लेखक की पहली पुण्यतिथि पर (10 अक्टूबर 1938 – 6 जुलाई 2021) केंद्रीय जल आयोग में सहायक निदेशक तथा सलाहकार के रूप में देश–विदेश में कई उच्च पदों पर कार्य।रामविलास शर्मा के पत्रों तथा कई बिखरे कार्यों को संपादित करके पुस्तकाकार प्रकाशन।कृष्णदत्त शर्मा के साथ रामविलास शर्मा की आलोचना सामग्री का 18 खंडों में हाल में प्रकाशन।इस लेख में रामविलास शर्मा के कवि रूप का परिचय कराने के साथ उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं पर प्रकाश!
काव्य यात्रा
यों तो रामविलास जी ने स्कूल में ही कविता लिखनी शुरू कर दी थी, पर यह कविता-लेखन केवल हस्त-लिखित पत्रिकाओं तक सीमित रहा।उनकी पहली कविता लखनऊ आने के बाद ही छपी।यह कविता थी ‘वसंत स्वप्न’ जिसकी शुरू की पंक्तियां थीं-
यौवन-मदमाती रूप-राशि
ओ खोल द्वार-
बस एक बार।
यह कविता मार्च 1935‘विश्वामित्र’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।इसके बाद ‘ज्योति’, ‘सुधा’, ‘माधुरी’ आदि पत्रिकाओं में कविताएं छपने लगीं।पंत जी ने जब ‘रूपाभ’ निकालना शुरू किया तो उसमें नियमित रूप से कविताएं छपने लगीं।फरवरी 1939 के ‘रूपाभ’ पत्रिका में दो कविताएं छपीं, जिनके शीर्षक थे- ‘कार्यक्षेत्र’ और ‘प्रदर्शन’।कार्यक्षेत्र कविता की प्रारंभिक पंक्तियां हैं-
देख देख धुंधले आकाश के रेखा-चित्र,
होटल की खिड़कियों से
सिक्त कर भावना के स्रोत को
साम्यवादी चाय के प्यालों से
रचे हैं गीत मैंने
नीलाम्बरा रहस्यदेवी पर!
‘कवि’ नाम से ही उनकी एक और कविता प्रसिद्ध है, जो निराला जी के ऊपर है।
‘तार सप्तक’ में उनकी 19 कविताएं संकलित हैं।जैसा कि पहले कहा जा चुका है, एक कविता खो गई थी।सभी कविताएं ‘रूप तरंग’ में आ गई हैं। ‘रूप तरंग’ में कुल 70 कविताएं हैं, जिनके लेखन के वर्ष 1930 से लेकर 1956 तक फैले हुए हैं।
इसके बाद ‘आलोचना’ के अक्तूबर-दिसंबर 1967 के अंक में उनकी दस कविताएं छपीं, जिनके शीर्षक थे- कला, कविता, आस्था और सपने, हीरा, धूप, सांझ का झुटपुटा, रास्ता, फुर्सत नहीं है, वियतनाम और गलियां।
इसके बाद उनकी चार कविताएं और प्रकाशित हुईं (अभिरुचि, मई 1981), जो उनके ‘अप्रकाशित कविता संग्रह’ से थीं।यह संग्रह फिर कभी छप नहीं पाया, लेकिन कविताएं उपलब्ध हैं।इनके शीर्षक हैं, ब्लैक आउट, पहली जनवरी का सूरज, शहर से बाहर और उसांस।
अगर हम उनकी उन कविताओं को छोड़ दें जो उन्होंने शुरुआती दौर में हस्तलिखित पत्रिका में लिखी थीं और सिर्फ प्रकाशित कविताओं को लें तो उनकी संख्या लगभग दो सौ है।इनमें कुछ सॉनेट भी हैं।जो उनके पत्रों में हैं, वे शामिल नहीं किए गए हैं।
कुछ सॉनेट और तुकबंदियां जो रामविलास जी के लिखे पत्रों में थीं, वे भी किसी प्रकाशित संकलन में नहीं हैं।
रामविलास जी की कविताओं को हम मोटे तौर पर छह भागों में बांट सकते हैं।
1) प्रारंभिक कविताएं
2) ग्रामीण परिवेश की कविताएं
3) राजनीतिक कविताएं
4) व्यंग्य कविताएं
5) सॉनेट
6) अनुवाद
प्रारंभिक कविताएं
रामविलास जी ने कविताएं लिखनी बहुत कम उम्र में ही शुरू कर दी थी।झांसी में स्कूल में पढ़ते हुए रामविलास जी एक हस्तलिखित पत्रिका निकालते थे।नाम था ‘रण दुन्दुभि’ जैसा उन दिनों झांसी और बाकी देश का माहौल था।इसमें अधिकांश कविताएं देशप्रेम से ओतप्रोत थीं, लेकिन उन कविताओं का कभी प्रकाशन नहीं हुआ।उनका प्रसारण सिर्फ हस्तलिखित पत्रिकाओं तक ही सीमित रहा।रामविलास जी की कुछ कविताएं, जो उन्होंने 1929 से 1936 के बीच लिखी थीं, उनके संकलन ‘बुद्ध वैराग्य तथा प्रारंभिक कविताएं’ में आ गई हैं।1929 में रामविलास जी इंटरमीडिएट के पहले साल में थे।इस कक्षा में पढ़ते समय की लिखी कविता ‘हम गोरे हैं’ उनकी पहली राजनीतिक कविता है और वह व्यंग्य कविता भी है।झांसी प्रवास में लिखी गई कविताएं एक तरह की हैं, ज्यादातर देशप्रेम की।उस समय जैसी कविताएं हिंदी में प्रकाशित होती थीं और जिस तरह की कविताएं अंग्रेजी में उन्होंने पढ़ी थीं, उनसे ये कविताएं कुछ हटकर थीं।हम गोरे हैं, में उन्होंने लिखा, ‘भीतर से इतने काले हैं, फिर भी कहते हम गोरे हैं।’
एक कविता इतिहास पर थी।लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के दूत से कहा था, ‘मेरा झांसी देंगा नहीं।’ यह वाक्य एक अंगरेज़ ने अपने संस्मरण में उद्धृत किया है।अंग्रेजों से युद्ध होगा, लेकिन झांसी उनको समर्पित न की जाएगी।1857 के प्रति रामविलास जी की जो भावना रही है, उसकी शुरुआत यहां से होती दिखाई देती है।उन्होंने एक कविता लिखी थी, ‘विप्लव रागिनियां’।इसमें काफी भावुकता थी और क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति थी।लेकिन उस समय मेरठ षड्यंत्र का मुकदमा भी चल रहा था।उसमें झांसी के कई लोग थे।झांसी में साम्यवाद की चर्चा होने लगी थी।उस कविता में ‘साम्य समक्ष असीम विषमता दूर हो’ इस तरह के भाव भी प्रकट किए गए थे।साम्यवाद के प्रति रामविलास जी की निष्ठा यहां से मानी जा सकती है।तीनों कविताओं में राजनीतिक प्रतिबद्धता है, जो अंत तक कायम रही।
