रसायनशास्त्री और पूर्व–शिक्षक। रामविलास शर्मा की पुत्रवधू। पति विजयमोहन शर्मा के साथ एक पुस्तक का संपादन
पत्रों के महत्व को रामविलास जी ने बहुत पहले ही पहचान लिया था। उन्होंने जान लिया था कि पत्रों में एक उष्मा होती है जो पढ़ने वाले को अभिभूत करती है और इनमें दी गई जानकारी अधिकांशतः प्रामाणिक होती है। पत्रों में लेखक की तुरंत प्रतिक्रिया होती है, एक ताजगी होती है, इसलिए उनमें बनावट नहीं होती। पत्रों में अपने समय की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर टिप्पणियां होती हैं, अपने पारिवारिक जीवन का सुख-दुख बांटा जाता है, अपने-अपने शौक और रुझानों का जिक्र होता है। इन सबके अलावा पत्रों में साहित्य होता है, जिससे एक नई विधा का जन्म होता है। बहुत सारे पत्रों में से वह पत्र जो किसी कारण से संग्रहणीय हैं अथवा जिनमें साहित्य है, यह पहचानने के लिए पाठक के पास एक दृष्टि-विशेष होनी चाहिए। यदि पत्रों के लिखने वाले साहित्यकार अथवा कलाकार हों तो फिर कहना ही क्या!
रामविलास जी ने पत्रों की इन विशेषताओं को पहचाना और न केवल स्वयं पत्र सँजोकर रखे, दूसरों को भी इस काम के लिए उत्साहित किया। उदाहरण के तौर पर अजय तिवारी को लिखा पत्र-
‘तुम्हारा 2/5 का पत्र मिला – आज शाम को, पत्र छपने लायक है। चाहो तो वापस ले लेना।’ (6.5.85 का पत्र) और
‘तुम्हारा पत्र पढ़कर मेरे मन में एक बात आई। ललित गद्य निबंधों के रूप में, न लिखा हो, तो तुम्हें लिखना चाहिए।’ (26.1.87 का पत्र)
इसी प्रकार उन्होंने अन्य पत्र लेखकों, मित्रों और संबंधियों को पत्र संजोकर रखने के लिए कहा है। उन्होंने इन पत्रों का बहुत अच्छा उपयोग भी किया है। उदाहरण के तौर पर ‘निराला की साहित्य साधना’ पुस्तक में काफी सारी सामग्री पत्रों पर आधारित है। इसी संदर्भ में उन्होंने शिवमंगल सिंह सुमन से अपने वे पत्र मांगे थे जिनमें निराला जी का जिक्र था। यह दूसरी बात है कि हर तरह से कोशिश करने के बाद, यहां तक कि उज्जैन जाने के बाद भी सुमन जी ने वे पत्र नहीं दिए।
उन्होंने महत्वपूर्ण पत्रों को संग्रह करके प्रकाशित कराने का काम भी किया। इस क्रम में उनकी पहली पुस्तक परिमल प्रकाशन से 1992 में ‘मित्र संवाद’ के रूप में प्रकाशित हुई, जिसमें केदारनाथ अग्रवाल और रामविलास शर्मा के पत्र क्रमानुसार लगाए गए हैं।
इस पुस्तक का हिंदी साहित्य जगत में अभूतपूर्व स्वागत हुआ। बाद में इसमें और भी पत्र जोड़ दिए गए और इसका नया संस्करण 2010 में दो खंडों में सरस्वती भंडार इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक का संपादन किया स्वयं रामविलास जी और अशोक त्रिपाठी ने। इसमें केदार जी के लगभग 366 पत्र और रामविलास जी के 385 पत्र हैं। चूंकि दोनों मित्रों ने पत्र सुरक्षित रखे थे और आपस में सहयोग कर रहे थे इसलिए यह ‘मित्र संवाद’ बन पाया। पुस्तक की रोचकता का एक कारण यह भी है कि दोनों लोगों के पत्र उपलब्ध थे और क्रमानुसार लगाए जा सके। ‘मित्र संवाद’ के बारे में नामवर सिंह जी ने लिखा है,
