कवि और आलोचक। अद्यतन कविता संग्रहलौटता हूँ मैं तुम्हारे पास

 

 

हर कला भयावह समय में उम्मीद से अधिक भरोसा होती है। यह आप आपदाओं में अनुभव करते हैं। युद्ध के समय में इनका महत्व समझ में आता है। कोरोना समय इसका ज्वलंत उदाहरण है। मेरी डायरी, किताब और कविताओं ने जैसे मुझे बचा लिया। 

समकालीन हिंदी कविता में लीलाधर मंडलोई पिछले अनेक वर्षों से सक्रिय हैं। उनकी कविताएं अपनी गझिन अंतर्वस्तु, शिल्पगत नवीनता और हिंदी-उर्दू की मिलीजुली भाषा के चलते समकालीन हिंदी कविता की भीड़ में कुछ अलग दिखाई पड़ने वाली कविताएं हैं। ‘क्या बने बातउनका ग्यारहवां काव्य संग्रह है।

इसमें उन्होंने अपनी कविताओं को प्रचलित काव्य मुहावरों से काफी हद तक बचाए रखने की कोशिश की है। एकरस अंतर्वस्तु और प्रचलित रूपविधान से अपनी कविताओं को बचाते हुए लीलाधर मंडलोई जिस तरह से हमारे समय के दारुण यथार्थ को एक अलग अंदाज में दर्ज करते हैं उसे उनकी कविताओं की सबसे बड़ी खूबी माना जा सकता है।

पिछले कुछ वर्षों से उनकी कविताओं में चित्रकला के अमूर्तन और प्रतीक की उपस्थिति भी महसूस की जा सकती है। उनके भीतर का छिपा हुआ चित्रकार जैसे कविता में शब्दों के माध्यम से रंग भरने को आतुर दिखाई दे रहा हो। इस संग्रह की अनेक कविताओं में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि उनकी कविता शब्दों से परे जैसे दृश्य में खुद को देख रही हो और उनके काव्य बिंब अमूर्तन में समाहित हो जाने के लिए आतुर हों : यह रंग आलोक फैल रहा है/अपने अखिल हठयोग में/बला का सुंदर !!!/धूप छांह में बदलते शेड्स/और एक नन्हे जीव की सिहरन में/उतरकर चमकते/सुबह की भीगी त्वचा में उमगते/एक लंबवत तांबई किरण का/सुनहरा आलोक। (‘शब्द नाकाफी’)।

लीलाधर मंडलोई के यहां विरल फैंटेसी भी दिख सकती है जो कविता को शब्दों से परे उसके मौन में या शब्दों से परे दृश्य में ले जाती है। उनकी कविताओं में हमारे समय की उपस्थिति कुछ अलग हटकर है। कवि के यहां मनुष्य-विरोधी राजनीति को लेकर एक गहरी वितृष्णा है। सांप्रदायिकता या धार्मिक कट्टरता जो इन दिनों अपनी चरम सीमा पर है, उसके प्रति कवि केवल चिंता व्यक्त करके नहीं रह जाता, बल्कि प्रतिरोध भी करता है : सोचने/समझने/बोलने पर/जिस दौर में मनाही हो/अब वो/जेरे कलम/आग बनके आएगा। (‘ढाई आखर’)। सत्ता के निरंकुश चरित्र को लेकर कवि की व्याकुलता, संशय और अंतद्वर्ंद्व को भी उनकी कविताओं में बहुत साफ देखा जा सकता है। लीलाधर मंडलोई के यहां धर्म को लेकर कोई दुविधा नहीं है। उनके लिए कोई जगह नहीं है, जहां उर्दू की मिठास से तकलीफ होती है। उनके लिए हिंदी और उर्दू में कोई अंतर नहीं है : खून के भी दो रंग बताए जा रहे हैं/और वे भाषा में भी देख रहे हैं/जाति और धर्म/सुनते हुए उर्दू की मिठास/तन जाती है उनकी भवें/और प्यार बदल जाता है/रोज नफरत में। (भगवान को देखा जिस तरह)।

