कवि और आलोचक। अद्यतन कविता संग्रह‘लौटता हूँ मैं तुम्हारे पास’।
कथेतर गद्य की परंपरा हिंदी साहित्य में प्रारंभ से विद्यमान रही है। वासुदेव शरण अग्रवाल, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, रांगेय राघव, महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, हरिवंश राय बच्चन जैसे लेखकों ने कथेतर गद्य की परंपरा को अपनी लेखनी से समृद्ध किया है। इक्कीसवीं शताब्दी में भी कथेतर गद्य की यह परंपरा अक्षुण्ण है। हाल में प्रकाशित ‘अमरूद की खुशबू’ (ज्ञानरंजन), ‘एक बार आयोवा’ (मंगलेश डबराल), ‘वह हँसी बहुत कुछ कहती थी’ (राजेश जोशी), ‘अगले वक्तों के हैं ये लोग’ (अशोक वाजपेयी), ‘दूसरा जीवन’ (गिरधर राठी), ‘अक्स’ (अखिलेश), ‘आजीवन अशोक’ (अरुण देव) कथेतर गद्य की महत्वपूर्ण कृतियां हैं।
इधर हाल में प्रकाशित अशोक अग्रवाल की कृति ‘संग साथ’, जितेंद्र भाटिया की ‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ और योगेंद्र आहूजा की ‘टूटते तारों तले’ कथेतर गद्य की महत्वपूर्ण कृतियां हैं।
अपने समय को दर्ज करना हिंदी साहित्य के अलिखित इतिहास में एक अटूट योगदान होगा। इसलिए उनको संस्मरण लिखने चाहिए जो लेखकों के संपर्क में रहे हैं। जैसे योगेंद्र आहूजा ने निर्मल वर्मा के पत्रों की एक किताब तैयार की थी। |
अशोक अग्रवाल हिंदी के एक उल्लेखनीय कथाकार के रूप में जाने जाते हैं। इधर प्रकाशित उनकी कृति ‘संग साथ’ संस्मरण की एक सुंदर कृति है, जिसमें उन्होंने अपने समकालीन पंद्रह कवि-लेखक और मित्रों को याद करते हुए उनके चरित्र की खूबियों और कमियों को जिस तरह अपने संस्मरण में लिपिबद्ध किया है, वह न केवल उनकी अद्वितीय लेखन शैली को प्रकट करता है, बल्कि संस्मरण विधा को भी समृद्ध करता है।
‘संग साथ’ में हिंदी के विलक्षण कवि शमशेर बहादुर सिंह से अपनी पहली मुलाकात का जिक्र करते हुए अशोक अग्रवाल लिखते हैं कि किस तरह शमशेर ने लेखन को लेकर कुछ जरूरी टिप्स उन्हें यह कहते हुए दिए थे कि ‘भाषा को व्यर्थ के प्रतीकों और प्रतिमानों से भारी-भरकम बनाने के बजाय पानी की तरह कैसे पारदर्शी बनाया जा सकता है।’
बाद के दिनों में शमशेर अस्वस्थ हो गए थे और नैनीताल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। रंजना अरगड़े से यह खबर मिलते ही अशोक अग्रवाल भी नैनीलात पहुंच गए। उन दिनों शमशेर बहादुर सिंह रंजना अरगड़े के नैनीताल स्थित बहनोई के घर पर स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। यह शमशेर बहादुर सिंह से अशोक अग्रवाल की अंतिम मुलाकात थी।
अशोक अग्रवाल ने शमशेर बहादुर सिंह के चरित्र की छोटी-छोटी खूबियों को अपने इस संस्मरण ‘मौन स्वर के कवि : शमशेर बहादुर सिंह’ में जिस तरह से चित्रित किया है वह उनके बारीक पर्यवेक्षण और आत्मीय द़ृष्टिकोण का परिचायक है।
इसी तरह के बेहद सुंदर संस्मरण नागार्जुन पर ‘बुजुर्ग हिप्पियों का आदिब्रह्म : नागार्जुन’ और त्रिलोचन पर है ‘लहरों में साथ रहा कोई : त्रिलोचन’। नागार्जुन पर लिखते हुए अशोक अग्रवाल ने उनके साथ बिताए लंबे समय को जिस तरह से याद किया है, वह अद्भुत है। नागार्जुन अक्सर अशोक अग्रवाल के हापुड़ स्थित घर पर हर वर्ष कभी माह भर के लिए तो कभी पंद्रह-बीस दिनों के लिए आया करते थे। इसलिए नागार्जुन के प्रति एक गहरी आत्मीयता उनके इस संस्मरण में दिखाई देती है। बाबा की कई आत्मीय और अद्भुत स्मृतियों को अशोक अग्रवाल ने अपने इस संस्मरण में चित्रित किया है।
