1942 में फिलिस्तीन के ज़करैन नामक गांव में जन्म। 1948 में गांव पर इस्राइली आधिपत्य के उपरांत परिजनों सहित पलायन।फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के जुझारू योद्धा यासर अराफात के संगठन ‘फतह’ के अनेक उच्च पदों पर रहते हुए मुक्ति संघर्ष में योगदान। 1966 से लिखने की शुरुआत। अनेक पुरस्कारों–सम्मानों से अलंकृत। अब तक पांच कहानी संग्रह, चार उपन्यास तथा बच्चों के लिए भी अनेक पुस्तकें प्रकाशित।
स्याह बल्कि भरी आंखों वाली गोरी चिट्टी नर्स! मरीज़ ज़्यादा हैं और मैं बहुत ज़्यादा थक चुका हूँ। थोड़े-थोड़े अंतराल से मैं उसको चाहत भरी नज़रों से देखता और… इस उम्मीद में कि वह मुझे डाक्टर के पास जाने देगी, लेकिन वह अपने सामने पड़े रजिस्टर को देखती और बारी के हिसाब से मरीज़ों के नाम पुकारती। मैं अपनी राज़दाराना और चाहत भरी निगाह से उससे इल्तिजा करने की कोशिश करता, लेकिन वह फोन का जवाब देती और मेरी तरफ ध्यान नहीं देती, मुझसे ही नहीं, तमाम मरीज़ों और उनकी नज़रों से बचाती…
एक मरीज़ के निकलने पर अंदर से घंटी की आवाज़ आई और उसने मेरा नाम पुकारा। मैं अंदर दाख़िल हुआ। डॉक्टर के बाल पक चुके थे और उसने दाहिनी तरफ़ से मांग निकाली हुई थी, उसके चेहरे की बनावट में दो अदाकारों जैफ़ चांदलर और राबर्ट टेलर का मिश्रण था। मैं अदाकार बनना चाहता था, जब मैंने यह बात कुछ ही दिनों पहले अपने दोस्त ख़ैरी से कही तो वह हँस पड़ा।
मैंने डॉक्टर की तरफ़ वह रिपोर्ट बढ़ाई जो मैं अपने साथ रोमानिया से लाया था, उसने रिपोर्ट ले ली और उसकी तरफ़ कनखियों से देखते हुए, एतमाद के साथ मुस्कुराया। मैंने उससे कहा: ‘यह रिपोर्ट रोमानिया की है, मैंने तक़रीबन दो माह पहले वहां इलाज करवाया था… मेरे एक दोस्त ने बताया… मेरा मतलब है, मशवरा दिया कि मैं आपको दिखाऊं, मेरा दोस्त आपसे इलाज करवा चुका है।’
डाक्टर ने मुझे इशारे से स़फेद रंग के एक ठोस बेड पर लेटकर पेट खोलने को कहा, मैंने वैसा ही किया। उसने अपनी उंगलियों से मेरे मअदह (अमाशय) के इर्द-गिर्द और मसाने के क़रीब पेट के आख़िरी हिस्से का जायज़ा लिया और बोला : ‘तुम्हारी हालत पुरानी हो चुकी है- बहुत पुराने इन्फेक्शन हैं और नसों में ऐंठन है, बड़ी आंत तो तक़रीबन बरबाद हो चुकी है।’
फिर मुझसे सवाल किया : ‘क्या करते हो?’
‘यह समझ लीजिए कि कुछ नहीं करता हूँ। मैं लिखता रहता हूँ, मैं सोचता हूँ… पहले मैं… दरअसल, मैं आफिस आता-जाता हूँ…’
‘लेकिन यह कोई काम नहीं है।’ उसने कहा-‘तुम पर थकावट हावी है। हददर्जा… तुम्हें लंबे आराम की ज़रूरत है, तुम्हारी हालत पुरानी है… तुम जवान हो, फिर इतने तनाव के शिकार क्यों हो? तुम आख़िर ख़ुद के साथ करना क्या चाहते हो?’
