सुपरिचित कथाकार।कहानी संग्रह- ‘पखेरू’, ‘पतली गली का बंद मकान’, ‘पहाड़ बोलते हैं’, ‘शिखरों के बीच’, ‘खंडहर’, ‘बुराँस के फूल’, ‘देवदासी’, ‘बदसूरत आदमी’, ‘पिता ऐसे नहीं थे’, ‘मेरी चुनिंदा कहानिया’।उपन्यास ‘सिसकते पहाड़’।

 

अब सुबह गली में न कोई झाड़ू लगाते हुए दिखाई देता है, और न ही कोई घूमते हुए ही दिखाई देता है।सुबह उठकर देखता हूँ, गली सूनी दिखाई देती है।एकमात्र आर. पी. सिंह ही ऐसा था जो सुबह लोगों के दरवाजे खुलने से पहले अपने घर के आगे झाड़ू लगाने के बाद पानी का छिड़काव कर दिया करता था, लेकिन आर. पी. सिंह के जाने के बाद ऐसा लगता है जैसे कोई इस गली में रहता ही नहीं…।यह सत्य है कि जो आया है उसे एक दिन जाना भी है।आर. पी. सिंह. को भी जाना था, वह भी चला गया।

घर के आगे झाड़ू लगाने के बाद पानी से छिड़काव करना या फिर पाइप से धुलाई करना, यह उसका रोज का नियम था, लेकिन आर. पी. सिंह के जाने के बाद गली में अब न कोई झाड़ू लगाते हुए दिखाई देता है और न ही कोई सुबह पानी का छिड़काव करते हुए दिखाई देता है।

कुदरत के आगे हर कोई नतमस्तक और विवश है, कोई कर भी क्या सकता है…।कब किसका बुलावा आ जाए, कौन जाने..? आर. पी. सिंह के लिए भी कुदरत का बुलावा आया और उसे जाना पड़ा…।

उस गली में आए हुए मुझे अभी एक ही महीना हुआ था।गली में नया होने के कारण किसी से कोई जान-पहचान भी नहीं थी, और न ही किसी से कोई हैलो या राम-राम ही थी।गली से कुछ दूरी पर एक दुकान थी जिसमें ईश्वर सिंह बैठा रहता, बस…उसी से कभी-कभार कुछ गप्पें हो जाया करतीं…।मैं उससे भी ज्यादा बातें नहीं करता था, क्योंकि वह बातों-ही-बातों में गुस्सा हो जाया करता।

एक दिन जैसे ही मैं ईश्वर सिंह की दुकान पर दूध लेने गया उसी वक्त एक औरत ने उसके सामने स्टील का गिलास रखते हुए कहा, ‘दादा… दस रुपये का सरसों का तेल देना।’

‘ये क्या बोल री तू…? मैं थारा दादा कित ते हो ग्या…, सुबह-सुबह आ गई दिमाग खाणे…।दो सौ रुपये किलो तेल हो र्या है, दस रुपये में कितणा आवेगा…दादा बोलण लाग री…?’

तभी आर. पी. सिंह ने कहा, ‘आपको इन्होंने कोई गलत नहीं कहा ईश्वर सिंह जी…दस रुपये में जितना तेल आता है आप उतना दे दो…, जरूरी नहीं कि हर किसी के पास किलो या आधा किलो खरीदने के लिए रुपये हों… लोगों की हालात बहुत खराब है, एक तो बेरोजगारी और ऊपर से ये कोरोना बीमारी…।’

मैंने पीछे मुड़कर देखा, आर. पी. सिंह खड़े थे।मुझे अपनी ओर देखते हुए उन्होंने कहा, ‘आप कैसे हैं…?’

‘जी…ठीक हूँ…।’

‘परिवार में सब ठीक हैं…?’

‘जी…।’

ईश्वर सिंह ने एक बार हमारी ओर देखा और फिर उसका गिलास तोलकर उसमें तेल डाल दिया।उस औरत के जाने के बाद आर. पी. सिंह ने ईश्वर सिंह को दस रुपये का सिक्का देते हुए कहा, ‘एक गुटखा देना…।’

ईश्वर सिंह ने सिक्के के दोनों तरफ देखते हुए कहा, ‘ये सिक्का नहीं चलेगा…।’

‘क्यों…?’

