कवि और आलोचक।अद्यतन कविता संग्रह ‘लौटता हूँ मैं तुम्हारे पास’।
लीलाधर जगूड़ी ने अपने काव्य संग्रह ‘कविता का अमरफल’ में कहा है, ‘कविता में इतिहास का होते हुए भी अपने समय का होना पड़ता है।जो अपने समय का नहीं, वह इतिहास का भी नहीं हो सकता है।’ यह इतिहास का होते हुए अपने समय में होने का प्रयत्न करने वाला एक महत्वपूर्ण कविता संग्रह है।
लीलाधर जगूड़ी ने 1960 के बाद की हिंदी काव्य धारा को समृद्ध किया है।वे पद्य में गद्य का सा ठाठ रचने और मित कथन के लिए पहचाने जाने वाले अपने ढंग के निराले कवि हैं।उनकी कविताओं में करुणा तो है पर एक अलग रूप में है।वहां प्रश्नाकुलता है, एक अलग अंदाज में।इसे हम जगूड़ी का अपना रूप, अपना अंदाज भी कह सकते हैं।समकालीनता के दबाव से दूर वे अपने काव्य का रसायन जिन तत्वों से निर्मित करते हैं, वह हिंदी काव्य परंपरा को एक नई दिशा की ओर उन्मुख करने वाली सिद्ध होती है।उनका हर काव्य संकलन अपने पूर्ववर्ती काव्य संकलन से भिन्न होता है।वह एक नए अनुभव संसार की ओर ले जाने की चेष्टा करता हुआ प्रतीत होता है।पत्थर के साथ उत्तर आधुनिकता की तुलना लीलाधर जगूड़ी के यहां ही संभव है।यह भी कि कविता का एक ही अर्थ नहीं होता।हर अच्छी कविता हर बार अलग-अलग समय में अपने अर्थ के वैभव को अलग-अलग रूप में प्रस्तुत करने का सामर्थ्य रखती है।उनकी कविता ‘छाती पर पत्थर’ से ये पंक्तियां हैं-
उत्तर आधुनिकता जैसा जड़ विखंडन
नहीं होता डगमग पत्थर का
धूप चांदनी दोनों में दमकते चमकते देखा है
शब्द का हो सकता है कविता का एक ही अर्थ नहीं होता
लीलाधर जगूड़ी यथार्थ की रूढ़ परिभाषा को अमान्य करते हैं।उनकी कविता में यथार्थ की आवाजाही को लेकर अलग निष्पत्तियां हैं जो एक समर्थ और अनुभवी कवि की निष्पत्तियां मानी जा सकती हैं।भाषा के बारे में भी उनकी कविता के अपने अलग निष्कर्ष और तर्क हैं।बरती हुई भाषा उनके यहां स्वीकार्य नहीं, समकालीन काव्य मुहावरा जगूड़ी के यहां लगभग त्याज्य है।बरती हुई भाषा उनके लिए अनुभवहीन गरीब की तरह है-
क्या हू-ब-हू ज्यों का त्यों ही यथार्थ है
या जिसका जैसा अर्थ है
वह उसका यथार्थ है
बरती हुई भाषा चलेगी नहीं
अनुभवहीन गरीब कहलाएगी
भाषा के उत्खनन में मजदूर कवि के लिए
अंधकूप भी अनुभव स्वरूप है
लीलाधर जगूड़ी की कविताएं नाटकीय तत्वों और भंगिमाओं के मेल से एक अलग आस्वाद ही तैयार नहीं करती हैं, बल्कि एक अलग अर्थ का विधान भी करती हैं।उनकी कविताओं में संवेदना गिड़गिड़ाती हुई या हांफती हुई नहीं, बल्कि निरंतर संवाद करती हुई या कहीं-कहीं तर्क करती हुई-सी प्रतीत होती है।वह किसी गलत बात का प्रतिकार करते हुए, अपने होने को चरितार्थ करती हुई जान पड़ती है।आकृतियों में छिपे हुए अद़ृश्य बीज को जगूड़ी की द़ृष्टि ढूंढ निकालती है।उनकी कविता लोहे में आग और पत्थर में छिपी हुई लपट को देखने का सामर्थ्य रखती है-
आकृतियों के बीच छिपे होते हैं
लोहे में आग की तरह, पत्थर में लपट की तरह
जैसे स्त्री-पुरुष में छिपी होती