इसी तरह त्रिलोचन को लेकर भी अशोक अग्रवाल के मन में एक अलग तरह की आसक्ति दिखाई देती है। त्रिलोचन को याद करते हुए अशोक अग्रवाल ने इस संस्मरण के अंत में लिखा है ‘इस विलक्षण पुरोधा कवि के जीवन के आखरी दिन कारुणिक रहे… हरिद्वार में अपने छोटे बेटे के घर लगभग अपरिचय और निर्वासन में रहने और अपनी असाध्य बीमारी से असक्त जीवन व्यतीत करने को बाध्य हुए।’ त्रिलोचन जैसे कवि पर इतना आत्मीय और सारगर्भित संस्मरण अन्यत्र मेरे देखने में नहीं आया।
‘संग साथ’ में लक्ष्मीधर मालवीय पर एक सुदीर्घ संस्मरण भी संगृहीत है। अशोक अग्रवाल लंबे समय तक लक्ष्मीधर मालवीय के जापान स्थित घर में रहे हैं। अपने इस संस्मरण में अशोक अग्रवाल ने लक्ष्मीधर मालवीय की जापानी पत्नी अकिको सान् को भी बेहद आत्मीयता के साथ याद किया है। बहुत कम लोगों को विदित होगा कि लक्ष्मीधर मालवीय न केवल उच्च कोटि के लेखक थे, बल्कि वे प्रतिभाशाली छायाकार भी थे।
इसी तरह हिंदी कथाकार नवीन सागर पर लिखते हुए अशोक अग्रवाल अपनी अपार करुणा को छिपा नहीं पाते हैं। वे लिखते हैं ‘आखिरकार ब्रह्मांड के असंख्य जीव-जंतुओं की तरह किस्सागो का जीवन भी एक किस्सा ही तो ठहरा।’
विनोद कुमार शुक्ल, जितेंद्र कुमार, प्रियदर्शी प्रकाश, विश्वेश्वर, ज्ञानेंद्रपति, पंकज सिंह, अशोक माहेश्वरी, अमितेश्वर और सुमन श्रीवास्तव पर भी बेहद सुंदर संस्मरण इस कृति में हैं। विश्वेश्वर और प्रियदर्शी प्रकाश पर लिखते हुए अशोक अग्रवाल उनके चरित्र की गरिमा और उनके जीवन के घटनाचक्र को जिस तरह से एक-एक कर पिरोते चले जाते हैं, वह उनके अद्वितीय आर्ब्जवेशन और लेखन शैली को उजागर करती है। इनमें उनकी काव्यात्मक भाषा और वस्तु-संसार को देखने का उनका नजरिया अद्भुत है, जो पाठकों को चकित करता है।
‘संग साथ’ के विषय में अरुण देव की यह टिप्पणी बेहद महत्वपूर्ण है कि ‘अशोक अग्रवाल की ख्याति कथाकार की है, इधर संस्मरणों में उनके लेखन का दूसरा पक्ष सामने आ रहा है। स्मृति, लगाव और जीवन की धूप-छांव के निराले वृत्तकार के रूप में उन्होंने अपनी जगह बना ली है। …भटकाव, आकस्मिकता, अपयश, स्मृति की आत्मीयता में बंधे चले आते हैं। जैसे कोई पुरानी धूसर और उदास फिल्म चल रही हो। संस्मरण विधा में उनके द्वारा किए गए शिल्पगत प्रयोग रेखांकित करने योग्य हैं।’
इस तरह अशोक अग्रवाल की इस किताब से गुजरना किसी धूसर तथा उदास श्वेत-श्याम फिल्म से गुजरना है जिसके द़ृश्य और बिंब, एक-एक शॉट आपको जीवन के स्याह और रौशन गलियों में भटका सकते हैं। ये स्मृति के किसी उदास खंडहर में देर तक खो जाने के लिए बाध्य भी कर सकते हैं।
हिंदी साहित्य में शहरों पर लिखा हुआ संस्मरण लगभग नहीं के बराबर है। आत्मकथात्मक संस्मरण के साथ-साथ किसी शहर के खोए हुए अतीत और उसकी साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत की तलाश हिंदी साहित्य में कम दिखाई देती है।
जिज्ञासा : अगर आप जैसे कुछ लेखकों को छोड़ दिया जाए तो क्या कारण है कि हिंदी साहित्य में संस्मरण विधा की ओर इधर लेखकों का ध्यान बहुत कम गया है?
अशोक अग्रवाल : मुझे लगता है, अपने समकालीनों के संपर्क में जो आते हैं उन्हें उनपर लिखना चाहिए, क्योंकि यह एक दस्तावेज की तरह है। अपने समय को दर्ज करना हिंदी साहित्य के अलिखित इतिहास में एक अटूट योगदान होगा। इसलिए उनको संस्मरण लिखने चाहिए जो लेखकों के संपर्क में रहे हैं। जैसे योगेंद्र आहूजा ने निर्मल वर्मा के पत्रों की एक किताब तैयार की थी। जितेंद्र भाटिया ने शमशेर, इब्राहिम शरीफ जैसे कुछ लोगों पर संस्मरण लिखे हैं। अब किसकी कितनी दिलचस्पी होती है इसके बारे में तो वे लेखक ही बता सकते हैं।
जिज्ञासा : आज जो संस्मरण लिखे जा रहे हैं, उनमें स्वयं लेखक नेपथ्य में रहने की जगह खुद को ही केंद्र में रख लेता है, इसका आप क्या कारण मानते हैं?
