सहायक प्राध्यापक।अद्यतन कविता संग्रह अक्टूबर उस साल

सहायक प्राध्यापक।रामदरश मिश्र के कथा साहित्य का समाजशास्त्रीय अनुशीलनप्रकाशित।

कछवा बाजार, मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश के एक सामान्य मुस्लिम परिवार में बनारस की जानी-मानी उपशास्त्रीय गायिका रसूलन बाई का जन्म 1902 में हुआ।आप की नानी का नाम अदालत बाई और मां का नाम बशीरन बाई था।आप की एक बड़ी बहन थीं, जिनका नाम बतूलन बाई था।कई जगह इनकी नानी अदालत बाई को इनकी मां और बड़ी बहन बतूलन को इनकी छोटी बहन बताया गया है जो भ्रामक और गलत जानकारी है।नैना देवी को दिए अपने साक्षात्कार में रसूलन बाई स्वयं अपनी नानी, मां और बड़ी बहन के बारे में बताती हुई नजर आती हैं।वे यह भी स्वीकार करती हैं कि उनकी नानी, मां और बड़ी बहन स्वयं अच्छी गायिका थीं।अपनी बात कहते हुए रसूलन बाई अपनी नानी, मां और बड़ी बहन के नाम के साथ ‘बाई’ नहीं अपितु ‘देवी’ शब्द बोलती हैं।जब कि हम जानते हैं कि मुस्लिम महिलाएं अपने नाम के साथ ‘देवी’ शब्द नहीं लगाती।फ़िर भी रसूलन बाई ऐसा करती हुई दिखाई पड़ रही हैं, क्योंकि यह उस समय और परिवेश का दबाव था जो आजादी की सुगबुगाहट के साथ ही प्रखर होने लगा था।हिंदू सोशल रिफार्म असोसिएशन, मद्रास 1893 से लेकर ‘तवायफ़ संघ’ वाराणसी, की कड़ियां इसी से जुड़ी हुई हैं।जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।

मां और नानी नाच गाने के व्यवसाय से ही जुड़ी थीं, अतः संगीत की प्रारंभिक शिक्षा रसूलन बाई को इन्हीं से मिली।आगे की शिक्षा के लिए बशीरन बाई अपनी पांच साल की संगीत में गुणी बेटी को उस्ताद शम्मू खां साहेब के हवाले कर देती हैं।शम्मू खां साहेब टप्पा गायकी के प्रणेता मियां शोरी के ख़ानदान से ही ताल्लुक रखते थे।मियां शोरी पंजाब के रहने वाले थे।उनका मूल नाम गुलाम नबी था।बड़े मुन्ने खां भी इसी घराने से ताल्लुक रखते थे।उस्ताद शम्मू खां साहेब टप्पा गायकी के लिए न केवल बनारस अपितु पूरे देश में प्रसिद्ध थे।उस्ताद शम्मू खां के साथ ही आपको सारंगी वादक आशिक खान एवं उस्ताद नज्जू ख़ान से भी संगीत की बारीकियां सीखने को मिलीं।रसूलन बाई के उस्ताद शम्मू खां साहेब दालमंडी इलाके में ‘चहमामा मोहल्ला’ में ही संभवतः रहते थे।

दालमंडी के ही ‘कुबेर के मकान’ में रसूलन बाई भी रहा करती थी।यह मकान श्री काशी शास्त्रीय संगीत समाज के संरक्षक श्री कृष्ण काशी रस्तोगी (के.के.रस्तोगी) का पैतृक मकान था, जहां रसूलन बाई अपनी बहन के साथ किराए पर रहती थी।उनकी बहन का अल्प आयु में ही देहांत हो गया था।रस्तोगी जी का एक मकान चौखंभा इलाके में भी है।18 अक्टूबर 2019 को श्री कृष्ण काशी रस्तोगी जी का 65 वर्ष की आयु में ब्रेन हैमरेज से मृत्यु हो गई।कृष्ण कुमार रस्तोगी जी स्वयं कला व संगीत मर्मज्ञ होने के साथ सामाजिक और धार्मिक कार्यों में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे।शास्त्रीय गायन में उन्होंने खुद ग्वालियर घराने की तालीम हासिल की थी।