‘ये नकली है…।’

‘कैसे…?’

‘कैसे…? मने नी पता…।ऐसे सिक्के कोई ना लेता, जब हमसे ही कोई ना लेवेगा तो हम क्यों कर लें…?’

‘आपसे बहस करना ठीक नहीं है।’ कहते हुए आर. पी. सिंह ने सिक्का वापस अपनी जेब में रखते हुए दस रुपये का नोट ईश्वर सिंह को देते हुए कहा, ‘अब ये मत कह देना कि दस रुपये का नोट भी नकली है।’

‘मने पागल समझ रखा है के…, नकली होगा तो नकली ही कहूंगा।’ गुटखे के पैकेट में से गुटखे का पाउच निकाल कर ईश्वर सिंह ने आर. पी. सिंह को देते हुए कहा।

आर. पी. सिंह ने गुटखे का पाउच फाड़कर एक बार उसे हिलाया और फिर सारा गुटखा मुंह में डालने के बाद मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘मंदिर जा रहा हूँ, फिर मिलता हूँ।’ कहकर उसने अपने कदम गली की दूसरी तरफ मोड़ दिए।

आर. पी. सिंह से मेरी यह पहली जानपहचान थी।हालांकि मैं उसे कई बार गली से निकलते व जाते हुए देखता।मेरे घर से मात्र दो घर छोड़ कर उसका घर था, लेकिन उससे कभी बातें नहीं हुईं।हम दोनों इतना जरूर जानते थे कि हम दोनों एक ही गली में रहने वाले हैं, और पड़ोसी हैं।

पहली बार जब मैं चार बजे घूमने निकला तो मैंने आर. पी. सिंह को घूमते हुए देखा।कालोनी के अंदर एक किलोमीटर का जो दायरा है वह सुबह-शाम घूमने के लिए काफी अच्छा है।गलियां काफी चौड़ी व पक्की हैं।इन्हीं गलियों में ज्यादातर लोग घूमते हुए दिखाई देते हैं।ऐसा नहीं है कि सभी लोग इन्हीं गलियों में घूमते हैं, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कालोनी के दोनों ओर करीब तीन-तीन किलोमीटर पर बने पार्कों में घूमने के लिए जाते हैं।वे कालोनी की गलियों में घूमना पसंद नहीं करते इसलिए घर से निकलने के बाद उनके कदम सीधे पार्क में जाकर ही रुकते हैं।

पहली बार जब मैं घूमने निकला तो मेरे साथ भी यही हुआ।मैंने सोचा कि गलियां बहुत चौड़ी हैं, किसी बात का कोई डर नहीं हैं, लेकिन अपनी गली से निकलने के बाद जब मैं तीसरी गली में पहुंचा तो तीन कुत्ते एकाएक मेरे सामने अपने दांत दिखाते हुए गुर्राने लगे।आदमी किसी को पहचाने या न पहचाने लेकिन कालोनी की गलियों में रहने वाले ये आवारा कुत्ते अपनी-अपनी गली के हर आदमी को, औरत को और बच्चों को अच्छी तरह से पहचानते हैं।कोई नया आदमी जब उन्हें पहली बार दिखाई देता है, तो वे उसका स्वागत अपने दांतों से करते हैंं, मैं अकेला था और वे तीन थे…।तीनों को देखकर मैं धीरे-धीरे पीछे हटते हुए…उन्हें भगाने की कोशिश करते हुए, अपने बचाव के बारे में सोच रहा था।सच कहूँ तो मैं बुरी तरह से डर गया था।समझ गया था कि अभी अंधेरा है, आस-पास की गली में कोई दिखाई भी नहीं दे रहा है, अगर वे तीनों कुत्ते मुझ पर झपट पड़े तो इस वक्त मुझे बचाने वाला कोई नहीं है…।

घर से निकलते हुए मैंने इस बारे में सोचा ही नहीं था, और न ही मुझे इस बात का एहसास था कि अचानक ही कुत्ते मुझे निहत्था देखकर घेर लेंगे, लेकिन अब तो मैं अपने बचाव के बारे में सोचने के अलावा कुछ कर भी नहीं पा रहा था।

