युवा लेखक।दो पुस्तकों का संपादन – ‘मीरा की कविता : विविध आयाम’ और ‘राजेंद्र यादव : प्रतिपक्ष की आवाज’।

राजेंद्र बाला घोष हिंदी साहित्य की पहली सुप्रसिद्ध और महत्वपूर्ण लेखिका हैं।इनका लेखकीय नाम बंग महिला था।उनका ज्यादातर साहित्य इसी नाम से प्रकाशित होता रहा।बंग महिला के परिवार में ‘रा’ वर्ण से नामकरण करने की प्राचीन परंपरा थी।उनके परिवार में नामकरण की इस परंपरा को बहुत ही मंगलकारी माना जाता था।इसलिए पुरखों की इस परंपरा का पालन करते हुए पिता राम प्रसन्न घोष ने इनका नाम राजेंद्र बाला घोष रखा।

बंग महिला का लेखन कार्य १९०४ से शुरू हुआ।इनकी अधिकांश कहानियां ‘सरस्वती’ में छपती रहीं।इनकी चर्च़ित कहानी ‘दुलाई वाली’ १९०७ में सरस्वती में छपी थी।भवदेव पांडेय के कथनानुसार, ‘प्रकाशन की द़ृष्टि से राजेंद्र बाला घोष (बंग महिला) की रचनाएं किसी एक पत्रिका तक सीमित नहीं थीं।वे ‘आनंद कादंबिनी’, ‘भारतेंदु’, ‘सरस्वती’, ‘समालोचक’, ‘बाल प्रभाकर’, ‘लक्ष्मी’, ‘स्वदेश बांधव’, ‘स्त्री’ आदि ख्यातिलब्ध पत्रिकाओं में निरंतर लिखती रहीं।तद्युगीन अन्य लेखकों की अपेक्षा उनमें विधागत वैविध्य भी अधिक रहा।उन्होंने कविताएं, कहानियां, ललित निबंध और तद्युगीन नारी समस्याओं तथा राष्ट्रीय जागरण को आधार बनाकर अनेक लेख लिखे, परंतु अपनी किसी भी रचना में अपने मूल नाम का प्रयोग नहीं किया।पिता द्वारा प्रदत्त अपनी नामित संज्ञा को बंग-भूमि के लिए समर्पित कर देने का यह बेजोड़ नमूना था।यह लेखकीय इतिहास में किसी सर्जनात्मक प्रतिभा का अनोखा समाजीकरण रहा।’ (बंग महिला ः नारी मुक्ति का संघर्ष)।बंग महिला के व्यक्तित्व और कृतित्व पर जिन लेखकों और विचारकों का प्रभाव पड़ा, उनमें प्रमुख हैं- बद्रीनारायण चौधरी प्रेमधन, काशी प्रसाद जायसवाल, केदारनाथ पाठक और आचार्य रामचंद्र शुक्ल।इन लेखकों में भी वह वैचारिक स्तर पर काशी प्रसाद जायसवाल और केदारनाथ पाठक से ज्यादा प्रभावित थीं।उनके बौद्धिक विकास और साहित्यिक सृजन में इन लेखकों की बड़ी भूमिका थी।

बंग महिला जिस पारिवारिक पृष्ठभूमि से निकलकर साहित्य जगत में हस्तक्षेप करती हैं, वहां सामाजिक रूढ़ियों और धार्मिक मान्यताओं का बाहुल्य था।वह बचपन से ही इन रूढ़ियों के खिलाफ थीं। ‘स्कूली शिक्षा प्राप्त करने में भी बंग महिला को रूढ़ियों और अंधविश्वासों का शिकार होना पड़ा।हालांकि उनके पिता एक अत्यंत जागरूक वर्तमान चेतस थे, परंतु पुत्री की शिक्षा के प्रति उनकी युग-चेतना प्रतिफलित नहीं हुई।परिणाम यह हुआ कि घर पर ही उन्होंने पुत्री को संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा दी।माता ने सिलाई की और केदारनाथ पाठक ने हिंदी की शिक्षा दी।’ (वही)।उनके पिता राम प्रसन्न घोष आधुनिक विचारों से प्रभावित होते हुए भी सामाजिक रूढ़ियों और मान्यताओं से बंधे हुए थे।वह लड़कियों का विवाह अधिक उम्र में किए जाने के विरोधी थे।बंग महिला की असहमति के बावजूद १८९३ में जब वह केवल ग्यारह वर्ष की थीं, उनका विवाह बिहार के छपरा जिले के निवासी श्री पूर्णचंद्र डे से कर दिया।छोटी उम्र में विवाह के प्रति इनके मन में हमेशा आक्रोश बना रहा।