नैना देवी, आचार्य बृहस्पति एवं हाफिज अहमद खां के साथ दूरदर्शन के लिए रिकार्ड किए गए साक्षात्कार में रसूलन बाई अपने गुरुओं और साथ संगत करने वाले फनकारों के बारे में एवं अपनी तालीम इत्यादि के बारे में विस्तार से बताती हैं।रसूलन बाई बताती हैं कि जब बड़ी बहन की तालीम शुरू हुई तो वे बड़े ध्यान से सुनतीं एवं सुनी हुई बातें उन्हें याद रह जातीं।वे दिन भर रियाज़ करतीं।रसूलन बाई कहती हैं कि वे सिर्फ दो घंटे मुश्किल से सोतीं और फिर रियाज़ में लग जातीं।वे और उनकी बहन अपने गुरु की अकेली शागिर्द थीं।उन्होंने कभी भी हारमोनियम पर रियाज़ नहीं किया।उनके साथ संगत करने वालों में तबले पर अहमद जान थिरउआ, सारंगी पर गुलाम साबिर खां और हारमोनियम पर सोनी बाबू हुआ करते थे।

अपने समय की श्रेष्ठ गायक-गायिकाओं में रसूलन बाई वज़ीर जान, बड़ी मोतीबाई, कलकत्ता के गिरिजा बाबू (गिरिजा शंकर चक्रवर्ती), सोनी बाबू, राजेश्वरी बाई, विद्याधरी बाई, शिवकुंअर बाई और बड़ी मैना बाई से विशेष रूप से प्रभावित थीं।उन दिनों बनारस में आयोजित होनेवाले बुढ़वा मंगल संगीत महोत्सव का वो विशेष जिक्र करती हैं जो 08-09 दिन तक लगातार चलता था।रसूलन बाई बताती हैं कि जब शिवकुंअर बाई गातीं तो उनकी आवाज बहुत दूर तक सुनाई देती।उनके कहे अनुसार एक कोस तक।पंजाबी और लखनवीं ठुमरी के बारे में वे साफ कहती हैं कि यह उनके गले ही नहीं उतरता।वे बड़ी सादगी से कहती हैं कि बनारसी अंग से अलग वे कुछ नहीं गातीं, लेकिन अन्य अंग की गायकी को वह समझती जरूर हैं।

ठुमरी और दादरा जैसी गायन शैलियों को हिंदुस्तानी संगीत में छोटी चीज के नाम से जाना जाता था।इस गायकी में महारत रखनेवाली गायिकाओं का मुख्य क्षेत्र बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद, गया, पटना, आगरा और कलकत्ता था।

इस कड़ी में बड़ी मैना बाई, विद्याधरी बाई, मलका जान, गौहर जान, जानकी बाई, बड़ी कनीज़, हुस्ना बाई, मोती बाई, जद्दन बाई, काशी बाई, अख्तरी बाई, केसर बाई, ज़ोहरा बाई, दुलारी बाई, हीरा बाई, राजेश्वरी बाई, टामी बाई, सृजन बाई, और अल्लाह जिलाई बाई से लेकर गिरजा देवी तक अनेकों नामचीन गायिकाओं का नाम यहां लिया जा सकता है।गायकी के अतिरिक्त ये फनकारा अदब व तहजीब की मुजस्सिम बुत कहलाती थीं।इनके कद्रदान राजा, जमींदार, अमीर-ओ-उमरा कराची से बर्मा और कश्मीर से मैसूर, हैदराबाद तक थे।डॉ. ज्योति सिन्हा ने अपनी किताब बनारसी ठुमरी की परंपरा में ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियां एवं उपलब्धियां (19वीं-20वीं सदी) में कछवा के जमींदार श्री दान बहादुर सिंह की महफ़िलों में भी रसूलन बाई के जाने का जिक्र किया है।