अशोक अग्रवाल : यह उनकी महत्वाकांक्षा है, जबकि मुझे ऐसा लगता है कि एक अच्छे संस्मरणकार को हाशिए से बाहर जाते हुए सारे दृश्यों को देखना चाहिए जो घटित हुए हैं, एक तीसरे आदमी की आंख से।
जिज्ञासा : आपने अपनी किताब ‘संग साथ’ में कई ऐसे लोगों पर भी लिखा है जो साहित्य में भले ही शिखर पर न हों, पर वे भले और अच्छे इंसान थे। आपने उन्हें अपने संस्मरण की किताब के लिए क्यों चुना?
अशोक अग्रवाल : ऐसे लोगों में दो ही हैं, एक तो अशोक माहेश्वरी, वे लेखन में तो नहीं हैं, लेकिन छायाकार की दृष्टि से विलक्षण रहे हैं और लेखकों से उनका परिचय था। साहित्य में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। उनके साथ मेरी कुछ यात्राएं हुई थीं। बाबा नागार्जुन को साथ लेकर वही सबसे पहले आए थे और उनके घर विदिशा मेरा अक्सर जाना होता था तथा मैं अक्सर वहीं ठहरता था। तो वे मुझे सबसे ऐसा उचित पात्र लगे जिनके बारे में सिर्फ मैं ही लिख सकता हूँ। अगर मैं नहीं लिखूंगा तो वे हमेशा अतीत के गर्त में खो जाएंगे।
ऐसा ही एक चरित्र सुमन श्रीवास्तव है, जो स्वप्निल श्रीवास्तव की पत्नी हैं। उनसे पारिवारिक जुड़ाव रहा, उस जुड़ाव की अनुभूति ने मुझे उसपर लिखने के लिए विवश किया। मेरे लिए यह भी उतना ही महत्वपूर्ण संस्मरण है जितने साहित्यकारों पर लिखे गए संस्मरण हैं।
जिज्ञासा : विश्वेश्वर पर लिखते हुए आप उनके प्रति गहरी करुणा और संवेदना से द्रवित दिखाई देते हैं, ऐसा क्यों? जबकि उनके प्रति हिंदी जगत एकमत नहीं है।
अशोक अग्रवाल : इसका मैं सिर्फ एक ही वाक्य में उत्तर देना चाहता हूँ कि विश्वेश्वर को लोगों ने घटना के हिसाब से देखा। उसके साथ जैसा घटित हुआ उसे वैसा ही लिखा। इससे उसकी बदनामी ज्यादा हुई। मैंने विश्वेश्वर का मूल्यांकन हमेशा तीसरी आंख से परिस्थितिजन्य स्थितियों में किया है और परिस्थितिजन्य स्थितियों के अंतर्गत ही मैं विश्वेश्वर के चरित्र को पकड़ पाया।
जिज्ञासा : लक्ष्मीधर मालवीय को लेकर आपके मन में कहीं अधिक श्रद्धा और आसक्ति दिखाई देती है, जबकि हिंदी साहित्य उनको लेकर उदासीन है?
अशोक अग्रवाल : इस सवाल का उत्तर तो हिंदी साहित्यकारों को, उनके समकालीन लेखकों को, जिनमें उनके सहपाठी ज्ञानरंजन भी हैं, देना चाहिए, अन्यथा मालवीय जी का जितना भी लेखन है चाहे उनका उपन्यास हो या कहानी संग्रह, वह बहुत अधिक मूल्यवान है। हिंदी साहित्य की स्थिति यह है कि कुछ लोगों को अधिक चर्चा मिल जाती है और कुछ आंखों से ओझल हो जाते हैं।
जिज्ञासा : प्रियदर्शी प्रकाश और नवीन सागर शायद आपके दिल के ज्यादा निकट हैं। शायद आपकी संवेदना के ज्यादा निकट, क्या आप ऐसा महसूस करते हैं?