अगले मनुष्य की रुलाई
प्राकृतिक बिंब उनकी कविताओं में इस तरह आते हैं, जैसे- उन्हें दिखाई देने चाहिए, ऐसे नहीं जैसे वे दिख रहे हैं।यहां चीड़ के जंगल का हरा अंधेरा भूरा होता हुआ ही नहीं बल्कि बिना मांजे तांबे की गागर की तरह है- ‘चीड़ के जंगलों का हरा उजाला कुछ भूरा होता जा रहा है/जैसे बिना मांजे हुए तांबे की गागर/बांज के जंगलों का हरा अंधेरा पत्तियां उलट जाने से/कभी-कभी सफेद दिख जाता है।’
जगूड़ी के यहां सबसे अधिक महत्वपूर्ण है उनकी काव्य द़ृष्टि जो द़ृश्य के भीतर तक जाकर आर-पार तक देख सकने का सामर्थ्य रखती है।वह अतीत और भविष्य में एक साथ डुबकी लगा सकती है।उनकी यह काव्य द़ृष्टि, उनकी यह ज्ञानात्मक संवेदना, उनकी यह वैश्विक करुणा पाठकों को बहुत दूर तक अपने साथ ले चलती है।
बिना नाव जैसे बीज नदियां पार कर लेते हैं
उस तरह किसी के काम आकर
मैं वहीं जाकर फिर से उगना चाहता हूँ
मैं उगूं और किसी को लगे कि
यह तो शब्द है भाषा है
जगूड़ी के यहां भाषा के अतिरिक्त भी ऐसा कुछ बचा रह जाता है जो अर्थमय है।वे द़ृश्य और ध्वनि को भाषा के अतिरिक्त शब्दों के अंतराल में कहीं छिपा लेते हैं।उनके साथ सबकुछ द़ृश्य में ठूंस देने के लिए नहीं है, अपितु वे पाठकों के विवेक पर भी बहुत कुछ छोड़ देते हैं।
‘कविता का अमरफल’ में कवि ने लिखा है ‘मनुष्यता के मूलभूत गुण और मानवीय कू्ररताओं के समकालीन अत्याचारों के बीच कोई भी एक तटस्थ लेखक हो ही नहीं सकता।लेखक कैमरा नहीं है।लेखक एक संवेदनशील आंख हैं जिसके पास विचारधारा से पहले आंसुओं की एक धारा है।’ उसने यह भी कहा है, ‘नए विषयों की उद्भावना के लिए किसी भी रचनाकार को हमेशा खुले मन और खुले दिमाग से संसार की हर चीज से मिलना चाहिए।’
जिज्ञासा : लगभग साठ वर्षों के अपने कवि जीवन को पीछे मुड़कर देखना आपको कैसा लगता है?
लीलाधर जगूड़ी : अच्छा लगता है, पर कभी-कभी यह भी लगता है कि मैं बहुत कुछ कर सकता था जो मैं नहीं कर पाया।मैं काव्य विधा में ही नाटक की संभावनाएं तलाशता रहा।मैं कविता में ही कहानी कहने की कोशिश करता रहा।मुझे लगता है कि कविता का जन्म ही कहानी कहने के लिए हुआ है।कविता में कहानी भी होती है।मैथिलीशरण गुप्त, अज्ञेय, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय की कविताओं में कहानी भी है।वाल्मीकि का जन्म ही जैसे कविता में कहानी कहने के लिए हुआ है।मैंने अपनी कविताओं में कविता, कहानी और नाटक इन तीनों विधाओं का समन्वय किया है।मैं विधाओं के झगड़े में नहीं पड़ा।मैं कहानियों में कहता तो भी यही कहता जो मैं कविता में कह रहा हूं।यह सच है कि मेरी कविताओं में, मेरी कविताओं की भाषा में नाट्य तत्व मौजूद हैं।मेरी कविताओं के पहला संग्रह का नाम ही है- ‘नाटक जारी है’।
जिज्ञासा : इस संग्रह में आपने एक जगह लिखा है, ‘यथार्थ भी अपने अर्थ के पीछे छिपा हुआ होता है, जहां वह छिपा है वहां से उसे बाहर लाना होता है।’ आप अपनी कविताओं में उसे किस तरह से बाहर लाते हैं?