पूरब अंग की भावविभोर करनेवाली गायकी की चैनदारी, बोल-बनाव का लहजा, कहने का खास अंदाज, ठहराव इत्यादि रसूलन बाई की गायकी को एक ख़ास मक़ाम देता था।टप्पा गायकी में तो रसूलन बाई के मुकाबले कोई नहीं टिकता।बोल बांट या बंदिश की ठुमरी एवं बोल बनाव की ठुमरी दोनों ही बनारस में लोकप्रिय रहीं।उनकी गायकी में ‘टप्पा अंग’ प्रधान होता था।टप्पा और रसूलन मानो एक दूसरे के लिए ही बने हों।रसूलन बाई की गायकी का एक ख़ास अंदाज यह था कि वे किसी स्वर पर अधिक देर रुकती नहीं थीं।वहां आकर तुरंत कहीं और मुड़ जातीं।जब वे ऊपर का स्वर लेती हैं तो उनकी आवाज़ में एक ख़ास बदलाव महसूस होता है जो बहुत हद तक बेगम अख़्तर की शैली से मिलता जुलता है।नैना देवी को दिए अपने साक्षात्कार में वे स्वयं कहती हैं, ‘टप्पे में गला कहीं एक जगह रुक नहीं सकता।’ भारी और मर्दाना आवाज रसूलन की पहचान थी।ठुमरी, दादरा, टप्पा, होरी, चैती, कहरवा, कजरी, फ़ाग, गारी इत्यादि शैलियों में रसूलन बाई अपनी संगीत साधना और इन उस्तादों के आशीर्वाद से 14-15 साल की आयु तक पारंगत हो गईं।

रसूलन बाई ने 14 वर्ष की आयु में अपना प्रथम कार्यक्रम धनंजयगढ़ के दरबार में प्रस्तुत किया।यह सन 1916-17 की बात रही होगी।यहीं से उनका दरबारों में प्रस्तुति देने का सफर शुरू होता है।रामपुर, रतलाम, दरभंगा, रीवाँ, पन्ना और इंदौर जैसी बड़ी रियासतों में आपको सम्मान के साथ आमंत्रित किया जाने लगा।सन 1916 से 1946 तक के तीन दशकों का समय रसूलन बाई के जीवन का स्वर्ण काल कहा जा सकता है।बताते हैं कि आप नेपाल और अफ़गानिस्तान तक अपने गायन की प्रस्तुतियां देने गई थीं।ग्रामोफोन पर आप की रिकार्डिंग के भी प्रमाण सन 1935 के आस-पास से मिलने लगते हैं।सन 1947 में देश की आजादी के साथ जब रेडियो पर कार्यक्रमों की प्रस्तुतियां शुरू हुईं तो आपने लखनऊ और इलाहाबाद जैसे केंद्रों से कार्यक्रम देना शुरू किया।इलाहाबाद के प्रतिष्ठित दवे परिवार द्वारा आपके कार्यक्रमों के कई आयोजन इलाहाबाद में होते थे।बनारस में रेडियो केंद्र बाद में शुरू हुआ।अहमदाबाद रेडियो केंद्र से भी आपके कई कार्यक्रम प्रसारित हुए हैं।

आगे चलकर आपने दूरदर्शन पर भी कई कार्यक्रम रिकार्ड किए।हाफ़िज अहमद खां के साथ दूरदर्शन के लिए रिकार्ड किया गया आपका साक्षात्कार यूट्यूब पर उपलब्ध है।

रसूलन बाई द्वारा गाए गए गीतों, जिनके रिकार्ड या संदर्भ कहीं न कहीं मिलते हैं, प्रमुख हैं- फूल गेन्दवा न मारो लगत करेजवा में चोट, तरसत जियरा हमार, जा मैं तोसे नहीं बोलूं, चैत की निंदिया, बर जोरी करो ना, बिसरइयो ना बालम, सइयां विदेश गए, सइयां मोतिया हेराय गइली, आन-बान जियरा में लगे, कैसी बजायी श्याम, कंकर मोहे लागि जाहिये ना रे, जाग परी मैं तो पिया के जगाये, आंगन में मत सो, पनिया जो भरन गई, आज घुमावे, जिया में लगिया बान, श्याम नहीं आए घिर आई बदरी, तरसत जियरा हमार, ठाड़े रहियो बांके यार, मटकिया मोरी छीन लियो सांवरा, हमारा जिया जाये, हे राम सांवली रे सुरतिया, दीवाना डार दिया (ग़ज़ल), ए री फिरत सजन की, आज गुमानी, काहे प्रीत लगाई बालम (मुलतानी ख़याल), पनघटवा न जैबे, मान राजी रखना वे, रस के भरे तोरे नैन, कहवा से आए मोरे नान्हे के मिलनवा, पडल झीर-झीर बुंदिया, वो मियां जाने वाले, एही ठईया झुलनी हेरानी हो रामा, नाही परत मोका चैन, अकेली जिन जइयो राधे यमुना के तीर जैसे अनेकों गीत अलग-अलग शैलियों में रसूलन बाई ने गाए हैं।