अशोक अग्रवाल : हां, यह कहा जा सकता है कि प्रियदर्शी प्रकाश और नवीन सागर दोनों मेरे मित्र थे और इतने अभिन्न थे कि मेरे बेहद नजदीक आ गए और दोनों ही विलक्षण व्यक्तित्व के थे।
बहुत से लोग आज भी अपने दिलों में उसी विभाजन को जिंदा रखे हुए हैं। उनके निजी स्वार्थ आज भी उसी संकुचित धार्मिक मानसिकता को संचालित कर रहे हैं। क्रिकेट के ग्राउंड में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को सुनाकर जब हम व्यंग्य से धार्मिक नारे लगाते हैं तो दरअसल हम फिर से उन्हीं पुराने जख्मों को कुरेद रहे होते हैं। |
सुप्रसिद्ध लेखक जितेंद्र भाटिया की सद्य प्रकाशित कृति ‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ एक तरह से केवल जितेंद्र भाटिया का ही आत्मकथात्मक संस्मरण नहीं है, बल्कि देश के पांच महानगरों की आत्मकथा भी इसमें समाहित है। चेन्नई, लाहौर, मुंबई, कोलकाता और जयपुर जैसे शहरों को केंद्र में रखकर लिखे गए इस आत्मकथात्मक संस्मरण में इन शहरों को पहली बार पाठक एक नए रूप में देख और समझ पाते हैं।
उक्त शहरों को केंद्र में रखकर रची गई यह कृति न धारावाहिक शोकगीत है और न ही मर्सिया, अपितु यह इन शहरों की धूसर आत्मा की तलछट में डूबकर एक संवेदनशील लेखक की उसमें गोता लगाने की एक जोखिम भरी कोशिश है। यही कारण है कि इस किताब में बनी बनाई छवि से इतर एक ऐसी छवि को देख पाते हैं, जो इधर अति-आधुनिकता और वैश्वीकरण के बीहड़ दौर में विस्मृत-सी है।
जितेंद्र भाटिया इन शहरों की पड़ताल करते हुए इन जगहों में बिताए गए अपने धूसर और रौशन दिनों को जिस तरह से जोड़कर देखते हैं, वह इस कृति का सर्वाधिक उज्ज्वल पक्ष है।
चेन्नई शहर पर लिखते हुए वे यह रेखांकित करना नहीं भूलते कि ‘लेकिन असली चेन्नै या मद्रासपटनम आज भी उन बेजान छत्तों से दूर अल्वारपेट किलपॉक के पेड़ों और पुराने मद्रास की तंग गलियों में अलसुबह फैलती फिल्टर काफी की मादक खुशबू और बालाजी मंदिर से फूटती सहस्रनाम स्तुति की निरंतर ध्वनि में कुछ और सालों के लिए जिंदा है, प्रलय के अवश्यंभावी आखिरी दिनों तक।’
अपने बचपन में बिताए दिनों के बहाने वे लाहौर को जिस तरह से याद करते हैं वह एक तरह से नास्टैल्जिया ही है। लाहौर के विपरीत कोलकाता जितेंद्र भाटिया के लिए किसी हसीन प्रेमिका से कमतर नहीं है। कोलकाता की स्मृति लेखक के बेइंतिहा प्यार की स्मृति है। इसलिए कोलकाता पर लिखे गए इन संस्मरणों में लेखक कोलकाता के प्रति अपनी रागात्मकता को कहीं छिपा नहीं पाता और गाहे-बगाहे उसके प्रति अपनी मुहब्बत का इजहार करता चला जाता है। ‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ के चौदह अध्याय में से छह अध्याय केवल कोलकाता जैसे महानगर पर केंद्रित हैं। कोलकाता के अतीत और वर्तमान को जितेंद्र भाटिया ने जिस तरह से अपनी इस कृति के माध्यम से देखने, समझने और जानने का प्रयास किया है वैसा प्रयास भी अब तक किसी हिंदी लेखक द्वारा नहीं किया गया है।
लेखक ने कोलकाता को एक शहर की तरह नहीं, बल्कि अपने एक मित्र, सहचर की तरह देखा है। यह शहर उनके लिए कला, संस्कृति तथा ज्ञान और विज्ञान को अपने भीतर संजोने वाला एक अभूतपूर्व शहर है। इस शहर की एक बड़ी खूबी यह भी है कि इस शहर ने अपने अनमोल अतीत या विरासत को सहेज कर रखा हुआ है।
कोलकाता में बिताए हुए अपने बचपन के दिनों के बारे में लेखक ने एक जगह लिखा है : ‘मैंने पचास के दशक में अपना बचपन और फिर अस्सी-नब्बे के दशक में कोई पंद्रह वर्ष कोलकाता में गुजारे। आठ वर्ष की संवेदनशील उम्र में मैं यहां पहली बार आया था। यदि मुंबई मेरी युवावस्था या मेरी साहित्यिक संवेदना का शहर है तो कोलकाता बचपन का वह दौर, जिसकी मोहक स्मृतियां हमेशा आपके साथ रहती हैं।’
इस किताब में मुंबई के सिनेमा पर दो अध्याय हैं- ‘मुंबई : हरिश्चंद्र की सिनेमा फैक्टरी’ और ‘मुंबई : जब फिल्मों ने बोलना सीखा’। इन दोनों अध्यायों में जितेंद्र भाटिया ने जिस तरह सिनेमा के इतिहास की विवेचना की है, वह किसी गंभीर शोध की तरह है। वे सिनेमा के इतिहास पर लिखते हुए तथ्यों का सहारा लेते हैं, इतिहास की गुमनाम गलियों में भटकते हैं और अनेक ऐसे किस्सों को ढूंढ़ निकालते हैं जो हमारे लिए प्रायः अपरिचित सा रहा है।
मुंबई पर लिखते हुए लेखक ने ख्वाजा अहमद अब्बास, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, कृष्ण चंदर, सत्यदेव दुबे जैसे प्रसिद्ध साहित्यकारों और रंगकर्मियों को भी अपनी इस कृति में शिद्दत से याद किया है।
इस किताब के अंतिम अध्याय में जितेंद्र भाटिया ने राजस्थान के गुलाबी शहर जयपुर पर लिखते हुए बताया कि अपनी जिंदगी का तीन-चौथाई हिस्सा मुंबई और कोलकाता में बिता देने के बाद जीवन के अंतिम पहर में इस शहर को क्यों चुना। जयपुर को याद करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘दूसरे तमाम शहरों की तरह जयपुर भी अब वह नहीं रहा जैसा पहले था, हालांकि परकोटे के भीतर के पुराने शहर में तब्दीली की संभावना बहुत कम है। लेकिन जयपुर या कोई भी शहर तब तक ही जिंदा रह सकता है, जब तक हम उसे याद रखते हैं।’
‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ के समापन में जितेंद्र भाटिया ने लिखा है, ‘मेरी यह बेतरतीब शृंखला अपनी इसी सोच से बाहर निकलने की छोटी-सी कोशिश है। एक संयुक्त आत्मकथा, इन शहरों और इनमें गुजरे मेरे जीवन की, जिसे इतिहास की निरंतर मौजूदगी के बावजूद दस्तावेज न समझा जाए तो बेहतर।’
जिज्ञासा : ‘कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ की भूमिका में आपने लिखा है कि यह शहरों का धारावाहिक शोकगीत है। आप यह नाम क्यों देना चाहते हैं?
