युवा कवि। अद्यतन कविता संग्रह- ‘वे खोज रहे थे अपने हिस्से का प्रेम’। संप्रति शिक्षण।

 

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रविवार की सुबह

रविवार की सुबह
आदमी देर से जागता है
देर से पढ़ता है अखबार
देर से जान पाता है
बुरी घटनाओं के बारे में
जो रात घटी होंगी

अखबार की पीठ पर
सवार होने की इच्छा लिए हुए
अखबार की खबरें
हर सुबह जल्दी जाग उठती हैं
गोया उनके लिए नहीं होता कोई रविवार
अखबार की कुछ खबरें
हर सुबह प्रेत बन डराती हैं
अड़ाती हैं टांग
कि कई बार चाय की चुस्की भी
सुकून से नहीं ले पाता आदमी

रविवार की सुबह देर से जागना
अपनी थकान को
बिस्तर पर कुछ समय के लिए
स्थगित कर आना भर है
क्या कभी ऐसा भी होगा
कि कुछ भी घटित न होगा
खबरें भी न होंगी हमारे लिए
और अखबार लंबी नींद में चले जाएंगे
थोड़े सुकून के लिए
किसी सुबह हम चैन से जाग पाएं
खबरों के लिए भी
कोई रविवार आखिर होना चाहिए!

पहाड़

किसी की आंखों में
मुसीबतों सा दिखता है पहाड़
और भीतर कहीं डुबोता है यह दृश्य
शायद पहाड़ का जन्म इसी तरह होता हो
और दुनिया लगती हो एक पहाड़-सी
किसी की आंखों में
दिखता है पहाड़ का हरापन
और उसकी हरियाली ले जाती है उसे
एक खूबसूरत सपनों की दुनिया में
जहां एक रोमांटिक फिल्म के हीरो की तरह
वह चाहता है पहाड़ को
दुनिया की खूबसूरती से जोड़ना
किसी की आंखों में
पहाड़ पहाड़ नहीं जैसे रत्नगर्भा हो
खोदकर जिसे खड़े किए जा सकते हों
संपदा के नए पहाड़
उनकी आंखों में
जो इक्कीसवीं सदी में पहुंचकर भी
रहते हैं पहाड़ों पर आज भी
पहाड़ पहाड़ नहीं
लगता है उन्हें अपने घर जैसा
जहां कोई बच्चा
पहाड़ी पर बने स्कूल में पढ़ने गया होता है
कोई गया रहता है लकड़ियां बीनने
और कोई पहाड़ी से बैठकर
देखता है दूर के शहर को
और पूरा शहर उसकी आंखों में
पहाड़ सा नजर आता है।