मैंने उसकी उंगलियों को दबाया लेकिन ख़ुद ही दर्द महसूस किया और कहा : ‘मेरा ख़्वाब था कि मैं फ़िलिस्तीन को आज़ाद कराऊं और यह काम स्वयं मैं अकेले करूं…’
‘…फिर तुम्हें एहसास हुआ कि तुम में ख़ुद को आज़ाद कराने की ताक़त नहीं है।’
‘क़रीब-क़रीब यही बात है।’
उसने कहा : ‘बहुत ज़्यादा सिगरेट पीते हो, ड्रिंक भी बहुत करते हो, सोते बहुत कम हो और मेहनत बहुत करते हो, फिर डाक्टर के पास बहुत देर से आते हो… मैं तुम्हें मामूली दवाएं देता हूँ, सुकून पहुंचाने वाली दवाएं।’
मैं उसके सामने बैठ गया। उसने मेरी आंखों में आंखें डालकर कहा : ‘दो महीने बाद फिर दिखा लेना। पहले कहे देता हूं कि मुकम्मल शिफ़ा नहीं मिलेगी, लेकिन मैं अपनी सलाहियत भर कोशिश करके तुम्हारी हालत नारमल कर दूंगा।’
मैंने उससे हाथ मिलाया और बाहर निकल आया। नर्स ने पूछा, ‘रक़म की रसीद चाहिए?’ मैं जवाब न देते हुए वहां से चला आया। मुझे रक़म की रसीद नहीं चाहिए। हां, उससे मिलने की रसीद मिल जाती तो अच्छा था। सीढ़ियों से उतरते हुए मैं इस ख़याल से हँस दिया। हँसी उस डाक्टर पर भी आई, जिसका हुलिया चान्दलर और राबर्ट टेलर से मिलता जुलता था।
डाक्टर ने प्रो़फेसर यूनेस्को के तैयार की हुई रिपोर्ट पर ध्यान ही नहीं दिया था। उसने मुझसे यह भी कहा कि वह रोमन नाटककार यूजैन यूनेस्को से नफ़रत करता है, जो उसके मुल्क को बुरा-भला कहता रहा है, पेरिस में रहकर नामुनासिब और घटिया ड्रामे लिखता है, ऊपर से यहूदियत का हमनवा और हमदर्द है।
मैं बारिश रुकने के इंतज़ार में इमारत के दरवाज़े पर ही खड़ा हो गया और अमेरिकन युनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स का दीदार करने लगा। लंबे–लंबे बालों वाली ख़ूबसूरत लड़कियां अपना सर नज़ाकत और अदा के साथ झटकतीं। कुछ बेबी कट बालों वाली लड़कियां भी थीं। स्टूडेंट्स जिनमें लड़के–लड़कियां दोनों थे, युनिवर्सिटी के तंग दरवाज़े से अंदर दाख़िल होने से पहले निहायत खुलेपन के साथ लेकिन जल्दी–जल्दी गुफ़्तगू कर रहे थे।
बारिश हल्की हो गई थी। हल्की-हल्की फुहार पड़ रही थी। फ़िज़ा में समंदर और दरख़्तों की ख़ुशबू फैली हुई थी और दूर से गालियों और धमाकों की आवाज़ आ रही थीं। पुरानी और स्क्रैप मान ली गई रेलवे लाइन के साथ चलते हुए ठंडी हवाएं मेरे चेहरे पर थपेड़े बरसा रही थीं, जेब में पड़े हुए दवा के पर्चे को मैंने मज़बूती के साथ पकड़ रखा था। ऐ मुकम्मल क़ुदरत वाले नहीं, ऐ ग़ैर मुकम्मल क़ुदरत वाले डाक्टर सुकून देने वाली दवाओं के बजाए तुमने ऐसा कोई पर्चा क्यों नहीं लिखा जिसमें मरियम हो, छोटा घर हो और वह नन्ही सी बच्ची हो जिसको गोलियों ने बीचों-बीच छेद डाला था?