जितेंद्र भाटिया : मैंने इस पुस्तक को शहरों का शोकगीत जरूर कहा है, लेकिन इसमें नकारात्मकता की अपेक्षा दुख का भाव ज्यादा है। मेरी पुस्तक में आखिरी वाक्य है- ‘शोकगीत या मर्सिया सिर्फ गमख्वार नहीं करता, कभी-कभी फिर से खड़ा होने की अभूतपूर्व शक्ति भी देता है।’
जिज्ञासा : आपकी इस कृति में कोलकाता को लेकर एक खास आसक्ति दिखाई देती है। क्या आज भी कोलकाता को लेकर वही आसक्ति आपके मन में है?
जितेंद्र भाटिया : जी हां, जरूर! मेरा मानना है कि कोलकाता जैसा शहर पूरे देश क्या, सारी दुनिया में नहीं है।
जिज्ञासा : मुंबई अब भी आपका आशियाना है। कोलकाता के साथ मुंबई की तुलना आप किस तरह से करना चाहेंगे?
जितेंद्र भाटिया : कोलकाता मेरे बचपन की स्मृतियों का शहर है, वहीं मुंबई मेरे लिखने-पढ़ने, परिपक्व और विकसित होकर लेखक बनने का! मुंबई एक व्यावसायिक और निर्मम शहर है, जिसकी तुलना कोलकाता की गर्मजोशी से नहीं की जा सकती।
जिज्ञासा : आपने अपनी इस कृति में विभाजन की त्रासदी को लाहौर वाले खंड में चित्रित किया है। विभाजन का यह जख्म क्या अब भी तकलीफदेह नहीं है?
जितेंद्र भाटिया : विभाजन की त्रासदी को भ्ाूल पाना मुश्किल है, पर असंभव नहीं। विभाजन ने हमारी ही तरह लाखों परिवारों को तहस-नहस कर दिया, पर इनमें से अधिकांश अपनी धार्मिक दुर्भावना से ऊपर उठकर उद्यम और मनोबल के सहारे फिर उठ खड़े हुए। मैंने कहा भी है, हमारे देश में राजनीतिज्ञों की विशाल मूर्तियाँ और स्वयं के नाम पर बने स्टेडियम बहुत हैं, पर इन मेहनती विस्थापितों की त्रासद, गौरव कथा का एक छोटा-सा स्मारक भी कहीं नहीं है।
बहुत से लोग आज भी अपने दिलों में उसी विभाजन को जिंदा रखे हुए हैं। उनके निजी स्वार्थ आज भी उसी संकुचित धार्मिक मानसिकता को संचालित कर रहे हैं। क्रिकेट के ग्राउंड में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को सुनाकर जब हम व्यंग्य से धार्मिक नारे लगाते हैं तो दरअसल हम फिर से उन्हीं पुराने जख्मों को कुरेद रहे होते हैं और इनमें से अधिकांश लोग हैं जिन्होंने विभाजन में अपनी अंगुली का छोटा-सा नाखून तक नहीं गंवाया है।
जिज्ञासा : आपने अपनी इस किताब में जिन पांच शहरों पर लिखा है उन शहरों के इतिहास और विरासत को भी खंगालने का प्रयास किया है। ऐसा क्यों?