अपने बचाव के लिए मैं अपने चारों ओर देखने की कोशिश कर रहा था कि अगर कोई मुझे दिखाई दे तो मैं उसे आवाज दूं, लेकिन मुझे कोई दिखाई नहीं दिया।सड़कें किसी कब्रिस्तान की तरह डरावनी और भुतहा लग रही थीं।कुत्ते धीरे-धीरे भौंकते हुए मेरी ओर बढ़ रहे थे।एकाएक मुझे खयाल आया कि सीटी बजाने से कुत्ते अपनी पूंछ हिलाते हुए पैरों में लेटने की कोशिश करते हैं।मैं भी अपने दोनों होंठों को गोल करते हुए सीटी बजाने लगा तो तीनों कुत्ते पहले से भी खूंखार नजर आने लगे।मैं समझ गया कि आज बचना मुश्किल है।आस-पास कोई डंडा या पत्थर भी नहीं था जिसे उठाकर मैं कुत्तों पर फेंकता।

डर के मारे मेरा बुरा हाल था।मैं जोर-जोर से चिल्लाने लगा, बचाओ…बचाओ… लेकिन किसी के घर का दरवाजा नहीं खुला, परंतु मेरी आवाज सुनकर मेरी गली के दोनों कुत्ते गोलू और मोलू मेरे पास आकर उनसे लड़ने के लिए तैयार हो चुके थे।गोलू और मोलू को देखकर उन तीनों में से एक कुत्ता अपनी दुम दबाता हुआ गली में भाग गया।इस बीच उन दोनों के आने से मुझे भी वहां से हटने का समय मिल गया।मैं नहीं चाहता था कि वे आपस में लड़ें, क्योंकि गोलू बहुत खतरनाक है।जब कोई कुत्ता उससे लड़ता है तो वह उसे तब तक नहीं छोड़ता जब तक वह उसे लहूलुहान नहीं कर देता।अधिकांशत: वह छलांग लगाते हुए प्रतिद्वंद्वी कुत्ते की गर्दन को ऊपर से पकड़ लेता है और जब तक उसे छुड़ाया नहीं जाता वह दूसरे कुत्ते को नहीं छोड़ता।

तभी मुझे आर. पी. सिंह की आवाज सुनाई दी…।वे आवाज लगाते हुए तेजी से मेरी ओर आ रहे थे, ‘शेरू… मोती नहीं…नहीं…।’

आर. पी. सिंह की आवाज सुनते ही वे दोनों कुत्ते उनके पैरों के पास जाकर अपनी दुम हिलाते हुए कूं…कूं करने लगे।तीसरा कुत्ता जो भाग गया था वह भी आकर अब उनके सामने अपनी दुम हिला रहा था।आर. पी. सिंह ने प्यार से प्रत्येक के सिर पर हाथ फेरते हुए मुझसे कहा, ‘आप ठीक हैं न…?’

‘जी…।’

‘सुबह जब आप घूमने निकलते हैं तो हाथ में डंडा लेकर निकला करें।दिल्ली में सड़कों पर आवारा कुत्ते, गायें, सांड घूमते रहते हैं।ये कब किस को काट दें…, मार दें…, कुछ पता नहीं…।आप देख रहे हैं कि सड़कें पूरी तरह से खाली हैं।पांच बजे से पहले कोई आपको नजर नहीं आएगा इसलिए डंडा साथ में रखना चाहिए।’

मुझे नहीं मालूम था कि मेरे साथ अचानक ऐसा हो जाएगा।श्क्र है ऊपर वाले का जो मैं अपनी गली के पास में ही था, अगर कहीं दूसरी गली में होता तो गोलू और मोलू भी मुझे बचाने नहीं आते और न ही आप दिखाई देते।

चलिए, अब घर चलिए।आज इतना ही घूमना आपके लिए ठीक है।मैं कई सालों से इस कालोनी में रहता हूँ।गली का एकएक कुत्ता कभी मेरी तरफ नहीं भौंकताफिर भी हमेशा डंडा साथ लिए घूमता हूँ।आप जब भी घूमने निकले, डंडा हाथ में लेकर निकलें।

‘आप ठीक कह रहे हैं, डंडे के आगे तो भूत भी भाग जाता है।’

‘आप अभी यहां नए हैं।कितना समय हुआ है आपको यहां आए हुए?’