इस संग्रह में कई ऐसी कविताएं हैं जिनमें कवि की चिंताओं को आसानी के साथ देखा एवं समझा जा सकता है। शाहीनबाग, रोहिंग्या मुसलमान, 370 जैसे विषयों को लेकर ही कवि चिंतित नहीं हैं, अपितु अपनी इन कविताओं में कवि अफगानिस्तानी नागरिकों की तकलीफों से भी आहत है। उनके यहां मानवीय संवेदना का ग्राफ बहुत विस्तृत है। उनकी कविताओं में करुणा और चिंता का क्षेत्र बहुत अपरिमित है। अफगानिस्तान को लेकर इस संग्रह में अनेक कविताएं हैं, जिनमें अफगानी जनता के संघर्ष और उनपर होने वाले तालिबानी जुल्म को काफी हद तक समझा जा सकता है : और पेड़/और स्कूल/और बच्चे/उन्होंने नेस्तनाबूद कर दिया/जो हरा था/अब स्याह से काले दिन हैं/यहां हरे भरे अल्फाज पढ़ना/गुनाह है। (फूल के खिलने का भरोसा)।

जिन दिनों सच कहना और लिखना गुनाह है, उन्हीं दिनों एक कवि अपनी कविताओं में बेखौफ यह गुनाह कर रहा है। कवि ने यूं ही मीर के इस शेर को उद्धृत नहीं किया है : ‘शेर मेरे हैं सब खासपसंद/पर मुझे गुतगू अवाम से है’।

जिज्ञासा : आपकी कविताओं में स्थानीयता के साथ-साथ वैश्विक चिंता का स्वर भी है, क्या कविता देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण करके सार्थक हो पाती है?

लीलाधर मंडलोई : स्थानीयता का सही अर्थ मैंने पर्यावरणविद अनुपम मिश्र से जाना। वे सनातन धर्म से अधिक स्थानीय और वैश्विक नदी-धर्म मानते हैं। वे नदी तट से सभ्यता की निर्मिति का स्मरण करते हुए प्रकृति, पर्यावरण और जैव पारिस्थितिकी के महत्व को विश्व संदर्भ में स्पष्ट करते हैं। विश्व के पर्यावरण विशेषज्ञ आज मान रहे हैं कि इस सृष्टि को बचाने में आदिवासी दृष्टि कारगर है। यह मैंने अपने जन्म जिले छिंदवाड़ा के- कोरकू, गोंड़ और भारिया आदिवासियों से बीज रूप में जाना। तीसरी दुनिया के साहित्य पर निगाह डालें, उसके कथ्य का आकलन करें तो स्थानीयता के वैश्विक महत्व को समझा जा सकता है। अगर संगीत में देखें तो पंंडित रविशंकर की वैश्विकता उनकी लोक से बनी शास्त्रीयता की जमीन से उपजी-पल्लवित है। कलाओं में अतिक्रमण के उदाहरण चित्रकला, संगीत, नाटक आदि में मौजूद हैं। कविता में अतिक्रमण का उदाहरण ‘महाभारत’ से बेहतर और क्या होगा। हमारे कालजयी काव्य ग्रंथ स्थानीयता की भूमि पर हैं और प्रासंगिक बने हुए हैं। मुझे लगता है यही चेतना और दृष्टि जो विरासत से मिली, महत्वपूर्ण है।

जिज्ञासा: आपकी कविताओं में उर्दू जुबान की भी एक अहमियत है, जो अक्सर हिंदी के साथ गलबहियां डाले दिखाई देती है। सियासी नफरत के दौर में इसका आकलन किस तरह से करेंगे?