हिंदी में पहली बार रामचंद्र शुक्ल ने इनकी कई रचनाओं का अपनी ओर से परिवर्तनसंशोधन और परिवर्धनकरके कुसुमनामक संग्रह संपादित किया, जो १९११ में इंडियन प्रेस (प्रयाग) से छपा।बंग महिलाने मौलिक रचनाएं कम लिखीं, अनुवाद ज्यादा किए।स्त्रियों से संबंधित उनके कई लेख जैसे- ‘गृह’, ‘गृहचर्या’, ‘पतिसेवा’, ‘स्त्रियों की शिक्षा’, ‘संगीत और सुई का काम’, तथा ‘हमारे देश की स्त्रियों की दशा’ वगैरह मिलते हैं।इनमें से ‘गृह’ और ‘पतिसेवा’ अनुवाद हैं। ‘हमारे देश की स्त्रियों की दशा’ एक दूसरे लेख के आधार पर लिखा गया था।ये सभी लेख १९०४ से १९०८ के बीच छपे।

बंग महिला ने अपने लेखन में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को प्रमुखता से उठाया था।उन्होंने बाल-विवाह, पर्दा प्रथा का जमकर विरोध किया।स्त्री-शिक्षा को लेकर वह ज्यादा सजग और सचेत दिखाई देती हैं।वह स्त्री शिक्षा की कट्टर समर्थक थीं और उन्हांने इसके लिए सद्प्रयास भी किया।पितृसत्तात्मक व्यवस्था और तमाम तरह की कुरीतियों पर प्रहार करती हुई बंग महिला ने स्त्री-शिक्षा का नया माहौल बनाया।हालांकि उनके स्त्री संबंधी लेखन से गुजरते हुए पता चलता है कि वह स्त्री संबंधी परंपरागत द़ृष्टिकोण की समर्थक थीं।इसका विश्लेषण वीरभारत तलवार ने अपनी पुस्तक ‘रस्साकशी’ में विस्तार से किया है।इस तरह का अंतर्विरोध उस दौर के कई लेखकों में दिखाई देता है।फिर भी बंग महिला कहती हैं कि स्त्रियों का स्वावलंबी न होना ही उनकी पराधीनता का कारण है-

‘यदि कई एक विशेष कारणों से तुम आश्रय चाहने वाली न होती तो आज दिन कोई तुम्हें पराधीन अबला कहने का साहस कदापि न करता।’(बंग महिला ग्रंथावली)।बंग महिला पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे चरित्र की ओर भी संकेत करती हैं, ‘भाई की भांति एक ही पेट से उत्पन्न होकर उनके प्राप्त स्वत्व से तुम्हें कदापि न वंचित होना पड़ता।’ वह भारतीय स्त्रियों को संबोधित करते हुए प्रोत्साहित करती हैं, ‘तुम जागो, आत्मज्ञान प्राप्त करो, यही हमारी विनीत प्रार्थना है।’ (वही)।

बंग महिला को स्त्री जाति का हँसना भी पसंद नहीं है- ‘स्त्री जाति का बहुत बोलना और हँसना अनुचित है, इससे उनके दुर्गुण प्रकट होते हैं।बहुत बातें करने वाली स्त्री कभी भी आदर नहीं पाती।’ (वही)  इस तरह बंग महिला परंपरावादी द़ृष्टिकोण और पुराने संस्कारों से प्रभावित होने के कारण स्त्री विरोधी मान्यताओं का भी समर्थन कर बैठती हैं।