‘लगभग महीना तो हो ही गया है।’

‘इससे पहले आप कहां थे…?’

‘दिल्ली कैंट में…!’

‘आर्मी में थे…?’

‘जी…।’

‘मैं भी आर्मी से रिटायर हूँ, परिवार में कितने सदस्य हैं…?’

‘हम दो, हमारे तीन, अर्थात दो बेटे, एक बेटी और हम दो, और आप…?’

‘तीन बेटे हैं, तीनों दिल्ली से बाहर रहते हैं।एक बेटा आस्ट्रेलिया में है, एक बेटा इंदौर में है और एक बेटा मुंबई में है।तीनों के बाल-बच्चे हैं।तीन बेटे होने के बाद भी मैं अकेला हो गया हूँ।’

‘अकेला…?’ मैं चौंका, ‘और आपकी पत्नी?’ मैंने प्रश्न किया।

‘पत्नी ने पांच साल पहले साथ छोड़ दिया।जब पत्नी साथ न हो तो सारी सुविधाएं होने के बाद भी आदमी किसी रीते घड़े की तरह होता है, आप एक तरह से कंगाल हैं…।आपके लिए कोई भी चीज कोई मायने नहीं रखती…।अपना ही घर पराया लगने लगता है।आप न ढंग से खा सकते हैं, और न ही ढंग से सो सकते हैं।जिंदगी में एक ऐसा बदलाव आ जाता है जो आपकी जिंदगी को घुन की तरह चाटता रहता है। …घुन जानते हैं न आप…? एक छोटा सा कीड़ा…जो जब किसी अनाज में लग जाता है, तो वह उसे अंदर-ही-अंदर खाकर समाप्त कर देता है।’

‘क्या हो गया था उनको…?’ मैंने धीमे स्वर में पूछा।

मेरे प्रश्न को सुनकर आर. पी. सिंह खामोश हो गया।दोनों कुत्ते हमारे पीछे-पीछे आ रहे थे।बातों का रुख बदलते हुए उसने कहा, ‘अब गलियां ठीक हो गई हैं।प्राइवेट कालोनियों में जब तक सड़कें और नालियां न बनें, तब तक ऐसा लगता है जैसे वहां बसने वाले लोग नरक में रह रहे हों, लेकिन जब ये गलियां बनीं, नालियां बनीं, तब से जमीन की कीमत भी बढ़ गई है, लोगों के हाव-भाव भी बढ़ गए हैं…।जिसका पचीस गज का मकान है वह भी अपने-आप को दिल्ली का बादशाह समझने लगा है।ये सामने शर्मा जी का मकान देख रहे हैं न आप…, यह मकान पचीस गज में बना हुआ है।शर्मा जी ने ये पचीस गज छह लाख में ली थी, और आज शर्मा जी ने इसकी कीमत तीस लाख कर रखी है, अब आप ही बताओ कि पचीस गज होता ही कितना है, ढंग से बने तो एक कमरा और एक किचन…।’

‘आपको कैसे पता कि शर्मा जी ने अपने मकान की कीमत तीस लाख कर रखी है…?’

‘जब आप यहां नहीं आए थे, तब शर्मा जी ने अपने मकान को बिकाऊ कर रखा था।बाहर दरवाजे पर उन्होंने एक पीले रंग का बोर्ड लटकाते हुए उस पर अपने फोन नंबर सहित लिखा था ‘मकान बिकाऊ है।’ एक बार मन में आया कि क्यों न मैं ही इस मकान को ले लूं लेकिन जब मैंने शर्मा से मकान लेने की बात की तो वह तीस लाख से नीचे नहीं उतरा।’