दुर्भाग्य है कि उनके अधिकांश रिकार्ड अब नहीं मिलते।रसूलन बाई द्वारा गाए गए गीतों के बोल में कुछ शब्दों के बदलाव की चर्चा खूब रही।विशेष तौर पर ‘फूल गेन्दवा न मारो, लगत करेजवा में चोट।’ सन 1935 के पहले वाले रिकार्ड में ‘करेजवा’ शब्द की जगह ‘जोबनवा’ शब्द होने का दावा किया गया।सबा दीवान ने इस संदर्भ में काफ़ी जांच-पड़ताल की है।

‘द ऑदर सॉन्ग’ नामक शॉर्ट फिल्म सबा दीवान की इस संदर्भ में चर्चित भी रही है। ‘तवायाफ़नामा’ नामक अंग्रेजी किताब भी उन्होंने लिखी है जो काफी चर्चित रही। सन 1947 में देश आजाद हुआ और बनारस की तवायफ़ों के लिए नई मुसीबत शुरू हुई।तवायफ़ों को ‘खतरा’ मानते हुए इन्हें शहर से बाहर करने की मुहिम तेज शुरू हो गई।कोठों का बहिष्कार किया जाने लगा।लोग मुजरा सुनने आने में कतराने लगे।19वीं शताब्दी के प्रारंभ से ही तवायफों ने अपनी महफिलें काशी के चौराहों से लेकर संकरी गलियों में सजाई थी।काशी के संभ्रांत और रईस अपने महफिलों की शान इन्हीं तवायफों के संगीत से बढ़ाते।देशी राजे-रजवाड़े, बड़े जमींदार, अमीर-ओ-उमरा इन तवायफों पर बेहिसाब धन न्योछावर करते थे।बनारस के मशहूर राय परिवार के छग्गन राय कुछ सालों तक गौहर जान को बनारस में लेकर रहे, इसके लिए छग्गन राय गौहर की मां बड़ी मलका जान को प्रति माह एक निर्धारित रकम कलकत्ता भिजवाते थे।संभवतः 500 रुपये प्रति माह।धीरे-धीरे समय बदला तो ये तवाय़फें रईस संभ्रांत वर्ग के घरों में आयोजित होने वाले मुंडन, शादी, कर्ण छेदन, उपनयन इत्यादि संस्कारों में भी संगीत प्रस्तुत करने लगीं।

सन 1857 से 1957 का सौ वर्षों का कालखंड शास्त्रीय संगीत के लिए बड़े बदलावों एवं उतार चढ़ाव वाला रहा।1857 के विद्रोह के बाद कंपनी राज़ में बहुत बड़े बदलाव हुए।02 अगस्त 1858 को ब्रिटिश हाउस ऑफ कामंस में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1858 को उसका नाम बदलकर पास किया गया।भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रभुसत्ता को समाप्त कर दिया गया एवं ईस्ट इंडिया कंपनी की भारत संबंधी सारे अधिकार एवं संपत्तियां सीधे ब्रिटिश क्राउन को ट्रांसफर हो गईं।1857 के सशस्त्र विद्रोह ने कंपनी की चूलें हिला दी थीं।तवायफ़ों के क्रांतिकारियों से संबंध और उन्हें सहायता पहुंचाने की कई बातों के सामने आने के बाद से ही अंग्रेज हुकूमत सख़्त हो गई थी।अंग्रेज सरकार ने कानून द्वारा सभी तवायफ़ों को वेश्याओं की श्रेणी में रखकर उनकी गतिविधियों को अपराध की श्रेणी में सम्मिलित कर दिया।अंग्रेज तवायफ़ों एवं वेश्याओं में दिलचस्पी तो लेते रहे पर नेटिव म्युजिक को कोई तवज्जो नहीं देते थे।इसके संरक्षण की उन्होंने कभी कोई जरूरत नहीं समझी।अंग्रेजों का समर्थन अंग्रेजी में उच्च शिक्षित एक बड़े भारतीय वर्ग द्वारा भी अब होने लगा था।

