रचना समग्र : बहुविध रचनाधर्मिता
हिंदी के सुपरिचित वरिष्ठ कवि रामकुमार कृषक मूलतः कवि हैं। मगर उन्होंने अन्य कई विधाओं में काम किया है। इसका सुखद एहसास छह खंडों में प्रकाशित उनके रचना-समग्र को देखकर होता है। ‘रामकुमार कृषक : रचना समग्र’ का संपादन चर्चित कथाकार महेश दर्पण ने किया है। इन खंडों में महेश जी की संपादकीय भूमिकाएं कम उल्लेखनीय नहीं हैं। उन्हें पढ़ते हुए कृषक जी की रचना-यात्रा को समझने का मार्ग और अधिक प्रशस्त हो जाता है। यह भी बताना जरूरी है कि हिंदी में कृषक जी जैसे कुशल संपादक बहुत कम हैं। लंबे समय तक निकलनेवाली लघु पत्रिका ‘अलाव’ के अंक इसके प्रमाण हैं ही, राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय विभाग में काम करते हुए भी उन्होंने अपनी रचनात्मक क्षमता का जैसा परिचय दिया है, वह कम गरिमापूर्ण नहीं है।
कृषक जी की छह खंडों में फैली रचना-यात्रा का पहला और दूसरा खंड कविताओं का है। इनमें गीत, नवगीत, जनगीत, पदगीत, गजल एवं मुक्त छंद की कविताएं शामिल हैं। इन कविताओं में हमारा समय पूरी शिद्दत के साथ बोलता है। इन्हें पढ़ते हुए पाठक अपने समय की विसंगतियों, विडंबनाओं और चुनौतियों से रू-ब-रू होते ही हैं, रामकुमार कृषक की विविधतापूर्ण रचनात्मक जमीन भी पाठक को पुकारती है।
‘रचना समग्र’ के तीसरे खंड में रामकुमार कृषक के आलोचनात्मक आलेख एवं संपादकीय हैं। ज्ञात हो कि ‘अलाव’ के संपादकीय केवल संपादकीय न होकर अपने समय के धड़कते हुए दस्तावेज भी हैं। इसी खंड में भूमिकाएं, मत-मतैक्य और वक्तव्य भी शामिल हैं। ‘रचना-समग्र’ के चौथे खंड में आलेख, पत्राचार एवं साक्षात्कार संगृहीत हैं। यहां यह भी बताना जरूरी है कि कृषक जी का गद्य एक कवि का गद्य है। शायद ऐसे ही गद्य को देखकर कभी नामवर सिंह ने कहा था, ‘आज अच्छा गद्य कवि ही लिख रहे हैं।’ इनके लेखों में विचार, भाषा और जन पक्षधरता एक-दूसरे से इस तरह गुंफित हैं कि पाठक उनमें बहते चले जाएंगे।
रचना-समग्र के पांचवें खंड में भी साक्षात्कार हैं। इनके अलावा इसी खंड में संस्मरण, डायरी संस्मरण, यात्रा संस्मरण एवं आत्म संस्मरण हैं।
छठे और अंतिम खंड में कहानियां, किशोरोपयोगी एवं प्रौढ़ोपयोगी कहानियां, लघु कथाएं, व्यंग्य कथाएं एवं बाल कथाएं हैं। कुल मिलाकर रचना-समग्र से संगृहीत लेखन-सामग्री देखकर कृषक जी की बहुविध रचनाधर्मिता से परिचय होता ही है, उनके जीवन-संघर्ष से भी बखूबी वाबस्ता हुआ जा सकता है। निश्चय ही यह रचना-समग्र न केवल संग्रहणीय है, बल्कि पठनीय भी है। उनके रचना-समग्र से 5 गजलें यहां प्रस्तुत हैं।
–राधेश्याम तिवारी
1.
हम हुए आजकल नीम की पत्तियां
लाख हों रोग नीम की पत्तियां
गीत गोली हुए शेर शीरीं नहीं
कह रहे हम ग़ज़ल नीम की पत्तियां
खून का घूंट हम खून वे पी रहे
स्वाद देंगी बदल नीम की पत्तियां
सुर्ख़ संजीवनी हों सभी के लिए
हो रहीं खुद खरल नीम की पत्तियां
आग की लाग हैं सूखते बांसवन
अब न होंगी सजल नीम की पत्तियां
वक़्त हैरान हिलतीं जड़ें बरगदी
सब कहीं बादख़ल नीम की पत्तियां
एक छल है गुलाबी फसल देश में
दरअसल हैं असल नीम की पत्तियां।
2.
जब तलक एक धारा नहीं दोस्तो
संग होगा किनारा नहीं दोस्तो
आंसुओं में पसीना बहे उम्र-भर
सिलसिला ये गवारा नहीं दोस्तो
चुप्पियां हैं अभी इसलिए चुप्पियां
चुप्पियों को पुकारा नहीं दोस्तो
राजमहलों के हम जो हुए हो चुके
होंगे अब ईंट – गारा नहीं दोस्तो
राख होने से पहले धधकना हमें
कोई अब और चारा नहीं दोस्तो!
3.
बाख़बर हम हैं मगर अख़बार नहीं हैं
बाक़लम खुद हैं मगर मुख़्तार नहीं हैं
क्या कहा हमने भला इक शेर कह डाला अगर
कट गए वो और हम तलवार नहीं हैं
आप ही तो साथ थे अब आपको हम क्या कहें
जानते हैं रास्ते बटमार नहीं हैं
डूबिएगा शौक से हम तो डुबाने से रहे
हम नदी की धार हैं मझधार नहीं हैं
आप चीजें चाहते हैं आपकी औक़ात है
हम कहीं तक शामिले – बाज़ार नहीं हैं
आज तक सूरज हमारी देहरी उतरा नहीं
हैं नहीं रौशन भले अंधियार नहीं हैं
हो गए हैं एक सच उघड़ा हुआ हम आजकल
चाहतों में हैं मगर स्वीकार नहीं हैं।
4.
क्या बदलता है यहां पर धारणाओं के सिवा
कुछ उनींदी स्वप्नवत संभावनाओं के सिवा
टोपियां बदलेंगी केवल और क्या बदलेगा कल
आपकी फिर आपकी अवधारणाओं के सिवा
हम हुए ग्लोबल मगर इस ग्लोब में अपना है क्या
इस महाभूखंड पर बहती हवाओं के सिवा
दाल-रोटी का पता कल तक धुआं देता तो था
आज है निर्धूम सब कुछ कामनाओं के सिवा
लाइनों पर लाइनें हैं झिड़कियों पर झिड़कियां
है सभी कुछ अस्पतालों में दवाओं के सिवा
हम गए काशी में या फिर लौटकर क़ाबा गए
हर जगह हलकान थे बंदे ख़ुदाओं के सिवा
दौर यह नीलामियों का पैराहन उतरन सही
क्या रखा है देश में उनकी अदाओं के सिवा।
5.
कुछ तो हैं खुद खराब कुछ संगत खराब है
बेदिल को दिल दिया है मगर गत खराब है
रफ़्तार तार-तार है राहें धुआं-धुआं
बाएं के बाइपास की हालत खराब है
कलयुग में कालनेमि ने जब से क़दम रखा
तब ही से राम-नाम की रंगत खराब है
सपनों के फूल-वूल तज़ुर्बों की गंध है
अनमोल मुहब्बत है मुहब्बत खराब है
सब कुछ को ही खराब बताने की बात क्या
बुनियाद ही कहां है कहें छत खराब है।
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