लखनऊ प्रवास में लिखी गई कविताओं में अधिकांश वे हैं जिसे उन्होंने निराला जी के साथ रहकर लिखी हैं।जाहिर है कि उनपर निराला का प्रभाव है।रामविलास जी के शब्दों में, ‘कविताओं पर निराला का प्रभाव स्पष्ट है।यह ‘तुलसीदास’, ‘गीतिका’, ‘सरोज स्मृति’ का रचना काल था।गीत मैंने उनकी शैली और बहुत जगह भावों और विचारों का अनुसरण करते हुए लिखे थे।
मैं उन दिनों उन्हीं के साथ रहता था, जो लिखता था, उन्हें दिखाता था।एक गीत ‘चंद्रकिरणों से गगन मन’ उन्होंने प्रसन्न होकर गाया भी था।मेरे लिए यह एक अपूर्व साहित्यिक उपलब्धि थी।गीतों में जहां-तहां, उनसे अधिक अन्य कविताओं में, मेरे अपने जीवन के उतार चढ़ाव, उनसे उत्पन्न होने वाले भाव और विचार भी व्यक्त हुए थे। …पर स्थायी रूप से कहीं कोई काम न मिलता था, असुरक्षित जीवन की ये परिस्थितियां भी मेरी उस समय की कविताओं में प्रतिबिंबित हैं।गांव की पृष्ठभूमि कविताओं में भी है, पर कल्पना के आवरण में छिपी हुई।’
1935-36 के बाद से उनकी कविताएं उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने लगी थीं।उस समय की छपी कुछ कविताएं इस प्रकार हैं-
1) ‘अस्ताचल श्रृंग पर’ 1936 में लिखी गई और मार्च 1937 में ‘ज्योति’ में प्रकाशित
2) गीत :‘डोली यह पावस की बयार’, ‘चयन’ पत्रिका में प्रकाशित
3) गीत :‘फूटा वह शारद चंद्रहास’, दिसंबर 1935 के ‘चाँद’ में प्रकाशित
4) दो कविताएं सरस्वती के नाम से और ‘संस्कृति की नदियां’, ‘सूखे तालों की नमी भी उड़ गई’।मई 1968 में संभवतः ‘बिंदु’ में
5) सिलहार- ‘पूरी हुई कटाई, सब खलियान में’ ‘पुष्पमाला’ फरवरी 1937 में
6) ‘घेरे मुझे खड़े हो’ सितंबर 1949
7) ‘यही क्या यौवन का उन्माद?’
8) ‘प्रथम दिवस डोली जब पावस की मंद समीर’ ‘चाँद’ वर्ष 13, खंड 2, संख्या 6 में
9) गीत :‘बीती निशि घोर’ ‘माधुरी’ में वर्ष 13 खंड 2, संख्या 6 (1935)
10) गीत :‘मंजरित डाल रसाल की’ संभवतः ‘जाग्रत महिलायें’ संख्या 4
11) गीत :‘मधुकर, छोड़ अब मधुपान’ ‘सरस्वती’ भाग- 36
12) वर्षारंभ (नाम काटकर हेमंत कर दिया गया है) ‘आज किस वेदना से व्यथित लखो हेमंत’ ‘सुधा’ अप्रैल 1936 में प्रकाशित।
13) भोर (नाम काटकर जागरण कर दिया गया है) ‘रुद्ध पक्ष्म-द्वार अभी जागता है उस पार’ ‘ज्योति’ जून 1937 में प्रकाशित।
14) गीत :‘डोली आज रे मधु वात’ ‘चाँद’ अप्रैल 1935 में
15) गीत :‘रंग देता मधु यौवन री’
16) वसंत स्वप्न ‘यौवन मदमाती रूप राशि’
कुछ कविताओं के बारे में कहना मुश्किल है कि वे किस पत्रिका में छपी थीं।उस समय की कविताओं की एक विशिष्ट शैली है।
ग्रामीण परिवेश की कविताएं
हालांकि रामविलास जी ने अपने गांव में अपेक्षाकृत कम ही समय बिताया, लेकिन वह उनके मानस में इतनी गहराई से जमा हुआ था कि वह चाह कर भी उसे नहीं भुला पाते थे।उनकी तमाम कविताओं में गाँव के दृश्य बिखरे पड़े हैं।उदाहरण के तौर पर :
प्रत्यूश के पूर्व : गांव में खजुरिहां ताल और लोधी ताल के बीच ऊसर में एक पुराना बरगद का पेड़ है।लोग कहते हैं, यहां रात को प्रेतलीला होती है।खेतों के मालिकों को अकाल ही मार डाला गया था, क्योंकि प्रेत लोग खेत नहीं छोड़ना चाहते थे।वे रात के तीसरे पहर बरगद के नीचे इकट्ठे होते हैं, वहाँ दारू पीते हैं, पतुरियों का नाच होता है, सारंगी के स्वर सुनाई पड़ते हैं। ‘प्रत्यूष के पूर्व’ कविता इसी विश्वास पर आधारित है,
दूर छिपा है भोर अभी आकाश में
पश्चिम में धीरे धीरे पर डूबता
ठिठुरन से छोटा हो पीला चंद्रमा
धुंधली है तुषार से भीगी चांदनी।
कहते हैं, स्वामी जो थे इस भूमि के
हत्यारों से अकाल मारे गए।
सीत सीत करती बयार है बह रही
बरगद से कुछ दूरी पर जो दीखता
ऊंचा सा टीला, उस पर एकत्र हो
ऊंचा मुंह कर देख डूबता चन्द्रमा
हुआ हुआ करते सियार हैं बोलते।
सीत सीत करती बयार और सियारों के बोलने से रामविलास जी ने प्रेतमय वातावरण तैयार किया है।
दिवा स्वप्न : रामविलास जी के बाबा के जहां खेत थे, उनके पास एक ऊसर था, जिसमें गायें बांधी जाती थीं।दोपहर को किसान घर चले जाते थे और चारों ओर सन्नाटा छा जाता था।कभी-कभी मधुमक्खियों की भनभनाहट सुनाई पड़ती थी।1938 में लिखी कविता ‘दिवा स्वप्न’ में रामविलास जी ने इसी दृश्य का वर्णन किया है, ‘पागुर करती छाहों में, कुछ गंभीर अधखुली आँखों से/बैठी गायें करती विचार।’
एम.ए. पास करने के बाद रामविलास जी शोध कार्य कर रहे थे, किंतु भविष्य अनिश्चित था।इसी अनिश्चितता के कारण मन कभी-कभी विषाद से भर जाता था।वह अपने आपको बचपन में देखते थे, लगता था खेल खेल में समय उनको मिटा चुका है :
तब वर्षों के उस पार दीखता, खेल रहा वह
खेल खेल में मिटा चुका है जिसे काल
…..