‘सिंह साहब, जब तक जमीन अपनी नहीं तब तक दाम दूसरे के, और जब जमीन अपनी हो जाती है तो दाम अपने…., बेचो या न बेचो, दाम कम करो या न करो, तब मर्जी गधे की तरह अपनी हो जाती है…।कई लोग बेचना नहीं चाहते, इसलिए वे दाम इतना रखते हैं कि मकान कोई न ले, और अगर कोई ले ले तो उन्हें मुंह मांगी सौगात मिल जाए।’

बातें करते हुए हम दोनों गली में आ चुके थे।गली में मुड़ते ही मेरा मकान पहले था।मकान के पास आते ही वे बोले, ‘फिर मिलते हैं…।’

‘ओ. के…।’ प्रत्युत्तर में कहते हुए मैं आर. पी. सिंह को जाते देखता रहा।आर. पी. सिंह ने गेट खोला और फिर वे हाथ में झाड़ू और पानी की बाल्टी लाकर बाहर झाड़ू लगाने लगे।झाड़ू लगाने के बाद उन्होंने पानी का छिड़काव किया और फिर अंदर जाकर दरवाजा बंद कर लिया।

‘क्या बात है, अभी तो आप घूमने निकले थे, और अभी लौट आए।’ श्रीमती ने प्रश्न किया।

मैंने श्रीमती जी को हकीकत बताते हुए जब यह कहा कि आर. पी. सिंह भी काफी दुखी लगता है तो उसने कहा, ‘दु:खी लगता नहीं, दुखी है…।जब जोड़े में से एक रह जाता है, तो वह जब तक जीता है, दुखी ही रहता है।कोई अपने दुख को दूसरों में बांट कर अपना दुख हल्का करता है, और कोई अपने दुख को यह सोचकर अपने आप ही जीता है कि जीवन के अंतिम समय में बिछुड़े साथी का दुख उसका अपना दुख है।वह उस दुख में किसी और को क्यों भागीदार बनाए?’

‘शायद यही सोचकर आर. पी. सिंह चुप हो गया था।जब मैंने उसे उसकी पत्नी के बारे में पूछा, तो वह खामोश हो गया।’

किसी के दुख को जानबूझ कर कभी जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।बाहर से सभी लोग हँसतेबोलते रहते हैं, लेकिन अंदर से कौन कितना टूटा हुआ है यह कोई नहीं जानता।अपने आप अगर कोई अपना दुख बांटता है तो ठीक, अन्यथा उस रास्ते के बारे में पूछना ही क्या जिसके बारे में कोई पता ही न हो

गली में अभी तक किसी का दरवाजा नहीं खुला, जबकि आर. पी. सिंह दरवाजे के बाहर झाड़ू लगाते हुए पानी का छिड़काव कर चुका है।

‘पत्नी होती तो वह झाड़ू लगाती।जिंदगी में अकेला होना भी किसी श्राप से कम नहीं है।’

श्रीमती का कहना भी सही था।मगर मुझे यह बात लगातार परेशान कर रही थी कि आर. पी. सिंह से जब मैंने उनकी पत्नी के बारे में पूछा तो वे मुझे उसका उत्तर न देकर शर्मा जी के मकान के बारे में क्यों बताने लगे…? इसका उत्तर ढूंढना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था।मैंने एक बार बाहर आकर ईश्वर सिंह की दुकान की तरफ देखा…, दुकान का शटर अभी तक बंद था।मुझे पूरा यकीन था कि और किसी को पता हो या न हो, लेकिन ईश्वर सिंह को आर. पी. सिंह की पत्नी के बारे में जरूर पता होगा कि आर. पी. सिंह की पत्नी को क्या हुआ था? आज नहीं तो कल मैं इस बारे में ईश्वर सिंह से पता कर ही लूंगा, लेकिन मुझे ईश्वर सिंह से इस बारे में पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि तीसरे दिन सुबह चार बजे डंडा हाथ में लेकर मैं घूमने निकला तो मुझे दूसरी तरफ से आर. पी. सिंह आता दिखाई दिया।पास आते ही हम दोनों बातें करते हुए साथ-साथ घूमने लगे।मेरे हाथ में डंडा देखकर उसने कहा, ‘डंडा लेकर साथ चले हैं, यह आपने अच्छा किया।जरूरी नहीं कि हमें कुत्तों से अपने बचाव के लिए डंडा साथ लेकर चलना है।सुबह कोई भी आप पर हमला करते हुए आपका मोबाइल आपसे छीन सकता है इसलिए सावधानी बहुत जरूरी है।फोन लेकर आए हैं न…?’