तवायफ़ों को सामाजिक नैतिकता और आदर्श के लिए हमेशा ‘खतरनाक’ माना गया।सन 1946 से 1952 तक एक सरकारी आदेशानुसार उन महिलाओं के गायन प्रसारण पर रेडियो में पाबंदी थी, जिनका निजी जीवन सार्वजनिक तौर पर लांछित माना गया।इन्हीं सब का परिणाम हुआ कि रसूलन बाई ने 1947-48 के आस-पास मुजरा करना छोड़ दिया।यहीं ‘कुबेर के मकान’ को भी रसूलन बाई ने छोड़ दिया और शहर के किसी गली के एक मकान में रहने लगीं।ये उस कुलीनता का ही तथाकथित दबाव था कि बाई जी अब ‘देवी’ या ‘बेगम’ होने लगीं।कहते हैं कि इसी दबाव के तहत ही 44 की उम्र (सन 1946) में रसूलन बाई निकाह करती हैं।उनके शौहर मियां सुलेमान बनारसी साड़ियों के व्यापारी थे, जो रसूलन की महफ़िलों में पहले से आते-जाते थे।लेकिन आजादी के बाद उनके पाकिस्तान चले जाने का जिक्र भी कई जगह मिलता है।रसूलन बाई की स्थिति पर तहजीब हाफ़ी का वो शेर याद आता है कि-

तुम क्या जानो उस दरिया पर क्या गुजरी

तुमने तो बस पानी भरना छोड़ दिया।

रसूलन बाई के लिए नई परिस्थितियों में रेडियो बड़ा सहारा था।तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री डॉ. बी. वी. केसकर रसूलन बाई के कद्रदानों में से थे।इसी का सुखद परिणाम था कि रेडियो की विशिष्ट गायिकाओं की श्रेणी में रसूलन बाई शामिल रहीं।उनकी अधिकांश रिकार्डिंग लखनऊ, इलाहाबाद और दिल्ली में हुईं।भारत में रेडियो प्रसारण प्रायोगिक तौर पर 23 जुलाई, सन 1927 को भारत सरकार एवं इंडियन ब्राडकास्टिंग लिमिटेड के बीच समझौते के तहत प्रारंभ हुआ था।जब यह कंपनी सन 1930 में निस्तारण में चली गई तो इसका राष्ट्रीयकरण करते हुए नया नाम ‘इंडियन ब्राड कास्टिंग कॉरपोरेशन’ रखा गया।बाद  में इसका नाम ‘ऑल इंडिया रेडियो’ हुआ।इलाहाबाद केंद्र में रसूलन बाई से संबंधित रिकार्ड सन 1962-64 के बीच मिलते हैं।बहुत संभव है कि इसके पहले भी वे लखनऊ और दिल्ली जैसे केंद्रों से अपनी प्रस्तुतियां देती रही हों।संगीतकार पंडित वीडी पलुस्कर, ओंकारनाथ ठाकुर, उस्ताद अलाउद्दीन खां, फैयाज खां, बड़े गुलाम अली खां और रसूलन बाई लखनऊ केंद्र से लगातार जुड़ी रही हैं।

रसूलन बाई के जीवन में रेडियो की लोकप्रियता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।उनकी आवाज जन सामान्य तक पहुंची।अकादमिक गलियारों में उनकी चर्चा शुरू हुई और इसके सुखद परिणाम के रूप में सन 1957 में उन्हें पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के हाथों संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया जाता है।इसके बाद सन 1965 तक रसूलन बाई देशभर में अपने कार्यक्रमों की प्रस्तुतियां देती रहीं।लेकिन कोई निर्धारित आर्थिक स्रोत न होने के कारण जीवन कठिन हो गया था।ऐसे में कुछ लोग लिखते हैं कि अपनी शिष्या गीता बेन के कहने पर वे 1966-67 के आस-पास अहमदाबाद चली जाती हैं और वहां इसानपुर/एहसानपुर में रहने लगती हैं।यहां से वे रेडियो पर प्रस्तुतियां समय-समय पर देती रहीं।लेकिन बुढ़ापे से लड़ना अब उनके लिए कठिन हो रहा था।