जितेंद्र भाटिया : दरअसल किसी भी शहर को उसकी विरासत और उसके इतिहास के बगैर नहीं जाना जा सकता। मैंने इस पुस्तक में उसे अपने निजी जीवन से जोड़कर देखने और समझने का एक प्रयास भर किया है।
लिखना और बोलना, एक ‘राइटर’ और ‘स्पीकर’ …ये एक नहीं हैं, न ‘राइटिंग’ और ‘स्पीकिंग’ के मायने एक हैं। ‘लिखित शब्द’ और ‘कहे गए शब्द’ सिर्फ एक बात को कहने के अलग तरीके नहीं, उनके मायने, प्रकृति और उनसे जुड़ी हुई दुनियाएं अलग हैं, और कुछ मायनों में एक दूसरे के खिलाफ। |
योगेंद्र आहूजा हिंदी के विलक्षण लेखक माने जाते हैं। वे अपनी कहानियों की अंतर्वस्तु में जीवन संसार के उन अलक्षित द़ृश्यों, ध्वनियों और खामोशियों को विन्यस्त करना जानते हैं जो अन्य लेखकों की कहानियों में नहीं मिलता है। हिंदी कहानी में उन्हें एक संभावनाशील कहानीकार के रूप में देखा जाता है।
अभी हाल ही में प्रकाशित ‘टूटते तारों तले’उनकी कथेतर गद्य की कृति है, जिसमें योगेंद्र आहूजा द्वारा समय-समय पर लिखी गई टिप्पणियां, आलेख, व्याख्यान और साक्षात्कार संगृहीत हैं। अपनी इस कृति में योगेंद्र आहूजा ने जिस तरह से अपने समय के साथ जिरह, संवाद और एक तरह से मुठभेड़ करने की कोशिश की है वह उनके भीतर की आग और बेचैनी को काफी हद तक प्रकट करती है। इसलिए ‘टूटते तारों तले’ को पढ़ते हुए यह प्रतीत होता है कि जैसे मुक्तिबोध की तरह लगातार योगेंद्र आहूजा भी किसी और से नहीं अपने आपसे निरंतर जूझ रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि मुक्तिबोध की छाया और अनुगूंजें इस पूरी किताब में सर्वत्र दिखाई और सुनाई देती हैं। एक गहरा अंतर्द्वंद्व उनके भीतर कहीं चलता रहता है।
योगेंद्र आहूजा ने अपने एक आलेख ‘उसके बारे में’ में निर्मल वर्मा को बहुत गंभीरतापूर्वक याद किया है। निर्मल वर्मा के लेखन के वैशिष्ट्य को उन्होंने एक नए रूप में समझने का प्रयास किया है। निर्मल वर्मा के प्रति गहरी आसक्ति के बावजूद वे यह लिखना नहीं भूलते कि जब उन्होंने भाजपा के पक्ष में बयान जारी किया तो सर्वाधिक तकलीफ योगेंद्र आहूजा को हुई थी। क्योंकि योगेंद्र आहूजा यह मानते थे कि लेखन कर्म के प्रति निष्ठा और शब्द की गरिमा के मायनों को उसने उसी चुप्पे और शालीन लेखक से जाना है।
अपने एक अन्य आलेख ‘परे हट धूप आने दे’ में वे दर्शन, ज्ञान और साहित्य तीनों ही भूमि पर विचरण करते हुए दिखाई देते हैं। सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, गैलीलियो, टॅालस्टाय, प्रेमचंद जैसे दार्शनिक, वैज्ञानिक और ज्ञानरंजन जैसे लेखक पर लिखी गई उनकी टिप्पणी काफी प्रासंगिक है। अपने आलेख में योगेंद्र आहूजा दर्शन, इतिहास और विज्ञान को भी एक नए सिरे से खंगालते हुए दिखाई देते हैं। वे उन दार्शनिकों को याद करते हैं, जिन्हें न आततायी डरा सके और न ही उनके निष्कर्षों को मिटा सकने की हिम्मत जुटा सके।
योगेंद्र आहूजा ने ‘कुछ बातें’ में आज के दौर के लेखकों की जिम्मेदारी की पड़ताल करते हुए लिखा है ‘हमारे वक्त में जब सच, झूठ और सही-गलत की पहचान भी साफ नहीं, लेखक की जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी, ज्यादा मुश्किल है। इस पहचान को साफ करने के लिए उसे सत्ता-समर्थित व्याख्याओं के महीन, घने जाल को काटने की कोशिश करनी है। उसे हर सवाल पर एक साफ पोजिशन लेनी है, हवाई किस्म की उस गोल-मोल, बेमानी, मानवीयता से बचते हुए जो आततायियों के पक्ष में जाती है।’ इस कथन के माध्यम से योगेंद्र आहूजा एक नैतिक सवाल खड़ा करते हैं कि आज जब साहित्य और कलाएं अपना पोजिशन साफ करने से घबरा रहे हैं और हवाई किस्म के गोल-मोल कथनों का सहारा ले रहे हैं, तो ऐसे खतरनाक दौर में लेखकों को अपनी पक्षधरता स्पष्ट किए जाने की जरूरत है।
