वरिष्ठ लेखिका। दो कहानी संग्रह। बच्चों के लिए भी लेखन।
दरवाजे खुले हैं हमेशा
दरवाजे खुले हैं हमेशा
कितना कहना आसान होता है
पुरुषों के लिए
दिक्कत है तो निकल जाओ
दरवाजे खुले हैं हमेशा
इस गफलत में मत रहना
कि कोई तुम्हें मनाने आएगा
वो हतप्रभ थी
काश! काश वह कहता
कोई दरवाजा बाधक नहीं होगा तुम्हारे सपनों में
कोई दरवाजा बाधक नहीं होगा तुम्हारे अपनों में
पर तुम ठुकरा देते हो दशकों का साथ
एक क्षण में
कह जाते हो यह बात
कितनी आसानी से
उलीच देते हो अपने अंदर के गुस्से को
और वह हतप्रभ सी ढूंढती रहती है
उस घर में अपने वजूद को
वह घिसती रहती है खुद को
इस घर को चमकाने में
निकल जाओ
कितना कहना आसान होता है
पुरुषों के लिए
पर क्या सोचा है एक बार भी
सप्तपदी और उन सात वचनों को
सिर्फ निभाने की जिम्मेदारी
उसके हिस्से ही क्यों आई
काश! लड़कियां भी कह पातीं-
निकल जाओ मेरी दुनिया से
खुले हैं दरवाजे तुम्हारे लिए जैसे मेरे लिए
गर वक्त दिया है तुमने इस घर को
तो मैंने भी सींचा है अपने खून से
और सजाया है अपने कुचले हुए सपनों से
पर सब सुनकर भी
रुक जाते हैं कदम हर लड़की के
क्योंकि वर्षों बरस पहले किसी ने कहा था
लड़कियां डोली में ससुराल जाती
अच्छी लगती हैं
और लौटती अच्छी लगती हैं अर्थी में।
लाल बाग कॉलोनी, छोटी बसही, मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश–231001 मो.9415479796