रामविलास जी मानते हैं कि दूसरों के पत्र पढ़ना एक तरह से नाटक पढ़ने की तरह है। … पत्र संग्रह ऐसा नाटक है जो योजना बनाकर नहीं रचा गया। शायद इसीलिए वह अनेक नाटकों से अधिक महत्वपूर्ण, अधिक आकर्षक है। वैसे यह बात कही तो गई है निराला के पत्रों के प्रसंग में, लेकिन पत्र व्यवहार से निर्मित नाटक की बेहतर मिसाल तो ‘मित्र संवाद’ही है, वह हृदय संवाद है। ‘मित्र संवाद’ साहित्य की आलोचना के बहुमूल्य सूत्रों की खान है, क्योंकि वह दो संवेदन-सजग कवि-आलोचकों की कार्यशाला का बेजोड़ रोजनामचा है : साथ ही वर्षों की साहित्य-साधना में प्राप्त अनुभवों का दस्तावेज़…। ‘मित्र संवाद’ अंततः जीवन का गद्य है। गालिब ने अगर अपने पत्रों के जरिए उर्दू गद्य की नींव डाली और उसे परवान चढ़ाया तो रामविलास शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल के पत्रों ने हिंदी में ‘गद्य की विलुप्त कला’ को बचा लिया। लोकतंत्र के साथ ही गद्य भी खतरे में है। इस लड़ाई में रामविलास शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल का संग्रह ‘मित्र संवाद’ एक कारगर हथियार बन सकता है, क्योंकि वह स्वयं भी सुंदर और सजीव गद्य है। ऐसा प्राणवान गद्य ही गद्य की रक्षा कर सकता है। इस दृष्टि से ‘मित्र संवाद’ उस गद्य की विलुप्त कला का अप्रतिम दस्तावेज है।’
इसी क्रम में दूसरी पुस्तक जो प्रकाश में आई, वह थी ‘तीन महारथियों के पत्र’। सन 1997 में प्रकाशित इस पुस्तक में रामविलास जी के नाम वृंदावनलाल वर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी और किशोरीदास वाजपेयी के पत्र हैं। इस संग्रह में रामविलास जी के पत्र नहीं हैं।
रामविलास जी के अनुसार प्रेमचंद के बाद जिन लेखकों का संबंध ग्राम जीवन से था और जिनके उपन्यास खूब पढ़े गए, उनमें वृंदावनलाल वर्मा का स्थान सबसे ऊपर है। हिंदी लेखकों में पत्रों के संग्रह करने का आग्रह बनारसीदास चतुर्वेदी में सबसे अधिक था। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में किशोरीदास वाजपेयी बहुत-सी रूढ़ियों को तोड़कर आगे बढ़े थे। पश्चिम के भाषाविज्ञानी, विशेषकर जर्मन और अमरीकी, अपनी दुरूह पारिवारिक शब्दावली के लिए बदनाम थे। फ्रांस के भाषाविज्ञानी अपवाद थे। जैसे उनका गद्य सरल और रोचक होता था, वैसे ही ‘हिंदी शब्दानुशासन’ में वाजपेयी जी का गद्य सुगम और रोचक है।
इसी क्रम में एक और पुस्तक सन 2000 में आई जिसका नाम था ‘कवियों के पत्र’। इसमें रामविलास जी के नाम तेरह कवियों के पत्र संकलित हैं, कुछ पत्र रामविलास जी के लिखे हुए भी हैं।
2004 में प्रकाशित ‘अत्र कुशलम् तत्रास्तु’ में रामविलास जी और अमृतलाल नागर के पत्र संकलित हैं। यह पुस्तक इन दोनों लेखकों के देहांत के बाद प्रकाशित हुई और इसका संपादन इनके पुत्रों विजयमोहन शर्मा और शरद नागर ने किया। इस संग्रह में भी दोनों कलाकारों के पत्र हैं जो क्रमबद्ध तरीके से लगाए गए हैं। इसका कारण भी वही है कि दोनों महारथियों ने पत्र सुरक्षित रखे थे।