अपने एक वक्तव्य ‘स्वप्न है कि एक स्वप्न लिख सकूं’ में वे सुप्रसिद्ध कहानीकार रमाकांत को बहुत शिद्दत से याद करते हैं और इसी वक्तव्य में वे लेनिन की यह बात उद्धृत करना नहीं भूलते हैं कि ‘कोई भी देश स्त्रियों के साथ कैसा बर्ताव करता है, इसी से पता चलता है कि उसकी सामाजिक व्यवस्था की असलियत क्या है।’ इस वक्तव्य में पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए वे लिखते हैं कि ‘दुनिया अब एक खतरनाक जगह है तो महिलाओं को अपने को कुचल लेना चाहिए? उन्हें अपनी उड़ान और सपने मुल्तवी कर देने चाहिए? उन्हें फिर उनके टैंक जैसे बंद और मजबूत घरों में वापस भेज देना चाहिए?’ अपने वक्तव्य में योगेंद्र आहूजा हर किस्म की धार्मिक कट्टरता का विरोध करते हुए दिखाई देते हैं।
एक आलेख ‘एक छुअन की याद’ में योगेंद्र आहूजा ने हिंदी के महत्वपूर्ण कवि वीरेन डंगवाल को गंभीरता के साथ याद किया है और उनके साथ बिताए हुए दिनों की स्मृतियों को अपने इस आलेख में दर्ज किया है। वीरेन डंगवाल को याद करते हुए वे उनकी वैचारिकता और संवेदनशीलता को रेखांकित करते हैं।
अपने एक व्याख्यान ‘टूटते तारों तले’ में योगेंद्र आहूजा मुक्तिबोध की कहानियों की चर्चा करते हैं, ‘उनकी कहानियां किसी अनगढ़ थरथराते विश्व में ले जाती है और भाषा भी कांपती थरथराती हुई सी जान पड़ती है। …इसलिए कहानी विधा के मानदंडों पर वे कहानियां, विशुद्ध अकादमिक आलोचना के मानदंडों पर कुछ कमजोर, यहां तक कि असफल जान पड़ती हैं।’ वे अपने आलेखों में रेणु और ज्ञानरंजन पर विस्तार से विचार करते हैं।
रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘मृणालेर चिठी’ पर लिखते हुए योगेंद्र आहूजा कहते हैं, ‘टैगोर की यह मृणाल जीवन भर जिस पूर्णता के लिए तरसती रही वह अबूझ या अपरिभाषेय नहीं है।’ किताब के अंत में योगेंद्र आहूजा से लिए गए दो साक्षात्कार भी संगृहीत हैं, जिनसे उनके लेखन और उनकी वैचारिकता को समझा जा सकता है।
‘टूटते तारों तले’ कई द़ृष्टि से हिंदी की एक महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय कृति है। इस कृति के माध्यम से उन्होंने जिस तरह से हमारे समय के ज्वलंत सवालों से मुठभेड़ करने की कोशिश की है वह उनके कहानीकार रूप से भिन्न एक ऐसे आला रूप से हमारा साक्षात्कार करवाता है, जिसके भीतर मौजूद भाषा में सघन विचारों के ताप के साथ उनकी बेचैनियों और उनके भीतर चलने वाले आत्मसंघर्ष को भी समझा जा सकता है।
जिज्ञासा : आपने ‘टूटते तारों तले’ की भूमिका में लिखा है कि इन पन्नों में खामोश कहानियां भी कहीं न कहीं शामिल हैं। ‘खामोश कहानियों’ से आपका आशय क्या है?
योगेंद्र आहूजा : एक कहानी के भीतर अनेक कहानियां, उनके सूत्र या रेशे मौजूद होते हैं। अधिकतर कहानियों में लेखक के देखे-रचे पात्र अगर अपनी कहानी स्वयं कह पाते तो शायद वह एक अलग ही कहानी होती। रेणु जी की ‘नैना जोगिन’ अगर अपनी कहानी खुद कहती तो …? इसी तरह ज्ञान जी की ‘फेंस के इधर और उधर’ में ‘दूसरी तरफ’ की लड़की ‘इस तरफ’ के लड़के की कहानी कहती तो वह भी इतनी ही महत्वपूर्ण कहानी हो सकती थी। ये तत्काल याद आई कहानियां हैं, लेकिन ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। जब एक कहानी कही जा रही होती है, उस समय अन्य कहानियां खामोश होती हैं। लेकिन कभी-कभी वे मूक रहने से इनकार कर देती हैं। वे भी कही-सुनी जाना चाहती हैं, अपने मौलिक तरीके से और अपनी ही आवाज में। ‘खामोश कहानियों’ से मेरा आशय ऐसी कहानियों से है।
जिज्ञासा : ऐसी क्या विवशता थी कि आप कहानी से बाहर निकलकर कथेतर गद्य की ओर मुड़े?
योगेंद्र आहूजा : ‘बाहर निकलकर’ कहना ठीक नहीं होगा। ये गद्य रचनाएं कहानियों के साथ ही लिखी गई हैं- उनके लिखे जाने के दौरान हाशिये पर या उनके बीच के अंतरालों में।
जिज्ञासा : आपने एक जगह लिखा है कि एक कहानी लेखक को अपनी बात रचनाओं में कहनी चाहिए और रचनाओं के बाहर यथासंभव खामोश रहना चाहिए। इस कथन का क्या अभिप्राय है?
