मड़ई का घर जब बरसात में टिपिर-टिपिर चूता है तो सोना के अम्मा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगती हैं। शुरू होती है दो कमरों के घर में भाग-दौड़, जैसे चूहा-दौड़ शुरू हो गई हो। कटोरा इधर रखो, गिलास उधर। धीरे-धीरे थाली-कड़ाही से लेकर भदेली-परात पूरे घर में फैल जाता है। जले पर नमक यह कि बर्तनों से भी बूंदें उछल-उछलकर मिट्टी के फर्श को गीला करने लगती हैं। सोते समय गर्दन किधर टिकाएं, समझ में नहीं आता। ऐसे मौके पर सोना अम्मा की गोद में लुढ़क कर सो जाती है, पर अम्मा क्या करे, समझ में नहीं आता।
इस साल सोना बहुत खुश थी। पापा परदेश से आए थे और घर बनवा रहे थे। अब घर बनवा रहे थे तो वह समझ गई कि वे लौटेंगे नहीं। वह रह-रहकर खुशी से बेकाबू हो जाती थी। एक दिन जब वह स्कूल से घर पहुंची तो काम रुका हुआ था। कई दिनों तक काम शुरू नहीं हुआ। उसने अम्मा से पूछा, ‘अम्मा, मकान की छत कब लगेगी?’
अम्मा कुश के तिनके से डलिया बुन रही थी। उसे बिना देखे ही बोली, ‘जब पैसा हो जाएगा।’
‘पैसा खत्म हो गया?’
‘हां… अगले साल तक पैसा जुट गया तो छत भी लग जाएगी।’
‘पापा फिर परदेस चले जाएंगे?’
‘जाएंगे नहीं तो घर कैसे बनेगा’, अम्मा उसे बिना देखे बोली।
वह भागकर घर के एक कोने में कुछ रोने लगती है।
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बहुत सुन्दर रचना है
हार्दिक धन्यवाद