मरियम… मरियम! देखो, समंदर के नज़दीक पहुंच गया। बारिश में खुले आसमान तले समंदर की बुलंद लहरें हैं, नमक भरी फुहारें हैं जो मेरी नाक, हलक़ और जिस्म के पोर-पोर में दाख़िल हो रही हैं और मेरी रूह को लबरेज़ कर रही हैं। मैं तनहा हूँ और तुम अपनी क़ब्र में हो, कीड़े-मकोड़ों और क़ब्र की नमी ने तुमको और बच्ची का कुछ न छोड़ा होगा। उसकी नर्म गुदाज़ हड्डियां सड़-गल कर ख़त्म हो गई होंगी।
तुम्हारी आंखें फटी हुई थीं, पीछे हटते तुम्हारे हलक़ से एक छोटी लेकिन तेज़ चीख़ बुलंद हुई, फिर तुम ढेर हो गईं। तुम्हारी आंखें खुली की खुली रह गईं, उन आंखों में मेरी तस्वीर थी। मौत का ख़ौफ़ था और वह बच्ची थी, जिसकी तुमने आरज़ू की थी। तुम्हें याद है, तुम्हें बेटी की आरज़ू थी और मुझे बेटे की। हम आरज़ू करते थे और ख़ूब हँसते थे। जाना भी था तो ऐसे वक्त में जाना था! सितंबर का महीना आ चुका था, चली गई न, कभी न वापस लौटकर आने के लिए। ठीक है लेकिन ख़ुद को कैसे मनाऊं? यह दिल अब भी तुम्हारी आरज़ू करता है, ऐ मेरी जिंदगी की नन्ही साथी, देख डाक्टर ने यह दवाएं दी हैं, क्या करूं ऐसी दवाओं का जो तुम्हें वापस न ला सके और न ही वह पुरानी हँसी।
ऐ समंदर मेरे साथ आंसू बहा, चीख़, चिल्ला! ऐ लहरों, बुलंद होकर पहाड़ बन जाओ, समंदर का सारा नमक खुद में समेट लो, ऐ मछलियो, ऐ ख़ौफनाक जबड़ों वाली मछलियो, निकलो समंदर के पाताल से, उछल कर निकलो, भारी भरकम फ़ौलादी तोपों का पेट चीर कर निकलो। निकलो और हमारा गोश्तपोस्त, हमारे ख़्वाब और हमारे बच्चे सब कुछ नोच-नोच कर खा जाओ। नाफ़ (नाभि) के वह नाल भी, नाल भी खत्म कर दो जो उनके कोमल जिस्म और नाज़ुक हड्डियों को ग़िज़ा फ़राहम करते हैं। कुछ भी मत छोड़ो।
मरियम, तुम आख़िर उस पनाहगाह से निकली ही क्यों थीं? क्यों? क्या तुम्हें मालूम नहीं था कि वे लोग आ रहे हैं आग और गोली बरसाते हुए? अरे इतना तो ख़याल कर लेतीं, एक शख़्स है जो तुम्हें प्यार करता है और बेटे की आरज़ू रखता है या बेटी की, यह अहम नहीं था। अहम तुम थीं, लेकिन तुम पनाहगाह से बाहर निकल आईं। वे लोग डरे हुए थे या अपना दिमाग़ी संतुलन खो बैठे थे। वे अपनी गुमराहियों और जुनून समेत तोपों से आग बरसाते हुए बढ़े चले आ रहे थे। तुम्हें याद है, हमारी शादी के दिन जब अपने दोस्त मुहम्मद ने अपने रिवाल्वर से फ़ायरिंग की और मेरी मां और औरतें गाने लगीं, तब मैंने सख़्ती के साथ मना कर दिया था। मैंने कहा था, अभी कुछ दिनों पहले ही हमारे पड़ोसी का बेटा शहीद हुआ है और तुम लोग यह सब कर रहे हो!
बराय मेहरबानी कोई गाना नहीं, कोई गीत नहीं। मेरे दोस्त मुहम्मद, हवाई फ़ायरिंग मत कर यारा। हमारे पड़ोसी का बेटा शहीद हो गया है, उसके वालदैन (मां-पिता) बहुत ग़मज़दा हैं। उसकी लाश गोलान की पहाड़ियों पर ऊंची चौड़ी चट्टानों के दरम्यान पड़ी हुई है। ऐ मेरी प्यारी सासू मां से भी प्यारी सास, आपने अपने बदअख़लाक़ और बिगड़े हुए बेटे की परवाह न की, जिसने मरियम के साथ शादी की मुख़ाले़फ़त की थी, आपका वही ताजिर बेटा जो ओमान में एक बड़ी दुकान का मालिक है और जिसने मेरे बारे में कहा था- यह मेरा बकरा है और इसका अंजाम मौत है, यह बड़ा है और मेरी बहन छोटी…।