इन पत्रों के अलावा भी रामविलास जी के लिखे हुए अनेक पत्र थे जो उन्होंने अन्य लेखकों को लिखे थे। इनमें से कुछ लेखकों ने ये पत्र प्रकाशित भी करवा दिए थे, उदाहरण के तौर पर साम्य द्वारा प्रकाशित ‘रामविलास शर्मा के 188 पत्र’, अनंत कुमार ‘पाषाण’ के नाम पत्र, नंदकिशोर नवल के नाम पत्र, वाचस्पति उपाध्याय के नाम पत्र, विष्णुकांत शास्त्री के नाम पत्र, शरद नागर के नाम पत्र इत्यादि। फिर भी अनेक लेखक ऐसे थे जिनके नाम रामविलास जी ने पत्र लिखे थे किंतु वे किसी संकलन में नहीं आ पाए थे।
यह तो सबको पता था कि रामविलास जी ने बड़ी संख्या में पत्र लिखे होंगे। उनके पास भारी संख्या में पत्र आते थे। यहां तक कि मोहल्ले में अगर किसी को पता करना हो कि डाकिया आ गया या नहीं तो वह उनके घर जाकर पूछ लेता था कि डाकिया आ गया या नहीं।
अगर डाक आई होगी तो मोहल्ले में किसी और की हो या न हो, उनकी जरूर होगी। ये पत्र परिवार के लोगों के तो होते ही थे, बाहर से छात्र, लेखक, पाठक, मित्र और जिज्ञासु लोग उन्हें पत्र लिखते थे। किसी को अपने शोध-कार्य के लिए मार्गदर्शन चाहिए तो कोई भारी मानसिक तनाव से ग्रस्त है। किसी को भविष्य अंधकार में दिखाई देता है तो कोई साहित्य में गुटबंदी से परेशान है। रामविलास जी बड़े धैर्य से सभी पत्रों का उत्तर देते थे। यह बात दूसरी है कि बहुत सारे पत्रों के उत्तर में केवल एक पंक्ति लिखना ही पर्याप्त होता था, किंतु वे पंक्तियां बड़ी महत्वपूर्ण होती थीं, और यह देखने वाली बात होती थी कि इतने कम शब्दों में अपनी बात कैसे कही जा सकती है।
अनुमान है कि अपने जीवनकाल में रामविलास जी ने लगभग दस हजार पत्र तो अवश्य लिखे होंगे।
इस परिप्रेक्ष्य को देखते हुए, डॉ. विजय मोहन शर्मा और डॉ. जसवीर त्यागी ने यह सोचा कि क्यों न रामविलास जी द्वारा अन्य लेखकों को लिखे हुए पत्रों को इकट्ठा किया जाए। अन्य लेखकों से तात्पर्य उन लेखकों से है जिनके पत्र उपर्युक्त संग्रहों में नहीं हैं। इसके लिए उन लोगों की सूची बनाई गई जिनके पास उनके पत्र होने की संभावना थी। रामविलास जी के पत्र, जो कहीं प्रकाशित हो चुके थे, उन्हें भी इकट्ठा किया गया। यह भी सोचा गया कि इस सूची में शामिल लेखकों और मित्रों के अलावा कुछ और लोग भी होंगे जिनके पास रामविलास जी के लिखे पत्र होंगे। इसके लिए कुछ पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापन देने की बात सोची गई। पहली बार जिन पत्रिकाओं में विज्ञापन दिए गए उनके नाम थे, हंस, कथन, वागर्थ, वर्तमान साहित्य आदि। इस बात का भी अहसास हुआ कि हिंदी जैसी भाषा में, जिसे राष्ट्रभाषा का पद प्राप्त है, स्तरीय पत्रिकाओं की कितनी कमी है। कुछ दिनों बाद इन विज्ञापनों को दोबारा प्रकाशित कराया गया ताकि यह उन लोगों की नजर में भी आ सके, जिनसे यह पहली बार में छूट गए हों।