‘जी…।कल आप दिखाई नहीं दिए?’

‘कल तबीयत कुछ ठीक नहीं थी खत्री जी।जब तबीयत खराब होती है तो पत्नी बहुत याद आती है।इनसान की जिंदगी में बुढ़ापा एक ऐसी अवस्था है जिसमें अगर पति-पत्नी में से एक भी साथ छोड़ गया तो दूसरा अपने आप ही खत्म हो जाता है।पत्नी की बातें, उसकी हँसी, उसकी यादें बहुत कोशिश करने के बाद भी नहीं भुला पाता मैं।इस उम्र में अपनी पत्नी जो सेवा कर सकती है वह सेवा लड़के-बहू नहीं कर सकते।अकेला आदमी या अकेली औरत उन्हें कांटे की तरह चुभने लगते हैं।’

‘क्या हो गया था उन्हें…?’ मैंने फिर पूछा।

‘होना क्या था खत्री जी।रात को खाना खाकर सोई तो फिर उठी ही नहीं।उसके चेहरे को देखकर ऐसा लगता था जैसे उसे मरने का कोई गम नहीं है।तब से अकेला पड़ गया हूँ।हमेशा यही डर सताता रहता है कि मेरे मरने पर कहीं लोगों को घर के दरवाजे न तोड़ने पड़े।मैं इसलिए कह रहा हूँ कि आज कल के बच्चों के दिलों में अपने मां-बाप के लिए कोई हमदर्दी नहीं है।बच्चे ऐसा कर रहे हैं और मां-बाप वृद्ध आश्रम में छोड़े हुए हैं या अकेले रहने को मजबूर हैं।मुझे ही देख लीजिए…।हम लोगों का जमाना खत्म हो गया है, जमाना खत्म तो जिंदगी खत्म।हमने कभी भी अपने मां-बाप का निरादर नहीं किया।उनकी सेवा जी-जान से की।उन्हीं की बदौलत हमने दुनिया देखी।वे न होते तो हम भी इस दुनिया में न होते।मां-बाप को थोड़ा सा भी कष्ट होता तो हम परेशान हो जाते, लेकिन आजकल के बच्चे ऐसा नहीं सोचते।उनकी अलग दुनिया है, वे अपनी दुनिया में मस्त हैं।शायद वे यह नहीं सोचते कि उन्होंने भी एक दिन हमारी उम्र में आना है।जैसे वे अपने मां-बाप के साथ कर रहे हैं, हो सकता है उनके बच्चे उनके साथ और भी बुरा करें।’

‘आप जो कह रहे हैं सही कह रहे हैं, लेकिन सभी एक जैसे नहीं होते।सभी अपने बूढ़े-मां बाप को आश्रम में नहीं छोड़ते।’ मैंने अपनी आंख की कोर को नाखून से खुरचते हुए कहा।

‘घर में बूढ़ा बाप या बूढ़ी मां अकेली हो तो वह वृद्ध आश्रम से भयंकर है।वृद्ध आश्रम में साथी मिल जाते हैं, समय जैसे भी बीते, बीत जाता है, लेकिन घर में अकेले होने पर पूरा घर वीरान, डरावना व श्मशान जैसा लगता है।थोड़़ा भी खटका होता है तो फिर नींद नहीं आती।सारी रात आंखें दरवाजे पर ही टिकी रहती हैं।’