मैं रह जाता फिर प्रतिदिन सा, प्रतिदिन सा ही
गरजता अनागत का अगाध फिर अंधकार।
मूर्तियां : गांव में देवी का एक बहुत पुराना मंदिर था।रामविलास जी ने उसे अपने बचपन में देखा था।सोचते थे, उनके बाबा ने भी इसे अपने बचपन में देखा होगा।मंदिर के भीतर काली-काली अनेक मूर्तियां थीं।बाहर पीछे की दीवार पर गदा उठाए महावीर की मूर्ति थी, जो सिंदूर से रंगी रहती थी।लड़कियां शाम को गीत गाते हुए वहां जाती थीं।गीतों की आवाज तो सुनाई पड़ती थी, लेकिन क्या गाती हैं यह समझ में नहीं आता था।कविता लिखने से पहले रामविलास जी ने मोहल्ले की कुछ लड़कियों से पूछा कि वह क्या गाती हैं, तो उन्होंने धीर-धीरे वह गीत सुनाया और यह पता चला कि वह देवी से सिंदूर से भरी मांग, चूड़ियों से भरे हाथ, पति के घर में एक ननद, देवर अनेक और मायके में बहन एक, भाई अनेक आदि मांगती हैं।बीमारी में ‘मानता’ मांगने स्त्रियां वहां स्वयं जाती थीं।ब्याह हो जाने पर वर-वधू वहां गृह प्रवेश से पहले आते थे।रामविलास जी को लगा कि युगों से ऐसा ही होता आ रहा है।स्त्रियों के कंठ से मानो पुरानी संस्कृति का संगीत सुनाई पड़ रहा है।इन सब बातों का वर्णन उन्होंने ‘मूर्तियां’ नामक कविता में किया हैः
…..
मीठे स्वर में क्या रही मांग
देवी से? सेंदुर भरी मांग
चूड़ियों से सदा भरे हाथ,
मांगे भाई तो पांच सात
पर बहन एक देवर अनेक
पति के घर में फिर ननद एक
शारदीया और कोहरे के बाद : कुछ बड़े खेतों में ज्वार की खेती होती थी।बड़े-बड़े भुट्टे लगते थे।शरद की सुंदर सांझ में, जब आसमान सुनहरे रंगों से भर गया हो, खेत में एक लड़की गुफना लिए गलारें उड़ाती थी।सुनहले आसमान के नीचे गला-गला कर चिड़ियों को उड़ाती हुई लड़की का दृश्य रामविलास जी ने इस कविता में खींचा हैः
सोना ही सोना छाया आकाश में
पश्चिम में सोने का सूरज डूबता
पका रंग कंचन जैसे ताया हुआ,
भरे ज्वार के भुट्टे पककर झुक गए।
‘गला गला’ कर हांक रही गुफना लिए
दाने चुगती गलारियों को खड़ी
सोने से भी निखरा जिसका रंग है,
भरी जवानी जिसकी पककर झुक गयी।
(1938)
उसी खेत में जाड़ों में सिंचाई होती थी।वहां एक कुआं था, जिससे पुर की मदद से पानी खेतों में डाला जाता था।जाड़ों में खेतों के ऊपर कोहरा छा जाता था।सिंचाई बड़े सवेरे शुरू हो जाती थी।इस दृश्य का वर्णन ‘कोहरे के बादल’ में है।ऋतु बदल गई है लड़की वही है :
उठ रहे ऊपर दल के दल
धुंधले से कुहरे के बादल
…
बीच खेत में सहसा उठ कर
खड़ी हुई वह युवती सुंदर
लगा रही थी पानी झुक कर
सीधी करे कमर वह पल भर। (1937)
‘रूप तरंग’ चूंकि रामविलास जी का पहला काव्य संग्रह था, उसमें उस समय तक की लिखी गई कविताओं के सभी रंग हैं।
1943 में रामविलास जी बंबई गए थे।पहली बार समुद्र देखा था, अमृतलाल नागर दादर में रहते थे।समुद्र उनके घर के पास ही था।शाम को अकसर ये लोग बालू पर घूमते थे।कभी-कभी किसी जगह बैठकर देर तक समुद्र की लहरों का उठना-गिरना देखते रहते थे।उसकी आवाज़ सुनते थे। ‘समुद्र के किनारे’ कविता में दादर का समुद्र है।उन्हें लगता था कि सागर किनारे लहरें सिर धुन रही हैं :
सागर लंबी साँसे भरता है,
सिर धुनती है लहर लहर,
बूंदी-बांदर में एक वही स्वर,
गूँज रहा है हहर-हहर। (1943)
अवध की अमराइयों का वर्णन कुछ इस प्रकार किया हैः
एक घनी अमराई-सा यह
हृदय अवध का
जहां सतत बहती है गंगा,
कोयल और पपीहे के स्वर से मुखरित है।
चांदी सी नम उर्वर धरती,
सई और लोन नदियों के जल से भीज गई है।
(1947)
इसी तरह कहीं गुरुदेव की पुण्यभूमि के बारे में लिखते हैं :
यह शस्य श्यामला वसुंधरा है, जिसे देखकर
कवि ने मन में स्वर्ग रचा था सुंदर
यह पुण्यभूमि है जिसे देखकर
आंदोलित हो उठता था
कवि का भावाकुल अंतर
…..