योगेंद्र आहूजा : लेखक कहानी के भीतर अपनी बात कहने से चूक जाए तो उसके बाहर कुछ भी कहना उसकी क्षतिपूर्ति नहीं कर सकता। मेरा मानना यह है कि लिखना और बोलना, एक ‘राइटर’ और ‘स्पीकर’ …ये एक नहीं हैं, न ‘राइटिंग’ और ‘स्पीकिंग’ के मायने एक हैं। ‘लिखित शब्द’ और ‘कहे गए शब्द’ सिर्फ एक बात को कहने के अलग तरीके नहीं, उनके मायने, प्रकृति और उनसे जुड़ी हुई दुनियाएं अलग हैं, और कुछ मायनों में एक दूसरे के खिलाफ।
बोले जाने वाले शब्द यानी ‘स्पोकेन वर्ड्स’ के इलाके में एक क्षुद्र, खोखला या नकली, निस्सार, यहाँ तक कि एक अमानवीय और घातक कथन भी वाग्मिता या कुशल वक्तृता के जरिए भव्य, विराट, आलीशान बनाकर पेश किया जा सकता है। एक ओजस्वी और नाटकीय पाठ एक निकृष्ट रचना को भी वाहवाही दिला सकता है। यह धोखाधड़ी लिखित शब्द के इलाके में नहीं चल सकती। वहां शब्दों को ‘ओरेटरी’ या ‘रेटोरिक’ जैसे सहारों के बिना सिर्फ अपने ही पांवों पर खड़ा होना होता है। वे खुद को जबरन हमारी चेतनाओं में ठेल नहीं सकते, न भूल जाने का उलाहना दे सकते हैं। यह तो ‘बोले गए, शोर मचाते, चिंघाड़ते शब्द’ होते हैं, ‘लफ्फाजों’, ‘उपदेशकों’, ‘विज्ञापनों’, ‘डैमोगोगस’ और ‘सत्तावानों’ के, जो हमारे अनचाहे ही लगभग हर वक्त हमारे दिनों-रात्रियों को गंदला करते हुए हमारे कानों और दिमागों में गिरते रहते हैं।
एक लेखक अपने लेखकीय एकांत और एकाकीपन से घबराकर ‘स्पोकेन वर्ड्स’ की चपेट में आए, उनका स्वाद लेने लगे …तो एक अनिवार्य नियति की तरह उसका लेखन निकृष्ट, नि:सत्व से भरा होगा ही। दिमाग में शब्दों का शोरगुल भरने लगे तो विचार कांपने, धुंधले होने, और एक हद के बाद आजिज आकर चुपके से फरार हो जाते हैं।
जिज्ञासा : नेत्रसिंह रावत की किताब ‘पत्थर और पानी’ पर लिखते हुए आपने कहा है कि यह बिना शक हिंदी की सर्वोत्कृष्ट गद्य रचनाओं में से एक है। जबकि नेत्रसिंह रावत और उनकी इस कृति को लेकर हिंदी जगत में सर्वत्र खामोशी ही है?
योगेंद्र आहूजा : आप सहमत होंगे कि रचनाओं की गुणवत्ता का मानदंड यह नहीं हो सकता कि उसे कितने पाठक मिल सके। किसी किताब के कम पाठकों तक पहुँचने के अनेक कारण होते हैं, साहित्येतर कारण भी। हिंदी में रचनाओं की चर्चा का तंत्र मायावी है। चर्चा का आधार केवल गुणवत्ता नहीं होता। सोशल मीडिया के (उसके इतर भी) शोरगुल में वे रचनाएँ गुम हो सकती हैं, अक्सर होती ही हैं जो अपनी बात धीमी आवाज में कहती हैं और शब्दों से अधिक पार्श्वध्वनियों को सुनने का आग्रह करती हैं या जिनमें आवाजों से अधिक खामोशियाँ मानीखेज होती हैं। कम पढ़ी गई होने के बावजूद ‘पत्थर और पानी’ के प्रशंसकों की संख्या कम नहीं है।
जिज्ञासा : आपने ज्ञानरंजन की ‘घंटा’ कहानी पर लिखते हुए कहा है कि इस कहानी में क्रोध, विषाद और हँसी का जो मिला-जुला स्वर है उसे हिंदी कहानी में फिर नहीं दुहराया गया। आप इसका क्या कारण मानते हैं?
योगेंद्र आहूजा : ज्ञानरंजन की ‘लिहाफ’, ‘हास्य रस’ और ‘रचना प्रक्रिया’ में हँसी के तमाम प्रसंग हैं। लेकिन उनकी बाद की कहानियों में (‘अनुभव’, ‘बहिर्गमन’, ‘फेंस के इधर और उधर’) इससे मुक्ति की कोशिश झलकती है। हँसी धीरे-धीरे उदासी में, फिर एक दर्द में बदलती जाती है। ह्यूमर और आलोचना का अनुपात उलटता जाता है। ज्ञानरंजन जी पर लिखे आलेख में लिखी बात को दुहराना चाहूंगा कि वे ‘कामिकल’ के नहीं, उससे क्रमिक मुक्ति के कथाकार हैं।
यह सच है कि ज्ञान जी जैसी कहानियां उनके बाद नहीं लिखी गईं। शायद इसलिए कि ‘बहिर्गमन’ में आई वह ‘खास मुस्कराहट’ – मलाल, फिसलन, पराजय और अपमान के क्षणों में कवच का काम करने और दुनिया के ‘गुलजारों का चिट्ठा खोलने वाली’, सबके पास नहीं होती। वह निगाह और मुस्कराहट बनी-बनाई नहीं मिलती। उसके लिए ‘पेट्रोला’ के नीम-अंधेरे में अनेक साल सर्फ करने होते हैं।
समीक्षित पुस्तकें :
(1)संग साथ : अशोक अग्रवाल, संभावना प्रकाशन 2023 (2)कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर : जितेंद्र भाटिया, संभावना प्रकाशन 2023 (3)टूटते तारों तले : योगेंद्र आहूजा, नवारुण प्रकाशन 2023
204, कंचन विहार, डूमर तालाब (टाटीबंध), रायपुर-492009 मो. 6264768849