लीलाधर जगूड़ी : पिछले कुछ वर्षोर्ं से आलोचकों ने यथार्थ की एक पहचान बना दी है कि यथार्थ ऐसा होता है।एक तरह से आलोचना ने आत्मरक्षा के लिए अपने प्रतिमान बना रखे हैं, रचना की आत्मरक्षा के लिए नहीं।रचना में आलोचना के कौन से मूल्य उभर रहे हैं और वे कौन से मूल्य हैं जो आलोचना में नहीं हैं, इस पर आलोचकों का ध्यान नहीं जाता है।किसी भी रचना की कसौटी बाहर से नहीं बनाई जा सकती है, रचना के भीतर जाकर ही उसकी कसौटी निर्मित की जा सकती है।हर पत्थर सोने की कसौटी नहीं हो सकता है, जिस पत्थर के पसीने से सोना बनता है, वही पत्थर सोने की कसौटी बन सकता है।इसलिए मैं मानता हूँ कि रचना के अनुभव को आलोचना की कसौटी बनाई जानी चाहिए।रचना में अंतर्निहित मूल्यों के आधार पर ही रचना का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
जिज्ञासा : आपने इस संग्रह के प्रारंभ में लिखा है, ‘मैंने अपनी आत्मा को दुनिया की आत्मा का हिस्सा बनाने के लिए अपने वास्ते कविता को चुना है।’ इसे थोड़ा स्पष्ट कीजिए?
लीलाधर जगूड़ी : तुलसीदास के लिए रचना का अर्थ ‘स्वांत: सुखाय’ था।मेरे लिए यह दुनिया को समझने का माध्यम है।मैं इस दुनिया को समझना चाहता हूँ, इस दुनिया से लड़ना और भिड़ना चाहता हूँ।इसलिए मैंने अपने लिए कविता का चुनाव किया।यह दुनिया मेरी जैसी क्यों नहीं है या मैं इस दुनिया जैसा क्यों न बन सका, इसे जानने के लिए मैं कविता के पास गया।मुझे लगा दुनिया की एक अलग शक्ल है जिसे मुझे समझना चाहिए।इसके लिए कविता ही मुझे बेहतर माध्यम प्रतीत हुई।दुनिया से जिस तरह से हमारी मुठभेड़ होती है, साक्षात्कार होते हैं, उससे एक संवाद की स्थिति भी बनती है।मैंने अपनी कविताओं के माध्यम से इस संवाद को बनाए और बचाए रखने की कोशिश की।प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग आत्मा होती है, मैं अपनी कविताओं के माध्यम से उस हरेक आत्मा को प्रतिबिंबित करने का प्रयास करता हूँ।हर रचनाकार को यह पता होता है कि उसके उत्पादन में इस्तेमाल किए गए बीज कहां-कहां से लिए गए हैं।मुझे यह पता है कि मेरी कविताओं के बीज तत्व मेरी कविताओं में कहां से आए हैं।इसलिए मैं मानता हूँ कि मैंने अपनी आत्मा को दुनिया की आत्मा बनाने के लिए कविता को चुना है।
1970 में ‘आंख हाथ बनते हुए’ शीर्षक प्रथम काव्य संग्रह से अपनी यात्रा प्रारंभ करने वाले ज्ञानेंद्रपति हिंदी के वरिष्ठ कवियों में शुमार किए जाते हैं।ये हिंदी के कुछ उन कवियों में से हैं जिन्होंने पचास वर्षों की दीर्घ काव्य यात्रा तय कर ली है।उनके अब तक आठ काव्य संग्रह प्रकाशित तथा चर्चित हो चुके हैं।कालक्रम की द़ृष्टि से ‘कविता भविता’ उनका नौवां संग्रह है।