मेरी प्यारी सास, मेहरबानी करके लड़कियों से कहें कि वे गीत न गाएं… और फिर हम इस छोटे से कमरे के वासी बन गए थे। मरियम, मैंने तुमसे कहा था न कि हम अकेले रहेंगे, मैं और तुम बस…? तुम्हारा भाई जो कुवैत में रहता था और मेरी पढ़ाई के ज़माने का दोस्त था, हमारे लिए उसने पैसा भेजा था और ख़त में लिखा था : मैं तुम लोगों के साथ हूँ।
मेरे ताजिर (व्यापारी) भाई की बात से परेशान मत होना। मैं, मां और सारे घरवाले इस शादी से ख़ुश हैं और बरकत की दुआ करते हैं।
आ, ऐ मौज (लहर), बुलंद ओ बाला हो जा, ऊंची और ऊंची, मुझे अपने अंदर समो ले और ले चल कहीं दूर ले चल… यह वे दवाएं हैं जिन्हें एक बहुत मशहूर डाक्टर ने मुझे दी हैं, स़िर्फ सौ पाउंड में, वेज़ाल्यूम और मायसटिडीन दवाएं, वाल्यूम नामी दवा भी।
उसके सामने मरियम और चोटी बांधे एक छोटी सी बच्ची की तस्वीर उभरी। एक लंबे बालों वाला गेहुंवा रंग का लड़का भी था। उसकी आंखें स्याह थीं। बच्ची के होंठों पर जादू भरी मुस्कुराहट थी। नन्ही-मुन्नी-सी मरियम हरे रंग का फ्राक पहने हुए थी…
कुछ गाड़ियां तेज़ रफ़तार से, कुछ सुस्तरतारी के साथ गुज़र रही हैं। इन गाड़ियों में आशिक़ जोड़े और तनहा लोग भी थे। गाड़ियों के पहियों से पानी के छींटे उड़-उड़ कर मुझे भिगो जाते, लेकिन मैं चलता जाता, सड़क के साथ ही आगे की तरफ़ बढ़ता और चढ़ता चला जाता।
बादलों की ओट से एक चेहरा नमूदार होता है। ऐ अल्लाह, ऐ कामिल क़ुदरत रखने वाले अल्लाह, ऐ क़ौमों के मालिक, ऐ हमारी ख़बर रखने वाले, आख़िर तुमने मरियम को मुझसे क्यों छीन लिया है और उस फ़िलिस्तीनी मख़लूक़ को क्यों छीन लिया जो अभी ठीक से तशकील भी नहीं पाई थीं। क्यों तूने सात सालों में मुझे इस अज़ाब से दो-चार रखा? क्यों तूने मेरी ऐसी हालत कर दी कि मैं अपनी पूरी कमाई डाक्टरों को देने को मजबूर हो जाऊं और बियर, विहस्की, वाल्यूम, रतजगा और यादों की लत लगा लूं … क्यों?
और तुम इस छोटे और साफ़ सुथरे रेस्तोरां के वेटर … दो पिज़्ज़ा ले आओ और एक लीटर विदेशी शराब और सरदेन मछली लाना, एक मीठे पानी वाली, दूसरे खारे पानी वाली। तुम लोग उसे क्या कहते हो? मुआफ़ी चाहता हूँ, मुझे ग़ैर-मुल्की नाम पसंद नहीं हैं। मरियम जब पेट से थी तो खारे पानी वाली सरदीना मछली बड़े शौक़ से खाती थी। मरियम की मां ने उससे कहा, बेटी तुम मेरी ही तरह हो। मैंने उसमें जोड़ा, अगर तुम इसी तरह खारे पानी वाली सरदेन मछली खाती रहीं तो बिना नमक वाली फ़िलिस्तीनी सरदैन मछली पैदा होगी जो फ़िलिस्तीनी समंदर में चली जाएगी, उसके खारे पानी में नमकीन होने, खेलने और बड़ी होने के लिए।
तुम्हारी मां ने जवाब दिया। बेटी, तुम बिलकुल मुझ पर गई हो, हर चीज़ में… तुम्हारे पापा को मैंने गांव के कुएं के पास घोड़े पर सवार देखा था और उनकी ख़्वाहिश कर बैठी थी। अल्लाह ने उन्हें मुझे अता कर दिया। उस वक़्त मूसलाधार बारिश हो रही थी। तुमने भी अपने शौहर की ख़्वाहिश की और अल्लाह पाक ने उसे तुम्हें बख़्श दिया। उस वक़्त भी आसमान का मुंह खुला हुआ था…
‘…लेकिन जनाब वह दूसरा शख़्स कहां है जो आपके साथ है?’
