शमशेर बहादुर सिंह पर विशेष कार्य। कवि और अनुवादक।

असमाप्त करुणा

रक्त रंजित सूर्य
घुलता और उभरता रहा अनादि काल से
बहते नदी नालों समुंदरों में
वन-उपवन-पहाड़ों पर अनवरत बरसता रहा

समय के आईने पाटती रूह-ब-रूह स्मृतियां
बदले परिवेश में फिर लौटती हैं
हक़ीक़त बन
जमे हुए ख़ून के क़तरे
फिर हरे होकर बहने लगते हैं
शहर की गलियों सड़कों पर
गांव- सीवान मेंजंगल- मैदान में
खेतों-खलिहानों में लहलहाती हैं खून की फ़सलें

रक्तरंजित सिंहासन पर
सत्ता की धमनियों में, विचारों में
हृदय में छिपी असमाप्त घृणा में
फिर जन्म लेती हैं लोहित स्मृतियां

समय की धूल में दबी पदचाप
फिर सड़कों पर जागती है
आहट देती है
नंगी पीठ पर ज़ख्म फिर हरहराते हैं
चमकते हैं पराजय के रक्तरंजित निशान

नफ़ीस हत्याओं और और गुम चोटों के बीच
टूटा बिखरा है जन मन जीवन
फिर भी असमाप्त करुणा
शामिल है शताब्दी-दर-शताब्दी से
संचितस्मृति कोश में
घुल जाती है वह रक्त-रंजित सूर्य में
जो हर सुबह बिला नागा
निकलता है पूरब से।

बच्चे

बच्चे हमारे जीवन में इस तरह मौजूद हैं
जैसे
शरीर पर त्वचा
इसीलिए जरूरी नहीं है
कि मौजूद हों बच्चे
कविता में भी

बच्चों के बिना
अकल्पनीय है जीवन
जैसे
त्वचाहीन देह

पृथ्वी की सतह
ऊबड़-खाबड़ त्वचा है उसकी
वही संभव बनाती जीवन

घास पात पेड़
रोएंदार बनाते
पृथ्वी की त्वचा
सह्य बनता भीतर-बाहर का ताप
बच्चे जैसे हमारा।

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