इसके अलावा जहां कहीं से भी पता चला कि अमुक लेखक अथवा मित्र के पास उनके पत्र होने की संभावना है, उनसे भी संपर्क किया गया। कहीं से कम और कहीं उम्मीद से अधिक पत्र प्राप्त हुए। बहुत से लोगों ने लिखा कि पत्र खो गए अथवा चोरी हो गए।
पत्रों को संजोकर रखना भी बड़ी जिम्मेदारी का काम है। लेकिन पुराने पत्र जब हाथ लगते हैं तो कैसी कैसी अनुभूति जगा जाते हैं, यह बयान करना मुश्किल है। पत्र किसी के भी क्यों न हों हमेशा पठनीय होते हैं और अगर अपनों के हों और उनसे कुछ यादें जुड़ी हों तो फिर कहना ही क्या।
सारे पत्रों को इकट्ठा करके इन लोगों ने इसे एक पुस्तक का रूप दे दिया जो राजकमल प्रकाशन से सन 2021 में प्रकाशित हुई है। पुस्तक का मूल्य 1200 रुपये है। पुस्तक को अंतिम रूप देने में प्रकाशक ने लगभग आठ वर्ष लगा दिए, यहां तक कि कुछ लेखक, जिन्होंने इस संकलन के लिए पत्र दिए थे, इस पुस्तक को अंतिम रूप में देखने से पहले ही चल बसे।
संकलन में 109 लेखकों को लिखे गए रामविलास जी के लगभग 1200 पत्र हैं। लेखकों के नाम 1180 पत्र और कुछ संदेश जो प्रगतिशील लेखक संघ, विश्व हिंदी सम्मेलन, जन संस्कृति मंच आदि के लिए दिए गए हैं। सबसे अधिक पत्र अजय तिवारी जी को लिखे गए हैं। पहला पत्र आगरा से 6 अक्टूबर 1981 को लिखा गया है जो एक हद तक औपचारिक है। धीरे-धीरे पत्रों का अंतराल कम होता गया है और निकटता बढ़ती गई है। इसके बाद रामविलास जी अपनी पत्नी के इलाज के लिए उन्हें लेकर दिल्ली आ गए। यहां पर अजय तिवारी जी उनसे नियमित रूप से मिलने लगे। रामविलास जी को अकसर पुस्तकों की आवश्यकता होती थी जिसके लिए वह मित्रों का सहयोग लेते थे। अजय तिवारी जी के कालेज के पुस्तकालय से वह पुस्तकें मंगवाते थे और पढ़ने के बाद लौटा देते थे। जिन लोगों से वह इस तरह का काम करवाते थे, उनका बड़ा अहसान मानते थे। इसका जिक्र उस पुस्तक की भूमिका में भी करते थे। ऐसे लोगों में अजय तिवारी के अलावा श्याम बिहारी राय, रणजीत साहा, श्याम कश्यप और परिवार जन भी आते थे। इसलिए इन लोगों को लिखे पत्रों में इस तरह की जरूरतों का अकसर जिक्र होता था।
रामविलास जी के चरित्र की एक विशेषता यह थी कि मित्रता एक तरफ और खरी बात दूसरी तरफ। एक तरफ उन्होंने अजय तिवारी जी के साथ बांदा जाने का प्रोग्राम बना लिया, वहीं दूसरी तरफ केदारनाथ अग्रवाल जी के सम्मान में जो प्रोग्राम हुआ उसको लेकर अपनी नाराजगी भी जाहिर की। अजय तिवारी जी ने बिना रामविलास जी को बताए रमेश सिन्हा को प्रोग्राम में बुला लिया था। रामविलास जी ने अजय तिवारी जी को लिखा, ‘मेरे दिमाग में कुछ प्रश्न चक्कर काट रहे हैं। तुम्हें लिख रहा हूँ।’
- शिवकुमार सहाय ने सवा लाख रुपया केदार आयोजन में खर्च किया। यह रुपया उन्होंने प्रकाशन से कमाया था, कर्ज लिया था या अन्य किसी स्रोत से प्राप्त किया था ?