फिर भी बंग महिला पर्दाप्रथा जैसी कुरीति को स्त्रियों की शिक्षा में बाधक मानती हैं।वह कहती हैं कि स्त्रियों को घर में कैद करने में पर्दा प्रथा की बड़ी भूमिका है।विशेषकर उच्च वंशवादी स्त्रियां इस कुप्रथा की ज्यादा शिकार हैं।इस संदर्भ में लिखती हैं, ‘भारत की उच्च वंशवाली हिंदू और मुसलमान महिलाएं पर्दे में रहती हैं।पर्देवाली स्त्रियों को कदापि स्वाधीनता नहीं मिल सकती।इसी कारण से उन्हें शिक्षा भी नहीं मिलती।उच्च शिक्षा के साथ स्वाधीनता का घनिष्ठ संबंध है।इस बात का प्रमाण हमारे देश ही में मौजूद है।ब्रह्म समाजियों और पारसियों में पर्दे का अधिक ख्याल न रहने के कारण उनकी स्त्रियां प्राय: शिक्षिता होती हैं।उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए कम से कम, घर से विद्यालय तक जाने और अध्यापकों से पाठ लेने या उनके पास परीक्षा देने की स्वाधीनता की बड़ी जरूरत है।’ (वही)।बंग महिला बाल-विवाह जैसी कुरीति को भी स्त्री शिक्षा-विरोधी मानती हैं।वह बाल-विवाह का इसलिए कट्टर विरोध करती हैं कि बचपन में लड़कियों का विवाह कर देने से उनका शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।बंग महिला बाल विवाह की कुरीति पर व्यंग्य करते हुए लिखती हैं, ‘बाल विवाह का हिंदुओं में अटल राज्य है।अवश्य ही अल्प वयवाली कुमारी लड़कियों के विद्यालय जाने में कुछ रोकटोक नहीं है।किंतु दस-ग्यारह वर्ष की अवस्था में वे बेचारी कहां तक शिक्षा प्राप्त कर सकती हैं।’ (वही)।उन्हें उम्मीद है,‘यदि पिता या पति चाहें तो घर में कन्या या स्त्री को थोड़ी बहुत शिक्षा दे सकते हैं।यही शिक्षा हिंदू रमणी के लिए यथेष्ट हो सकती है।कहीं-कहीं ऐसा हो भी रहा है।’ (वही)।लेकिन तत्कालीन सामाजिक रूढ़ियों और पितृसत्तात्मक मूल्यों के वर्चस्व को देखकर उन्हें महसूस होता है, ‘हिंदू नारी का उच्च शिक्षा पाना और उस शिक्षा का उपयोग करना दोनों बातें असंभव सी जान पड़ती हैं।’ (वही)।बंग महिला के समय गुजरात, महाराष्ट्र और बंगाल में नारी जागरण की धूम मची थी।स्त्रियां पर्दे में रहना अस्वीकार कर घरों से बाहर निकल रही थीं।

बंग महिला ने लिखा है, ‘सचमुच यह बड़े हर्ष की बात है कि उनमें दिनदिन शिक्षा का प्रचार बढ़ता जाता है।पर क्या इसका प्रधान कारण यह नहीं है कि उनमें पर्दे की प्रथा नहीं है?’ शिक्षा के कारण उन स्त्रियों में नवीन चेतना जागृत होती है।इस नवीन चेतना से प्रभावित होने के कारण अन्य स्त्रियों से इनकी प्रकृति में भी भिन्नता पाई जाती है।वे जब कहीं जातीआती हैं, तब अन्य प्रांतवासिनी महिलाओं की तरह संंकुचित भाव से नहीं चलतीं।’ (वही)

बंग महिला उन शिक्षित पतियों को भी कटघरे में खड़ा करती हैं, जो अपनी पत्नी को शिक्षा का अवसर प्रदान नहीं करते।वह क्षोभ प्रकट करती हैं, ‘पति महाशय उच्च शिक्षित होने पर भी यदि अपनी सचिव, सखी, शिष्या, सहधर्मिणी की ज्ञानोन्नति न कर सकें तो देशोन्नति की उनसे क्या आशा की जाए?’ (वही)।पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों को आज भी कई तरह की गुलामी झेलनी पड़ती है।उन्हें किसी तरह का अधिकार प्राप्त नहीं है, जबकि सभ्य समाज में स्त्री को पुरुष के बराबर अधिकार प्राप्त होता है।बंग महिला कहती हैं, ‘सभ्य देश की स्त्रियां विद्या में, बुद्धि में, उम्र में, स्वाधीनता में, खाने में, पहनने में, घूमने फिरने में, यहां तक कि पत्यंतर ग्रहण करने में भी पति की बराबरी कर सकती हैं।’ (वही) बंग महिला ने देश के सामने पुरुष-शिक्षा की हीन दशा पर भी सवाल खड़ा किया।पुरुष-शिक्षा पर बात करने वाली हिंदी साहित्य में वह पहली लेखिका हैं।उस दौर में गरीब, मजदूर, किसान और दलित परिवार के बच्चों के लिए शिक्षा का कोई उचित प्रबंध नहीं था।वह कह उठती हैं, ‘हमारे देश के झोपड़े में रहने वाले पुरुष ही जब निरक्षर भट्टाचार्य हैं तब बेचारी स्त्रियों की कौन गिनती।’ (वही)