दिन रात यही हैरानी, भूली भूख प्यास —
वीरान न हो यह प्यारा शांतिनिकेतन!
यह हरा भरा बंगाल!
न यों ही उजड़ जाए
इस भूख महामारी से शांतिनिकेतन!
उस नीच नागूची को न मिले यह
रवि ठाकुर का प्राणों से भी प्यारा शांतिनिकेतन।
(1943)
उनकी सर्वश्रेष्ठ कविताओं में निस्संदेह कुछ कविताएं निराला पर हैं, जैसे :
वह सहज विलंबित गति जिसको निहार,
गजराज लाज से राह छोड़ दे एक बार;
काले लहराते बाल देव सा तन विशाल,
आर्यों का गर्वोन्नत प्रशस्त अविनीत भाल;
झंकृत करती थी जिसकी वाणी में अमोल,
शारदा सरस वीणा के सार्थक सधे बोल; –
कुछ काम न आया वह कवित्व आर्यत्व आज,
संध्या की बेला शिथिल हो गए सभी साज।
अब वन्य जंतुओं का पथ में रोदन कराल।
एकाकीपन के साथी हैं केवल श्रृगाल।
(1943)
निराला पर लिखीं अन्य कविताएं, जैसे-
यह कवि अपराजेय निराला
जिसको मिला गरल का प्याला
ढहा और तन टूट चुका है
पर जिसका माथा न झुका है,
नीली नसें खिचीं हैं कैसी
मानचित्र में नदियों जैसी
शिथिल त्वचा, ढल ढल है छाती
लेकिन अभी संभाले थाती
और उठाये विजय पताका
यह कवि है अपनी जनता का! (1952)
हालांकि उनकी व्यंग्य कविताएं ‘रूप तरंग’ में नहीं हैं, लेकिन जहां मौक़ा मिलता है वह अपना व्यंग्य बाण चिपकाने से नहीं चूकते, चाहे वह भगवान ही क्यों न हों।
अंध कूप में पड़े हुए हो,
तालों में तुम जड़े हुए हो।
ऊंची छत, खम्भे पर खम्भा,
मंदिर क्या है एक अचम्भा
…..
हे शिव, क्या तुम वही देव हो
आया था जिसके दर्शन को
हरिजन, जिसकी राह रोक कर
बैठा था नंदी देहरी पर,
तुमने हटा दिया था वाहन,
जिससे वह भी कर ले दर्शन? (1952)
कहीं-कहीं रामविलास जी ने संदर्भ बताते हुए कविताएं लिखी हैं, जैसे :
गांव में आट की बगल से लोधी टाल की तरफ जो गलियारा जाता है, उसी से लोग गंगा नहाने जाते थे।बाबा गाड़ी हांक रहे हैं।गाड़ी में पैरा बिछा है, उस पर कथरी है।पांच साल के रामविलास जी उस पर रजाई ओढ़े लेटे हैं।आट छोड़कर गांव के बाहर ऊसर में गाड़ी पहुंचती है, तब रामविलास जी की आंख खुलती है।बैल रास्ता पहचानते हैं।अपने आप बढ़ते चले जा रहे हैं।आगे चलकर घाटी है।ऊंची चढ़ाई है।उसे पार करने के बाद गंगा की चौड़ी धारा है।दूर-दूर तक रेतीला मैदान है।उस पर बहुत बड़ा ‘कतकी’ का मेला लगा है। ‘कतकी’ में यही दृश्य है।
खाजुरिहा ताल के पास जो खेत हैं, उनमें धनी किसान मजदूरों से खेती कराते थे।खेत काटते समय जो दाने गिर जाते थे, उन्हें वे बीन लेते थे।इसे सीला बीनना कहते हैं।जो सीला बीनते थे उन्हें सिलहार कहा जाता था।मजदूरी के नाम पर उन्हें यह सीला ही मिलता था।आट के खाले दुपहरी में मजदूर सीला बीन रहे हैं।यह दृश्य ‘सिलहार’ में है।
1934 में रामविलास जी के गांव में आग लगी थी।आग बीच गांव में लगी थी।लपटें उनके घर की तरफ आ रही थीं।घर खुला छोड़कर रामविलास जी अपनी अम्मा के साथ उस नीम के पास आ गए, जिस पर सवेरे सूरज निकलता था।उनका घर तो बच गया, लेकिन पड़ोस के सब घर भस्म हो गए।आग बुझने पर उन्होंने देखा, काली दीवालों के बीच गरीब आदमी अन्न के दाने ढूंढ रहे हैं।उन दिनों वह ‘कुमारसंभव’ पढ़ रहे थे।उन्हें बड़ा वैषम्य दिखाई दिया।कालिदास के रूमानी सपने और उनके गांव के जले हुए घर! इसी वैषम्य पर उन्होंने ‘ऋतुसंहार’ कविता लिखी थी।
जब रामविलास जी हाई स्कूल में पढ़ते थे, वह झांसी के सदर बाज़ार में रहते थे।शाम को मोहल्ले के बाहर घूमने जाया करते थे।आसपास पहाड़ियां थीं, गोरों की छावनियाँ थीं।पहाड़ियों पर चढ़ना मास्टर रुद्रनारायण ने सिखाया था।रामविलास जी भी कभी नीचे घूमते थे और कभी पहाड़ियों के ऊपर चढ़ते थे।दूर पर झांसी का किला दिखाई देता था।शाम को बुर्ज से तोप दागी जाती थी।उसका धुआं पहले दिखाई देता था, आवाज कुछ देर बाद सुनाई पड़ती थी।रामविलास जी कल्पना करते थे, 1857 में यहीं से रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से लड़ते हुए बाहर निकली होंगी।यह कल्पना ‘कैमासन’ में है।जिस पहाड़ पर रामविलास जी चढ़ते थे उसका नाम कैमासन था।
1937 की गर्मियों में शोधकार्य के सिलसिले में रामविलास जी कलकत्ता गए थे।वहां निराला जी के एक मित्र दयाशंकर वाजपेयी के साथ रहते थे।मछुआ बाजार की एक बहुत बड़ी इमारत के एक बहुत छोटे से कमरे में वह रहते थे।रात में कभी-कभी ये लोग छत पर चले जाते थे।वहां से सारा कलकत्ता नीचे बिछा हुआ दिखाई देता था, चटाई बिछाकर लेट जाते थे।ऐसी ही एक रात को रामविलास जी ने चांद को बादलों में तैरते हुए देखा।लगा कि महानगर की गंदगी से दूर चांदनी में चमकते बादल हिमालय की ओर जा रहे हैं।उन्होंने कविता लिखी ‘कलकत्ता’।