लीलाधर मंडलोई : मैंने किसी भाषा की घेरेबंदी में जन्म नहीं लिया। मां-पिता बुंदेली बोलते थे। कोरकू, गोंड़ मुख्य आदिवासी बोलियां थीं। रामचरितमानस मुख्य धार्मिक ग्रंथ की तरह था, जो अवधी में था। मजदूर महाराष्ट्र, म.प्र., गुजरात, आंध्रप्रदेश और बिहार के थे। मजदूरों में एक बड़ी आबादी मुस्लिम की थी और उर्दू सुनने में भली लगती थी, सो वह चेतना में आती गई। मुझे लगता है बोलियों और भाषाओं में जीते हुए मैं सेकुलर होता गया। सांप्रदायिक वही होता है जो एक भाषा के रास्ते से एक धर्म और राष्ट्र के बारे में सोचने लगता है। कई भाषाओं, धर्मों और साहित्यों में रहने वाला सांप्रदायिक नहीं हो पाता। उर्दू की विरासत में मोहब्बत है और वह सांप्रदायिक न होने देती है, न है। राजनीति उसे सांप्रदायिक बनाती है।

जिज्ञासा : आपकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि कविताओं से आपको गहरी आसक्ति है और निराशा के इस भयावह दौर में उससे काफी उम्मीदें भी। आप इसपर क्या सोचते हैं ?

लीलाधर मंडलोई : हर कला भयावह समय में उम्मीद से अधिक भरोसा होती है। यह आप आपदाओं में अनुभव करते हैं। युद्ध के समय में इनका महत्व समझ में आता है। कोरोना समय इसका ज्वलंत उदाहरण है। मेरी डायरी, किताब और कविताओं ने जैसे मुझे बचा लिया। मैं कविता के रास्ते फिल्म, चित्रभाषा, संगीत और कथेतर विधाओं में सोचता हूँ। इसलिए मेरी सभी रचनाएं काव्यात्मक शिल्प में होती हैं। कविता मुझे प्रेम और करुणा को अभिव्यक्त करने का अनुकूल फार्म सहज रूप से देती है। मैं यह मानता हूँ कि अभिव्यक्ति के रास्ते प्रतिकूल समय में खोजने होते हैं।

 

जैसी स्थिति आज है उसमें कविता या साहित्य की किसी भी विधा में मुखर प्रतिरोध के बगैर काम नहीं चलेगा। बिंब और प्रतीक हों, लेकिन अनावश्यक रूप से उलझाने वाले न हों। रचना अपनी पूरी ताकत से संप्रेषित हो- हथौड़े की तरह प्रहार करे।

राकेश रेणु का चौथा काव्य संग्रह ‘नए मगध मेंहै। इसमें उनकी 72 कविताएं संकलित हैं, जिनमें नए मगध को केंद्र में रखकर लिखी गई कविताएं 15 हैं। ‘नए मगध में’ सिरीज की इन पंद्रह कविताओं को पढ़ते हुए कवि की काव्य संवेदना को काफी हद तक समझा जा सकता है। उनके यहां कविता प्रतिरोध का एक अलग काव्य मुहावरा गढ़ती हुई, सत्ता के वर्तमान चरित्र की विदू्रपता को उजागर करती है और अपने समय में सीधे हस्तक्षेप करने का साहस दिखाती है। ये कविताएं उस सत्ता के चरित्र की विद्रूपता को उजागर करती हैं, जो निरंकुश और जनविरोधी है। विडंबना यह है कि फिलहाल यही हमारे समय की नियति है: न मानने की सजा कुछ भी हो सकती थी/सार्वजनिक प्रताड़ना, मारपीट, कारावास/या फिर मृत्युदंड/खड़े-खड़े गोली मारी जा सकती थी अवज्ञाकारी को/यह नए मगध का जनतंत्र था। (‘नए मगध में 2’)।