वह लिखती हैं, ‘यदि लड़कियों को और कुछ नहीं तो, थोड़ी-सी मातृभाषा की शिक्षा मिल जाया करे तो एक पत्र लिखने के लिए उनको दूसरों का मुंह न ताकना पड़े।’ वह साधारण स्त्रियों को भी शिक्षित और चेतना संपन्न देखना चाहती हैं।स्त्री-शिक्षा के अभाव को देखकर वह चिंतित हैं, ‘इस प्रांत में स्त्री-शिक्षा का पूरा अभाव है।यद्यपि भले घर की दो चार स्त्रियां कुछ पढ़ना-लिखना जानती हैं, किंतु न जानने वाली स्त्रियों की संख्या कहीं अधिक है।मैं विद्यालय की उच्च उपाधियों के पाने की बात नहीं कहती।परंतु कुछ थोड़ी-सी शिक्षा तो स्त्रियों को अवश्य ही मिलनी चाहिए।’ (वही)।स्त्रियों की शिक्षा को लेकर उनकी द़ृष्टि बहुत ही प्रगतिशील है।बंग महिला उस पुरुषवादी मानसिकता की कटु आलोचना करती हैं, जो स्त्री-शिक्षा का विरोध करती है।लिखती हैं, ‘कोई-कोई स्त्री-शिक्षा के विरोधी कहेंगे कि स्त्रियां पढ़ने-लिखने से मेम साहिबा बन जाएंगी, तो घर के काज कौन करेगा? कोई कहेंगे कि स्त्रियां पढ़कर क्या करेंगी, क्या उन्हें धनोपार्जन करना है? कोई तीसरे महाशय कह बैठेंगे कि पढ़ने से तो स्त्रियां निर्लज्ज हो जाएंगी? परंतु विचारपूर्वक देखने से ये सब युक्तियां मिथ्या निकलेंगी?…शिक्षिता होने से लज्जाहीना हो जाने का कोई कारण नहीं?’ (वही)।स्त्रियों की शिक्षा को लेकर अंग्रेजी सरकार की उदासीनता पर बंग महिला ने तीखा व्यंग्य किया है।

राजेंद्र बाला घोष के लेखन और चिंतन में स्त्री-मुक्ति का प्रश्न केंद्र में है, भले यह अभी आरंभिक स्तर पर हो।वह अपने वैचारिक लेखन के जरिए स्त्री-विरोधी जड़ परंपराओं और मान्यताओं के खिलाफ यथासंभव मजबूती के साथ खड़ी होती हैं।स्त्री संबंधी परंपरागत द़ृष्टिकोण से प्रभावित होने के कारण उनके लेखन में वैचारिक अंतर्विरोध तोे दिखता है, लेकिन स्त्री-शिक्षा पर बात करते हुए वह इससे पूरी तरह मुक्त दिखाई देती हैं।पुरुष-सत्तात्मक समाज को चुनौती देती हुई वह एक हद तक स्त्री-स्वाधीनता की बात भी करती हैं।हिंदी की पहली लेखिका बंग महिला को स्त्री-मुक्ति आंदोलन की एक मजबूत कड़ी के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

 (सभी उद्धरण ‘बंग महिला ग्रंथावली’ से)

 

 

प्रवक्ता-हिंदी, आदित्य नारायण राजकीय इंटर कॉलेज, चकिया-चंदौली उत्तर प्रदेश-२३२१०३ मो.९४५३०८७९७२