- केदार द्वारा हस्ताक्षरित पुस्तकें रमेश सिन्हा को भेंट की गईं; इसके लिए केदार और शिवकुमार जिम्मेदार हैं। तुमने इलाहाबाद प्रगतिशील लेखक सम्मेलन का जिक्र करते हुए रमेश सिन्हा को प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन से संबद्ध बताकर प्र. ले. संघ और डांगेपंथी रमेश सिन्हा का समर्थन किया या नहीं?’ (पत्र संख्या 41)
इस पत्र के उत्तर में अजय तिवारी जी ने कुछ कैफियत दी होगी जो रामविलास जी को पसंद नहीं आई होगी। दरअसल रामविलास जी अजय जी के दो नावों पर एक साथ सवारी करने वाली प्रवृत्ति को जानते थे और उन्होंने अगले पत्र में खुलासा किया,
‘बिलकुल ठीक, उन्हें वहां बुलाया किसने था? यहां बांदा में, 21 तारीख से पहले तो तुमने उनका नाम न लिया था। संयोजक तुम थे या राष्ट्रीय पूंजीपति? शिवकुमार मिश्र, चंद्रबली सिंह और मैंने जिस प्रवृत्ति का खंडन किया था, उसके राजनीतिक प्रतिनिधि रमेश सिन्हा थे या नहीं? केदार से उन्हें पुस्तकें भेंट कराके जो विशेष सम्मान दिया गया, वह योजना किसकी थी? संयोजक होकर तुमने उसे आयोजन में आने कैसे दिया? कम्युनिस्ट होकर प्रकाशक को अपने पीछे चला रहे थे या उसके पीछे चल रहे थे?’ (पत्र संख्या 42)
जहां एक ओर वह अपने पत्र लेखकों को खरी खरी सुनाते हैं, ‘वैसी असावधानी तुम अकसर करते हो। दिल्ली से कुतुब एक्सप्रेस 5 बजे चलेगी। बांदा 4 बजे पहुंचेगी। वहां से चलकर आगरा 7 बजे पहुंचेगी – इन सब बातों को पहले से चेक करके प्रोग्राम बनाना चाहिए था। अगर मुझे मालूम होता कि गाड़ी रात को ढाई बजे पहुंचती है तो बांदा में रहने का समय कम करके इलाहाबाद होकर ही जाते। और सामान की देखभाल की जिम्मेदारी तुम्हारी होनी चाहिए थी, न कि सम्मिलित रूप से हमारी+तुम्हारी। तुम अपने+हमारे सामान के साथ केदार का सामान भी उठा लाए।’ (पत्र संख्या 44), वहीं उन्हें कष्ट से उबरने के लिए सलाह भी देते हैं, जैसे अजय तिवारी जी को, ‘विषम परिस्थितियों में रचनात्मक कार्य से बढ़कर कोई दूसरी कोई चीज शक्ति नहीं देती – यह बात बिलकुल सही है। परिस्थितियों पर काबू पाने का यह कारगर तरीका है।’ (पत्र संख्या 108)
रामविलास जी मूलतः कवि थे। अनंतकुमार ‘पाषाण’ जी को लिखे पहले पत्र में ही उन्होंने आलोचना से पिंड छुड़ाकर फिर से कविताएं लिखने की बात कही है। यह बात वह कई बार कहते हैं लेकिन आलोचना से पिंड छुड़ा नहीं पाए।
इस पत्र में वह लिखते हैं, ‘हां, अब कविताएं लिखूंगा। निराला जी से छुट्टी पा ली है।… मेरी कविताएं रूपतरंग पुस्तक में संकलित हैं चाहे जो उपयोग करे। ये परंपरा, आधुनिकता-बोध वाले प्रश्नों से बचाए। आलोचना से पिंड छुड़ा रहा हूँ।’ (पत्र संख्या1) यही बात वह फिर कहते हैं, ‘साहित्य के ज्ञानकांड (इतिहास और दर्शन) का काम पूरा नहीं हुआ, इसलिए कविता लिखना मुल्तवी है। 1945-47 में मेरी जो कविताएं लोकयुद्ध, जनयुग में छपी थीं, वे संकलित हो गई हैं। गर्मियों तक निकल जाएंगी।’ इसी पत्र में रामविलास जी एक चुटकी भी लेते हैं, ‘मैंने प्रेम की ही नहीं, सामाजिक विषय पर भी कविताएं लिख डालीं। कमाल है मानो प्रेम असामाजिक विषय हो!’ (पत्र संख्या 18)
रामविलास जी मानते थे कि साहित्य में राजनीति का प्रतिबिंब दिखाई देता है। पत्र संख्या 13 में वह कहते हैं, ‘साहित्य में जितनी उलझनें दिखाई देती हैं, वे मूलतः राजनीतिक उलझनों के परिणाम हैं। प्रगतिशील साहित्य वामपक्ष की राजनीति से जुड़ा रहा है। वामपक्ष में बिखराव होगा तो वह साहित्य में भी दिखाई देगा।’