1937-38 में रामविलास जी का स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं था।कभी-कभी जमीन पर नंगे पैर रखने से पसीने के गीले चिह्न बन जाते थे।एक मित्र ने कहा : हो सकता है तुम्हें यक्ष्मा हो।रामविलास जी को कभी-कभी शरीर में ताप का एहसास होता था।दूसरी ओर, वे अपने जीवन में समाज को बदलने के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे।ताप और यह आकांक्षा दोनों ही ‘हड्डियों का ताप’ कविता में हैं।
उन्हीं दिनों रामविलास जी के बड़े भाई साहब नौगांव में पोस्टमास्टर थे।उन्होंने रामविलास जी को खजुराहो देखने के लिए अपने पास बुलाया।रामविलास जी उनके साथ खजुराहो देखने गए।वहां एक परिचित सज्जन के पुत्र नायब तहसीलदार थे।वह इन लोगों को सारे दृश्य दिखा रहे थे।नायब तहसीलदार बहुत बड़ा अफसर माना जाता था।उसे देखकर गांव की स्त्रियां जूते उतार कर हाथ में ले लेती थीं, घूंघट मारकर एक तरफ खड़ी हो जाती थीं।एक ओर खजुराहो की भव्य मूर्तियां, दूसरी ओर निर्धन, आतंकित, ये गांव की स्त्रियां- दोनों ‘खजुराहो’ कविता में हैं।
पौराणिक साहित्य में कलियुग की बड़ी निंदा की गई है।यदि कलियुग सबसे अधम युग है तो उसके लिए जिम्मेदार कौन है? पहले के युग बहुत अच्छे थे, लेकिन उनकी अच्छाइयों में जरूर कोई खोट रही होगी, जिससे हमारा पतन हुआ और हम कलियुग की स्थिति में पहुंचे।वास्तव में कलियुग की धारणा तब उत्पन्न होती है जब समाज में वित्त का चलन होता है।वित्त का चलन समाज के विकास के लिए बहुत जरूरी है।जिसे कलियुग कहा जाता है वह वित्त के चलन का युग है, मुनाफा कमाने का युग है, व्यक्तिगत संपत्ति के विकास का युग है।इसमें बहुत-सी बुराइयां हैं, लेकिन यह युग ऐतिहासिक विकास के लिए आवश्यक है।इसके बिना मानव समाज की प्रगति असंभव है।कलियुग क्रांति का युग भी होगा।रामविलास जी ने इन विचारों को लेकर कविता लिखी- ‘कलियुग’।
क्रांति में किसानों की भूमिका किस तरह की होगी? रामविलास जी समझते थे, जब तक किसान बड़े पैमाने पर क्रांति में भाग न लेंगे, तब तक वह सफल न होगी। ‘कार्यक्षेत्र’ कविता रामविलास जी ने उन मार्क्सवादियों को लक्ष्य करके लिखी थी जो शहर के मजदूरों पर ध्यान केंद्रित करते थे और किसानों को छोड़ देते थे। ‘कलियुग’ और ‘कार्यक्षेत्र’ दोनों कविताएं ‘रूपाभ’ (संपादक : पंत) में छपी थीं।इन कविताओं को वहां भेजने का उद्देश्य यह था कि प्रगतिशील कवियों को किस दिशा में आगे बढ़ना है, वह इन कविताओं के माध्यम से लोगों को मालूम हो जाए।
1938 में अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति काफी तनावपूर्ण थी।एक तरफ आशा थी कि क्रांति की चिनगारियां निकलेंगी, सारी दुनिया का नक्शा बदल जाएगा, दूसरी तरफ यह आशंका थी कि युद्ध छिड़ जाएगा और उसमें लाखों आदमी मारे जाएंगे।युद्ध छिड़ा नहीं था, लेकिन उसकी आशंका थी। ‘क्रांति की आशा और युद्ध का भय’, दोनों में है।इसकी पृष्ठभूमि में कानपुर है।ओस से दबा हुआ काला धुआं कानपुर का है।सड़कों पर बिजली के जो लट्टू लहू की बूंदों-से दिखाई देते हैं, वे भी कानपुर के हैं।
1946 में निराला जी डलमऊ गए थे।रामविलास जी उन्हें देखने गए थे।गंगा किनारे के दृश्य का भव्य वर्णन निराला जी के उपन्यास ‘प्रभावती’ में है।उस समय निराला जी खस्ता हाल में थे।सामाजिक जीवन पर पंडे-पुरोहित छाए थे, गंगा की धारा सिकुड़ गई थी। ‘प्रभावती’ के भव्य दृश्य से कोई साम्य न था।जो रामविलास जी ने देखा वह ‘डलमऊ में गंगा’ कविता में है।डलमऊ, गढ़ाकोला, ऊंचगांव, ये सब एक साथ ‘बैसवाड़ा’ कविता में हैं।
1952 में रामविलास जी निराला जी से मिलने इलाहाबाद गए।उनकी पुस्तक ‘अर्चना’ प्रकाशित हो गई थी।उसकी एक प्रति उन्होंने रामविलास जी को दी।उसे पढ़कर रामविलास जी को लगा निराला जी अजेय हैं, मानसिक असंतुलन के बावजूद अब भी समर्थ कवि हैं, अब भी देश के बारे में सोचते हैं।रामविलास जी ने निराला जी पर कविता लिखी, ‘अर्चना’।