2014 के बाद देश में जिस तरह की स्थितियां निर्मित हुई हैं, उनसे लोकतंत्र खतरे से घिर गया है। प्रेस की हालत भी किसी से छिपी नहीं है। निरंकुश सत्ता को अब सच बोलने वाले, सरकार की आलोचना करने वाले स्वीकार नहीं हैं : केवल कोर्निश करते/मुस्कराते लोग चाहिए थे उसे राजधानी में/वह तकदीर लिख रहा था नए मगध की/कपाल पर/उकेरना चाहता था अपना नाम स्वर्णाक्षरों में/उसे पसंद थे/झुके हुए, रेंगते, हे-हे हे करते लोग। (‘नए मगध में 8’)।

आज जिस नफरत का जहर चारों ओर फैल चुका है, प्रेम और शांति जैसे शब्दों का अस्तित्व लगभग समाप्त हो चुका है। धर्म और जाति के नाम पर जिस तरह के कत्लेआम हो रहे हैं, वह इस महादेश के लिए किसी भी रूप में प्रीतिकर नहीं है। राकेश रेणु की काव्यदृष्टि हमारे समय के इस दारुण यथार्थ को देखने से कतराती नहीं है, बल्कि इस भयावह यथार्थ में गहरे धंसकर भरसक उससे टकराने का दमखम भी रखती है : कानून ने पहन रखे थे मुखौटे/धर्म और जात के मुखौटे सबसे सुर्ख सबसे चमकदार/प्रेम का मुखौटा नफरत की बात करता/शांति का मुखौटा सबसे हिंस्र नजर आता। (‘नए मगध में 15’)

राकेश रेणु के काव्य संसार में दमन और अन्याय है। महात्मा गांधी पर लिखी एक कविता ‘हत्या होगी’ में गांधी के हत्यारों के बहाने आज के दौर के सांप्रदायिक हत्यारों की भी शिनाख्त करती है। यह आज के धार्मिक कट्टरता और नफरत के तंग माहौल में उन चेहरों को बेनकाब करने की हिम्मत दिखाती हैं जो चारों तरफ बेखौफ घूमते हुए दिखाई देते हैं : हत्यारे घूम रहे थे चारों तरफ/हालांकि कहीं से हत्यारे नजर नहीं आते थे/वे सीधे-सादे सफेदपोश सरल लोग/खास तरह की मासूमियत दिखती उनके चेहरों पर। (‘हत्या होगी’)। उनके काव्य संग्रह में प्रेम पर लिखी हुई कविताएं भी हैं। आमतौर पर कवियों का प्रिय विषय प्रेम है। प्रेम के बिना न क्रांति संभव है और न ही समाजवाद। राकेश रेणु के यहां प्रेम का अपना एक अलग ताप और एक अलग ऊष्मा है। वे निरंतर कू्रर होती हुई दुनिया में प्रेम को हर कीमत पर बचा लेना चाहते है : साधारण आदमी हूँ, जानता हूँ/इच्छाएं अनंत हैं सीमाएं बहुत, जानता हूँ/अपनी सीमाओं के पार जाकर/तुम्हें प्यार करता हूँ मैं। (‘प्रेम पांच’)। ‘नए मगध में’ के माध्यम से राकेश रेणु एक अलग तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज करते हुए यह जाहिर करने का प्रयास करते हैं कि अपने समय में हो रहे जुल्म और अन्याय से जूझे बिना कोई भी कविता सार्थक और बड़ी कविता नहीं हो सकती है।

जिज्ञासा : मगध को केंद्र में रखकर श्रीकांत वर्मा ने भी कविताएं लिखी हैं। आपने भी मगध को ही अपनी कविताओं के केंद्र में रखना क्यों जरूरी समझा है?