रामविलास जी मानते थे कि कला से अधिक शक्तिशाली और कुछ नहीं है। अपने पत्र संख्या 19 में वह लिखते हैं, तुम्हारी स्थापना ‘भक्ति परंपरा क्रांतिकारी रही है’ से मैं सहमत हूँ। राजनीति और साहित्य के बारे में सरल लेख लिखकर लोगों को समझाना, उनके भ्रम को दूर करना बहुत जरूरी है। तुम चाहो तो यह काम कर सकते हो। मन का क्षोभ दूर करने में, स्वयं को निरंतर शिक्षित करते रहने में, इससे सहायता मिलेगी। … कला से अधिक शक्तिशाली संसार में और कुछ नहीं है। सारे अस्त्र विफल हो जाएं, यह अस्त्र विफल नहीं होता। पर उसे साधना कठिन है। उसे जनता तक पहुँचाना कठिन है। सध जाए, जनता तक पहुंच जाए, तो सारे कोलाहल को चीरकर वह सत्य का प्रकाश चारों ओर फैला सकता है। मन में जितना भी क्षोभ हो, समझना चाहिए, कला की साधना में उतनी ही कसर है।’
सन 1992 में रामविलास जी गंभीर रूप से बीमार हो गए थे। उनकी आंत का एक टुकड़ा काट कर निकाल दिया गया था। वह बहुत कमजोर हो गए थे। 1996 में लिखे पत्र संख्या 82 में वह लिखते हैं, ‘ठंडाई पीसने वाले हाथ कलम पकड़ते कांपते हैं। मन से चंगा हूँ।‘
निराला जी के देहांत के बाद देशभर में अनेक समारोह आयोजित किए गए। ऐसा ही एक आयोजन दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में आयोजित किया गया। आयोजन चित्रकला संगम की ओर से होना था। उसके उपाध्यक्ष बांकेबिहारी भटनागर जी ने रामविलास जी को पत्र लिखा,
‘प्रिय भाई,
जो काम मैं निराला जी के रहते न कर सका उसे अब उनके न रहने पर कर रहा हूँ, इसका मुझे दुख तो है किंतु मन की लगन है और उसमें आपका सहयोग आवश्यक है।
समारोह 1/3/62 को होगा – प्रातः 11 बजे राष्ट्रपति भवन में और सायं 6 बजे कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में। प्रातः सभा का उद्घाटन राष्ट्रपति करेंगे और सायं गोष्ठी की अध्यक्षता हजारी प्रसाद जी करेंगे। मेरी तीव्र अभिलाषा है कि आप इस समारोह में भाग लें, निराला जी के संबंध में कुछ निष्कर्षकारी संस्मरण सुनाएं तथा निराला जी पर अपनी कविता का पाठ भी करें। मुझे विश्वास है आप मेरा आग्रह टालेंगे नहीं और अपने आने के समय की सूचना तत्काल देंगे।
निराला जी से संबंधित कविताओं का संग्रह भी वितरणार्थ छापा जा रहा है। उसमें आपकी रचना भी होगी। आशा है आपको कोई आपत्ति न होगी।
निराला-संबंधी प्रदर्शनी का भी आयोजन है। कृपया निराला जी के कुछ चित्र, पत्र, पांडुलिपियां आदि, जो आपके पास हों, अपने साथ अवश्य लाएं।
आपका
बांकेबिहारी भटनागर
संयोजक
पुनश्च : आपके मार्ग-व्यय तथा यहां ठहरने की व्यवस्था का उत्तरदायित्व समारोह समिति पर होगा।’
किसी और साधारण लेखक को यह पत्र मिलता तो वह इसे अपना सौभाग्य मानता और जाने की तैयारी करता। लेकिन रामविलास जी साधारण लेखकों में से नहीं थे।
रामविलास जी को याद आया कि एक बार साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बनाने की बात थी और इसके लिए सम्पूर्णानंद जी का नाम सुझाया गया था। निराला जी को यह मंजूर नहीं था कि एक साहित्यिक संस्था का अध्यक्ष राजनेता हो। उन्होंने लिखा कि रामविलास या अमृतलाल नागर में से एक को अध्यक्ष बना दो तो ही मैं आऊंगा।
उन्होंने भटनागर जी को पत्र लिखा, ‘प्रिय भटनागर जी, आपके 3/2 के पत्र के लिए धन्यवाद। मैं सोचता हूँ कि यदि निराला जीवित होते तो राष्ट्रपति भवन और कॉन्स्टीट्यूशन क्लब के समारोह के बारे में क्या कहते। जो कुछ कहते, उसे सोचकर आने का साहस नहीं हुआ। क्षमा करें।