ज्ञानेंद्रपति एक अलग तरह की काव्य संवेदना के लिए समकालीन कविता में पहचाने जाते हैं।समकालीन यथार्थ के प्रति उनका द़ृष्टिकोण अपने अन्य समकालीन कवियों से भिन्न है।मनुष्य और प्रकृति के प्रति उनकी चिंता और व्याकुलता का फलक हमेशा से व्यापक रहा है।
लीलाधर जगूड़ी के संग्रह ‘कविता का अमरफल’ में कविता को लेकर चिंताएं हैं।ज्ञानेंद्रपति के संग्रह की कविताओं के केंद्र में भी कविता है।कविता भी है और कविता के माध्यम से रची जाने वाली एक सुंदर दुनिया भी है।कविता के प्रति गहरी आसक्ति ही नहीं, कविता के साथ एक गंभीर संपृक्ति भी इन कविताओं के नाभिक में दिखाई देती है।इनके अंतजर्र्ल में भविष्य में खिलने वाले नीलकमल दिखाई दे सकते हैं।कविता यहां चमकती हुई, किसी स्मृति, स्वप्न, कल्पना और भविष्य को द़ृश्यमान करती हुई जान पड़ती है।कविता को लेकर मात्र आश्वस्ति ही नहीं, आशा भी महत्वपूर्ण है- ‘कोई कविता चमकती है/स्मृति की तरह, कल्पना की तरह/स्वप्न की तरह, भविष्य की तरह/दूरियों में कोई/कविता चमकती है नदी की तरह, मरीचिका की तरह।’
इस संग्रह में कविता के अनेक रूप अनेक रंगों और द़ृश्यों के साथ उपस्थित हैं।कविता के प्रति एक उत्कट प्रेम है जो प्रकृति के साथ कुछ अलग अंदाज में दिखाई पड़ता है।एक नन्हा-सा कीड़ा जो हमारे द़ृश्य जगत का हिस्सा नहीं बन पाता, वह ज्ञानेंद्रपति की कविता में पूरी दीप्ति में प्रकट होता है।ज्ञानेंद्रपति उस कीड़े के साथ अपनी कविता का साहचर्य स्थापित करते हैं- एक कविता उठाता हूँ/जिस तरह कोई झुककर सड़क पर से/एक गिरा पड़ा सिक्का उठाता है, कुछ-कुछ खुश/झुक कर देखता हूँ/पतली सी पगडंडी पार करता हुआ वह नन्हा-सा कीड़ा/अपनी पीठ पर अनंत उठाए है।’
‘कविता भविता’ तक आते-आते ज्ञानेंद्रपति की कविता का ग्राफ काफी बदल गया है।उनके पहले संग्रह से लेकर इस नौवें काव्य संग्रह तक आते-आते उनकी कविताएं, उनके संशय, उनके अंतर्द्वंद्व और उनकी बेचैनियां समय के साथ-साथ बदलती चली गई हैं। ‘ट्राम में एक याद’ या ‘मोती झील’ की तुलना में इधर की कविताओं में ज्ञानेंद्रपति कुछ अधिक मुखर हुए।उनके विरोध और प्रतिरोध के स्वर अधिक तीव्र और सघन रूप में दिखाई देते हैं-
आज ‘प्रसाद’ होते तो
‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’
की जगह
दारुण यह दुखमय देश हमारा
लिख रहे होते
शायद
निराला, प्रसाद, मुक्तिबोध जैसे कवियों के बहाने ज्ञानेंद्रपति ने अपने समय की त्रासदी और सच्चाइयों को कविताओं के माध्यम से व्यक्त करने का प्रयत्न किया है।वे जैसे हमारे समय के भयावह यथार्थ को चित्रित करते हुए दिखाई देते हैं-