‘वेटर, बरसों से उसका इंतज़ार कर रहा हूँ।’
वेटर हँसा और बोला : ‘हमारे रेस्त्रां में नहीं जनाब, क्योंकि आप यहां पहली मरतबा आए हैं।’
वह चला गया और मैं उसका इंतज़ार करता रहा सात सालों से, दस सालों से, बल्कि उस वक़्त से जब मैं पैदा हुआ हूँ, जब से उसे हरे रंग की फ्राक में देखा था। मैंने सऊदी अरब में काम करने वाले, पढ़ाई के ज़माने के अपने एक दोस्त को ख़त में लिखा : मैं मरियम से शादी करना चाहता हूँ। मरियम आई भी और आनन-फ़ानन चली भी गई, मैं उसका इंतज़ार ही करता रह गया।
‘वेटर दूसरी शराब लाओ, अबकी बार देसी लाना, ज्यादा अल्कोहल वाली, भाड़ में जाय डाक्टर, उसकी दवाएं और उसका मशवरा!
‘वेटर, तू डाक्टर है या वेटर। तेरा क्या जाता है अगर मैं बग़ैर कुछ खाए हुए पियूं। मैं आज़ाद हूँ और आज़ाद रहूंगा, यहां तक कि बैरूत या दकनी लेबनान में कोई अंधाधुंध या निशाना साधकर चलाई गई गोली मुझे आकर लगे और मुझे छेद डाले। एक खेमा के क़रीब वह मेरा इंतज़ार कर रही है।’
दो लीटर देसी और बिदेसी शराब पी चुका हूँ और हैवी सिगरेट का एक पैकेट भी ख़त्म हो चुका है। लाओ, अब मेरा हिसाब दिखाओ। मैं अकेला हूँ और मेरे सीने पर हवा के थपेड़े बरस रहे हैं, और मेरे कान सायं-सायं कर रहे हैं। इस दौरान वेटर की आवाज़ उभरती है : जनाब आपने बताया नहीं…। अपनी नज़रों से इशारा करके वह आगे पूछता है, उन्हें आने में देर हो गई क्या? आपके मामले में टांग अड़ाने के लिए मुआफ़ी चाहता हूँ, लेकिन वह कभी नहीं आएगी, यह जानते हुए भी, आप उसका इंतज़ार क्यों कर रहे हैं जनाब? दुनिया ऐसी औरतों से भरी पड़ी है,जो आप जैसे जवान की तमन्ना रखती हैं।
तेज़ व ठंडी हवा मेरे चेहरे पर हथौड़े बरसा रही है, और मेरी जिल्द पर डंक मार रही है। मेरा जिस्म लरज़ रहा है, सामने थोड़ी सी दूरी पर एक मेवाफ़रोश है। मेरे और समंदर के किनारे कई दुकानें हैं।
यह लेबनानी न! अगर तीसरी वर्ल्ड वार छिड़ जाए और पूरी दुनिया तबाह हो जाए, फिर भी इनमें से कुछ लोग चांद पर पहुंचकर वहां भी अपनी दुकानें खोल लेंगे, और दूसरे नक्षत्रों से ग्राहक आयात कर लाएंगे। अंगूर की खेती करेंगे और उसका रस निचोड़कर उम्दा क़िस्म की शराब तैयार करेंगे, पीकर मदमस्त हो जाएंगे और गाएंगे ‘तेरे मस्त–मस्त दो नैन’। फ़िलिस्तानी सरापा (संपूर्ण) अज़ाब है और लेबनान सरापा रहमत। काश, उन्हें मालूम होता कि मैं उनसे किस हद तक मुहब्बत करता हूँ और अपने कुछ लोगों के ज़लीलपने से मुझे किस क़दर शर्मिंदगी महसूस होती है।
शुक्रिया, ड्राइवर।
ड्राइवर कहता है : लगता है ज़्यादा चढ़ा ली है, बदमस्त हो।
दुरुस्त है कि बदमस्त हूँ, लेकिन शराब पीकर नहीं, जिंदगी की कड़वी शराब पीकर मैं सीधा चलने की कोशिश करता हूँ ताकि नशे में न दिखाई दूं। चचा अबू हामिद हमारी तरफ़ ग़म ओ ग़ुस्से से देखेंगे। वही पुराने ज़माने के अबू हामिद जो लंबे अरसे से पहाड़ के रास्ते बारूद ढो रहे हैं। उन्होंने शेख़ अज़ाउद्दीन को इस्तक़लाल जामा मस्जिद में जेहाद और वतन के बारे में बातें करते हुए सुना। शेख़ अज़ाउद्दीन कह रहे थे कि काफ़िर हैं वे लोग जो अपने पूर्वजोंं की मिट्टी बेच देते हैं और उन लोगों से नहीं लड़ते जो उन्हें उनके दीन से विमुख करने की ग़रज़ से उनसे जंग करते हैं। उन्हें उनके घरों से निकाल देना चाहते हैं।
