वरिष्ठ कवि।
चींटियां
झुंड लेकर चींटियां फिर
बेटियों-सी द्वार भरने आ गईं
भावना की पंखुरी पर
शुभ लगुन के फूल धरने आ गईं
चित्रकारी भी गजब की!
दिख रही हैं
देहरी के
द्वार भर्ती रीतियां
क्या भला इनसे लगेंगे
तरुणियों के गीत मंगल
या वनों की वीथियां
सरहदों को लांघती
आंखें किसी से
चार करने आ गईं
गंध की गोपित दिशा में
छिपकली-सी हर जगह
दीवार पकड़े चल रही हैं
पंक्तियों में सांझ को
डूबी सड़क पर
धूल ओढ़े
बत्तियों-सी जल रही हैं
सज-संवरकर लड़कियां-ज्यों
गांव का
बाजार करने आ गईं।
एक चांदा मेड़ पर
नर्म तिनकों के बया फिर
स्वेटरों से घोंसले-घर
बुन रही उस पेड़ पर
धूप के सूजे संभाले
युवतियों-सी व्यस्त बूंदें
हर डिजाइन सीखने में
और मेरी ऊर्जा के
स्रोत सारे होम होते
एक रेखा खींचने में
संगमरमर पर लिखे सब
लेखनी के शिल्प-अक्षर
लादने को भेड़ पर
माचिसों की डिब्बियों-से
खेत फैले, फिर हवाएं
ले जरीबें चक बनातीं
मात्र गीली तीलियां हैं
उलझनें ये, कीरने पर
हाथ में ही फुरफुरातीं
मौसमों ने
रख दिया है
नाप की सीमा दिखाकर
एक चांदा मेड़ पर।
संपर्क : गौर मार्ग, दुर्गा चौक, पोस्ट– जुहला, खिरहनी, कटनी– 483 501 म.प्र. मो.9752539896
“माचिसों की डिब्बियों-से
खेत फैले, फिर हवाएं
ले जरीबें चक बनातीं
मात्र गीली तीलियां हैं
उलझनें ये, कीरने पर
हाथ में ही फुरफुरातीं”
बहुत बढ़िया नवगीत। पढ़कर मन पुलकित हो उठा।