‘आशंकाओं के द्वीप : अंधेरे में’
देखे थे मुक्तिबोध ने
हम देखते हैं
आशंकाओं के द्वीप उजालों में
ज्ञानेंद्रपति की कविताएं दूर से जितनी सरल और सहज दिखाई देती हैं, निकट आने पर वे उतनी ही संश्लिष्ट प्रतीत होती हैं।सरलता के भीतर अंतर्गुंफित जटिल संवेदना ही ज्ञानेंद्रपति की कविताओं की प्रमुख विशेषता है।वे अपनी तत्सम-बहुल भाषा के साथ देशजता का जो स्थापत्य निर्मित करते हैं, वह जैसे हमारी खोई हुई परम अभिव्यक्ति का दूसरा प्रतिरूप हो।उनकी ज्योतित कविताएं न जाने कितने अंधेरों से गुजरकर लिखी गई हैं-
एक ज्योतित कविता/जो न जाने कितने अंधेरों से गुजर कर लिखी गई है/एक हँसमुख कविता/जिसके वक्ष में न जाने कितनी उदासियां समायी हैं
जिज्ञासा : भाषा को खोजती हुई भाषा को आप अपनी कविताओं में किस तरह संभव करते हैं?
ज्ञानेंद्रपति : ‘शब्द का परिष्कार स्वयं दिशा है’ -शमशेर की युक्ति है।लेकिन भाषा मूलत: और अंतत: संवाद का माध्यम है, भले कभी संवाद आत्म-संवाद के रूप में हो।सो, संवादरत रहते हुए ही इसे संभव किया जा सकता है, या बेहतर है यह कहें कि यह संभव हो सकता है।दूसरे शब्दों में, कविता एक भाषिक संरचना होने के साथ प्रथमत: एक आनुभूतिक संरचना होती है और दोनों के बीच कोई फांक नहीं होती।सर्जना के पल में कविता की अंतर्वस्तु के साथ जूझते समय ही भावधारा का प्रवाह वाग्धारा में बदलता चलता है।हिंदी की विशाल भाषिक संपदा का सार्थक संदोहन एक चुनौती भरा कार्य है और रचनाकार के लिए रोमांचक भी।नए अनुभव क्षेत्रों में दाखिल होने पर भाषिक अन्वेषणशीलता अपने को सहजतापूर्वक चरितार्थ करती चलती है।
जिज्ञासा : इस कठिन समय में जब कवि, कविता और जन सभी असुरक्षित हैं, आप क्या कहना चाहते हैं?
ज्ञानेंद्रपति : मुक्तिबोध की एक कविता पंक्ति है, ‘आधुनिक सभ्यता के वन में उगा व्यक्तित्व-वृक्ष सुविधावादी।’ यह सच है कि आज वैश्विक पूंजीवाद का लालच विकराल हो उठा है।उसने धरती को निचोड़ और मानवात्मा को मरोड़ दिया है।मानवता की काल-यात्रा में हमने जिन जीवन मूल्यों को संपोषित किया था, वे आज अप्रांसगिक हैं।अगर आज भी किन्हीं मंचों पर कभी उनका उच्चकंठ उच्चारण सुनाई पड़ता है तो इसी कारण कि ‘माया महा ठगिनी हम जानी’, यानी वह उनके मायाजाल का तंतु भर है।ऐसे में कविता एक निरीह उपस्थिति लग सकती है।लेकिन उसने अपने को स्मृति भ्रष्ट होने से यत्नपूर्वक बचा रखा है।इसीलिए वह जन के लिए जरूरत के वक्त की चीज है, भले ही तमाम चमकदार चीजों के बीच अभी वह नाचीज दिखती हो।
जिज्ञासा : आप अपने पचास वर्षों के काव्य अनुभवों के बारे में पाठकों को क्या बताना चाहेंगे?