राकेश रेणु : मेरी समझ से श्रीकांत वर्मा का मगध किसी भौगोलिक सीमा को इंगित नहीं करता। वे एक काल विशेष की कविताएं हैं। ठीक इसी प्रकार ‘नए मगध में’ की कविताएं किसी भौगोलिक सीमा को व्याख्यायित करने के बजाय एक कालखंड की दु:सह्य और अनिवार्य रूप से अनिवार्य स्थितियों को व्याख्यायित करती हैं। यह कालखंड श्रीकांत वर्मा के कालखंड से आगे का है, हमारा कालखंड है जिसमें हम जी रहे हैं और अनिच्छुक भोक्ता हैं। यह कालखंड स्वाधीन हिंदुस्तान का, मेरी समझ से, सबसे खराब कालखंड है। इसमें आधुनिक और जनतांत्रिक भारत का सपना धूमिल हो रहा है और बौद्धिक समाज लालच अथवा भय के मारे बोलने से बच रहा है। बोलना यहां खतरे से खाली नहीं है। ‘नए मगध में’ शृंखला की कविताएं संग्रह की दूसरी कविताओं के साथ इस प्रवृत्ति का प्रतिकार करती हैं। मौजूदा कालखंड को परिभाषित करने के लिए मगध के रूपक से ज्यादा उपयुक्त मुझे और कोई रूपक नहीं लगा।

जिज्ञासा : क्या आप मानते हैं कि इस समय कविता में इसी तरह के प्रतिरोध की ज्यादा जरूरत है?

राकेश रेणु : जैसी स्थिति आज है उसमें कविता या साहित्य की किसी भी विधा में मुखर प्रतिरोध के बगैर काम नहीं चलेगा। बिंब और प्रतीक हों, लेकिन अनावश्यक रूप से उलझाने वाले न हों। रचना अपनी पूरी ताकत से संप्रेषित हो- हथौड़े की तरह प्रहार करे। इस संदर्भ में ‘परिकथा’ के सौवें अंक में प्रकाशित यह छोटी-सी कविता पढ़ी जा सकती है। यह नए मगध में के बाद की कविता है-  ‘उंगलियों में फंसी रही कलम/कलम में फंसी रही स्याही/जिल्द के भीतर फंसे रहे पन्ने/निमिष और दिन और महीने और साल में फंसा रहा काल/कंठ में फंसा रहा तान/विमूढ़ता में फंसी रही सक्रियता/हृदय में फंसी कविता/आंख में उबलता गुस्सा फंसा हुआ/यह इन सबकी मुक्ति का समय है/यह समय/स्वीकृति के मौन से/असहमति की चीख का/लिखने और बोलने का समय है।’

जिज्ञासा : आपकी एक काव्य पंक्ति है ‘प्रेम ही बतियाएगा, जब मौन हो जाएंगी भाषाएं।’ प्रेम की उपस्थिति आपकी कविताओं में किस तरह एक उम्मीद की लहर की तरह है?

राकेश रेणु : निकारागुआ के प्रसिद्ध मार्क्सवादी क्रांतिकारी कवि अर्नेस्तो कार्दिनाल ने कहा है कि ‘जो कवि प्रेम की कविता नहीं लिख सकता वह क्रांति की कविता भी नहीं लिख सकता।’ कार्दिनाल ऐसा क्यों कहते हैं? मुझे लगता है कि वे ऐसा कहते हैं क्योंकि प्रेम से भरा व्यक्ति ही मनुष्य की, समाज की, देश और दुनिया की बेहतरी के बारे में सोच सकता है, उसके लिए प्रयास कर सकता है। इसलिए आप देखेंगे कि कोई भी क्रांतिकारी कवि प्रेम का भी उतना ही उम्दा कवि होता है। यह बात जिस परिमाण में हिंदी कविता के लिए सही है उतना ही दुनियाभर की दूसरी भाषाओं में लिखी जा रही कविताओं के लिए भी सही है। यहां कृपया प्रेम का अभिप्राय स्त्री-पुरुष प्रेममात्र से न लिया जाए। स्त्री-पुरुष प्रेम जरूरी है, लेकिन वही सब कुछ नहीं है। ‘नए मगध में’ में प्रतिरोध शीर्षक से एक कविता संकलित है। वास्तव में यह एक प्रेम कविता है। पूरी कविता प्रेम के बारे में बातें करती है, उसे समझने और बरतने के बारे में, किंतु शीर्षक प्रतिरोध है। अपनी समग्रता में यह कविता यही बताने की चेष्टा करती है कि प्रेम और प्रतिरोध साथ-साथ चलते हैं। प्रेम प्रतिरोध, परिवर्तन और क्रांति का एक जरूरी उपकरण है। इसलिए प्रेम की ओर लौटना बेहतरी की ओर लौटना है, परिवर्तन की ओर लौटना है।