यहीं रहते हुए सन 1968 में रसूलन बाई को लकवा मार देता है।जैसे-तैसे उससे उबरती हैं तो सितंबर सन 1969 में अहमदाबाद में हुए सांप्रदायिक दंगों में उनका घर भी जला दिया जाता है।वे अपनी जान बचाकर दिल्ली चली आती हैं।

इधर जो हमें नए संदर्भ मिले उसके हिसाब से रसूलन बाई अहमदाबाद से दिल्ली अपनी शिष्या नैना देवी के पास आती हैं और उन्हीं के साथ उनके काका नगर स्थित आवास में रहती हैं।इस बात को अधिक बल timescontent.comमें छपी उस खबर से भी मिलती है, जिसके अनुसार बीमार होने के कारण 18 मार्च 1972 को अस्पताल में उन्हें भर्ती किया जाता है।इस खबर के साथ एक तस्वीर भी प्रकाशित होती है जिसमें रसूलन बाई अस्पताल के बिस्तर पर बैठी हुई हैं और नैना देवी उनके बगल में खड़ी हैं।लेकिन यहां वे कितने दिनों तक रहती हैं इसकी जानकारी नहीं उपलब्ध होती।

पुराने आलेखों में अभी तक जो जानकारी दी गई है उसके अनुसार वे दिल्ली से इलाहाबाद चली गई थी और इलाहाबाद में आकाशवाणी वाली सड़क के किनारे वे चाय नमकीन की मामूली सी गुमटी के भरोसे बड़ी मुफ़लिसी में रह रही थी।यहीं रहते हुए 15 दिसंबर 1947 को रसूलन बाई ने अंतिम सांस ली।लेकिन मुझे लगता है कि ऐसा हुआ नहीं होगा।नैना देवी जो शुरू से इतने समर्पण के साथ रसूलन बाई से जुड़ी रहीं और सन 1972 तक उनकी तीमारदारी कर रही हैं, वे उन्हें इस तरह फुटपाथ पर रहने के लिए छोड़ देंगी, मुझे नहीं लगता।मुझे लगता है कि वे अपने अंतिम दिनों तक नैना देवी के साथ ही रही होंगी।इस पर इलाहाबाद और दिल्ली के 1974 के अख़बारों को खंगालने से शायद सही तथ्य हमारे सामने आ सके।

रसूलन बाई की इस समर्पित एवं संवेदनशील शिष्या नैना देवी की मृत्यु सन 1993 में होती है।नैना देवी ने शिष्या होने का अपना फर्ज़ बखूबी निभाया।फिर भी अगर इलाहाबाद की सड़क पर चाय नमकीन की मामूली सी गुमटी वाली बात सही है तो ये बेहद शर्मनाक है।पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के हाथों संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से सम्मानित इतनी बड़ी गायिका का ऐसा अंत अपने पीछे बहुत से सवालों को छोड़ जाता है।

इन सवालों से हर संवेदनशील समाज को जूझना चाहिए।ऐसा इसलिए क्योंकि जब भी कभी इतिहास के किसी मोड़ पर, भूत वर्तमान के कटघरे में खड़ा होकर गवाही देगा तो वह सबूतों के साथ होगा।ऐसे में एक सभ्य संवेदनशील समाज के रूप में हम मुंह छिपाना चाहेंगे और हम महसूस करेंगे कि हमारे कपड़े एक-एक कर उतारे जा रहे हैं, भरे बाजार।हमारी संवेदनहीनता यह संकेत दे रही है कि हम खतरे में है।

संपर्क सूत्र : मनीष कुमार मिश्रा , सहायक प्राध्यापक – हिन्दी विभाग के.एम.अग्रवालमहाविद्यालय कल्याण, महाराष्ट्र मो. 9082556682

संपर्क सूत्र : उषा आलोक दुबे, सहायक प्राध्यापक – हिन्दी विभाग एम. डी. महाविद्यालय परेल, महाराष्ट्र मो. 8655837077