ज्ञानेंद्रपति : कविता के साहचर्य में आधी सदी के बराबर का वक्त यूं बीत गया कि पता ही नहीं चला।सुख भले दूर रहे हों, आनंद से भरा रहा।चतुर्दिक घूमते जीवन चक्र को निरखने-लखने का आंनद।दरिद्रता की परिस्थितियों के बीच जीते किसी जन के भीतर आत्म-गौरव के दरस-परस का आनंद।जीवनानूभुति को काव्यानुभूति में बदलने के रचनात्मक श्रम की किंचित सार्थकता महसूस करने का आनंद।किसी भी भाषा के, किसी भी कवि की कोई मर्मपूर्ण रचना पढ़कर चित्त की उत्फुल्लता के साथ जीने का आनंद।मुक्तिबोध की एक कविता में, याद आता है, कवि अपने परिभ्रमण से जब घर लौटता है तो दुआरे प्रतीक्षारत उपमाएं उद्घाटित करती हैं कि उसे सौ वर्ष जीना ही चाहिए।लेकिन मुक्तिबोध को तो पचास से भी कम की उम्र मिली।इस मामले में तो अपन मुक्तिबोध से आगे निकल आए, लेकिन कवि की जैविक उम्र का कोई खास मतलब नहीं होता।कवि स्मृतिशेष नहीं होता, वह कृतिशेष बना रहता है क्योंकि अपने जीवन के संपुट में उसने कविता को जगह दी है जिसे मुक्तिबोध ने ही ‘आवेग-त्वरित कालयात्री’ कहा है।
संजय अलंग का नवीनतम काव्य संग्रह है ‘नदी उसी तरह सुंदर थी जैसे कोई बाघ’।उनकी कविताओं को प्रचलित मुहावरे के साथ जोड़ कर नहीं देखा जा सकता।उनकी कविताओं की एक विशेषता यह है कि उनका मर्म धीरे-धीरे उद्घाटित होता है और हमें एक ऐसी दुनिया में जाने के लिए बाध्य करता है, जो काफी हद तक एक विरल दुनिया है।उनकी कविताओं में प्रवेश करना इतिहास और भूगोल के उन अपरिचित गलियारों में प्रवेश करने जैसा है जिसे हमने उस तरह से कभी देखने की कोशिश नहीं की, जिस तरह कवि हमें दिखाना चाहता है।इसलिए उनकी कविताओं में जाना उपर्युक्त गलियारों में कुछ हद तक भटकना भी है।यह भटकाव उनकी कविताओं की अंर्तशक्ति है।
कवि के लिए इतिहास वर्तमान को जानने-समझने का एक मुकम्मल माध्यम है।बिना अतीत को जाने, वर्तमान को भी ठीक-ठीक समझ पाना कठिन है।इसलिए कवि जहां कहीं अवसर मिलता है, इतिहास की ओर लौटता दिखाई देता है।इस संग्रह में उनकी एक कविता है- ‘लाशों पर खड़ा इतिहास’।यह एक बृहत्तर परिप्रेक्ष्य की कविता है।
इतिहास से मुठभेड़ की एक कविता है- ‘शाह अमर हो गया आगरे के लाल किले के साथ’।इसमें कवि जैसे इतिहास से संवाद करने के लिए उत्सुक जान पड़ता है, मुठभेड़ करने की कोशिश भी।इतिहास उसके लिए एक जिरहनामा है, ‘जस का तस धर दीनी चदरिया’ नहीं।इसलिए वे अपनी कविताओं के माध्यम से इतिहास से सवाल पूछने की जुर्रत करते हैं।इतिहास को इतिहासकार की तरह नहीं, एक कवि की आंख से देखते हैं-
राजा को भी अपना नाम चिरस्थायी करने को