मुझे आर. पी. सिंह की बातें सही लग रही थीं।सही क्या, वह कह ही सही रहा था।आजकल हो भी यही रहा है।पति-पत्नी दोनों नौकरी कर रहे हैं, उनके पास इतना भी समय नहीं कि वे मां-बाप की सेवा कर सकें।अपने बच्चों के भविष्य और उनकी अच्छी शिक्षा के लिए पति-पत्नी दोनों को रात-दिन काम करना पड़ता है।महंगाई इतनी बढ़ चुकी है कि एक अकेले आदमी से घर का खर्चा पूरा नहीं होता।कई घर तो ऐसे हैं जहां पति-पत्नी दोनों काम कर रहे हैं फिर भी वे घर का खर्चा सही ढंग से नहीं चला पाते।लोगों को चूल्हा जलाना मुश्किल हो रहा है।पहले कोरोना ने कई घरों को तबाह कर दिया, कई फैक्ट्रियां बंद होने के कारण लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं।अब मंहगाई ने सबकी कमर तोड़ कर रख दी।बेरोजगारी एक आतंक की तरह लोगों के सामने एक डरावना और भयंकर रूप लिए खड़ी हो गई है।

कई बार सोचता हूँ कि अगर वृद्ध आश्रम न होते तब उन लोगों की क्या हालात होती, जिन्हें वृद्ध आश्रम में छोड़ दिया जाता है।हर रोज वे यह सोचकर जीते हैं कि कल सुबह का सूरज वे देख भी पाएंगे या नहीं? अपना घर, अपने रिश्तेदारों को देखने के लिए उनकी आंखें तरसती रहती हैं।सोचते हुए उनका पूरा दिन निकल जाता होगा कि कभी वह दिन भी आएगा जब वे वृद्ध आश्रम से अपने उस घर में जाएंगे, जहां उन्होंने अपना समूचा जीवन व्यतीत किया है, अपने खून-पसीने से उसे बनाया है।आंखों में सूनापन और चेहरे पर उदासी लिए वे रात-दिन अपने अतीत में खोए रहते हैं, सोचते रहते हैं कि उन्होंने असंख्य कष्टों को झेलते हुए अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया है, उनकी उंगली पकड़ कर उन्हें चलना सिखाया है, मेहनत-मजदूरी कर उन्हें पढ़ा-लिखाकर इस काबिल बनाया कि वे बुढ़ापे में उनकी सेवा कर सकें, वे अपने घर में आराम से रह सकें, लेकिन जिंदगी में उन्हें अकेलेपन के अलावा कुछ नहीं मिलता।मिलता है तो वृद्ध आश्रम, जिसके बारे में उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा।

लेकिन उन्हें इससे कोई मतलब नहीं? मां-बाप रहें या न रहें, उन्हें इसकी भी कोई चिंता नहीं।वे अपनी दुनिया में अपनी पत्नी तथा अपने बच्चों के साथ मस्त हैं।वे इस बारे में कभी नहीं सोचते कि आने वाले समय में जब वे बूढ़े होेंगे तब क्या उनके बच्चे उनकी सेवा करेंगे या फिर उन्हें भी इसी तरह घर से निकाल देंगे।

तीन लड़के होने के बाद भी आर. पी. सिंह अकेले जिंदगी जी रहा था।तीनों में से किसी ने भी यह नहीं सोचा कि वे उसे अपने साथ रख लें।अगर कोई उसे अपने साथ रख लेता तो इस बुढ़ापे में वह रोटियां बेलने से बच जाता।सुबह घूम कर आता तो उसे गली में दरवाजे के बाहर झाड़ू नहीं लगाना पड़ता।कैसी जिंदगी है यह? पहले देश सेवा की, जब रिटायर होने का समय आया तो पत्नी साथ छोड़ गई, और जब उसे अपनी सेवा की जरूरत है तो तीनों बच्चों ने उससे किनारा कर लिया है।

इधर दो-तीन दिन से मुझे आर. पी. सिंह सुबह घूमते हुए दिखाई नहीं दिया।मैंने ईश्वर सिंह से जब यह पूछा कि आर. पी. सिंह दो-तीन दिन से दिखाई नहीं दे रहा है, कहां गया होगा…? कुछ बता कर भी नहीं गया…।’

‘मने भी ना देखा, गुटखा लेण भी ना आया।अकेला है, गया होगा रिश्तेदारी में।कहीं बीमार तो ना हो ग्या, अभी तीन-चार दिन पहले कह रिया था कि तबीयत ठीक कोई ना।दरवाजा बजा के देख, पड़ा होेगा घराँ।’