आपका
रामविलास शर्मा।’
इसी प्रकार एक बार भारत भवन भोपाल में 11 जनवरी से 13 जनवरी 1987 तक आलोचना पर केंद्रित ‘समवाय’ का आयोजन किया गया था। अशोक वाजपेयी जी उन दिनों भारत भवन का कार्यभार संभाले हुए थे। उन्होंने रामविलास जी को भोपाल आने के लिए पत्र लिखा। रामविलास जी ने उसके उत्तर में लिखा,
‘प्रिय अशोक वाजपेयी जी,
‘समवाय’ के संबंध में आपका पत्र मिला। मैं वैसे भी गोष्ठियों आदि में नहीं जाता, समकालीन आलोचना पढ़ने का समय नहीं निकाल पाता। इसलिए आपके आयोजन में भाग लेना संभव नहीं है। पर यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि भारत भवन को फोर्ड फाउंडेशन का सहयोग प्राप्त हुआ है, ऐसा सुना है। इस कारण मैं विशेष रूप से उक्त आयोजन में भाग न ले सकूंगा।
आपका
रामविलास शर्मा‘
‘रामविलास शर्मा के पत्र’ पुस्तक में संपादकों ने लेखकों के बारे में और उनसे जुड़ी कुछ घटनाओं का भी जिक्र किया है, जिससे पुस्तक की उपयोगिता और रोचकता दोनों बढ़ गई है। उदाहरण के तौर पर दो घटनाओं का जिक्र करना आवश्यक है।
पहली घटना रामविलास जी के मित्र और राजपूत कॉलेज के पूर्व सहयोगी चंद्रबली सिंह के बारे में है। किन्हीं कारणों से चंद्रबाली सिंह राजपूत कॉलेज, आगरा छोड़कर बनारस के यू पी कॉलेज में अध्यापन करने चले गए। बनारस पहुंचने के कुछ दिन बाद वह सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं के कामों में इस तरह फंस गए कि उनका पढ़ना लिखना कम हो गया। कोई भी मैत्री संघ हो, चीन का, नेपाल का, या किसी और का, वह उसके संचालक बन जाते थे। उनका लिखना लगभग बंद सा हो गया।
उन्हीं दिनों (1956 में) रामविलास जी की एक पुस्तक निकली जिसे वह चंद्रबली सिंह को समर्पित करना चाहते थे। पुस्तक का नाम था ‘स्वाधीनता और राष्ट्रीय साहित्य’। रामविलास जी का मानना था कि जो आदमी पढ़ने-लिखने का काम कर सकता है, उसे संस्थानों के गैर-रचनात्मक झंझटों में नहीं पड़ना चाहिए। उन्होंने पुस्तक समर्पित करते समय लिखा,
‘(भूतपूर्व) आलोचक चंद्रबली सिंह को’
इसके कुछ वर्षों बाद की घटना है। केदारनाथ अग्रवाल जी का 75वां जन्मदिन इलाहाबाद में मनाया जाना था। योजना बनी कि रामविलास जी भी उसमें जाएं। उन दिनों वह बनारस में थे। उन्होंने चंद्रबली सिंह को भी साथ चलने के लिए मना लिया। यह भी कहा कि केदार जी के कृतित्व पर मुख्य भाषण आप देंगे। मैं बोलूंगा सोवियत संघ के विघटन पर। प्रोग्राम में ऐसा ही हुआ।
लौटते समय ये सब लोग एक ही गाड़ी में थे। रास्ते में रामविलास जी ने चंद्रबली सिंह जी से कहा, तुमने बहुत सुंदर भाषण दिया। अब इसे थोड़ा और विस्तार देकर एक पुस्तक की शक्ल दे दो। उन्होंने यह भी बताया कि पुस्तक में कितने अध्याय होंगे और किस अध्याय में क्या लिखा जाएगा। सारी बातें करते-करते और पुस्तक का प्रारूप विस्तार से बताते-बताते इलाहाबाद से बनारस आ गए। गाड़ी से उतरते समय रामविलास जी ने चुटकी ली, मैं यह जानता हूँ कि तुम इस पुस्तक पर काम नहीं करोगे। लेकिन अगर कर लो और साल भर में यह पुस्तक निकल जाए तो मैं तुम्हारे नाम के आगे ‘अ’ लगाकर तुम्हें ‘भूतपूर्व आलोचक’ से ‘अभूतपूर्व आलोचक’ बना दूंगा।
जाहिर है कि चंद्रबली सिंह जी ने पुस्तक नहीं लिखी और अभूतपूर्व आलोचक होने का एक मौका गंवा दिया!
