
जब मेरी खुदकुशी की वजह लिखी जाए

तो लिखा जाए मैं डरता था
क्रांति की मशाल लिए निकलता था
तो आंखों में घूमता था घर का अंधेरा!

मुझे विदा करना

मुझे विदा करना
चुप… चाप…
जैसे पेड़
विदा करते हैं पत्तों को
पंछी
गिराते हैं पंख
रात
गिराती है
आंखों के मोती
जैसे दूर कहीं
पास कहीं
हर कहीं
हर वक्त
विदा होता है
कितना कुछ
अलक्षित
अध्वनित
मुझे विदा करना
कि बस साक्षी रहे
मौन हवा
नदी का शांत जल
और दूर, बहुत दूर से चुप
ताकते हों नक्षत्र

न मंत्र
न अच्छत
न घी
न चंदन
न तोपों की सलामी
कुछ मत देना मुझे
मेरी मिट्टी
नदी में सिराना
और धीरे-से कहना-
फिर आना!

संपर्क : आर.एन. कॉलेज से पूरब, साकेतपुरी, हाजीपुर (वैशाली), पिन : 844101 (बिहार)मो. 8002577406