‘आर. पी. सिंह अकेला है।चलकर देखते हैं, कहीं उसकी तबीयत ज्यादा खराब न हो।अगर उसकी तबीयत ज्यादा खराब होगी तो उसे अस्पताल ले जाना पड़ेगा।पता नहीं…दो-तीन दिन से उसने कुछ खाया भी होेगा या नहीं।’

मैंने जाकर देखा तो आर. पी. सिंह का दरवाजा अंदर से बंद था।बड़ी देर तक दरवाजा खटखटाने के बाद भी जब अंदर से कोई आवाज नहीं आई तो किसी बुरी आशंका के मेरा हृदय जोरों से धड़कने लगा।मैंने तेज कदम बढ़ाते हुए ईश्वर सिंह के पास जाकर कहा, ‘आर. पी. सिंह का दरवाजा अंदर से बंद है।दरवाजा खटखटाने के बाद भी वह दरवाजा नहीं खोल रहा है।’

‘कहीं कुछ तो न हो ग्या?’ कहते हुए ईश्वर सिंह दुकान से बाहर निकल आया।दुकान का शटर बंद करने के बाद उसने भी आर. पी. सिंह का दरवाजा खटखटाते हुए उसे जोर-जोर से आवाज लगाई, लेकिन अंदर से कोई हलचल नहीं हुई।उसकी आवाज सुनकर गली के लोग बाहर निकल आए।दरवाजे के सामने भीड़ लग गई थी।

‘ईश्वर सिंह जी, आर. पी. सिंह के किसी बेेटे का फोन नं. मिल जाता तो उन्हें सूचित करते कि दरवाजा अंदर से बंद है।’

‘अरे, मेरे पास उसके बेटे का नंबर है।’ कहकर ईश्वर सिंह ने जेब से फोन निकाल कर इंदौर में रहने वाले उसके बेटे का नंबर लगाया तो दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘हैलो…।’

‘विक्रम…।’

‘जी…अंकल।’ और फिर ईश्वर सिंह ने जब उसे हकीकत बताई तो उसने दरवाजा तोड़ने के लिए कहा, लेकिन ईश्वर सिंह ने दरवाजा तोड़ने के बदले पुलिस को फोन कर दिया।

पुलिस के आने के बाद दरवाजा तोड़ा गया।अंदर जाकर देखा तो आर. पी. सिंह मृत पड़ा हुआ था।चारपाई के सामने स्टूल पर दो-तीन गुटखे के पैकेट और पर्स रखा हुआ था।पंखा चल रहा था और ए. सी. बंद था।पूरे घर को अच्छी तरह देखने के बाद पुलिस ने शव पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज दिया।

शाम रात आठ बजे तक इंदौर से उसका बेटा अपनी पत्नी के साथ आ गया था।दस बजे तक उसका मुंबई से दूसरा बेटा भी आ चुका था, लेकिन आस्ट्रेलिया में रहने वाले उसके बड़ बेटे को जब फोन किया तो उसने कहा कि वह तेरवीं तक आ जाएगा।

ठीक तेरवीं से पहले उसका बड़ा बेटा भी आ गया।आर. पी. सिंह की तेरवीं के दूसरे दिन वे सभी लोग चले गए।

मैं आज भी रोज सुबह डंडा हाथ में लेकर घूमने जाता हूँ।गलियों में घूमते हुए अचानक ही आर. पी. सिंह के साथ बिताए पल याद आने लगते हैं।उसका चेहरा आंखों के आगे तैरने लगता है।वापस आकर अचानक ही मेरी नजरें आर. पी. सिंह के घर के दरवाजे पर लगे उस मोटे काले ताले पर टिक जाती हैं जिसे आर. पी. सिंह की तेरवीं के दूसरे दिन उसके लड़के लगाकर चले गए थे।सोचने लगता हूँ कि इनसान के साथ कब क्या हो, कोई नहीं जानता।अंत समय कैसा होगा, यह भी कोई नहीं जानता।आर. पी. सिंह के साथ जो हुआ वह बहुत बुरा हुआ।तीनों लड़कों में से कोई भी लड़का अगर आर. पी. सिंह को अपने साथ रखता तो उसकी ये हालात न होती, शायद वह इस समय जिंदा होता।

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