 

कोई रचनाकार अपनी किसी भी रचना से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं होता है। उसे हमेशा एहसास होता है कि वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जो चाहता है, पूरी तरह से दर्ज नहीं हो पाया है। कुछ न कुछ बचा हुआ है।

उनके अंधकार में उजास हैकाव्य संग्रह तक आते-आते संजीव बख्शी की काव्य संवेदना कहीं अधिक आभ्यांतरिक और कल्पनाशीलता की ओर मुड़ती दिखाई देती हैं। उनका काव्य मुहावरा इसमें कहीं अधिक पारदर्शी और शब्दों की फिजूलखर्ची से मुक्त जान पड़ती हैं। भाषा के प्रति उनका रवैया एक सजग और मितकथन कवि के रूप में दिखाई देने लगता है। वह ‘प्यास पानी का घर है’ जैसे अपूर्व बिंब को कविता में रचने में पारंगत है। संजीव बख्शी जो दिख रहा है, उससे अलग जो नहीं दिख रहा है उसे अपनी कविता में चित्रित करने की कोशिश करते हैं। पानी के घर में पानी-सा रहने की अभिलाषा सहज और तरल रूप में बने रहने की इच्छा है : प्यास/पानी का सुंदर घर है/मेरा घर भी हो इस तरह/कि मैं पानी सा रहूं। (‘घर प्रवेश’)। यह उत्कट अभिलाषा सहजता और विनम्रता से वस्तुजगत के दृश्य चित्रों को कविता के विन्यास में दर्ज कर लेती है। कभी-कभी यह सहजता उनकी कविताओं में उग्रता और आक्रामकता में बदलती हुई भी दिखाई देती है, खासकर जहां वे बस्तर के निरीह आदिवासियों के साथ खड़े हैं।

कवि आदिवासियों के ऐकांतिक जीवन में किसी भी हस्तक्षेप के खिलाफ है। आदिवासियों को लेकर उनकी चिंता इस कदर है कि उनकी जिंदगी में किसी तरह की दखलंदाजी उसे पसंद नहीं है। इसलिए जंगल की नींद और अमन चैन के लिए वे गुहार लगाते हैं :  इनके सुनसान को/धमाकों की आवाज से/खत्म कर देना चाहते हैं/अपील है उनसे करबद्ध/जंगल को उसकी नींद वापस कर दो/सोने दो/जंगल को। (‘जंगल का अंधकार’)।

इस संग्रह की कविताओं में कवि चित्र के रंगों से अपनी आसक्ति प्रकट करता दिखता है : चित्रों की प्रदर्शनी में/एक चित्र से/मैं बातें करने लगता हूँ/कोई नहीं सुन रहा हमारे बीच की बात/चित्र के कई रंग एक साथ बतियाना चाह रहे थे। (चित्र-10)।

उत्तर-आधुनिक युग में मानवीय संवेदना और करुणा का कोई मूल्य नहीं रह गया है। निवेदन, प्रार्थना और कृपा जैसे शब्दों का पूरी तरह से अवमूल्यन हो चुका है। एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में कवि इन शब्दों के अवमूल्यन से दुखी है : निवेदन का अर्थ निवेदन नहीं रह गया है/न प्रार्थना का प्रार्थना/कृपा तो एक सिरे से गायब है। (‘धातु का मुलम्मा’)।

छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है। यहां धान की अनेक विशिष्ट प्रकार की प्रजातियों में दुबराज किसी समय अपनी खुशबू के लिए जाना जाने वाला स्वादिष्ट चावल माना जाता था। पर खेतों में रासायनिक खादों के बेतहाशा प्रयोग के कारण अब इस चावल में किसी तरह की कोई सुगंध शेष नहीं रह गई है। संजीव बख्शी ने दुबराज के चावल को याद करते हुए हमारी छीजती तथा विखंडित होती हुई संस्कृति को याद करते हुए लिखा है : कहने के लिए लोग कहते हैं यह है नगरी का दुबराज/पर वो हँसी-खुशी उसके भीतर नहीं आते/मिट्टी को दोष देते हैं लोग/कहते हैं अब मिट्टी में नहीं रही वह ताकत। (‘नगरी का दुबराज’)। वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने इस किताब के ब्लर्ब पर लिखा है, ‘संजीव बख्शी की दृष्टि और मंतव्य किसी वाद की जकड़न और अतिरंजना से मुक्त है। उनके पास ऐसी सजग, संवेदनशील और मानवीय दृष्टि है जो चौकन्नी तो है चालाक नहीं।’

जिज्ञासा : स्थानीयता के प्रति आकर्षण भी आपकी कविताओं के नाभिक में उपस्थित है। इसका क्या कारण है?

संजीव बख्शी : स्थानीयता में बहुत बड़ी ताकत होती है। उसके अपने रंग होते हैं। उसकी अपनी महक होती है जिससे वह अलग से पहचान लिया जाता है। हर स्थान की स्थानीयता अलग होती है एक दूसरे से भिन्न। यह सच है कि मेरी कविताओं में, मेरे उपन्यास में भी छत्तीसगढ़ की स्थानीयता है। मैं छत्तीसगढ़ की माटी में जन्मा, यहीं पला-बढ़ा। इस परिवेश का मुझ पर असर पड़ा है। स्थानीयता कहीं की हो, उसका एक टोन होता है पर उसके भीतर का भाव वैश्विक होता है। यह मेरे साथ ही नहीं, बल्कि हर रचनाकार के साथ है। यही स्थानीयता की ताकत भी है।

जिज्ञासा : जीवन की छोटी और बारीक आवाजों को आप अपनी कविता में कैसे दर्ज कर पाते हैं?

संजीव बख्शी : यह कवि कर्म का हिस्सा है। जीवन के आस-पास जो देखा, पाया, जो घटित हुआ, वह चीज कहीं न कहीं से कविता में आ गई। छत्तीसगढ़ कुछ है ही ऐसा कि इसके कण-कण में जीवन है। यहां के लोगों में सरलता है, भोलापन है। यही सब कहीं न कहीं से निकलकर मेरी कविताओं में आ जाती हैं।

जिज्ञासा : क्या आप जिस तरह की कविताएं लिखना चाहते थे वैसा लिख पाने में सफल हुए हैं?

संजीव बख्शी : कोई रचनाकार अपनी किसी भी रचना से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं होता है। उसे हमेशा एहसास होता है कि वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जो चाहता है, पूरी तरह से दर्ज नहीं हो पाया है। कुछ न कुछ बचा हुआ है। ऐसा ही मेरे साथ है। मैं तो साफ-साफ यह भी नहीं जानता कि मैं क्या चाहता हूँ। छोटे-छोटे हिस्सों में ही यह चाहना जीवन में आता है। इस तरह से चाहना भी उसी तरह आता है जैसे किसी कविता की पंक्ति आती है।

समीक्षित पुस्तकें
(1) क्या बने बात – लीलाधर मंडलोई, सेतु प्रकाशन, 2022
(2) नए मगध में – राकेश रेणु, अनुज्ञा बुक्स, 2022
(3) उनके अंधकार में उजास है – संजीव बख्शी, अंतिका प्रकाशन, 2023

204, कंचन विहार, डूमर तालाब (टाटीबंध), रायपुर-492009 मो. 6264768849