रामविलास जी के एक मित्र और उनसे अपरिचित एक महिला दोनों विवाहित थे।फिर भी उनमें गहरा प्रेम था।बहुत दिनों बाद जब यह मित्र उस महिला से मिले तो रामविलास जी भी साथ थे।उस महिला ने रामविलास जी की उपस्थिति की चिंता न करते हुए, अपने भाव से बहुत अच्छी तरह जता दिया कि उन्हें रामविलास जी के मित्र का पुराना प्रेम याद है।उसी को लक्ष्य करके उन्होंने ‘वन्दिनी कोकिला’ कविता लिखी थी।वह महिला ही वन्दिनी कोकिला हैं।एक विद्वान ने ‘रूप तरंग’ की कविताओं पर एक लेख लिखा था।उसमें बताया था कि ‘वन्दिनी कोकिला’ भारतमाता है।रामविलास जी ने स्पष्ट किया है कि ‘वन्दिनी कोकिला’ का भारत माता से कोई संबंध नहीं है।
रामविलास जी कुछ दिनों के लिए कश्मीर गए थे।पीर पंजाल पार करते हुए उन्हें ऐसा लगता था कि एक ऊंचा पहाड़ पार किया, उसके बाद और ऊंचा पहाड़ आ रहा है।सारे पर्वत घने जंगलों से ढंके हुए थे।यह पर्वतमाला जब पार हो गई, तब नीचे बहुत चौड़ी घाटी दिखाई दी।और नजदीक पहुंचने पर शाम के झुटपुटे में जहां-तहां प्रकाश भी दिखाई दिया।यह दृश्य ‘पीर पंजाल’ कविता में है।
कश्मीर में वहां के प्रसिद्ध कवि महजूर से मुलाकात हुई।सफेद दाढ़ी, मिलनसार, हँसमुख और बहुत अच्छे कवि।आगरा लौटने पर रामविलास जी को पता चला कि महजूर नहीं रहे।उन्होंने महजूर पर एक कविता लिखी।मित्रों से उनके गीत रामविलास जी ने सुने थे, उन गीतों की प्रतिध्वनियां इस कविता में हैं।लाल फूल पर जो दाग दिखाई देता है, उस पर महजूर ने गीत लिखा था। ‘लाला के दिल का दाग और भी गहरा है’, इस पंक्ति में उसी गीत की ओर संकेत है। ‘मेरा खून गर्म है, मेरा खून लाल है’ यह नादिम की दो पंक्तियों का हिन्दी रूपांतर है।रामविलास जी का प्रयत्न था कि कश्मीर का प्राकृतिक और सांस्कृतिक परिवेश उनकी कविता में सजीव हो उठे।
पहाड़ों पर रहते हुए उनका मन ऊबने लगता था, लेकिन केरल में पहाड़ हैं और मैदान भी हैं।खूब घनी हरियाली है।झरने, ताल, झीलें, थोड़ा आगे बढ़ें तो समुद्र, यह सब केरल में है।एक कविता उन्होंने केरल पर लिखी।तिरुचिरापल्ली में महाकवि सुब्रह्ममण्य भारती की विधवा पत्नी से रामविलास जी की भेंट हुई।उनके साथ उनकी पुत्री और नातिन भी थीं।रामविलास जी के मित्र एस. सुब्रह्मण्यम उन्हें ले आए थे।तीन पीढ़ियों की तीन महिलाओं ने मिलकर सुब्रह्ममण्य भारती का गीत गाया।वह उनके परिवार के कवि थे, तमिलनाडु के जातीय कवि थे और भारत के राष्ट्रीय कवि थे।रामविलास जी ने इस पर कविता लिखी- ‘मातृतीर्थ’।
उस समय की कविताएं वाणी प्रकाशन से छपी हैं।मात्रिक और वार्णिक छंदों में उन्होंने अनेक तरह के प्रयोग किए थे।कवित्त छंद के एक चरण को आधार बना कर नए तरह के बंद लिखे जा सकते हैं, यह उन्हें उस समय दिखाई दे रहा था।कविता तुकांत हो, यह आवश्यक नहीं, अतुकांत कविता भी लिखी जा सकती है, यह वह समझ रहे थे। ‘विप्लव रागिनियाँ’ का छंद अतुकांत है।1930 में रामविलास जी ने एक लंबी कविता लिखी थी- ‘बुद्ध वैराग्य’।वह रामविलास जी की एकमात्र लंबी वर्णनात्मक कविता है।उस समय के कवियों का प्रभाव उस पर देखा जा सकता हैः ‘एक समय था ये विशाल नभचुम्बी धवल हिमाचल श्रृंग।’
उस समय रामविलास जी यह सोचते थे कि उदात्त भाव प्रकट करने के लिए पंक्ति का लंबा होना जरूरी है।छंद की गति मैथिलीशरण गुप्त से अधिक निराला जी की याद दिलाती है।
कुछ समय तक रामविलास जी ने श्रृंगारपरक कविताएं भी लिखी थीं, जैसे ‘यौवन मदमाती रूपराशि, ओ खोल द्वार, बस एक बार’।इस कविता का जिक्र पहले किया जा चुका है।यहां भी पंक्ति लंबी है, लेकिन भाव श्रृंगार का है।इस तरह की श्रृंगारपरक कविताएं रामविलास जी ने उस समय और भी लिखी थीं।
निस्संदेह रामविलास जी उस समय जिस तरह की अंग्रेजी कविताएं पढ़ रहे थे, उनके प्रभाव से वह वैसी कविताएं लिखने लगे थे।एक कविता जो ‘भारत’ में छपी थी, लेकिन अब उपलब्ध नहीं है, उसकी पहली पंक्ति थी, ‘रक्ताभ तुम्हारे अंगों में फूटा गुलाब’।साधारणतः वह अपनी कविताएं निराला जी को सुनाते थे।यह कविता उन्होंने निराला जी को नहीं सुनाई थी।शायद ‘राम की शक्तिपूजा’ तब तक उन्होंने लिखी न थी।जो छंद इसमें है वही छंद ‘राम की शक्तिपूजा’ में है।दोनों कविताओं में बिलकुल दूसरे ढंग के भाव व्यंजित हैंः —
– ‘है अमा निशा उगलता गगन घन अंधकार’
– ‘रक्ताभ तुम्हारे अंगों में फूटा गुलाब।’