चाहिए होता है कला का आश्रय
जिससे वह दिख सके सुसंस्कृत भी
वे लाते धन जनता से ही इसके लिए
करते तरह-तरह के उपाय करने का एकत्र धन
तब बनवा पाते कला का नायाब नमूना
संजय अलंग की कविताएं केवल इतिहास और भूगोल में ही नहीं रमतीं, प्राकृतिक द़ृश्य को भी उसके संपूर्ण सौंदर्य के साथ प्रतिबिंबित करती हैं।यहां एक रूमानियत है, सौंदर्य की एक अलग छवि। ‘घूपगढ़’ उनकी एक ऐसी ही कविता है-
हरियाली का बिस्तर
घाटी में बांहें फैलाए
सूरज को आगोश में ले
चूम रहा है
रोमांच घाटी में फैल गया है
सूरज धीरे-धीरे और पास
आ रहा है
संजय अलंग की कविताओं में प्रकृति के नाना रूप और क्रियाएं हैं।वे प्रकृति के निकट ही नहीं जाते बल्कि उससे स्वयं एकाकार भी हो जाते हैं।उनकी कविताओं में समुद्र, चंद्रमा, सूर्य, धरती, हिमालय, द्वीप की उपस्थिति महत्वपूर्ण है।प्रकृति उनके यहां सहचर के रूप में है।वे जैसे इतिहास और भूगोल के साथ-साथ प्रकृति की ओर भी लौट जाना चाहते हैं।इस संग्रह की एक कविता है- ‘गॉल के समुद्री किले की प्राचीर से’।इस कविता में समुद्र उनकी अनन्य प्रियतमा है।यहां गहरी ऐंद्रिकता है, लेकिन यह ऐंद्रिकता प्राकृतिक बिंब को एक नए रूप में प्रस्तुत करने के निमित्त है-
प्यार हो गया है मुझे
समुद्र से
मैं समा गया हूँ उसमें
बह रहे हैं हम साथ
वह मुझमें मैं उसमें
प्रकृति के बिंब कई बार कुछ नए अर्थ संकेतों की रचना करते हुए दिखाई देते हैं।कवि भूमध्य रेखा पर खड़ा होकर उसके साथ विस्तार भी पाता है और अनंत में उसके साथ परिक्रमा भी करता है।पैरों के बल पृथ्वी से चिपका हुआ और सिर के बल अनंत में लटका हुआ।यह सुंदर बिंब ‘भूमध्य रेखा से सूर्य को ताकते हुए’ में संभव हुआ है-
भूमध्य रेखा पर खड़ा मैं
विस्तार पा रहा था उसके साथ
अनंत का
घूम रहा था उसके साथ
अनंत में
पैरों के बल पृथ्वी से चिपका हुआ
सिर के बल अनंत में लटका हुआ
संजय अलंग के यहां सौंदर्य को देखने की एक अलग द़ृष्टि है।वे सौंदर्य में दो विपरीत धु्रवों के बीच एकता स्थापित करने की कला में जैसे पारंगत हैं।सुंदरता उनके लिए सर्वोच्च प्रतिमान है।वे हर जगह, हर वस्तु में सौंदर्य का विधान करते हैं और एक नया प्रतिमान गढ़ते हैं।इस संग्रह में उनकी एक छोटी सी कविता है-
स्वाद और सुंदरता
सभी जगह थी
बस उन्हें देखा जाना था
खुशी के साथ।
जिज्ञासा : विष्णु खरे ने इस संग्रह की कविताओं पर लिखते हुए कहा है, ‘इन कविताओं का वैविध्य भी मानीखेज है, महत्वपूर्ण यह कि उन्होंने अपनी कवि अस्मिता स्वयं अर्जित की है।’ इस बारे में क्या सोचते हैं?