दूसरी घटना शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ जी को लेकर है। सुमन जी रामविलास जी के घनिष्टतम मित्रों में से थे। उनसे परिचय लखनऊ में ही हुआ था। सुमन जी भी निराला जी के प्रशंसकों में से थे। जल्दी ही इन लोगों का परिचय प्रगाढ़ मित्रता में बदल गया। दोनों लोग बैसवाड़े के ही रहने वाले थे इसलिए कभी-कभी बातचीत और पत्रों में बैसवाड़ी का प्रयोग कर लेते थे। रामविलास जी ने अपनी पुस्तक ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’ सुमन जी को समर्पित की थी। समर्पण करते समय लिखा था, ‘शुक्ल जी के योग्य शिष्य डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ को’।
बाद में सुमन जी एक सरकारी पद पर नेपाल चले गए। जाने से पहले उन्होंने रामविलास जी से उनकी राय मांगी थी। रामविलास जी ने जाने के लिए मना किया। रामविलास जी की राय के बावजूद वह नेपाल चले गए। इसके बाद रामविलास जी ने उनसे अपने लिखे पत्र मांगे जिनमें निराला जी का जिक्र था। सुमन जी ने वे पत्र भी वापस नहीं किए। इन कारणों से रामविलास जी सुमन जी से थोड़े नाराज हो गए और पुस्तक के नए संस्करण में समर्पण का वाक्य इस प्रकार बदल दिया, ‘शुक्ल जी के योग्य (?) शिष्य डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ को।’
इन पत्रों में उनके पाने वालों के प्रति संवेदना तो है ही, उन्हें समस्या से निपटने की सलाह दी गई है। उनकी हौसला अफजाई की गई है। निराशा से बचने के उपाय सुझाए गए हैं और अपने स्वभाव के विपरीत कुछ लोगों की सिफारिश भी की गई है।
एक-दो वाक्य सेहत के बारे में, प्रकृति के बारे में, या अपने काम के संबंध में हैं। कुछ लोगों को लिखे पत्रों में क्रिकेट और अन्य खेलों के स्कोर भी हैं, खास तौर से उन लोगों को लिखे पत्रों में, जिनसे संबंध अनौपचारिक हो चले थे या जिनकी क्रिकेट में रुचि के बारे में रामविलास जी को पता था।
कुल मिलाकर संग्रह बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक है। इन पत्रों को पढ़ने के बाद रामविलास जी की जो छवि उभरती है वह एक निहायत विनम्र, निश्छल, संवेदनशील, निर्भीक और खरे व्यक्ति की है, जो अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करता, चाहे सामने वाले उसके अपने ही क्यों न हों।
इन पत्रों के संकलन और संपादन के लिए विजयमोहन शर्मा जी और जसवीर त्यागी जी को बधाई। आशा है हिंदी जगत में इस पुस्तक का उचित स्वागत होगा।
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बहुत सारगर्भित और तथ्यपरक आलेख।रामविलास शर्मा का खरापन और बेबाकी अद्भुत रूप से प्रभावित करती है।उनके व्यक्तित्व के ये अनछुए प्रसंग उनके प्रति श्रद्धा जगाते हैं।