अबू हामिद तुम्हारी उम्र कितनी है? मेरी पैदाइश को एक जमाना हो गया। मुझे पता नहीं कि कब, मुझे यह भी पता नहीं कि कब मरूंगा। दसियों मरतबा मैं ज़ख़्मी हुआ फिर भी जिंदा रहा, लगता है कि बदबख़्त की उम्र अभी बाक़ी है। मैं सिगरेट नोशी नहीं करता, पीता नहीं, नमाज़ रोज़ा नहीं करता हूँ और न कुफ्र के काम करता हूँ, किसी के लिए दरवाज़ा नहीं खोलता हूँ।
अबू हामिद आता है, चला जाता है। दकनी लेबनान की जानिब जाता है। जवानों से मिलता है फिर वापस लौटकर निगहबानी करता है। किसी के लिए दरवाज़ा नहीं खोलता, कहता है, मैं किसी के पीछे नहीं पड़ता हूँ, मैं इंक़लाब की निगहबानी करता हूँ। मुझे अपने वतन से प्यार है और मैं स़िर्फ इसी के पीछे भागता हूँ। मैं अभी जिंदा रहूंगा। तू ज़्यादा मत पी, फिर ज़हर पीना शुरू कर दिया…? वह अलाव जलाता है। जवान उसके इर्द-गिर्द बैठकर उससे मज़ेदार कहानियां सुनते हैं। मैं कराहता हूँ, मेरा पेट कड़वे तेज़ाबी सय्याल से भरा हुआ है, लेकिन खाने (भोजन) से खाली है। वह मेरे कान में बुदबुदाया : फिर पीना शुरू कर दिया… उसकी आवाज़ में शिकायत थी…।
मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने उससे पूछा, तुम्हें न पाकर चली गई। उसने इंतज़ार क्यों नहीं किया?
वह चाहती है तुम उसका इंतज़ार करो और पहले जैसे आदमी बन जाओ।
उसने ऐसा कहा…?
आह… तू कहां था? दकनी लेबनान में मुक़ीम जवान, तेरे दोस्त तेरे बारे में पूछते हैं। वे कहते हैं बैरूत ने तुमको बदल दिया है। तभी तो तुम उनसे मिलने नहीं आते हो। है न?
मैं अलाव के पास पहुंचा, कराहा, अपना हाथ आग की तरफ़ बढ़ाया, थोड़ी गर्मी महसूस हुई, फिर कराहा। क़रीब था कि मैं आग में गिर जाता, लेकिन एक जवान ने पकड़ लिया। अबू हामिद ने अपने कोट की अंदरूनी जेब से बांसुरी निकाली और आग के सामने हवा की लहरों और बारिश की बूंदोें पर राग छेड़ दिया। मैं ख़ुद को संभालते हुए इमारत में दाख़िल हुआ और लिफ्ट के सामने खड़ा हो गया।
एक जवान ने बताया- लिफ्ट ख़राब है, मैं सीढ़ियां चढ़ने में आपकी मदद करूं?
जवान समझ रहा था। उसने अपने सर को ऊपर की जानिब थोड़े-से ग़ुस्से के साथ हरकत दी। जवान ने समझा कि वह उसकी मदद नहीं चाहता है।
मैं बांसुरी के सुरों में मस्त होकर सीढ़ियां चढ़ने लगा। सातवीं मंजिल पर अपने कमरे में पहुंचकर दरवाज़ा खोल दिया। फिर खिड़कियां भी खोल दीं। मैंने बहुत से टैंकों और गन मशीनों को आगे बढ़ते हुए देखा। मरियम और चोटियों वाली नन्ही बच्ची को भी देखा। मैं उसी जानिब लपका। गोलियां भी मेरी जानिब लपकीं और मेरे जिस्म को छेदते हुए आर-पार हो गईं। मैंने ख़ुद को देखा। मेरे जिस्म से बांसुरी के सुर निकलकर ख़ाक भरी फ़िज़ां में विलीन हो रहे थे।
अनुवाद :शकील सिद्दीकी
शकील सिद्दीक़ी, 207, बी.सी.सी.ग्रेविटी, निकट टिकैत राय तालाब, राजाजीपुरमलखनऊ–226017
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