निराला जी के साथ रहते हुए रामविलास जी ने बहुत से गीत लिखे।उनमें कुछ श्रृंगारपरक थे, कुछ वेदांत से प्रभावित थे।कुछ मुक्तक थे, जिनका संबंध उनके जीवन-संघर्ष और भविष्य के प्रति आशंकाओं से था।एक लंबी कविता ‘मेनका’ लिखी थी।पुराण कथाओं से विषय लेकर ऐसी कविताएं रामविलास जी ने बाद में नहीं लिखीं।यह लंबी कविता बहुत संस्कृतगर्भित थी, अतुकांत वृत्त में थी, छंद वार्णिक था और वह ‘माधुरी’ में प्रकाशित हुई थी।इसके कुछ अंश वाणी प्रकाशन से छपी ‘बुद्ध वैराग्य और प्रारंभिक कविताएं’ में हैं।
रामविलास जी छंदों को लेकर अकसर निराला जी से चर्चा किया करते थे।रामविलास जी का अनुमान था कि कवित्त के दो चरणों को आधार बनाया जाए तो बहुत जोरदार पंक्तियां रची जा सकती हैं।मैथिलीशरण गुप्त ने ‘मेघनाथ वध’ का अनुवाद किया था, लेकिन उसमें एक पंक्ति पंद्रह अक्षरों की थी।हर पंक्ति के बाद प्रवाह रुकता था।रामविलास जी सोचते थे, अगर सोलह अक्षर हों तो प्रवाह बना रहेगा।उस समय बहुत लोग उमर खैयाम का अनुवाद कर रहे थे।एक अनुवाद रामविलास जी ने भी किया था।उसमें इसी तरह की पंक्ति का प्रयोग उन्होंने किया था।निराला जी विवेकानंद की अंग्रेजी कविता ‘संन्यासी का गीत’ का अनुवाद कर रहे थे।बहुत अच्छा अनुवाद करना चाहते थे, पर उपयुक्त शब्द-योजना पकड़ में न आती थी।कभी-कभी हिंदी भाषा को दोष देने लगते थे।रामविलास जी ने उनसे कहा, जोरदार अनुवाद हो सकता है।यह एक मायने में उनकी ढिठाई थी, लेकिन यह जताने के लिए कि हिंदी में ऐसी क्षमता है कि वह अंग्रेजी के समान भाव व्यंजित करे, रामविलास जी ने संन्यासी के गीत का अनुवाद किया।इसके लिए उन्होंने सोलह अक्षरों की पंक्ति का उपयोग किया।
1937 में शोधकार्य के सिलसिले में जब रामविलास जी कलकत्ता गए, तब निराला जी के एक मित्र दयाशंकर वाजपेयी ने उन्हें नजरुल इस्लाम की ‘विद्रोही’ कविता सुनाई, और कहा, यह कविता बहुत ही ओजपूर्ण है, हिंदी में इसका अनुवाद करना कठिन है।रामविलास जी ने कहा, अनुवाद हो सकता है।उसका अनुवाद रामविलास जी ने किया जो ‘रूपाभ’ में छपा।इसमें उन्होंने वार्णिक की जगह मात्रिक छंद का प्रयोग किया।अनुवाद में कविता को जहां-तहां उन्होंने संक्षिप्त भी कर दिया।
शोध छात्रों के लिए आवश्यक था कि यूरोप की एक भाषा सीखें।रामविलास जी ने फ्रेंच पढ़ना शुरू किया।साल-दो-साल में इतनी फ्रेंच सीख गए कि 19वीं सदी के अनेक कवियों की कविताएं पढ़ लीं।प्रकृति पर अंग्रेजों ने भी बहुत-सी कविताएं लिखी हैं, लेकिन फ्रांसीसियों की कविताओं में रामविलास जी को नया सौंदर्य दिखाई दिया।इन्हें पढ़ते हुए उन्हें लगा कि वह भी अपने गांव के बारे में ऐसी कविताएं लिख सकते हैं।कुछ समय तक उनके गांव के दृश्य उनकी आंखों के सामने घूमते रहे।
एक प्रसिद्ध कविता ‘वह सहज विलंबित मंथर गति जिसको निहार’ का संदर्भ
1938 में रामविलास जी अध्यापक हो गए और कविता लिखना कुछ कम हो गया।पंत जी ने ‘रूपाभ’ निकाला।रामविलास जी ने पहले की कुछ कविताएं उन्हें भेजीं, कुछ नई कविताएं भी लिखीं।
1943 में निराला जी बीमार हो गए थे।रामविलास जी उन्हें देखने इलाहाबाद गए।निराला इतने दुर्बल हो गए थे कि रामविलास जी उनको पहचान न सके।उनके मन को गहरा धक्का लगा।इलाहाबाद से आगरा आते हुए रास्ते भर वह निराला जी के बारे में सोचते रहे।आगरा पहुंचकर उन्होंने निराला जी पर कविता लिखी, ‘वह सहज विलंबित मंथर गति जिसको निहार’।इसका छंद वही है जो ‘राम की शक्तिपूजा’ का है।अन्य कविताओं की प्रेरणाएं दूसरे ढंग की थीं, यह कविता ऐसी थी जो मर्मस्थल पर चोट लगने से रची गई थी।1943-44 में जब अज्ञेय और उनके मित्रों ने ‘तार सप्तक’ निकाला, तब निराला वाली कविता और कुछ अन्य रचनाएं जोड़कर उन्होंने छपने के लिए भेज दीं।निराला वाली कविता सबसे पहले उसी में छपी थी।
उस समय रामविलास जी ने कुछ व्यंग्य कविताएं भी लिखी थीं, जिनमें एक ‘हाथी-घोड़ा-पालकी’ भी ‘तार सप्तक’ में है।कविता का अंतिम अंश उद्बोधनात्मक है, लेकिन अधिकांश व्यंग्यपूर्ण है।इसमें कुछ पंक्तियां फ़िराक को लक्ष्य करके लिखी गई थीं।फ़िराक ने लेखमाला निकाली थी, जिसमें उर्दू शेरों को ‘सदाबहार और सदासुहाग’ कहा गया था।रामविलास जी ने वही शीर्षक देकर ‘माधुरी’ में एक लेखमाला निकाली थी।उसका संदर्भ इन पंक्तियों में है- ‘जय हो सदाबहार की, शायर या ऐयार की/तुरबत में भी आहत से,/उठकर बैठ गया झट से’।इत्यादि
रामविलास जी के शोध का विषय कीट्स और प्रिरफेलाइट्स चित्रकार थे।इन कवि-चित्रकारों में डी. जी. रोसेटी नाम के कवि थे जो इटालियन खानदान के थे।उन्होंने सॉनेट लिखे थे।वे बहुत श्रृंगारपरक थे।उनका अनुकरण करते हुए रामविलास जी ने भी कुछ सॉनेट लिखे।सोलह अक्षरों की पंक्ति यहां भी प्रयोग में लाए थे।