संजय अंलग : कविताएं विचारों का विस्तार हैं।कविता सहित हर प्रकार के रचना कर्म का संबंध वर्तमान स्थिति को बेहतर बनाने से है।बदलाव की यह आकांक्षा हस्तक्षेप की मांग करती है।यह हस्तक्षेप कविता के दखल के रूप में सामने आता है।कविता मात्र लिखने के लिए नहीं लिखी जाती।कविता सदा उसी तरह आगे आती है, जैसे कि कोई अपना कोई भी अन्य काम करता है।इसके लिए बहुत विशेषण, आडंबर, मंडन या किसी अन्य चीज की जरूरत नहीं है।कविता में वैविध्य भी स्वाभाविक रूप से आता है।सभी प्रकार की ध्वनियों, घटनाओं या कार्यों को देखना और विश्लेषण कर कविता में लाना और विचारों का काव्य रचना के रूप में प्रस्तुत करना व्यापक दृष्टि का सुस्पष्ट परिणाम है।
जिज्ञासा : जब इतिहास को ही नष्ट-भ्रष्ट किया जा रहा है, तब इतिहास-प्रेम की क्या कोई खास वजह है?
संजय अलंग : इतिहास मेरे लिए एक प्रिय विषय है।यह सबक सिखाता है।कठिनाई यह है कि उसे पढ़ना पड़ता है।न सिर्फ पढ़ना बल्कि उसे समझना भी पड़ता है।वह भी अंतर्निहित तथ्यों और बातों के साथ।इसे कभी-कभी ‘बिटवीन द लाइन’, ‘ओव्हर द लाइन’, ‘अंडर द लाइन’ आदि तरीकों से पढ़ना कहा जाता है।अत: इतिहासबोध कविता में और स्पष्टता लाने, बिंब चयन, संप्रेषण सहज करने, कहन और संवाद स्थापित करने के साथ पाठक को समाज से जोड़ने-झकझोरने का काम अधिक सरलता से करता है।
इतिहास पसंद हो या न हो हांट करता ही है।कविता में इतिहास की उपस्थिति कविता को और सहज बनाती है।लगभग सभी भाषाओं के सभी कवियों ने कविता में इतिहास को लिया है।मेरी कविताओं में इतिहास अधिक मुखर होकर ध्यान खींचता है तथा जनता के रूप में शामिल होकर जनता के ही साथ खड़ा नजर आता है।
जिज्ञासा : अपनी कविताओं में प्रकृति की व्यापक उपस्थिति को लेकर आप क्या कहना चाहेंगे?
संजय अलंग : ब्रह्मांड की प्रत्येक चीज प्रकृति है।प्रकृति की चिंता मनुष्य को बेहतर बनाए रखने और बने रहने की चिंता भी है।शायद ही कोई रचना कर्म हो जिसमें प्रकृति उपस्थित न हो।मेरी कविताओं में वह कई रूपों में है।हर बार वह आपकी सांसों और रक्त के साथ बहने की कोशिश करती है।वह आपमें और आपकी प्रकृति में समा जाने का आह्वान करती लगती है।कई बार तो यह कहा जाता है कि प्रकृति ही सबसे बड़ी रचना, कृति या कविता है।इस अजीम-ओ-शान सहकार का कविता में सम्मिलित होना अति स्वाभाविक है।कोई भी कविता सबसे पहले अपने आसपास से ही प्रस्फुटित होती है तथा आपके आसपास सर्वाधिक रूप से और सदा प्रकृति ही है।
समीक्षित पुस्तकें –
(1) कविता का अमर फल : लीलधर जगूड़ी, राजकमल प्रकाशन, 2020 (2) कविता भविता, ज्ञानेंद्रपति, सेतु प्रकाशन, 2020 (3) नदी उसी तरह सुंदर थी जैसे कोई बाघ : संजय अंलग, राजकमल प्रकाशन, 2020
रमेश अनुपम 204, कंचन विहार डूमर तालाब (टाटीबंध) रायपुर, छत्तीसगढ़–492009 मो. 6264768849
I am a great admirer of Dr Sanjay Alung.He is not only a fine administrator, authority on Chhattisgarh,a down to earth poet but a nice human being as well.His soft corner for coal miners reflect in his poem also.He is a great lover of nature which appeals me a lot.