राजनीतिक कविताएं
रामविलास जी की अधिकांश राजनीतिक कविताएं 1945-47 के बीच में लिखी गई हैं।उनके अनुसार हिंदुस्तान के इतिहास में यह काल-खंड बहुत महत्वपूर्ण था और इसे जितना महत्व दिया जाना चाहिए था, नहीं दिया गया।रामविलास जी उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य तो थे ही, उसमें काफी सक्रिय भी थे।ये कविताएं उस समय की पार्टी के मुखपत्र ‘जनयुग’ (पूर्व नाम लोकयुद्ध) में प्रकाशित हुई थीं।ये कविताएं उस समय के देश-व्यापी जन उभार को और कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीति को प्रतिबिंबित करती हैं।
रामविलास जी कहते हैं कि विस्तार और गहराई को देखते हुए उस दौर का जन-आंदोलन जितना शक्तिशाली था, उतना शक्तिशाली वह न उससे पहले कभी था और न उसके बाद।उसके संगठन और संवर्धन में भारत की अनेक भाषाओँ में बड़े पैमाने पर जन-साहित्य रचा गया था।इस जन-साहित्य का उद्देश्य सीधे राजनीतिक रूप में जनता को प्रभावित करना था।वह उनके संघर्षों को ही चित्रित न करता था, वरन किस दिशा में बढ़ना है, यह भी बताता था।इससे पहले जो लोक साहित्य रचा गया था वह स्वतःस्फूर्त था, राजनीतिक कम, अराजनीतिक अधिक।45-47 में जन साहित्य कम्युनिस्ट पार्टी की देख-रेख में सुनियोजित ढंग से रचा गया था।इस जन-साहित्य का कलात्मक स्तर आम तौर पर काफी ऊंचा था।केदारनाथ अग्रवाल की रचनाएँ (युग की गंगा, कहें केदार खरी —खरी) उस काल की श्रेष्ठ उपलब्धि हैं।शंकर शैलेंद्र और नागार्जुन की रचनाएं उसी परंपरा की अगली कड़ी हैं।
रामविलास जी ने ये कविताएं चार नामों से लिखी हैं।जो कविताएं हास्य और व्यंग्य की हैं वे निरंजन नाम से छपी हैं, संघर्ष के लिए आंदोलित करने वाली कविताएं अगिया बैताल के नाम से छपी हैं।ये कविताएं गिरधर कविराय की कुंडलियों की तर्ज पर लिखी गई हैं और इनके अंत में एक लाइन ‘कह अगिया बैताल’ आती है।कुछ कविताएं अवधी में लिखी गई हैं जो भजनदास के नाम से छपी हैं।चौथा उनका अपना नाम तो था ही।वास्तविक नाम से जो कविताएं छपीं वे पढ़े-लिखे लोगों के लिए थीं, मध्यवर्ग में और मजदूरों-किसानों में पढ़े-लिखे लोगों के लिए।
3 फरवरी 1946 को लिखी कविता ‘सदियों के सोये जाग उठे’, दरअसल किसान स्वयंसेवकों के लिए लिखा गया एक ‘मार्चिंग सौंग’ है, जिसकी शुरू की पंक्तियां इस प्रकार हैं :
सदियों के सोये जाग उठे,
फिर तीस करोड़ किसान चले।
अपनी आजादी पाने को
फिर बूढ़े और जवान चले।
जनता के दुश्मन कांप उठे
कहते हैं ये यमराज चले।
हम भूखों और ग़रीबों का
धरती पर लाने राज चले।
जिसने मुंह की रोटी छीनी,
जनता को भूखों मारा है,
लूटा सबको जब काल पड़ा
वह जनता का हत्यारा है।
हम राज नहीं करने देंगे
इन मुफ्त मुनाफाखोरों को
जनता के घूंसे के नीचे
कुचलेंगे इन सब चोरों को,
आजादी का झंडा लेकर
देखो अब वीर किसान चले।
…..
मोटे बैलों से खेती हो
नहरों से खूब सिंचाई हो
गायों भैंसों को चारा हो
इनकी भी खूब खिलाई हो,
जब दूध दही सब खाएंगे
आएगी जान अखाड़ों में,
सोये कवि भी फिर जागेंगे
आल्हा होगा चौपालों में।
उस समय की राजनीतिक पारिस्थितियां ऐसी थीं कि कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं को सरकार शक की नज़र से देखती थी।यह सिलसिला आजादी मिल जाने के बाद भी कई सालों तक चला।आगरा में हमारे घर के सामने या आसपास सरकारी गुप्तचर एजेंसी का कोई न कोई जवान तैनात रहता था, जिसका काम रामविलास जी की गतिविधियों पर नज़र रखना होता था।उनके नाम से स्थानीय थाने में एक बड़ी मोटी फाइल तैयार हो गई थी।रामविलास जी की पासपोर्ट की अर्जी यह कह कर लौटा दी गई थी कि आपको पासपोर्ट नहीं मिल सकता।इस माहौल में रामविलास जी की कुछ कविताएं छप नहीं पाईं।प्रकाशन के लिए भेजी गई सामग्री को पार्टी का विधि-विभाग इस नजर से देखता था कि आगे चलकर उन्हें (पार्टी को) कोई परेशानी तो नहीं उठानी पड़ेगी।ऐसी ही एक कविता नाविक विद्रोह को लेकर थी जो छपने को नहीं दी गई और अंततः खो ही गई।मैं समझता हूँ ऐसी और भी कविताएं रही होंगी जो गुम हो गईं और अब उपलब्ध नहीं हैं।
(समाप्त)
यही क्या यौवन का उन्माद?’
‘प्रथम दिवस डोली जब पावस की मंद समीर’
डोली आज रे मधु वात’
गीत :‘रंग देता मधु यौवन री’
वसंत स्वप्न ‘यौवन मदमाती रूप राशि’
– उपरोक्त कविताएँ क्या आप उपलब्ध करा सकेंगे?